Rechan Kya Hai Aur Kyu Jaruri Hai ?

ध्यान में बैठने से पूर्व रेचन अनिवार्य चरण 

रेचन क्या है, और रेचन क्यों अनिवार्य है? 

  • रेचन क्या है? 

रेचन योग का प्राथमिक और महत्वपूर्ण चरण है। रेचन शरीर शुद्धि का एक उपाय है। रेचन का अर्थ है ध्यान में बाधा पहुंचाने वाले तत्वों को शरीर से बाहर फेंकना।

हम जरूरत से ज्यादा भोजन कर लेते हैं, तो हमारे शरीर में अनावश्यक तत्व इकट्ठा हो जाते हैं, जो ध्यान में बैठने में बाधा देते हैं। हम काम में, बातचीत या विचारों में उलझे होते हैं तो हमें पता नहीं चल पाता है, लेकिन जब हम ध्यान में बैठते हैं और शरीर विश्राम में जाता है, तब ये तत्व सक्रिय हो जाते हैं। तो कहीं खुजली चलती है, कहीं चींटी काट रही है, कहीं एंठन होने लगती है और कहीं दर्द होने लगता है। जबकि ध्यान में प्रवेश करने के लिए हमें कम से कम पैंतालीस मिनट से एक घंटे तक शांत और शिथिल यानि पूरी तरह से विश्राम में रहना जरूरी है ।

इसके लिए हमें श्रम करके, व्यायाम करके पसीना निकालकर ध्यान में बाधा पहुंचाने वाले इन तत्वों को शरीर से बाहर निकलना होगा। ताकि ध्यान में प्रवेश हो सके। यह है चमड़ी द्वारा पसीने का रेचन। 

हमारे फेफड़ों में धूल और धुंए के कण जमा हो जाते हैं, जो हमारी श्वास को गहरा नहीं होने देते, तथा ध्यान में बैठने पर खांसी उठाकर बाधा पहुंचाते हैं। भस्त्रिका या कपालभाति प्राणायाम करके जब हम इन्हें बाहर निकल देते हैं, तो यह रेचन कहलाता है। ध्यान में प्रवेश के लिए फेफड़ों का शुद्ध होना बहुत जरूरी है। 
हमने अपने भावों का भी दमन किया है, उन्हें दबाया है। हमने रोना दबाया है। 
बहन जब ससुराल जा रही थी, बचपन से साथ खेलते हुए बड़े हुए थे, खूब रोने को दिल हुआ, लेकिन "लोग क्या कहेंगे कि जवान आदमी होकर रोता है?" इस भय से हम रो नहीं पाये हैं, और जब अपने किसी परिजन की मृत्यु पर हमें रोना आया तो लोगों ने "जवान आदमी होकर रोता है?" ऐसा कहते हुए हमें चुप करवा दिया है। 
वह रूलाई बाहर निकलना चाह रही है, तभी तो भावुक और संवेदनशील मोकों पर हमारी आंखें भर आती है। हमने आंसुओं को रोका है, वे रुके हुए आंसू ध्यान में बाधा डाल रहे हैं, हमें उन आंसुओं को बाहर निकालना है, ताकि ध्यान में प्रवेश हो सके। आंसुओं को बाहर निकालना, यह है रेचन करना। 

हमने हंसना दबाया है। बड़ों के भय से हम कभी खुलकर नहीं हंसे हैं। हमेशा हंसने पर हमें टोक दिया गया है। कई बार तो हमें अपनी हंसी को बीच में ही रोक देना पड़ा है। वह दबी हुई, रूकी हुई हंसी ध्यान में बाधा डाल रही है। उसे बाहर निकालना होगा। हमें फिर से दिल खोलकर हंसना होगा, इतना हंसना होगा कि पेट दुखने लगे। यह हंसी को बाहर निकालना रेचन कहलाता है।

हमने नृत्य को दबाया है। मधुर संगीत सुनकर हमारे पैर थिरकने लगे थे, और हमने "मुझे नाचना नहीं आता" कहते हुए अपने को रोक लिया है। वह दबा हुआ नृत्य बाहर आना चाहता है। हमें नाच कर उसे बाहर निकालना है ताकि हमारा ध्यान में प्रवेश हो सके। 

हमने क्रोध को दबाया है। जब भी हमें क्रोध आया तो हमारी मुठ्ठियां बंध गई थी, दांत भींच गए थे, हमारे पैर लात मारने को उतावले हो गए थे, यानि हमारे शरीर ने लड़ने की पूरी तैयारी कर ली थी, लेकिन हम कुछ भी नहीं कर पाए, क्योंकि जिस व्यक्ति पर हमें क्रोध आया वह हमसे बड़ा था, या कि हमसे शक्तिशाली था। अतः हमें क्रोध को वहीं रोकना पड़ा, दबाना पड़ा। वह दबा हुआ क्रोध ध्यान में बाधा डाल रहा है। क्रोध में मुठ्ठी भींचने पर जो उर्जा इकठ्ठी हुई थी, वह बाहर निकलना चाहती है। तभी तो हम उंगली में चाबी का छल्ला फंसाकर उसे घुमाने लगते हैं, रास्ते चलते छोटों पर धोल जमाने लगते हैं। और यह हमारे अंजाने ही होने लगता है। चलते हैं तो कंकड़ पत्थर को ठोकर मारते हुए चलते हैं, कुर्सी पर बैठते हैं तो हमारे पैर अनायास ही हिलने लगते हैं, क्रोध में लात मारने के लिए और नृत्य के समय नाचने के लिए जो उर्जा पैरों में उठी थी, वह उर्जा बाहर निकलना चाहती है। 
इस तरह हमारे स्वभाव में चिड़चिड़ापन घुल जाता है और वह दबा हुआ क्रोध धीरे - धीरे हमारे दैनिक जीवन में निकलने लगता है और हम तनाव ग्रस्त रहने लगते हैं।
दबे हुए इस क्रोध को, दबी हुई इस उर्जा को बाहर निकालना है, तभी हम ध्यान में प्रवेश कर सकेंगे। 

परिवार और समाज के भय से हम अपने भावों को दबाते आए हैं। उन भावों को बाहर निकालना रेचन कहलाता है।जब तक हम इन दमित आवेगों को शरीर से बाहर निकल कर, शरीर को शुद्ध नहीं कर लेते,तब तक हमारा ध्यान में प्रवेश करना मुश्किल होगा। 

सुबह व्यायाम करें, प्राणायाम करें। सुबह दौड़ने से बड़ा कोई योग नहीं है, इसमें गहरी श्वास से प्राणायाम भी हो जाता है और पसीना निकलने पर शरीर से ध्यान में बाधा पहुंचाने वाले तत्व बाहर निकल जाते हैं। । 
श्रम करें, पैदल चलना, लिफ्ट का प्रयोग नहीं करना। शाम को बच्चों के साथ कोई खेल खेलना। नृत्य करना। यानि शरीर को थकाना और पसीना निकालकर ध्यान में बाधा देने वाले तत्वों को बाहर निकालना। इसके साथ ही जितना भोजन शरीर को चाहिए, उतना ही देना ताकि पुनः अनावश्यक तत्व शरीर में इकठ्ठा न हों और हमारा ध्यान में प्रवेश आसान हो जाए।

रेचन क्यों अनिवार्य है?
हमारे स्थूल शरीर का चक्र है मूलाधार। और भाव का चक्र है स्वाधिष्ठान। प्रेम, क्रोध, घृणा, हंसना, रोना जो भी भाव हमने दबाये हैं, वे सब स्वाधिष्ठान चक्र में दबे पड़े हैं।
जब हम प्राणायाम करते हैं या गहरी श्वास वाले प्रयोग करते हैं तो मूलाधार चक्र सक्रिय होता है और उर्जा को ऊपर भेजने लगता है। जब उर्जा हमारे दूसरे स्वाधिष्ठान चक्र पर पहुंचती है, तो इन दबे हुए भावों के कारण उर्जा को स्वाधिष्ठान चक्र में प्रवेश के लिए जगह नहीं मिलती है और ऊर्जा स्वाधिष्ठान से टकराती रहती है।और उर्जा की चोट से स्वाधिष्ठान दबे हुए भावों को उपर उठाने लगता है, परिणामस्वरूप हमारे स्वभाव में चिढ़चिढ़ापन और क्रोध प्रकट होने लगता है। हम क्रोधित भी होते हैं और खूब प्रेम भी प्रकट करते हैं। हम घर में क्रोध करते हैं और बाहर लोगों से प्रेम प्रकट करते हैं, क्योंकि बाहर क्रोध की सुविधा नहीं होती है। हम समझ ही नहीं पाते हैं कि हमारे जीवन में ऐसा विरोधाभास क्यों होता है, क्योंकि उर्जा अपना काम करती है और हमें इसका पता ही नहीं चल पाता है।
यही कारण है कि सधकों और सन्यासियों का जीवन हमसे ज्यादा कलह से भरा रहता आया है।
यही कारण रहा है कि हमने स्वतंत्र साधकों को पागल होते हुए देखा है। इसीलिए गुरू की महत्ता बढ़ जाती है।
यदि हम रेचन करके इन दमित आवेगों से स्वाधिष्ठान चक्र को रिक्त कर लेते हैं तो उर्जा को जगह मिल जाती है और उर्जा दूसरे स्वाधिष्ठान चक्र में प्रवेश कर जाती है।
उर्जा जैसे ही दूसरे चक्र में प्रवेश करती है, हममें प्रेम का आविर्भाव शुरू हो जाता है क्योंकि क्रोध और घृणा जैसे नकारात्मक भावों के बाहर निकलने के बाद हमारे भीतर प्रेम ही बचता है। और प्रेम कोई तनाव नहीं देता क्योंकि प्रेम ध्यान का ही दूसरा रूप है। ध्यान में भी हम निर्विचार होते हैं और प्रेम में भी।
इस दूसरे चक्र के रिक्त होते ही जो उर्जा भावों में बह रही थी, वह उर्जा प्रेमी की ओर, हमारी ओर यानि देखने वाले की ओर अर्थात साक्षी की ओर बहना शुरू हो जाती है। और यहां पर जो महत्वपूर्ण घटना घटती है, वह यह कि अब हम भावों के मालिक होते हैं, अब हम अपने भावों को संचालित कर सकते हैं, अब हम भावों से अछूते रहेंगे, हम भावों में बहेंगे नहीं, भाव हमारे लिए अभिनय होंगे। और हम अगले चक्र पर विचारों को देखने में समर्थ होंगे क्योंकि अब उर्जा भावों की अपेक्षा हमारी ओर बहेगी जो साक्षी को और भी प्रगाढ़ करेगी तथा हमारे लिए साक्षी साधना और भी आसान हो जाएगा। 

सप्ताह में एक बार अपने शरीर को अपने कमरे में अकेला छोड़ देना है। यह जो करना चाहे, करने दें। शरीर कुछ निकालना चाहता है। इससे सारे तनाव हटा लें, शरीर को ढीला छोड़ दें और श्वास को गहरा यानि नाभि तक ले जाएं। शरीर स्वयं ही रेचन करने लगेगा। हंसना, रोना, नाचना कुछ भी कर सकता है। यदि कुछ करता है तो हमें उसे सहयोग करना है। और यदि कुछ भी नहीं करे, तो हमें हंसने या रोने का प्रयास करना चाहिए।शुरू शुरू में तो यह अभिनय जैसा होगा, लेकिन हम प्रयास करते हैं, कोई भाव उठाते हैं, तो धीरे-धीरे स्वतः ही शरीर भावाविष्ट होकर उसमें बहने लगता है, रेचन करने लगता है। हमें उसे सहयोग करना है।
तकिए या रजाई के उपर धूंसे मारकर, लात मारकर अपने भीतर दबे क्रोध को बाहर निकालें। यदि मन में किसी व्यक्ति के प्रति क्रोध है तो आंखें बंद करके या कमरे में अंधेरा करके तकिये को वह व्यक्ति समझ कर धूंसे से प्रहार कर उस व्यक्ति के प्रति जो क्रोध है, उसे बाहर निकाल दें। इसके बहुत ही चमत्कारिक परिणाम होंगे, धीरे-धीरे उस व्यक्ति के प्रति हमारा क्रोध समाप्त हो जाएगा और उस व्यक्ति के प्रति हमारे भीतर प्रेम जग जाएगा। 
हम किसी के साथ कोई हिंसा नहीं कर रहे हैं, ध्यान में प्रवेश के लिए अपने शरीर को तैयार कर रहे हैं, अपने शरीर को शुद्ध कर रहे हैं । अपने भीतर दबे भावों को जब हम रेचन करके शरीर से बाहर निकाल देंगे, तभी हम ध्यान में प्रवेश कर पाएंगे।

ओशो ने "सक्रिय ध्यान" (डायनामिक मेडिटेशन) बनाया है, जो रेचन का, शरीर शुद्धि का एक बेहतर उपाय है। इसके अतिरिक्त मिस्टिक रोज ध्यान, कुंडलिनी ध्यान, नटराज ध्यान, ओंकार ध्यान, ऐसे ध्यान प्रयोग हैं जो बहुत ही कारगर साबित हुए हैं। हम ओशो आश्रम जाकर इन प्रयोगों से गुजरकर ध्यान में प्रवेश कर साक्षी को उपलब्ध कर सकते हैं। 

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