आदमी जंगली है - ओशो
धर्म के नाम पर खूब राजनीति चलती रही है, चलती है, और लगता है आदमी को देखते हुए कि चलती ही रहेगी। और जब धर्म के नाम पर राजनीति चलती है तो बड़ी सुविधा हो जाती है राजनीति को चलने में; क्योंकि हत्यारे सुंदर मुखौटे लगा लेते हैं। जितना बुरा काम करना हो उतना सुंदर नारा चाहिए, उतना ऊंचा झंडा चाहिए, रंगीन झंडा चाहिए! आड़ में छिपाना होगा न फिर!
आदमी जंगली है, अभी तक आदमी नहीं हुआ! इसलिए कोई भी बहाना मिल जाए, उसका जंगलीपन बाहर निकल आता है। ये सब बहाने हैं! एक बहाना हटा दो, दूसरा बहाना ले लेगा, मगर लड़ाई जारी रहेगी; क्योंकि आदमी बिना लड़े नहीं रह सकता!
आदमी अभी उस जगह नहीं आया जहां शांति में आनंद पा सके। अभी तो वैमनस्य, द्वेष, ईर्षा , हिंसा-उस में ही उसे थोड़ी त्वरा, थोड़ा उन्मेष जीवन का मालूम होता है, थोड़ा मजा मालूम होता है। देखते नहीं, घर से गए हो दवा लेने पत्नी के लिए और राह पर दो आदमी लड़ रहे हैं, बस खड़े हो गए; भूल ही गए पत्नी, भूल गए दवा ! दो आदमी लड़ते थे, तुम्हें देखने के लिए खड़े हो जाने की क्या जरूरत थी? अशोभन है यह। यह तुम्हारी संस्कारशीलता का लक्षण नहीं है।
लड़ना या लड़ते हुओं को देखना एक ही वृति का प्रतीक है; तुम्हें कुछ न कुछ रस आ रहा है। और अगर दो आदमी लड़ते हुए और भीड़ देखती हुई, अचानक सहमत हो जाएं कि चलो भाई नहीं लड़ते चलो। तो सारी भीड़ उदास हो जाती है कि नाहक इतनी देर खड़े रहे और कुछ भी न हुआ! इतनी देर व्यर्थ ही खड़े रहे! और मजा ऐसा था, भीड़ में से लोग कह रहे थे–भाई, लड़ो मत! क्यों लड़ते हो, लड़ने में क्या रखा है! भीड़ में से एक-दूसरे को लोग पकड़ भी रहे थे कि कहीं झगड़ा न हो जाए। यह सब ऊपर-ऊपर था, भीतर आकांक्षा थी कि हो ही जाए, कि देख ही लें! अभी भी खून बहता हुआ देखकर, तुम्हारे भीतर कोई छिपा हुआ पशु है अचेतन में जो तृप्त होता है। फिर खून किस बहाने बहता है, इसकी फिक्र नहीं -खून बहना चाहिए!
तीन हजार साल के इतिहास में आदमी ने पांच हजार युद्ध लड़े हैं। लगता है आदमी यहां जमीन पर युद्ध लड़ने को ही पैदा हुआ है! और कितने-कितने अच्छे नामों पर युद्ध लड़े गए – इस्लाम खतरे में है, कि ईसाइयत खतरे में है, कि मातृभूमि खतरे में है, कि कम्यूनिज्म खतरे में है, कि लोकतंत्र खतरे में है; खतरे ही खतरे हैं सबको ! शांति के लिए युद्ध लड़े गए हैं, और मजा ! हम कहते हैं, युद्ध लड़ेंगे तो शांति हो जाएगी। यह तो ऐसा हुआ जैसे किसी को जीवन देने के लिए जहर पिलाओ ! किसी को बचाने के लिए उसकी गर्दन काटो ! लेकिन यह गणित जारी रहा। और ऐसा भी नहीं है कि एक मसला हल हुआ हो तो युद्ध समाप्त हुआ। एक मसला हल होता है, हम तत्क्षण दूसरा मसला खड़ा कर लेते हैं! हिंदुस्तान-पाकिस्तान बंटा था तो सोचा था कि चलो, अब हिंदू-मुस्लिम के दंगे न होंगे।
उनका देश हो गया मुसलमानों का अलग, हिंदुस्तान हो गया अलग। हिंदू-मुस्लिम दंगे थोड़े क्षीण भी पड़े, लेकिन नए दंगे शुरू हो गए। हिंदुस्तान में इतनी भाषाएं हैं, भाषाओं के नाम पर दंगे शुरू हो गए; इतने प्रदेश हैं, प्रदेशों के नाम पर दंगे शुरू हो गए। गुजराती और मराठी लड़ेंगे कि बंबई किसका हो! ये तो दोनों ही हिंदू थे। इनमें तो झगड़ा नहीं होना था। ये तो एक ही धर्म को मानते थे, एक ही राम को, एक ही कृष्ण को मानते हैं। लेकिन गुजराती और मराठी में झगड़ा हो जाएगा–बंबई किसका हो? राम और कृष्ण से लेना-देना किसको है–बंबई किसका हो! छोटी-मोटी सीमाओं पर, कि नर्मदा का जल किस प्रांत को कितना मिले, इस पर झगड़े हो जाएंगे। और नर्मदा को दोनों पूजते हैं। दोनों नर्मदा को पवित्र मानते हैं। लेकिन जब बांटने का सवाल आ गया, तो झगड़े खड़े हो जाएंगे। कि एक तहसील इस प्रदेश में रहे कि उस प्रदेश में, कि एक जिला इस प्रदेश में रहे कि उस प्रदेश में–छुरेबाजी हो जाएगी! कि हिंदी भाषा हो राष्ट्र की भाषा, कि कोई और भाषा हो राष्ट्र की भाषा–बस छुरे चल जाएंगे! तुम देखते हो, एक बहाना छूटता नहीं कि दूसरा बहाना मिल जाता है।
फिर देखा, पाकिस्तान में क्या हुआ? बंगाली और पंजाबी मुसलमान लड़ गए, जो कभी न लड़े थे ! क्योंकि पहले हिंदुओं से लड़ने में निकल जाती थी भीतर की जो पाशविकता है। अब हिंदू तो बचे नहीं; हिंदू तो उन्होंने साफ ही कर दिए। पाकिस्तान में हिंदू तो बचे नहीं; उसी दिन उन्होंने खतरा ले लिया। काटने की वृत्ति तो बची, हिंदू न बचे! अब काटने की वृत्ति क्या करेगी? पशु तो बचा, पुराना बहाना हाथ से चला गया! तो पाकिस्तान आपस में लड़ गया। तो पंजाबी मुसलमान ने बंगाली मुसलमान को इस तरह मारा, जिस तरह न तो कभी हिंदुओं ने मुसलमानों को मारा था न मुसलमानों ने हिंदुओं को मारा था। फिर तुम यह भी मत सोचना, कि इससे कुछ हल होता है। पाकिस्तान बंट गया – दो हिस्से हो गए।
पहले हिंदुस्तान बंटा और दो देश हुए, फिर पाकिस्तान बंटा और दो देश हो गए। और फिर जिस आदमी ने, मुजीबुर्रहमान ने बंगला को मुक्त कर लिया पाकिस्तान के कब्जे से उसकी क्या गति हुई? उसके साथ बंगालियों ने क्या व्यवहार किया? भून डाला ! पूरा परिवार–छोटे-छोटे बच्चे, दूध मुंहें, बच्चों से लेकर मुजीबुर्रहमान तक, सबको एक साथ भून डाला ! बंगाली बाबुओं से ऐसी तो आशा न थी, लेकिन बंगाली बाबुओं ने ऐसा कर दिखाया! पंजाबियों ने अगर थोड़ी ज्यादती की थी, समझ में आ सकती है बात। पंजाबी थोड़ा उस ढंग का आदमी है। लेकिन बंगाली बाबू…ढीली धोती, कि भाग भी न सकें…भागें तो अपनी ही धोती में फंस कर गिर जाएं! इनको क्या हुआ? बंगाली हो कि पंजाबी, भीतर पशु एक है। बहाने बदल जाते हैं, आदमी नहीं बदलता।
आदमी बदलेगा तो स्थिति बदलेगी। अब बहाने बदलने की बात हम छोड़ दें। बहाने तो पांच हजार साल में बहुत बार बदले, बात वहीं की वहीं बनी रहती है। आदमी को बदलें! और आदमी के बदलने में सबसे बड़ी कठिनाई क्या है? आदमी क्यों इतनी पशुता, इतनी हिंसा और घृणा से भरा हुआ है? मेरे देखे, हमने मनुष्य को प्रेम करने की कला नहीं सिखाई, इसलिए हमने मनुष्य को प्रेम की हवा नहीं दी, इसलिए हमने मनुष्य को प्रेम का स्वाद नहीं दिया, इसलिए। जिस व्यक्ति को भी प्रेम का स्वाद मिल जाए, उसके जीवन से घृणा अपने-आप विसर्जित हो जाती है। क्योंकि एक ही ऊर्जा है, जो प्रेम बनती है या घृणा बनती है। अगर प्रेम न बन पाए तो घृणा बनती है। एक ही ऊर्जा है, जो निर्माण बनती है और ध्वंस बनती है। निर्माण न बन पाए तो ध्वंस बनती है।
अब तक आदमी हमने जो निर्मित किया है जमीन पर, उसमें सृजनात्मकता के बीज हम नहीं डाल पाए हैं। इसलिए विध्वंस उसका स्वर है। फिर राष्ट्र के नाम पर, धर्म के नाम पर, जाति के नाम पर, वर्ण के नाम पर विध्वंस प्रकट होता है। जहर हो गई है वही शक्ति, जो खिल जाती तो गीत बनती और नाच बनती! जो प्रकट होती तो बांसुरी पर बजती, वही तलवार की धार हो गई है!
– ओशो
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