शिव कहते हैं----उद्यमो भैरव:।
चौथा सूत्र है:
उद्यम ही भैरव है। उद्यम उस आध्यात्मिक प्रयास को कहते हैं, जिससे तुम इस कारागृह के बाहर होने की चेष्टा करते हो। वही भैरव है।
भैरव शब्द पारिभाषिक है।’
भ' का अर्थ है: ' भरण',
भैरव शब्द पारिभाषिक है।’
भ' का अर्थ है: ' भरण',
'र' का अर्थ है रवण,
'व' का अर्थ है. वमन।
भरण का अर्थ है भारण, रवण का अर्थ है संहार, और वमन का अर्थ है: फैलाना। भैरव का अर्थ है. ब्रह्म—जो धारण किये है, जो सम्हाले है, जिसमें हम पैदा होंगे, और जिसमें हम मिटेंगे; जो विस्तार है और जो ही संकोच बनेगा; जो सृष्टि का उद्भव है, और जिसमें प्रलय होगा। मूल अस्तित्व का नाम भैरव है।
'व' का अर्थ है. वमन।
भरण का अर्थ है भारण, रवण का अर्थ है संहार, और वमन का अर्थ है: फैलाना। भैरव का अर्थ है. ब्रह्म—जो धारण किये है, जो सम्हाले है, जिसमें हम पैदा होंगे, और जिसमें हम मिटेंगे; जो विस्तार है और जो ही संकोच बनेगा; जो सृष्टि का उद्भव है, और जिसमें प्रलय होगा। मूल अस्तित्व का नाम भैरव है।
शिव कहते हैं: उद्यम ही भैरव है। और जिस दिन भी तुमने आध्यात्मिक जीवन की चेष्टा शुरू की, तुम भैरव होने लगे; तुम परमात्मा के साथ एक होने लगे। तुम्हारी चेष्टा की पहली किरण और तुमने सूरज की तरफ यात्रा शुरू कर दी। पहला खयाल तुम्हारे भीतर मुक्त होने का, और ज्यादा दूर नहीं है मंजिल; क्योंकि पहला कदम करीब—करीब आधी यात्रा है।
उद्यम भैरव है। पाओगे, देर लगेगी। मंजिल पहुंचने में समय लगेगा। लेकिन तुमने चेष्टा शुरू की और तुम्हारे भीतर बीज आरोपित हो गया कि मैं उठूं इस कारागृह से बाहर; मैं जाऊं, शरीर से मुक्त होऊं; मैं हfऐऋ वासना से; मैं अब और बीज न बोऊं, इस संसार को बढाने के; मैं और जन्मों की आकांक्षा न करूं। तुम्हारे भीतर जैसे ही यह भाव सघन होना शुरू हुआ कि अब मैं मूर्च्छा को तोडू और चैतन्य बनूं वैसे ही तुम भैरव होने लगे; वैसे ही, तुम ब्रह्म के साथ एक होने लगे। क्योंकि वस्तुत: तो तुम एक हो ही, सिर्फ तुम्हें यह स्मरण आ जाए। मूलत: तो तुम एक हो ही। तुम उसी सागर के झरने हो, तुम उसी सूरज की किरण हो, तुम उसी महा आकाश के एक छोटे से खंड हो। पर तुम्हें यह स्मरण आना शुरू हो जाये और दीवालें विसर्जित होने लगें, तो तुम इस महा आकाश के साथ एक हो जाओगे।
उद्यम भैरव है। बड़ी सघन चेष्टा करना जरूरी है। क्योंकि नींद गहरी है; तोड़ोगे सतत, तो ही टूट पायेगी। आलस्प करोगे, संभव नहीं होगा। आज तोड़ोगे, कल फिर बना लोगे तो फिर भटकते रहोगे। एक हाथ से तोड़ोगे दृसरे से बनाते जाओगे, तो श्रम व्यर्थ होगा। उद्यम का अर्थ है—तुम्हारी पूरी चेष्टा संलग्र हो जाये।
लोग मेरे पास आते हैं। वे कहते हैं—हम करते हैं, लेकिन कुछ हो नहीं रहा। अब मैं उनकी शकल देखता हूं। वे करते हैं ही नहीं, या ऐसा मरे—मरे करते हैं, जैसे मक्खियां उड़ा रहे हो। उनके करने में कोई प्राण नहीं हैं इसलिए नहीं होता। लेकिन वे आते ऐसे हैं जैसे कि परमात्मा पर बड़ी कृपा कर रहे हैं कि करते हैं और नहीं हो रहा है। तो, शिकायत लेकर आये हैं कि कहीं कुछ गड़बड़ हो रही है, कहीं कुछ अन्याय हो रहा है कि दूसरों को हो रहा है, हमें नहीं हो रहा है
इस जगत में अन्याय होता ही नहीं। इस जगत में जो भी होता है, न्याय है। क्योंकि यहां कोई आदमी नहीं बैठा है, न्याय—अन्याय करने को। जगत में तो नियम हैं, उन्हीं नियमों का नाम धर्म है। तुम अगर इरछे—तिरछे चले ग़िरोगे, टांग टूट जायेगी; तो तुम जाकर अदालत में यह नहीं कहोगे कि गुरुत्वाकर्षण के कानून पर एक मुकदमा चलाता हूं। तो अदालत कहेगी तुम तिरछे मत चलते। गुरुत्वाकर्षण न तुम्हें गिराने को उत्सुक है, न तुम्हें सम्हालने में उत्सुक है। तुम जब सीधे—सीधे चलते हो, वही तुम्हें संभालता है। जब तुम तिरछे चलते हो, वही तुम्हें गिराता है। न गिरने—गिराने की उसकी कोई आकांक्षा है, न सम्हालने की। तटस्थ है जगत का नियम। उस तटस्थ नियम का नाम धर्म है। उसको हिंदुओं ने ऋत कहा है। वह परम नियम है। वह तुम्हारी तरह पक्षपात नहीं करता कि किसी को गिरा दे, किसी को उठा दे। तुम जैसे ही ठीक चलने लगते हो, वह तुम्हें संभालता है। तुम गिरना चाहते हो वह तुम्हें गिराता है। वह हर हालत में उपलब्ध है। तुम जैसा भी उसका उपयोग करना चाहते हो, वह तुम्हें खुला है। उसके द्वार बंद नहीं है। तुम सिर ठोकना चाहते हो दरवाजे से, सिर ठोक लो। तुम दरवाजा खोलकर भीतर जाना चाहते हो, भीतर चले जाओ। वह तटस्थ है।
उद्यम भैरव है। महान श्रम चाहिए। उद्यम का अर्थ है: प्रगाढ़ श्रम। तुम्हारी समग्रता लग जाये श्रम में, उसका नाम उद्यम है। और, तब देर न लगेगी तुम्हारे भैरव हो जाने में।
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