Prem Ki Bhasha - Osho

प्रेम की भाषा  - ओशो 
Prem ki Bhasha osho

भाषा दो प्रकार की है : तर्क की भाषा और प्रेम की भाषा। और दोनों में बुनियादी भेद है।
तर्क की भाषा आक्रामक, विवादी और हिंसक होती है। अगर मैं तार्किक भाषा का प्रयोग करूं तो मैं तुम्हारे मन पर आक्रमण सा करूंगा। मैं तुमसे अपनी बात मनवाने की, तुमको अपने पक्ष में लाने की, तुम्हें अपना खिलौना बनाने की कोशिश करूंगा। मैं जिद करूंगा कि मेरा तर्क सही है और तुम्हारा गलत। तर्क की भाषा अहं—केंद्रित होती है, इसलिए मैं सिद्ध करूंगा कि मैं सही हूं और तुम गलत। दरअसल मुझे तुमसे कुछ लेना—देना नहीं है, मुझे मेरे अहंकार से मतलब है। और मेरा अहंकार हमेशा सही होता है।
प्रेम की भाषा सर्वथा भिन्न है, वहां मुझे अपनी नहीं, तुम्हारी चिंता है। वहां मुझे कुछ सिद्ध करने को नहीं पड़ी है, अपने अहंकार को मजबूत नहीं बनाना है। तुम्हारी सहायता करना ही मेरा अभीष्ट है। यह करुणा है जो तुमको बढ़ने में, बदलने में, तुम्हारे पुनर्जन्म में सहयोगी होना चाहती है।
और दूसरी बात कि तर्क सदा बौद्धिक है। उसमें तर्क और सिद्धात महत्वपूर्ण हैं, दलीलें अर्थपूर्ण हैं। प्रेम की भाषा में, क्या कहा जाए, यह महत्व का नहीं है, कैसे कहा जाए, महत्व का है। वाहन, शब्द महत्वपूर्ण नहीं है, महत्वपूर्ण है उसका अर्थ, उसका संदेश। यह हृदय से हृदय की गुफ्तगू है, मन से मन का वाद—विवाद नहीं। यह विवाद नहीं संवाद है, सहभागिता है। इसलिए यह दुर्लभ घटना है कि पार्वती शिव की गोद में बैठकर पूछती हैं और शिव उत्तर देते हैं। यह प्रेम—संवाद है, प्रेमालाप। इसमें कहीं कोई द्वंद्व नहीं है—शिव मानो स्वयं से बोल रहे हों।
                                -ओशो

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