कहे कबीर मैं पूरा पाया
गूंगे केरी सरकरा
-ओर कहे कबीर मैं पूरा पाया, ओशो
कबीर की सब से बड़ी अद्वितीयता तो यही है कि जरा भी उधार नहीं है। अपने ही स्वानुभव से कहा है। इसलिए रास्ता सीधा-साफ है; सुथरा है। और चूंकि कबीर पंडित नहीं हैं, इसलिए सिद्धांतों में उलझने का कोई उपाय भी नहीं था।
बड़े-बड़े शब्दों का उपयोग कबीर नहीं करते। छोटे-छोटे शब्द हैं जीवन के--सब की समझ में आ सकें। लेकिन उन छोटे-छोटे शब्दों से ऐसा मंदिर चुना है कबीर ने, कि ताजमहल फीका है।
जो एक बार कबीर के प्रेम में पड़ गया, फिर उसे कोई संत न जंचेगा। और अगर जंचेगा भी तो इसलिए कि कबीर की ही भनक सुनाई पड़ेगी। कबीर को जिसने पहचाना, फिर वह शक्ल भूलेगी नहीं।
हजारों संत हुए हैं, लेकिन वे सब ऐसे लगते हैं, जैसे कबीर के प्रतिबिंब। कबीर ऐसे लगते हैं, जैसे मूल। उन्होंने भी जान कर ही कहा है, औरों ने भी जान कर ही कहा है--लेकिन कबीर के कहने का अंदाजे बयां, कहने का ढंग, कहने की मस्ती बड़ी बेजोड़ है। ऐसा अभय और ऐसा साहस और ऐसा बगावती स्वर, किसी और का नहीं है।
कबीर क्रांतिकारी हैं। कबीर क्रांति की जगमगाती प्रतिमा हैं। ये कुछ दिन अब हम कबीर के साथ चलेंगे--फिर कबीर के साथ चलेंगे। कबीर को चुकाया भी नहीं जा सकता। कितना ही बोलो, कबीर पर बोलने को बाकी रह जाता है। उलझी बात नहीं कही है; सीधी-सरल बात कही है। लेकिन अकसर ऐसा होता है कि सीधी-सरल बात ही समझनी कठिन होती है। कठिन बातें समझने में तो हम बड़े कुशल हो गए हैं, क्योंकि हम सब शब्दों के धनी हैं, शास्त्रों के धनी हैं। सीधी-सरल बात को ही समझना मुश्किल हो जाता है। सीधी-सरल बात से ही हम चूक जाते है। इसलिए चूक जाते है कि सीधी-सरल बात को समझने के लिए पहली शर्त हम पूरी नहीं कर पाते। वह शर्त है--हमारा सीधा-सरल होना।
जटिल बात समझ में आ जाती है, क्योंकि हम जटिल हैं। सरल बात चूक जाती है, क्योंकि हम सरल नहीं है। वही तो समझोगे न--जो हो? अन्यथा कैसे समझोगे?
इसलिए कबीर पर मैं बार-बार बोलता हूं; फिर-फिर कबीर को; चुन लेता हूं। चुनता रहूंगा आगे भी। कबीर सागर की तरह हैं--कितना ही उलीचो, कुछ भेद नहीं पड़ता।
कुछ बात कबीर के संबंध में समझ लो, वे उपयोगी होंगी।
एक--कि कबीर के संबध में पक्का नहीं है कि हिंदू थे कि मुसलमान थे। यह बात बड़ी महत्त्वपूर्ण है। संत के संबंध में पक्का हो ही नहीं सकता कि हिंदू है कि मुसलमान है। पक्का हो जाए, तो संत संत नहीं; दो कौड़ी का हो गया।
जब तुम कहते होः गांव में जैन संत आए हैं; जब तुम कहते होः गांव में हिंदू संत आए हैं--तब तुम अपमान कर रहे हो संतत्व का। और अगर जैन संत भी मानता है कि जैन संत है, तो अभी संत नहीं। संत और विशेषण में! जैन--और हिंदू--और मुसलमान! संत होकर भी ये क्षुद्र विशेषण लगे रहेंगे तुम्हारे पीछे? कभी सीमाओं से बाहर आओगे कि नहीं? घर छोेड़ दिया, समाज छोड़ दिया; लेकिन समाज ने जो संस्कार दिए थे, वे नहीं छोड़े। जिस घर में पैदा हुए थे, वह जैन था, उसको छोड़ दिया; मगर जैन तुम अभी भी हो--संत होकर भी! तो कही कुछ बात चूक गई। तीर निशाने पर लगा नहीं; मेहनत तुम्हारी व्यर्थ गई।
संत होने का अर्थ ही है कि अब न कोई हिंदू रहा, न कोई मुसलमान रहा, न कोई ईसाई रहा। सं
ओशो
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