' कस्तूरी कुंडल बसै ' - ओशो
कबीर कहते हैं , कहीं और जाना नहीं है ।
' तेरा सांईं तुज्झ में जागि सकै तो जाग ' -
बस करना इतना ही है कि तू जाग ।
साईं को नहीं खोजना है , जागना है ।
और भूल कर के कहीं साईं को खोजने
मत निकल जाना , बिना जागे ;
नहीं तो नींद में बहुत भटकोगे , पहुंचोगे कहीं नहीं ।
क्योंकि -- ' तेरा साईं तुज्झ में ' ।
जाते कहां हो खोजने ? जितनी दूर निकल जाओगे
खोजने उतनी ही उलझन में पड़ जाओगे ।
परमात्मा को खोजना नहीं है , बस जागना है ।
तेरा साईं तुज्झ में , जागि सकै तो जाग ।
कस्तूरी कुंडल बसै , मृग ढूढै़ वन माहिं ।
आती है गंध कस्तूरी की भीतर से ।
नाफा पक गया , कस्तूरी तैयार है ।
भागता है पागल होकर मृग , खोजता है ,
' कहां से आती है यह गंध ? '
उसकी नाभि में है कस्तूरी । पर मृग को कैसे पता चले ?
मनुष्य को भी पता नहीं चलता कि गंध नाभि में है ।
तुम्हारे जीवन का स्रोत तुम्हारी नाभि है ।
तुम्हारे आनंद का स्रोत भी तुम्हारी नाभि है ।
तुम्हारे अस्तित्व का केन्द्र तुम्हारी नाभि है ।
अगर तुम अपनी नाभि में उतर जाओ ,
तो तुमने परमात्मा का द्वार पा लिया ।
पश्चिम में लोग मजाक करते हैं ।
पूरब के योगियों को कहते हैं , ' वे लोग जो अपने नाभि में
टकटकी लगाकर देखते रहते हैं । '
वहां क्या रखा है ? वहीं सब कुछ रखा है ।
तुम्हें शायद पता नहीं कि
मां के गर्भ में तुम नाभि से ही मां से जुडे़ थे ।
नाभि तुम्हारे जीवन का केन्द्र है ।
वहीं से मां की जीवन-ऊर्जा तुम्हारे जीवन में प्रवाहित हो
रही थी । फिर तुम तैयार हो गये ,
मां की जीवन-ऊर्जा की जरूरत न रही ,
तो नाल काट दी गई । तुम मां के गर्भ से बाहर आ गये ।
लेकिन तुम्हारी नाभि से एक अदृश्य नाल अभी भी
परमात्मा से जुडी़ है । एक रजतरेखा तुम्हें जोडे़ हुए है
अस्तित्व से । तुम नाभि से ही जुडे़ हो ।
नाभि में ही तुम्हारी जड़ है ।
न केवल शरीर के अर्थों में तुम नाभि से जुडे़ हो ।
आत्मा के अर्थों में भी तुम नाभि से ही जुडे़ हो ।
जिन लोगों को कभी शरीर के बाहर जाने का अनुभव
हुआ है -- कई बार हो जाता है , कभी तो दुर्घटना में
हो जाता है कि कोई आदमी ट्रेन से गिर पडा़ और उस
झटके में उसकी आत्मा शरीर के बाहर निकल गई --
तो जिन लोगों को भी ऐसा अनुभव हुआ है दुर्घटना में ,
या योग की साधना में , या जान-बूझकर जो प्रयोग कर
रहे थे शरीर के बाहर जाने का , उन सभी को एक बात
दिखाई पडी़ है , और वह यह कि उनकी आत्मा कितनी
ही दूर चली जाए , एक रजतरेखा नाभि से जुडी़ ही
रहती है । अगर वह टूट जाये , फिर वापस शरीर में
लौटने का उपाय नहीं रह जाता । वह कितनी ही ऊंचाई
पर उड़ जाये , लेकिन वह रजत-रेखा बडी़ लोचपूर्ण है ,
वह खिंचती जाती है । वह कोई पदार्थ नहीं है ;
वह सिर्फ शुद्ध विद्युत-ऊर्जा है , इसलिए शुभ्र चांदी की
भांति दिखाई पड़ती है ।
तुम्हारी नाभि में तुम्हारे जीवन का सारा राज छिपा है ।
इसलिए कबीर ने ' कस्तूरी कुंडल बसै ' यह प्रतीक
चुना है ।
और घटना वही घट रही है जो मृग के साथ घटती है ।
मृग बिलकुल पागल हो जाता है , टकरा लेता है सिर को
जगह-जगह , लहूलुहान हो जाता है ।
और इतनी मादक गंध आती है , रुक भी नहीं सकता ;
खोजना चाहता है , कहां से गंध आती है ।
जितना भागता है उतना ही व्याकुल होता है ।
और जितना भागता है उतनी ही जगह उसकी गंध
व्याप्त हो जाती है । उतना ही और भी दिग्भ्रम पैदा होने
लगता है कि कहां से आ रही है , कि पूरब से कि
पश्चिम से कि दक्षिण से । क्या करे यह मृग ?
इस मृग को कैसे समझायें कि तू बैठ जा ,
आंख बंद कर ले , भीतर उतर -- तेरे भीतर ही गंध का
राज छिपा है !
तुम भी आनंद की तलाश में कहां-कहां नहीं घूम
लिए हो । कितने चांद-तारों पर नहीं घूम लिए हो ।
कितनी पृथ्वियां नहीं तुमने नाप डाली हैं ।
कितने जन्मों की लम्बी यात्रा है ।
हिंदू कहते हैं , चौरासी करोड़ योनियों में तुम एक ही
चीज को खोज रहे हो कि गंध कहां से आ रही है ?
आनंद कहां से मिलेगा ?
जीवन का राज कहां छिपा है । परमात्मा कहां है ?
और कबीर कहते हैं ,
' कस्तूरी कुंडल बसै ।
तेरा साईं तुज्झ में , जागि सकै तो जाग । '
: ओशो :
घूंघट के पट खोल
चौथा प्रवचन - भीजै दास कबीर
दिनांक : २० मार्च १९७५
प्रातःकाल ; ओशो आश्रम , पूना
0 Comments