🌹 साक्षी को दु:खी करना असंभव है। -ओशो
साक्षी का पहला लक्षण तो यह है कि जो भी घटना घटती हो, वह उससे अपने को पृथक मानता है। जो भी घट रहा हो, वह उससे अपने को फासले पर देखता है। वह जानता है कि मैं सिर्फ देखने वाला हूं। तो अगर दुख घट रहा है तो वह दुख का भी देखने वाला है। वह दुख के साथ एक नहीं हो पाता। और जब तक आप दुख के साथ एक न हों, तब तक दुखी नहीं हो सकते।
साक्षी मन का दूसरा लक्षण है कि जो भी मिल जाए वह उसके लिए अनुगृहीत होता है। जो भी मिल जाए, वह उसे परमात्मा की अनुकंपा मानता है। जो भी मिल जाए, वह उसे अपने कर्तृत्व का फल नहीं मानता, उसकी अनुकंपा मानता है। क्योंकि साक्षी कर्ता तो बनता ही नहीं, इसलिए वह यह तो कह ही नहीं सकता कि मैंने किया इसलिए मुझे मिला!
वह सदा यही कहता है कि मैंने तो कुछ भी नहीं किया और यह सब मुझे मिला, इसलिए मैं अनुगृहीत हूं। उसके अनुग्रह की कोई सीमा नहीं है। उसके धन्यवाद का, आभार का अहोभाव अनंत है।
इसे समझ लें।
साक्षी का मतलब ही यह है कि वह जानता है, मैंने कभी कुछ नहीं किया। मैं सिर्फ देखने वाला हूं। तो जो कुछ भी हुआ है, वह मेरे द्वारा नहीं हुआ है, उसमें मैं कर्ता नहीं हूं। इसलिए जो भी हो जाए, वह प्रभु की अनुकंपा है।
साक्षी से सुख को छीनना असंभव है। साक्षी उस कला को जानता है, जिससे उसके चारों तरफ सुख फैलता है।
जैसे मकड़ी अपने भीतर से जाले को निकालकर निर्मित करती है, वैसा ही भोक्ता अपने चारों तरफ दुख का जाल निर्मित करता है और साक्षी अपने चारों तरफ सुख का जाल निर्मित करता है।
फिर साक्षी की कोई वासना नहीं है। क्योंकि जब मैं कर्ता हो ही नहीं सकता, तो करने की कोई कामना व्यर्थ है।
और जिसकी कोई वासना नहीं है, जिसकी कोई अपेक्षा नहीं है, उसे आप कभी भी दुखी नहीं कर सकते।
दुख आता है अपेक्षा के टूटने से............😍
❣ ओशो ❣
🌷 कठोपनिषद - 3 🌷
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