प्रेम मूलतः चित्त की एक स्थिति है
"असली बात संबंध नहीं है परन्तु एक स्थिति है; तुम प्रेम में होते नहीं अपितु तुम प्रेम होते हो। जब भी मैं तुम से प्रेम की बात करता हूं तब यह स्मरण रहे: मैं प्रेम की स्थिति की बात कर रहा हूं। हां, संबंध बिल्कुल सही बात है, परन्तु जब तक तुम प्रेम की स्थिति को न उपलभ्ध कर लो, संबंध झूठे होंगे। तब संबंध न केवल ढ़ोंग है बल्कि एक खतरनाक ढ़ोंग है, क्योंकि वह तुम्हें मूर्ख बनाता रहेगा; वह तुम्हें महसूस करवाता रहेगा कि तुम्हें पता है प्रेम क्या है, और वास्तव में तुम्हें पता है नहीं। प्रेम मूलतः तुम्हारे होने की स्थिति है; तुम प्रेम में होते नहीं, तुम प्रेम होते हो।
"और वह प्रेम किसी से प्रेम में पड़ने से नहीं उगता। वह प्रेम भीतर जाने से उगता है--गिरने से नहीं अपितु उठने से, ऊपर उठने से, तुम्हारे स्वयं से ऊपर उठने से। यह एक प्रकार का उर्ध्वगमन है. एक व्यक्ति प्रेम होता है जब उसके भीतर मौन होता है; यह मौन का गीत है। बुद्ध प्रेम हैं, जीसस प्रेम हैं--वे किसी विशेष व्यक्ति के प्रेम में नहीं हैं, अपितु स्वयं प्रेम हैं। उनका होना ही प्रेम है। वह किसी विशेष व्यक्ति के लिए नहीं बह रहा, वह सभी दिशाओं में फैल रहा है। जो भी किसी बुद्ध के समीप आएगा वह उसे अनुभव करेगा, वह उससे आच्छादित हो जाएगा वह उससे भीग जाएगा। और यह बेशर्त होता है।
"प्रेम कोई शर्त नहीं रखता, उसमें कोई किन्तु नहीं, कोई परन्तु नहीं. प्रेम कभी यह नहीं कहता, "मेरी यह जरूरत पूरी करो, फिर मैं तुम्हें प्रेम करूंगा।" प्रेम श्वास लेने जैसा है: जब यह होता है तब तुम सहज प्रेम होते हो. इसमें यह मायने नहीं रखता कि कौन तुम्हारे निकट आता है, कोई पापी या फिर कोई पुण्यात्मा। जो कोई भी तुम्हारे समीप आता है वह प्रेम का संपदन महसूस करने लगता है, आनंदित हो उठता है। प्रेम बेशर्त देना है--परन्तु वही दे सकते हैं जिनके पास है।"
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