वर्ण व्यवस्था की वैज्ञानिकता - ओशो
समय बदल जाता है, परिस्थिति बदल जाती है, लेकिन जीवन के मूल सत्य नहीं बदलते हैं। और जो उन मूल सत्यों को अस्वीकार करता है, वह केवल कष्ट में, दुख में और चिंता में पड़ता है। सब कुछ बदल जाता है, लेकिन जीवन के जो आधार—सत्य हैं, वे नहीं बदलते हैं। वर्ण और आश्रम की व्यवस्था किसी समाज विशेष और किसी परिस्थिति विशेष के नियम पर निर्मित नहीं थी। वर्णाश्रम की व्यवस्था मनुष्य के चित्त के ही नियमों पर निर्भर थी। और आज भी उतने ही उपयोग की है, जितनी कभी हो सकती थी और कल भी उतने ही उपयोग की रहेगी। इसका यह मतलब नहीं है कि वर्ण व्यवस्था के नाम पर जो चल रहा है, वह उपयोगी है। जो चल रहा है, वह तो वर्ण व्यवस्था नहीं है। जो चल रहा है, वह तो वर्ण व्यवस्था के नाम पर रोग है, बीमारी है।
असल में सभी ढाचे सड़ जाते हैं। सत्य नहीं सड़ते, ढांचे सड़ जाते हैं। और अगर सत्यों को बचाना हो, तो सड़े हुए ढाचों को रोज अलग करने का साहस रखना चाहिए। जो ढांचा निर्मित हुआ था, वह तो सड़ गया, उसके प्राण तो कभी के खो गए, उसकी आत्मा तो कभी की लोप हो गई, सिर्फ देह रह गई है। और उस देह में हजार तरह की सड़ांध पैदा होगी, क्योंकि आत्मा के साथ ही उस देह में सड़ाध पैदा नहीं हो सकती थी।
दो बातें वर्ण के संबंध में। एक तो, जिस दिन वर्ण हाइरेरिकल हो गया, जिस दिन वर्ण नीचे—ऊंचे का भेद करने लगा, उसी दिन सड़ांध शुरू हो गई। वर्ण के सत्य में नीचे —ऊंचे का भेद नहीं था, वर्ण के सत्य में व्यक्तित्व भेद था। शूद्र ब्राह्मण से नीचा नहीं है, ब्राह्मण शूद्र से ऊंचा नहीं है। क्षत्रिय शूद्र से ऊंचा नहीं है, वैश्य ब्राह्मण से नीचा नहीं है। नीचे—ऊंचे की बात खतरनाक सिद्ध हुई। शूद्र शूद्र है, ब्राह्मण ब्राह्मण है। यह टाइप की बात है।
जैसे कि समझें, एक आदमी पांच फीट का है और एक आदमी छह फीट का है। तो पाच फीट का आदमी छह फीट के आदमी से नीचा नहीं है। पांच फीट का आदमी पांच फीट का आदमी है, छह फीट का आदमी छह फीट का आदमी है। एक आदमी काला है, एक आदमी गोरा है। काला आदमी गोरे आदमी से नीचा नहीं है।
काला आदमी काला है, गोरा आदमी गोरा है। पिगमेंट का फर्क है, चमड़ी में थोड़े—से रंग का फर्क है। मुश्किल से दो, तीन, चार आने’ के दाम का फर्क है। और चमडी के फर्क से कोई आदमी में फर्क नहीं होता। गोरे की चमड़ी में भी आज नहीं कल, तीन—चार आने का पिगमेंट काला डाला जा सकेगा, तो वह काली हो जाएगी। काले की चमड़ी गोरी हो जाएगी। गोरा गोरा है, काला काला है, ऊंचे—नीचे का फासला जरा भी नहीं है। एक आदमी के पास थोड़ी ज्यादा बुद्धि है, एक आदमी के पास थोड़ी कम बुद्धि है। ऊंचे—नीचे? का फिर भी कोई कारण नहीं है। कोई कारण नहीं है। जैसे पिगमेंट का फर्क है, ऐसे ही बुद्धि की मात्रा का फर्क है। है फर्क।’
वर्ण की व्यवस्था में फर्क, डिफरेंस की स्वीकृति थी, वेल्युएशन? नहीं था, मूल्यांकन नहीं था। और उचित है कि स्वीकृति हो, क्योंकि। जिस दिन स्वीकृति खो जाती है, उस दिन उपद्रव, उत्पात शुरू होता’ है। अब आज वर्ण टिकेगा नहीं। क्योंकि सडी हुई वर्ण की व्यवस्था, कोई लाख उपाय करे, टिक नहीं सकती। लेकिन वर्ण लौटेगा। यह व्यवस्था तो मरेगी, लेकिन वर्ण लौटेगा।
जितना मनुष्य के संबंध में वैज्ञानिक चिंतन बढ़ेगा आने वाली सदी में, वर्ण की व्यवस्था वापस लौट आएगी। हिंदुओं की वर्ण की व्यवस्था नहीं लौटेगी। वह तो गई, वह मर गई। वर्ण की व्यवस्था लौट आएगी और अब और ज्यादा वैज्ञानिक होकर लौटेगी। क्योंकि जितना मनुष्य के संबंध में समझदारी बढ़ रही है, जितना मनोविज्ञान विकसित हो रहा है, उतनी बात साफ होती जा रही है कि चार तरह के लोग हैं। उनको इनकार करने का कोई उपाय नहीं है। और हम कुछ भी उपाय करें, हम सारे लोगों को सिर्फ एक ही तरह से एक वर्ण का बना सकते हैं। और वह यह कि हम लोगों की आत्मा को बिलकुल नष्ट कर दें और लोगों को बिलकुल मशीनें बना दें। वर्ण की व्यवस्था उसी दिन असत्य होगी, जिस दिन आदमी मशीन हो जाएगा, आदमी नहीं होगा, उसके पहले असत्य नहीं हो सकती।
मशीनें एक—सी हो सकती हैं। फोर्ड की कारें हैं, तो लाख कारें एक—सी हो सकती हैं। रत्तीभर फर्क खोजा नहीं जा सकता। एक ढांचे में ढलती हैं, एक—सी हो सकती हैं। कारें इसीलिए एक—सी हो सकती हैं, क्योंकि उनके पास कोई आत्मा नहीं है। हा, आत्मा होगी, तो व्यक्ति एक—से कभी नहीं हो सकते। आत्मा का अर्थ ही भेद है। व्यक्तित्व का अर्थ ही अंतर है, डिफरेंस है। आपके पास व्यक्तित्व है, उसका मतलब ही यही है कि आप दूसरे व्यक्तियों से कहीं न कहीं भिन्न हैं। अगर आप बिलकुल भिन्न नहीं हैं, तो व्यक्तित्व नहीं है, आत्मा नहीं है। मनुष्य के पास जब तक आत्मा है, तब तक वर्ण का सत्य झुठलाया नहीं जा सकता है। हम इनकार कर सकते हैं।
एक आदमी कह सकता है कि हम ग्रेविटेशन को नहीं मानते, जमीन की कशिश को नहीं मानते। मत मानिए! इससे सिर्फ आपकी टांग टूटेगी। इससे ग्रेविटेशन का सत्य गलत नहीं होता। एक आदमी कह सकता है कि हम आक्सीजन के सत्य को नहीं मानते; हम श्वास लेंगे नहीं। तो ठीक है, मत लीजिए। इससे सिर्फ आप मरेंगे, आक्सीजन नहीं मरती। जीवन के नियम को इनकार किया जा सकता है, लेकिन इससे जीवन का नियम नष्ट नहीं होता, सिर्फ हम नष्ट होते हैं।
ही, जीवन के नियम पर हम झूठी व्यवस्थाएं भी खड़ी कर सकते हैं। और तब झूठी व्यवस्थाओं के कारण जीवन का नियम भी बदनाम हो जाता है। हमने जो हाइरेरिकल व्यवस्था निर्मित की ऊंचे—नीचे की, उससे बदनामी पैदा हुई; उससे वर्ण की व्यवस्था दूषित हुई। उससे वर्ण की व्यवस्था गंदी हुई, कंडेम्ह हुई। आज वह कंडेम्ह है, लेकिन वर्ण का सत्य कभी भी कंडेम्ह नहीं है।
और मैं आपसे कहना चाहूंगा कि यह पहली सदी है, जब पश्चिम के मनोविज्ञान ने पुन: इस बात को साफ करना शुरू कर दिया है कि दो व्यक्तियों के बीच पूरी समानता, पूरी एकता, पूरा एक—सा पन कभी भी सिद्ध नहीं किया जा सकता। और दुर्भाग्य का होगा वह दिन, जिस दिन विज्ञान —सब आदमियों को बराबर कर देगा, क्योंकि उसी दिन आदमी की आत्मा नष्ट हो जाएगी।
इसलिए वर्ण के सत्य में कहीं भी अंतर नहीं पड़ा है, पड़ेगा भी नहीं; पड़ना भी नहीं चाहिए; पड़ने भी नहीं देना। लड़ना भी पड़ेगा आज नहीं कल आदमी को, कि हम अलग हैं, भिन्न हैं, और हमारी भिन्नता कायम रहनी चाहिए। हालांकि राजनीति भिन्नता को तोड़ डालने की पूरी चेष्टा में लगी है।
सब भिन्नता टूट जाए और आदमी मशीन जैसा व्यवहार करे, तो राजनीतिज्ञों के लिए बड़ी सरल और सुलभ हो जाएगी बात। तब डिक्टेटोरियल हुआ जा सकता है, तब तानाशाही लाई जा सकती है, तब टोटेलिटेरियन हुआ जा सकता है। तब व्यक्तियों की कोई छू चिंता करने की जरूरत नहीं है, व्यक्ति हैं ही नहीं। लेकिन जब तक व्यक्ति भिन्न हैं, तभी तक लोकतंत्र है जगत में। जब तक व्यक्तियों में आत्मा है, तभी तक रस भी है जगत में, वैविध्य भी है जगत में, सौंदर्य भी है जगत में, रंग—बिरंगापन भी है जगत में।
वर्ण की व्यवस्था इस रग—बिरंगेपन को, इस वैविध्य को अंगीकार करती है। ऊंच—नीच की बात गलत है। और जो लोग ऊंच—नीच बनाए रखने के लिए वर्ण की व्यवस्था का समर्थन कर रहे हैं, वे लोग खतरनाक हैं। लेकिन मैं वह बात नहीं कह रहा हू। मैं कुछ और ही बात कह रहा हूं। मैं यह कह रहा हूं, आदमी चार प्रकार के हैं। हम चोहे मानें और चाहे हम न मानें।
आज अमेरिका में तो कोई वर्ण व्यवस्था नहीं है। लेकिन सभी लोग वैज्ञानिक नहीं हैं। और वैज्ञानिक शुद्ध ब्राह्मण है। आइंस्टीन में और ब्राह्मण में कोई भी फर्क नहीं है। आज पश्चिम का वैज्ञानिक ठीक वही है, जैसा ब्राह्मण था। सारी खोज उसकी सत्य की है, और सत्य की खोज के लिए वह सब तकलीफें झेलने को राजी है। लेकिन सभी लोग सत्य की खोज के लिए उत्सुक नहीं हैं। राकफेलर ब्राह्मण नहीं है। और न मार्गन ब्राह्मण है। और न रथचाइल्ड ब्राह्मण है। वे वैश्य हैं शुद्धतम, शुद्धतम वैश्य हैं। धन ही उनकी खोज है। धन ही उनकी आकांक्षा है, धन ही सब कुछ है। लेकिन एक बहुत बडा वर्ग है सारी पृथ्वी पर, जो लड़ने के लिए उत्सुक और आतुर है। उसकी लड़ाई के ढंग भले बदल जाएं, लेकिन वह लड़ने के लिए उत्सुक और आतुर है।
नीत्से ने कहा है कि जब कभी मैं रास्ते पर सिपाहियों की संगीनें धूप में चमकती हुई देखता हूं, और जब कभी मैं सैनिकों के जूतों की आवाज सड़क पर लयबद्ध सुनता हूं तो मुझे लगता है, इससे श्रेष्ठ कोई भी संगीत नहीं है। अब यह जो नीत्से है, इसको मोजार्ट बेकार है, बीथोवन बेकार है, इसके लिए वीणा बेकार है। यह कहता है, जब चमकती हुई संगीनें सुबह के सूरज में दिखाई पड़ती हैं, तो उनकी चमक में जो गीत है, इससे सुंदर कोई गीत नहीं है। और जब सैनिक रास्ते पर चलते हैं, और उनके जूतों की लयबद्ध आवाज में जो भाव है, वह किसी संगीत में नहीं है। यह आदमी जो भाषा बोल रहा है, वह ब्राह्मण की नहीं है। यह आदमी जो भाषा बोल रहा है, वह शूद्र की नहीं है। यह आदमी जो भाषा बोल रहा है, वह क्षत्रिय की है। यह रहेगा। इस आदमी को हम इनकार करेंगे, तो यह बदला लेगा।
किसी आदमी को इनकार नहीं किया जा सकता। प्रत्येक आदमी को उसके टाइप के फुलफिलमेंट के लिए, उसके व्यक्तित्व के रूप के अनुसार, अनुकूल, समाज में सुविधा होनी चाहिए। शूद्र भी हैं। कई दफा शूद्र अगर दूसरे घर में पैदा हो जाए, तो बहाने खोजकर शूद्र हो जाता है। बहाने खोजकर शूद्र हो जाता है। अगर वह ब्राह्मण के घर में पैदा हो जाए, तो वह कहेगा कि नहीं, ब्रह्म की खोज से क्या होगा? मैं तो कोढ़ी की सेवा करूंगा! वह कहेगा, ध्यान—व्यान से कुछ भी नहीं होगा। धर्म यानी सर्विस, सेवा!
अगर इस मुल्क के धर्मों में हम खोज करने जाएं, तो इस मुल्क का धर्म मौलिक रूप से ब्राह्मणों ने निर्मित किया। इसलिए इस मुल्क के धर्म में सेवा नहीं आ सकी, सर्विस का कंसेप्ट नहीं आया। इस मुल्क के धर्म ने सेवा की बात ही नहीं की कभी, क्योंकि वह मौलिक रूप से ब्राह्मण ने उसको निर्मित किया था। वह एक वर्ण के द्वारा निर्मित था, उसकी दृष्टि उसमें प्रवेश कर गई।
इसलिए पहली दफे जब क्रिश्चिएनिटी से हिंदू और जैन और बौद्धों की टक्कर आई, तो बहुत मुश्किल में पड़ गए वे। क्योंकि क्रिश्चिएनिटी जिस घर से आई थी, जीसस एक बढ़ई के बेटे थे। वे एक शूद्र परिवार से आते हैं। जन्म उनका एक घुड़साल में होता है। जिंदगी के जो उनके बचपन का काल है, वह बिलकुल ही समाज का जो चौथा वर्ग है, उसके बीच व्यतीत हुआ है। इसलिए जीसस ने जब धर्म निर्मित किया, तो उस धर्म में सर्विस मौलिक तत्व बना। इसलिए सारी दुनिया में ईसाई के लिए सेवा धर्म का श्रेष्ठतम रूप है। ध्यान नहीं, मेडिटेशन नहीं, सर्विस! ब्रह्म कातन नहीं, पड़ोसी की सेवा! और इसलिए ईसाइयत ने सारी दुनिया में जो ब्राह्मण से उत्पन्न धर्म थे, उन सब को कंडेम्ह कर दिया।
बुद्ध और महावीर पैदा तो हुए क्षत्रिय घरों में, लेकिन उनके पास बुद्धि ब्राह्मण की थी। और यह भी जानकर आपको हैरानी होगी कि। महावीर क्षत्रिय घर से आए, लेकिन महावीर का जो धर्म निर्मित किया, वह जिन गणधरों ने किया, वे ग्यारह के ग्यारह ब्राह्मण थे। महावीर ने जो बातें कहीं, उनको जिन्होंने संगृहीत किया, वे ग्यारह ही ब्राह्मण थे। महावीर के ग्यारह जो बड़े शिष्य हैं —ग्यारह बड़े शिष्य, जिन्होंने महावीर के सारे धर्मशास्त्र निर्मित किए —वे ग्यारह के ग्यारह ब्राह्मण थे। इसलिए कोई उपाय न था कि हिंदुस्तान का कोई भी धर्म सेवा पर जोर दे सके।
हां, विवेकानंद ने जोर दिया, क्योंकि विवेकानंद शुद्र परिवार से आते हैं, कायस्थ हैं। इसलिए विवेकानंद ने रामकृष्ण मिशन को ठीक क्रिश्चियन मिशनरी के ढंग पर निर्मित किया। हिंदुस्तान में सेवा के शब्द को लाने वाला आदमी विवेकानंद है। फिर गांधी ने जोर दिया।
यह टाइप की बात है। ब्राह्मण की कल्पना के बाहर है कि शूद्र के पैर दबाने से ब्रह्म कैसे मिल जाएगा! शूद्र की कल्पना के बाहर है कि आंख बंद करके शून्य में उतर जाने से ब्रह्म कैसे मिल जाएगा! क्षत्रिय की कल्पना के बाहर है कि बिना लड़े जब कुछ भी नहीं मिलता, तो ब्रह्म कैसे मिल जाएगा! वैश्य की कल्पना के बाहर। है कि जब धन के बिना कुछ भी नहीं मिलता, तो धर्म कैसे मिल जाएगा! वैश्य अगर पहुंचेगा भी धर्म के पास, तो धन से ही पहुंचेगा। ये टाइप हैं। और जब मैं यह कह रहा हूं कि व्यक्तियों के टाइप का सवाल है।
वर्ण की धारणा समाज के बीच नीच—ऊंच का प्रश्न नहीं है। वर्ण की धारणा समाज के बीच व्यक्ति वैभिन्य का प्रश्न है। और इसलिए दुनिया में चार तरह के लोग सदा रहेंगे और चार तरह के धर्मों की धारणा सदा रहेगी। हा, इन चार से मिल—जुलकर भी बहुत—सी धारणाएं बन जाएंगी, लेकिन वे मिश्रित होंगी। लेकिन चार शुद्ध स्वर धर्मों के सदा पृथ्वी पर रहेंगे, जब तक आदमी के पास आत्मा है। और वह समाज स्वस्थ समाज होगा, जो इस भेद को इनकार न करे—क्योंकि इनकार करने से नियम नहीं मिटता, सिर्फ समाज को नुकसान होता है—जो इस भेद को स्वीकार कर ले।
अब उलटी हालतें होती हैं न! अगर रामकृष्ण मिशन में कोई आदमी संन्यासी हो जाए, तो वे उससे कहेंगे, सेवा करो। वह टाइप अगर ब्राह्मण का है, तो मुश्किल में पड़ जाएगा। उसकी कल्पना के बाहर होगा, कैसी सेवा! सेवा से क्या होगा? लेकिन अगर कोई सेवाभावी व्यक्ति बुद्ध का अनापानसती योग साधने लगे—कि। सिर्फ श्वास पर ध्यान करो—तों वह सेवाभावी व्यक्ति कहेगा, यह क्या पागलपन है! नानसेंस। श्वास पर ध्यान करने से क्या होगा? कुछ करके दिखाओ! लोग गरीब हैं, लोग भूखे हैं, लोग बीमार हैं। उनकी सेवा करो।
ये व्यक्तियों के भेद हैं। और अगर इन भेदों को हम वैज्ञानिक रूप से साफ—साफ न समझ लें, तो बडी कठिनाई होती है। लेकिन हमारा युग भेद को तोड़ रहा है, कई तरह से तोड़ रहा है। जैसे उदाहरण के लिए आपको कहूं। स्त्री और पुरुष का बायोलाजिकल भेद, ब्राह्मण और क्षत्रिय का साइकोलाजिकल भेद है। शूद्र और वैश्य का मनोवैज्ञानिक भेद है, स्त्री और पुरुष का जैविक भेद है। लेकिन हमने भेद तोड़ने का तय कर रखा है। हम भेद को इनकार करने को उत्सुक हैं। तो हमने पहले वर्णों को तोड़ने की कोशिश की सारी दुनिया में। एक तो सारी दुनिया में वर्ण बहुत स्पष्ट नहीं थे, सिर्फ इसी मुल्क में थे। हमने उनको तोड़ने की कोशिश की। हमने करीब—करीब उनको जराजीर्ण कर दिया। अब एक दूसरा जैविक भेद है स्त्री—पुरुष का, उसको भी तोड़ने की कोशिश की जा रही है।
तो एक बहुत मजेदार घटना घट रही है। वह घटना यह घट रही है कि लड़कियां यूरोप और अमेरिका में लड़कों के कपडे पहन रही हैं और लड़के लड़कियों जैसे बाल बढ़ा रहे हैं। दोनों करीब आ रहे हैं। बायोलाजिकल भेद तोड़ने की कोशिश चल रही है। लेकिन इससे क्या होगा? इससे क्या भेद टूट जाएगा? इससे भेद नहीं टूटेगा, सिर्फ लड़कियां कम लड़कियां हो जाएंगी, और लड़के कम लड़के हो जाएंगे; और दोनों के बीच जो फासले से, भेद से, जो रस पैदा होता था, वह क्षीण हो जाएगा। इसलिए आज यूरोप और अमेरिका में लड़के और लड़की के बीच से रोमांस विदा हो गया है, रोमांस नहीं है। हो नहीं सकता। वह भेद पर निर्भर है। कितना भेद है, उतना रस है। जितना भेद टूटा, उतना रस टूट जाता है।
हम सब तरह के भेद तोड़ने को पागल लोग हैं। भेद रहने ही चाहिए। उसका मतलब लेकिन यह नहीं कि स्त्री छोटी है और पुरुष बड़ा है। वह गलत बात है। भेद के आधार पर ऊंचाई—नीचाई तय करना गलत बात है। सब भेद हॉरिजाटल (Horizontal) हैं। कोई भेद वर्टिकल (Vertical)नहीं है। न तो पुरुष ऊंचा है और न तो स्त्री ऊंची है। लेकिन इसका यह मतलब नहीं है कि पुरुष और स्त्री एक हैं। पुरुष अलग है, स्त्री अलग है। ऊंचा—नीचा कोई भी नहीं है। लेकिन भेद स्पष्ट है और भेद स्पष्ट रहना चाहिए।
और स्त्री को पूरी कोशिश करनी चाहिए कि वह कितनी स्त्रैण हो सके, और पुरुष को पूरी कोशिश करनी चाहिए कि वह कितना पुरुष हो सके। और स्त्री जितनी ज्यादा स्त्री, पुरुष जितना ज्यादा पुरुष, उन दोनों के बीच के जीवन का रस उतना ही गहरा होगा, आकर्षण उतना ही गहरा होगा। उन दोनों के बीच प्रेम के प्रवाह की धारा उतनी ही तीव्र होगी। जितना कम पुरुष और जितनी कम स्त्री, तो स्त्री नंबर दो का पुरुष हो जाती है और पुरुष नंबर दो की स्त्री हो जाता है। और वे दोनों करीब तो बहुत आ जाते हैं, लेकिन उनके बीच की पोलैरिटी टूट जाती है, और उनके बीच का रस टूट जाता है। आज पहली दफे पश्चिम में स्त्री और पुरुष के बीच का जो रस—संगीत था, वह टूट गया है।
वर्ण मनोवैज्ञानिक भेद हैं। और समाज में उनसे भी रस—संगीत पैदा होता है। एकसुरा समाज ऐसा ही है जैसा इकतारा बजता है। इकतारे का भी थोड़ा रस तो है, लेकिन उबाने वाला है। और इकतारा रस दे सकता है अगर और वाद्यों के साथ बजता हो। अकेले ही बजता रहे, तो घबड़ाहट हो जाती है।
मैंने एक घटना सुनी है, कि एक सज्जन वीणा बजाते हैं। लेकिन बस वे एक तार को और एक ही जगह दबाए चले जाते हैं। महीनों हो गए। उनकी पत्नी, उनके बच्चे बहुत घबड़ा गए हैं। और एक दिन उनके पड़ोसियों ने भी सबने हाथ जोड़कर प्रार्थना की कि आप क्या कर रहे हैं! हमने औरों को भी बजाते देखा है, लेकिन हाथ चलता है, अलग तार छुए जाते: हैं, अलग दबाव दिया जाता है। यह क्या पागलपन है कि एक ही जगह उंगली को दबाए हैं आप! और अब महीनों हो गए, वहीं दबाए चले जा रहे हैं! हम घबडा गए हैं। उन सज्जन ने कहा कि तुम्हें पता नहीं, दूसरे लोग ठीक स्थान खोज रहे हैं, मुझे मिल गया है! वे वहीं अपना सब.। इसलिए वे लोग इधर—उधर हाथ फैलाते हैं। मुझे कोई जरूरत न रही। मैं मंजिल पर आ गया हूं। अब मैं उसी को बजाता रहूंगा।
लेकिन यह आदमी तो पागल है, पड़ोस के लोगों को भी पागल कर देगा।
जीवन एक संगीत है, लेकिन संगीत अर्थात एक आर्केस्ट्रा। उसमें बहुत विभिन्न स्वर चाहिए। उसमें क्षत्रिय की चमक भी चाहिए; उसमें शूद्र की सेवा भी चाहिए। उसमें ब्राह्मण का तेज भी चाहिए; उसमें वैश्य की खोज भी चाहिए। उसमें सब चाहिए। और इनमें ऊपर—नीचे कोई भी नहीं है। और यह —सत्य आज भी असत्य नहीं हो गया और कल भी असत्य नहीं हो जाने वाला है।
– ओशो
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