Nishkriy Dhyan -Osho

निष्क्रिय ध्यान - ओशो



निष्क्रिय ध्यान का मतलब है जब शरीर स्थिर है, इसमें क्रिया नहीं होती, विश्राम में होता है । तो इसके लिये हम बुद्ध की विपश्यना विधि के बारे में बात करें । विज्ञान भैरव-तंत्र की व्याख्या में ओशो कहते हैं कि शिव ने जो 112 विधियाँ दी हैं ।
  • ध्यान की उसमें से यह पहली विधि है विपश्यना की ।
आगे चलकर बुद्ध ने इसका उपयोग किया । इस विधि में हमें साँसों को देखना होता है। साँस जब अंदर आ रही होती है धीरे…धीरे…धीरे तो इसको देखिए । अंदर आकर वो एक बिन्दु पर रूकती है क्योंकि उसे बाहर की यात्रा शुरू करनी होती है, तो वह एक क्षण के लिये रूकती है और बाहर की ओर यात्रा शुरू करती है । फिर धीरे…धीरे…धीरे बाहर निकलती है और फिर एक क्षण के लिये रुकती है वापस अपनी यात्रा आरंभ करने के लिए । ये जो विश्राम के क्षण हैं इनमें शरीर साँस नहीं लेता । इन क्षणों को ध्यान से देखिए । आप पायेंगे कि इन क्षणों में विचार भी नहीं होता क्योंकि जब आप साँस नहीं ले रहे होते हैं तो मन रुक जाता है । और मन का रुकना, विचारशून्य होना ही ध्यान है । तो जब कभी समय मिले तो अपनी साँस का अवलोकन करें, बस देखते रहें । और एक बात ध्यान से समझना है कि आपको साँस को देखना है इसका मतलब है आपको महसूस करना है अंदर आते हुए, बाहर जाते हुए साँस के प्रवाह को । इसके सम्बन्ध में कुछ भी सोचना नहीं है । यह अपने अंदर बार-बार बात नहीं लानी है कि अब साँस अंदर आ रही है, अब बाहर जा रही है । बस आपको देखना है, महसूस करना है । सबसे ज़रूरी बात ये है कि अंतराल के वे क्षण जहाँ मन रुक जाता है उन्हें स्वाभाविक रूप से आने दें, उन तक पहुँचने की जल्दी न करें, न उन्हें बलपूर्वक पैदा करें । आमतौर पर ध्यानी यही सोचते रहते हैं कि अब वो क्षण आने वाला है, आ रहा है । इस जल्दीबाज़ी में हम सब चूक जाते हैं । यदि पूरे समय आप यही सोचते रहे कि, “वो क्षण कब आएगा”, तो वह आ के चला भी जायेगा और आप सोचते रह जायेंगे । तो जब वो क्षण आये उस क्षण में रुकें, जब फिर साँस शुरू हो तो साँस के साथ फिर यात्रा करें । गति में रहें, यात्रा करें, यात्रा करते-करते फिर वो क्षण आये, फिर रुक जायें । इस साधारण सी विधि को विपश्यना कहा जाता है । यह बहुत ही प्राचीन विधि है । यह रूपांतरण का महामंत्र है । यह सबसे ज्यादा प्रभावी विधियों में से एक है । इसलिए भी प्रभावी है क्योंकि साँस ही एक ऐसी चीज़ है जो हम हमेशा ही लेते रहते हैं । तो कहीं भी, सोते समय भी, विपश्यना किया जा सकता है । दूसरी ज़रूरी बात यह है कि यह विपश्यना प्राणायाम नहीं है । आपको साँसों को नियंत्रित नहीं करना है, साँसों को ज़बरदस्ती गहरा नहीं करना है, उथला नहीं करना है, रोकना नहीं है, छोड़ना नहीं है । बस देखना है स्वभाविक रूप से । साँस आ रही है, रुक रही है, फिर चल रही है, फिर रुक रही है । बहना है, थमना है, फिर बहना है, थमना है । धीरे…धीरे…धीरे साँस के साक्षी बनना है, उसके नियंत्रक नहीं बनना है । अनलोम-विलोम नहीं करना है । न साँस गहरी लेनी है । जैसी साँस चल रही है बस उसे देखते रहना है । और यह करते समय हमेशा ध्यान रखें कि मन आपका बड़ा चालाक है । वो आपसे यह तुरंत पूछेगा कि, “अब कुछ मिलेगा ? अब कुछ मिला क्या ?” तो इन प्रश्नों में उलझें ना । मन की पुरानी आदतें हैं तो विचार तो आयेंगे ही । इसके निपटने के लिए ओशो एक बहुत अच्छी विधि बताते हैं । जब विपश्यना करते समय विचार आयें तो झटके से साँस छोड़ दें, बस एक साँस झटके से । जैसे ही आप ये करेंगे आप तुरन्त महसूस करेंगे कि आप वर्तमान में आ गये । अचानक विचारों की धुंध छट गयी और होश का सूरज चमक उठा । तो जब कभी विचारों में उलझें तो झटके से साँस छोड़कर उससे बाहर निकलें । और फिर विपश्यना पर ध्यान केंद्रित करें ।

  • दूसरी विधि है होशपूर्ण जीवन ।
बुद्ध ने हमेशा ही अपने शिष्यों को सिखाया कि जो कुछ भी आप करते हैं, जहाँ कहीं भी होते हैं बस वहीं रहिए, नाऊ एंड हियर, अभी और यहीं । छोटे से छोटे काम होशपूर्वक करिए । आप जूते पहन रहे हैं तो देखिए कि आप जूते पहन रहे हैं, कि आपने जूतों को अपने पैरों में डाला, फिर बंध बाँधे; कपड़े पहन रहे हैं तो देखिए कि शर्ट में आपने बटन लगाए, लगा रहे हैं एक बटन, दूसरा बटन; आप खाना खा रहे हैं तो देखिए, होश में कि आपने रोटी तोड़ी, सब्ज़ी में डाली, मुँह में रखी, रोटी चबा रहे हैं; पानी पियें तो देखें कि पानी आपकी जीभ को छू रहा है, और गले तक जा रहा है, और उतर रहा है अंदर । हर एक चीज़ को जागे-जागे करें, सोये-सोये न करें । छोटी सी छोटी चीज़ आपके ध्यान को गहरा सकती है यदि आप जागरुक हो कर रहे हैं । कंघी कर रहे हैं तो देखिए कंघी आपने उठायी, बालों में फेरी; सुबह आप ब्रश करते हैं तो देखिए ब्रश पहले एक तरफ़ जा रहा है दाँतों में, फिर दूसरी तरफ़ जा रहा है । देखें होश में सब कुछ । और जब कभी आप विचारों में उलझें तो वही विधि, साँसों को झटके से छोड़ दें, आप फिर वहीं आ जायेंगे । फिर अपने रास्ते चल पड़ें ।
तो हमने आज चार सक्रिय ध्यान और दो निष्क्रिय ध्यान की विधियों के सम्बन्ध में चर्चा की । आप इनमें से कोई भी विधि चुन सकते हैं अपने लिये, जो आपको उपयुक्त लगे, जो आपको सुविधाजनक लगे और शुरू कर सकते हैं । वैसे आमतौर पर ध्यान सक्रिय ध्यान से ही शुरू किया जाना चाहिए क्योंकि सामान्यतः हम इतने दमन में जीते रहें हैं कि इतना कुछ इकट्ठा हो गया है हमारे अचेतन में – घृणा, क्रोध, रोष, द्वेष – इतना इकट्ठा हो चुका है कि वो मन को शांत होने देता ही नहीं । तो सबसे पहले हमें अपने अचेतन को ख़ाली करना होगा । तभी हम जब विपश्यना कर रहें होंगे तो साँस पर ध्यान केंद्रित कर पायेंगे । नहीं तो जैसे ही ध्यान केंद्रित करना शुरू करेंगे, विचारों की भीड़, विचारों की बाढ़ सारी शांति को भंग कर देगी । इसीलिए यह बहुत ही आवश्यक है कि आप कुछ समय तक सक्रिय ध्यान करें । कोई भी एक विधि चुन लें अपने लिए । उसके पश्चात् आप निष्क्रिय ध्यान में प्रवेश कर सकते हैं । और दोनों ध्यान साथ-साथ भी किये जा सकते हैं । कुछ समय सक्रिय, कुछ समय निष्क्रिय । यदि आप लेट कर कभी विपश्यना करेंगे तो आप देखेंगे कि आप बहुत जल्दी सो जाते हैं । शवासन निद्रासन बन जाता है क्योंकि शरीर को जागरण की समझ ही नहीं है । वैसे, हम कितने ही निष्क्रिय ध्यान करते रहें, लड़ते रहें, लेकिन अचेतन की हलचल ध्यान सधने ही नहीं देगी । इसीलिए पहले थोड़ा अचेतन को ख़ाली करें । सक्रिय और निष्क्रिय विधियों के बीच एक समन्वय स्थापित करें । और आज से ही, बल्कि अभी से ही इन विधियों को करें । जैसे कि होशपूर्ण जीवन की जो विधि है इस टेप को सुनते सुनते आप देखें कि अंदर कोई सुनने वाला है जो सुन रहा है । तुरन्त जागरुक होयें । बस धैर्य, लगन, ईमानदारी के साथ ध्यान करते रहें । आप अपने जीवन में निश्चित ही आनंदपूर्ण रूपान्तरण पायेंगे ।

YouTube Video :




Post a Comment

0 Comments