मित्रता हो तो नि:स्वार्थ - ओशो
कौन तुम्हारा मित्र है ?
किसको तुम अपना मित्र कहते हो ?
क्योंकि सभी अपने स्वार्थों के लिए जी रहे हैं !
जिसको तुम मित्र कहते हो,
वह भी अपने स्वार्थ के लिये तुमसे जुडे हैं, और तुम भी अपने स्वार्थ के लिये उनसे जुड़े हो ! अगर मित्र वक्त पर काम न आये, तुम्हारी अपेक्षा के अनुरूप तो तुम मित्रता तोड़ देते हो !
बुद्धिमान लोग कहते हैं मित्र तो वही, जो वक्त पर काम आये !
लेकिन क्यों ?
वक्त पर काम आने का मतलब है कि जब मेरे स्वार्थ की जरूरत हो, तब वह सेवा को तत्पर रहे । लेकिन दूसरा भी यही सोचता है कि जब तुम वक्त पर काम आओ, तब मित्र हो !
लेकिन तुम काम में लाना चाहते हो दूसरे को यह कैसी मित्रता है ?
तुम मित्रता के नाम पर दूसरे का शोषण करना चाहते हो,
यह कैसा संबंध है ?
तुम्हारे सब संबंध स्वार्थ के हैं ।
इतना ध्यान रहे की तुम्हारे पास सब कुछ हो पर कोई ऐसा न हो जिसके साथ तुम उसे बाँट सको, शेयर कर सको, कोई ह्रदय के इतना करीब नहीं की जिससे अपने सुख-दुःख, भाव आवेग बाँट सको, तो तुम उस कुँए के सामान हो जिसमें से कोई एक बाल्टी पानी निकलने वाला भी नहीं है ।
जल्दी ही तुम सड़ोगे,
धीरे-धीरे तुम्हारे आनंद के स्रोत बंद हो जायेंगे, तुम एक गंदे पानी के डावरे हो कर रह जाओगे ।
निस्वार्थ मित्रता के संबंध तुम्हे तुम्हे जीवंत रखते हैं । तुम्हारे स्रोत खुले रहते हैं………
|| ओशो ||
0 Comments