Vichar Kya Hai ? Vichar Se Kaise Bache ? - Osho

विचार क्या है ? विचार से कैसे बचें ? - ओशो 
Vichar Kya Hai ? Vichar Se Kaise Bache ? - Osho

सब विचार बाहर के संबंध में चल रहे हैं। चौबीस घंटे बाहर के लिए सोच रहे हैं। बाहर को सोच रहे हैं। आख खुलती है तो बाहर देखते हैं, आख बंद होती है तो बाहर देखते हैं, क्योंकि बाहर से अंकित रूप और चित्र, इमेजेस आख बंद होने पर जाग जाते हैं, और हमें घेर लेते हैं। एक वस्तुओं का जगत बाहर है और भीतर भी बाहर से प्रतिध्वनित एक विचारों का जगत है। वह भीतर होकर भी बाहर है, क्योंकि ‘मैं’ साक्षी की भांति उसके बाहर ही होता हूं। उसे भी मैं देखता हूं। इसलिए वह भी बाहर ही है। वस्तुएं घेरे हैं और विचार घेरे हैं। पर गहरा निरीक्षण करेंगे तो ज्ञात होगा कि वस्तुओं का घेरा आत्म—शान के लिए बाधा नहीं है। बाधा विचार का घेरा है। वस्तुएं आत्मा को घेर भी कैसे सकती हैं? पदार्थ केवल पदार्थ को घेरता है। आत्मा विचार से घिरी है। दर्शन की, चैतन्य की धारा विचार की ओर बह रही है। विचार और विचार और केवल विचार हमारे सन्मुख है। दर्शन उनसे ही आच्छादित है।

विचार से विमुख और निर्विचार, थॉटलेसनेस के सन्मुख होना है। यही दिशा क्रांति है। यह कैसे होगा? विचार कैसे पैदा होते हैं? यह जानना जरूरी है, तभी उन्हें जन्मने से रोका जा सकता है।

साधारणतया उनकी उत्पत्ति के सत्य को जाने बिना ही तथाकथित साधक उनके दमन, सप्रेशन में लग जाते हैं। इससे विक्षिप्त तो कोई हो सकता है, विमुक्त नहीं हो सकता है। विचार के दमन से कोई अंतर नहीं पड़ता है, क्योंकि वे प्रतिक्षण नये—नये उत्पन्न हो जाते हैं। वे पौराणिक कथाओं के उन राक्षसों की भांति हैं, जिनके एक सिर को काटने पर दस सिर पैदा हो जाते थे।

मैं विचारों को मारने को नहीं कहता हूं। वे स्वयं ही प्रतिक्षण मरते रहते हैं। कौन सा विचार बहुत देर टिकता है? विचार बहुत अल्पजीवी है। कोई भी विचार कहां ज्यादा जीता है? विचार तो नहीं टिकता, पर विचार— प्रक्रिया, थॉट प्रोसेस टिकती है।

एक—एक विचार तो अपने आप मर जाता है, पर विचार—प्रवाह नहीं मरता है। एक विचार मर भी नहीं पाता है कि दूसरा उसका स्थान ले लेता है। यह स्थानपूर्ति बहुत त्वरित है।

यही समस्या है। विचार की मृत्यु नहीं, उसकी त्वरित उत्पत्ति वास्तविक समस्या है। विचार को इसलिए मैं मारने को नहीं कहता हूं। मैं उसके गर्भाधान को समझने और उससे मुक्त होने को कहता हूं। जो विचार के गर्भाधान के विज्ञान को समझ लेता है, वह उससे मुक्त होने का मार्ग सहज ही पा जाता है।

और जो यह नहीं समझता है, वह स्वयं ही एक ओर विचार पैदा किए जाता है और दूसरी ओर उनसे लड़ता भी है। इससे विचार तो नहीं टूटते, विपरीत वह स्वयं ही टूट जाता है।

मैं पुन: दोहराता हूं कि विचार समस्या नहीं, विचार की उत्पत्ति समस्या है।

वह कैसे पैदा होता है, यह सवाल है। उसकी उत्पत्ति पर विरोध हो या कहें कि विचार का जन्म—निरोध हो तो पूर्व से जन्मे विचार तो क्षण में विलीन हो जाते हैं। उनकी निर्जरा तो प्रतिक्षण हो रही है, पर निर्जरा हो नहीं पाती है, क्योंकि नयों का आसव और आगमन होता चला जाता है। मैं कहना चाहता हूं कि निर्जरा नहीं करनी है, केवल आस्रव—निरोध करना है। आस्रव—निरोध ही निर्जरा है।

यह हम सब जानते हैं कि चित्त चंचल है। इसका अर्थ क्या है? इसका अर्थ है कि कोई भी विचार दीर्घजीवी नहीं है। विचार पलजीवी है। वह तो जन्मता है और मर जाता है। उसके जन्म को रोक लें तो उसकी हत्या की हिंसा से भी बच जाएंगे और वह अपने आप विलीन भी हो जाता है।

विचार की उत्पत्ति कैसे होती है?

विचार की उत्पत्ति, उसका गर्भाधान, बाह्य जगत के प्रति हमारी प्रतिक्रिया, रिएक्शन से होता है। बाहर घटनाओं और वस्तुओं का जगत है। इस जगत के प्रति हमारी प्रतिक्रिया ही हमारे विचारों की जन्मदात्री है।

मैं एक फूल को देखता हूं— ‘ देखना’ कोई विचार नहीं है और यदि मैं देखता ही रहूं तो कोई विचार पैदा नहीं होगा। पर मैं देखते ही कहता हूं कि ‘ फूल बहुत सुंदर है ‘ और विचार का जन्म हो जाता है। मैं यदि मात्र देखूं तो सौंदर्य की अनुभूति तो होगी, पर विचार का जन्म नहीं होगा। पर अनुभूति होते ही हम उसे शब्द देने में लग जाते हैं।

अनुभूति को शब्द देते ही विचार का जन्म हो जाता है। यह प्रतिक्रिया, यह शब्द देने की आदत, अनुभूति को, दर्शन को विचार से आच्छादित कर देती है। अनुभूति दब जाती है, दर्शन दब जाता है। और शब्द चित्त में तैरते रह जाते हैं। ये शब्द ही विचार हैं।

ये विचार अत्यंत अल्पजीवी हैं। और इसके पहले कि एक विचार मरे हम दूसरी अनुभूति को विचार में परिणत कर लेते हैं। फिर यह प्रक्रिया जीवन भर चलती रहती है। और हम शब्दों से इतने भर जाते और दब जाते हैं कि स्वयं को ही उनमें खो देते हैं। दर्शन को शब्द देने की आदत छोड़ना विचार का जन्म—निरोध है। इसे समझें।

मैं आपको देख रहा हूं और मैं आपको मात्र देखता, जस्ट सीइंग ही रहूं और इस दर्शन को कोई शब्द न दूं तो क्या होगा? आप कभी कल्पना भी नहीं कर सकते हैं कि क्या होगा? इतनी बड़ी क्रांति होगी कि जीवन में उससे बड़ी कोई क्रांति, रिवोल्‍यूशन नहीं होती है। शब्द बीच में आकर उस क्रांति को रोक लेते हैं। विचार का जन्म उस क्रांति में अवरोध हो जाता है।

यदि मैं आपको देखता ही रहूं और कोई शब्द इस दर्शन को न दूं— मात्र देखता ही रहूं तो आपको देखते— देखते मैं पाऊंगा कि एक अलौकिक शांति मेरे भीतर अवतरित हो रही है, एक शून्य परिव्याप्त हो रहा है, क्योंकि शब्द का न होना ही शून्य है, और इस शून्य में चेतना की दिशा परिवर्तित होती है, फिर आप ही नहीं दीखते हैं, वरन क्रमश: वह भी उभरने लगता है जो कि आपको देख रहा है। चेतना—क्षितिज पर एक नया जागरण होता है जैसे कि हम किसी स्वप्न से जाग उठे हों और एक निर्मल आलोक से और एक अपरिसीम शांति से चित्त भर जाता है।

इस आलोक में स्वयं का दर्शन होता है।

इस शून्य में सत्य का अनुभव होता है।

मैं अंत में यही कहूंगा कि इस साधना—शिविर में ‘दर्शन’ शब्द से आच्छादित न हों, यही प्रयोग हमें करना है। इस प्रयोग को मैं ‘सम्यक स्मृति’, राइट माइंडफुलनेस कहता हूं। यह स्मृति रखनी है, यह होश, अवेअरनेस रखना है कि शब्द का संगठन न हो। शब्द बीच में न आए। यह हो सकता है, क्योंकि शब्द केवल हमारी आदत है।

एक नवजात शिशु जगत को बिना शब्द के देखता है। वह शुद्ध प्रत्यक्षीकरण है। फिर धीरे— धीरे वह शब्द की आदत सीखता है, क्योंकि बाह्य जगत और बाह्य जीवन के लिए वह सहयोगी और उपयोगी है।

पर जो बाह्य जीवन के लिए सहयोगी है, वही अंतस जीवन को जानने में बाधा हो जाता है। और इसलिए एक बार फिर वृद्धों को भी नवजात शिशु के शुद्ध दर्शन को जगाना पड़ता है, ताकि वे स्वयं को जान सकें। शब्द से जगत को जाना, फिर शून्य से स्वयं को जानना होता है।

इस प्रयोग में हम क्या करेंगे? शांत बैठेंगे। शरीर को शिथिल, रिलैक्स और रीढ़ को सीधा रखेंगे। शरीर के सारे हलन—चलन, मूवमेंट को छोड़ देंगे। शांत, धीमी, पर गहरी श्वास लेंगे। और मौन, अपनी श्वास को देखते रहेंगे और बाहर की जो ध्वनियां सुनाई पड़े, उन्हें सुनते रहेंगे। कोई प्रतिक्रिया नहीं करेंगे। उन पर कोई विचार नहीं करेंगे। शब्द न हों और हम केवल साक्षी हैं, जो भी हो रहा है, हम केवल उसे दूर खड़े जान रहे हैं ऐसे भाव में अपने को छोड़ देंगे। कहीं कोई एकाग्रता, कनसनट्रेशन नहीं करनी है। बस चुप जो भी हो रहा है उसके प्रति जागरूक बने रहना है।

सुनो! आंखें बंद कर लो और सुनो। चुपचाप मौन में सुनो। चिड़ियों की टीवी—टुट, हवाओं के वृक्षों को हिलाते थपेड़े, किसी बच्चे का रोना और पास के कुएं पर चलती हुई रेट की आवाज— और बस सुनते रहो अपने भीतर श्वास का स्पंदन और हृदय की धड़कन और फिर एक अभिनव शांति और सन्नाटा उतरेगा और आप पाओगे कि बाहर ध्वनि है पर भीतर निस्तब्धता है। और आप पाओगे कि एक नये शांति के आयाम में प्रवेश हुआ है।

तब विचार नहीं रह जाते हैं, केवल चेतना रह जाती है। और इस शून्य के माध्यम में ध्यान, अटेंशन उस ओर मुड़ता है जहां हमारा आवास है। हम बाहर से घर की ओर मुड़ते हैं।

दर्शन बाहर लाया है, दर्शन ही भीतर ले जाता है। केवल देखते रहो—देखते रहो—विचार को, श्वास को, नाभि—स्पंदन को। और कोई प्रतिक्रिया मत करो। और फिर कुछ होता है, जो हमारे चित्त की सृष्टि नहीं है जो हमारी सृष्टि नहीं है, वरन जो हमारा होना है, हमारी सत्ता है, जो धर्म है, जिसने हमें धारण किया है वह उदघाटित हो जाता है और हम आश्चर्यों के आश्चर्य स्वयं के समक्ष खड़े हो जाते हैं।

– ओशो

[साधना-पथ # 2]


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