प्रेम नदी के तीरा - ओशो
समर्पण का कुल मतलब इतना है कि वह जो विराट है हमारे चारों तरफ, जिससे हम पैदा होते हैं, जिसमें हम जीते हैं और जिसमें हम लीन हो जाते हैं, उससे हम क्षण भर को भी अपने को अलग न करें। अलग न करने के भाव का नाम समर्पण है। वह विराट के प्रति लहर का समर्पण है।
ध्यान आ सकता है, स्वयं से भी आ सकता है। लेकिन पृथक्करण से नहीं आएगा। बड़ा सवाल यह नहीं है कि हम अपने मन को एनालाइज करते हों। क्योंकि वह पृथक्करण, विश्लेषण करते वक्त में हमारा मन भी काम करता है। और यह सारा पृथक्करण हमारे ही मन को दो खंडों में तोड़ कर चला जाता है। तो न तो पृथक्करण से संभव है कि मन एक हो जाए, न ही चिंतन-मनन—उससे संभव है कि एक हो जाए। क्योंकि ये सारी क्रियाएं जिस मन से चलने वाली हैं, उसी मन को बदलना है। एक ही व्यवस्था से हो सकता है कि न तो हम पृथक्करण करें, न हम चिंतन-मनन करें; वरन मन के प्रति हम धीरे-धीरे जागरूक होते चले जाएं। जागरूक होने का अर्थ यह नहीं है कि हम कोई निर्णय नहीं लेते कि क्या बुरा है, क्या भला है। हम कोई पक्ष-विपक्ष नहीं लेते। मन का यह हिस्सा बचाना है, यह अलग करना है। ऐसी भी कोई धारणा नहीं, जैसा भी मन है। बिना किसी भाव के, बिना किसी पूर्व धारणा के हम इस मन के प्रति जागते चले जाएं। अगर जागरण में थोड़ा सा भी पक्षपात हुआ मन में, तो मन खंड-खंड हो जाएगा। तब दो हिस्से हम तोड़ लेंगे, अच्छे और बुरे का हिस्सा हम अलग कर लेंगे। और जैसे ही मन टूटा कि ध्यान असंभव है। ध्यान का अर्थ ही है कि मन की समग्र अवस्था मिल जाए, अटूट अवस्था। टोटल अवस्था मिल जाए। तो अगर मैं बिना किसी पूर्व-धारणा के, निर्णय के, अच्छे-बुरे के खयाल के, शुभ-अशुभ के, जैसा भी हूं; इसके प्रति मेरे होने के दो ढंग हो सकते हैं। जैसा भी मैं हूं—इसके प्रति मैं सोया हुआ हो सकता हूं। और जैसा भी मैं हूं—इसके प्रति मैं जागा हुआ हो सकता हूं। निर्णायक नहीं, कोई जजमेंट नहीं। जो भी मैं कल तक करता रहा हूं, वह मैं सोते-सोते करता रहा हूं। आप पर क्रोध किया है तो बेहोशी में किया है। ऐसे ही हुआ है कि जब हो चुका है, जब मुझे पता चला कि यह क्रोध हो रहा है। और जब हो रहा था तो मुझे पता ही नहीं चला कि हो रहा है। पृथक्करण वाला आदमी कहेगा क्रोध बुरा है, इसे मन से अलग करो। चिंतन-मनन वाला आदमी कहेगा कि क्रोध बुरा है, उसका कोई पक्ष होगा। जागरण, अप्रमाद की जो व्यवस्था है, अवेयरनेस की जो व्यवस्था है, वह इतना ही कहेगी कि क्रोध हुआ है। और मैं दुखी क्रोध की वजह से नहीं हूं, दुखी हूं इस वजह से कि मेरे सोते-सोते हुआ है। —ओशो
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