Prem Saidev Aanandit Hai - osho

​प्रेम सदैव आनंदित है  - ओशो 
प्रेम सदैव आनंदित है  - ओशो

प्रेम क्या है…?
मैनें सुना है, एक बहुत पुराना वृक्ष था। आकाश में सम्राट
की तरह उसके हाथ फैले हुए थे। उस पर फूल आते थे तो दूर-दूर से पक्षी सुगंध लेने आते । उस पर फल लगते थे, तो तितलियाँ उड़तीं । उसकी छाया, उसके फैले हाथ, हवाओं में उसका वह खड़ा रूप आकाश में बड़ा सुन्दर था ।
 एक छोटा बच्चा उसकी छाया में रोज खेलने आता था । और उस बड़े वृक्ष को उस छोटे बच्चे से प्रेम हो गया ।बड़ों को छोटों से प्रेम हो सकता है, अगर बड़ों को पता न हो कि हम बड़े हैं । वृक्ष को कोई पता नहीं था कि मैं बड़ा हूँ…यह पता सिर्फ आदमी को होता है…इसलिए उसका प्रेम हो गया ।
अहंकार हमेशा अपने से बड़ों को प्रेम करने की कोशिश करता है। अहंकार हमेशा अपने से बड़ों से संबंध जोड़ता है । प्रेम के लिए कोई बड़ा-छोटा नहीं । जो आ जाए, उसी से संबंध जुड़ जाता है ।
वह एक छोटा सा बच्चा खेलता था । उस वृक्ष के पास; उस वृक्ष का उससे प्रेम हो गया । लेकिन वृक्ष की शाखाएँ ऊपर थीं, बच्चा छोटा था, तो वृक्ष अपनी शाखाएँ उसके लिए नीचे झुकाता, ताकि वह फल तोड़ सके, फूल तोड़ सके । प्रेम हमेशा झुकने को राजी है, अहंकार कभी भी झुकने को राजी नहीं हैं. अहंकार के पास जाएँगे तो अहंकार के हाथ और ऊपर उठ जाएँगे, ताकि आप उन्हें छू न सकें । क्योंकि जिसे छू लिया जाए वह छोटा आदमी है; जिसे न छुआ जा सके, दूर सिंहासन पर दिल्ली में हो, वह बड़ा आदमी है ।
वह वृक्ष की शाखाएँ नीचे झुक आतीं, जब वह बच्चा खेलता हुआ आता ! और जब बच्चा उसके फूल तोड़ लेता, तो वह वृक्ष बहुत खुश होता. उसके प्राण आनंद से भर जाते ।
प्रेम जब भी कुछ दे पाता है, तब खुश हो जाता है ।अहंकार जब भी कुछ ले पाता है, तभी खुश होता है ।
फिर वह बच्चा बड़ा होने लगा । वह कभी उसकी छाया में सोता, कभी उसके फल खाता, कभी उसके फूलों का ताज बना कर पहनता और जंगल का सम्राट हो जाता ।
प्रेम के फूल जिसके पास भी बरसते हैं, वही सम्राट हो जाता है । और जहाँ भी अहंकार घिरता है, वहीं सब अन्धेरा हो जाता है, आदमी दीन और दरिद्र हो  जाता है ।
वह लड़का फूलों का ताज पहनता और नाचता, और वह
वृक्ष बहुत खुश होता, उसके प्राण आनंद से भर जाते ।
हवाएँ सनसनातीं और वह गीत गाता । फिर लड़का और बड़ा हुआ । वह वृक्ष के ऊपर भी चढ़ने लगा, उसकी शाखाओं से झूलने भी लगा । वह उसकी शाखाओं पर विश्राम भी करता, और वृक्ष बहुत आनंदित होता ।
प्रेम आनंदित होता है, जब प्रेम किसी के लिए छाया बन जाता है । अहंकार आनंदित होता है, जब किसी की छाया छीन लेता है । लेकिन लड़का बड़ा होता चला गया, दिन बढ़ते चले गए । जब लड़का बड़ा हो गया तो उसे और दूसरे काम भी दुनिया में आ गए, महत्वाकांक्षाएँ आ गईं । उसे परीक्षाएँ पास करनी थीं, उसे मित्रों को जीतना था । वह फिर कभी-कभी आता, कभी नहीं भी आता, लेकिन वृक्ष उसकी प्रतिक्षा करता कि वह आए, वह आए, उसके सारे प्राण पुकारते कि आओ, आओ!
प्रेम निरंतर प्रतिक्षा करता है कि आओ, आओ!
प्रेम एक प्रतिक्षा है, एक अवेटिंग है । लेकिन वह कभी आता, कभी नहीं आता, तो वृक्ष उदास हो जाता ।
प्रेम की एक ही उदासी है…जब वह बाँट नहीं पाता, तो उदास हो जाता है । जब वह दे नहीं पाता, तो उदास हो जाता है । और प्रेम की एक ही धन्यता है कि जब वह बाँट देता है, लुटा देता है, तो वह आनंदित हो जाता है ।फिर लड़का और बड़ा होता चला गया और वृक्ष के पास आने के दिन कम होते चले गए।
जो आदमी जितना बड़ा होता चला जाता है, महत्वाकांक्षा के जगत में, प्रेम के निकट आने की सुविधा उतनी ही कम होती चली जाती है । उस लड़के की एंबीशन, महत्वाकांक्षा बढ़ रही थी । कहाँ वृक्ष ! कहाँ जाना !
फिर एक दिन वहाँ से निकलता था, तो वृक्ष ने उसे कहा, सुनो! हवाओं में उसकी आवाज गूँजी कि सुनो, तुम आते नहीं, मैं प्रतिक्षा करता हूँ! मैं तुम्हारे लिए प्रतिक्षा करता हूँ, राह देखता हूँ, बाट जोहता हूँ!
उस लड़के ने कहा, क्या है तुम्हारे पास जो मैं आऊँ? मुझे रुपये चाहिए!
हमेशा अहंकार पूछता है कि क्या है तुम्हारे पास जो मैं
आऊँ? अहंकार माँगता है कि कुछ हो तो मैं आऊँ । न कुछ हो तो आने की कोई जरूरत नहीं ।
अहंकार एक प्रयोजन है, एक परपज़ है । प्रयोजन पूरा होता हो तो मैं आऊँ! अगर कोई प्रयोजन न हो तो आने की जरूरत क्या है! और प्रेम निष्प्रयोजन है । प्रेम का कोई प्रयोजन नहीं ।
प्रेम अपने में ही अपना प्रयोजन है, वह बिलकुल परपज़लेस है ।
वृक्ष तो चौंक गया । उसने कहा कि तुम तभी आओगे जब मैं कुछ तुम्हें दे सकूँ? मैं तुम्हें सब दे सकता हूँ । क्योंकि प्रेम कुछ भी रोकना नहीं चाहता । जो रोक ले वह प्रेम नहीं है । अहंकार रोकता है । प्रेम तो बेशर्त दे देता है । लेकिन रुपये मेरे पास नहीं हैं । ये रुपये तो सिर्फ आदमी की ईजाद है, वृक्षों ने यह बीमारी नहीं पाली है ।
उस वृक्ष ने कहा, इसीलिए तो हम इतने आनंदित होते हैं,
इतने फूल खिलते हैं, इतने फल लगते हैं, इतनी बड़ी छाया होती है; हम इतना नाचते हैं आकाश में, हम इतने गीत गाते हैं; पक्षी हम पर आते हैं और संगीत का कलरव करते हैं; क्योंकि हमारे पास रुपये नहीं हैं. जिस दिन हमारे पास भी रुपये हो जाएँगे, हम भी आदमी जैसे दीन-हीन मंदिरों में बैठकर सुनेंगे कि शांति कैसे पाई जाए, प्रेम कैसे पाया जाए. नहीं-नहीं, हमारे पास रुपए नहीं हैं ।
तो उसने कहा, फिर मैं क्या आऊँ तुम्हारे पास! जहाँ रुपए हैं, मुझे वहाँ जाना पड़ेगा । मुझे रुपयों की जरूरत है ।
अहंकार रुपया माँगता है, क्योंकि रुपया शक्ति है ।
अहंकार शक्ति माँगता है । उस वृक्ष ने बहुत सोचा, फिर उसे खयाल आया…तो तुम एक काम करो, मेरे सारे फलों को तोड़कर ले जाओ और बेच दो तो शायद रुपये मिल जाएँ । और लड़के को भी खयाल आया । वह चढ़ा और उसने सारे फल तोड़ डाले. कच्चे भी गिरा डाले । शाखाएँ भी टूटीं, पत्ते भी टूटे । लेकिन वृक्ष बहुत खुश हुआ, बहुत आनंदित हुआ ।
टूटकर भी प्रेम आनंदित होता है । अहंकार पाकर भी आनंदित नहीं होता, पाकर भी दुखी होता है । और उस लड़के ने तो धन्यवाद भी नहीं दिया पीछे लौटकर ।
लेकिन उस वृक्ष को पता भी नहीं चला । उसे तो धन्यवाद मिल गया इसी में कि उसने उसके प्रेम को स्वीकार किया और उसके फलों को ले गया और बाजार में बेचा ।
लेकिन फिर वह बहुत दिनों तक नहीं आया । उसके पास
रुपये थे और रुपयों से रुपया पैदा करने की वह कोशिश
करने में लग गया था । वह भूल गया ।
 वर्ष बीत गए । और वृक्ष उदास है और उसके प्राणों में रस बह रहा है कि वह आए, उसका प्रेमी और उसके रस को ले जाए । जैसे किसी माँ के स्तन में दूध भरा हो और उसका बेटा खो गया हो, और उसके सारे प्राण तड़प रहे हों कि उसका बेटा कहाँ है जिसे वह खोजे, जो उसे हलका कर दे, निर्भार कर दे । ऐसे उस वृक्ष के प्राण पीड़ित होने लगे कि वह आए, आए, आए! उसकी सारी आवाज यही गूँजने लगी कि आओ!
बहुत दिनों के बाद वह आया । अब वह लड़का तो प्रौढ़ हो गया था । वृक्ष ने उससे कहा कि आओ मेरे पास! मेरे आलिंगन में आओ!
उसने कहा, छोड़ो यह बकवास । ये बचपन की बातें हैं ।अहंकार प्रेम को पागलपन समझता है, बचपन की बातें समझता है ।
उस वृक्ष ने कहा, आओ, मेरी डालियों से झूलो! नाचो!
उसने कहा, छोड़ो ये फिजूल की बातें । मुझे एक मकान
बनाना है । मकान दे सकते हो तुम?
वृक्ष ने कहा, मकान? हम तो बिना मकान के ही रहते हैं । मकान में तो सिर्फ आदमी रहता है । दुनिया में और कोई मकान में नहीं रहता, सिर्फ आदमी रहता है. ।सो देखते हो आदमी की हालत…मकान में रहने वाले आदमी की हालत? उसके मकान जितने बड़े होते जाते हैं, आदमी उतना छोटा होता चला जाता है । हम तो बिना मकान के रहते हैं । लेकिन एक बात हो सकती है कि तुम मेरी शाखाओं को काट कर ले जाओ तो शायद तुम मकान बना लो । और वह प्रौढ़ कुल्हाड़ी लेकर आ गया और उसने वृक्ष की शाखाएँ काट डालीं! वृक्ष एक ठूँठ रह गया, नंगा ।
लेकिन वृक्ष बहुत आनंदित था । प्रेम सदा आनंदित है, चाहे उसके अंग भी कट जाएँ । लेकिन कोई ले जाए, कोई ले जाए, कोई बाँट ले, कोई सम्मिलित हो जाए, साझीदार हो जाए ।
और उस लड़के ने तो पीछे लौटकर भी नहीं देखा! उसने
मकान बना लिया । और वक्त गुजरता गया । वह ठूँठ राह देखता, वह चिल्लाना चाहता, लेकिन अब उसके पास पत्ते भी नहीं थे, शाखाएँ भी नहीं थीं । हवाएँ आतीं और वह बोल भी न पाता, बुला भी न पाता । लेकिन उसके प्राणों में तो एक ही गूँज थी…कि आओ! आओ!
और बहुत दिन बीत गए । तब वह बूढ़ा आदमी हो गया 
था वह बच्चा । वह निकल रहा था पास से । वृक्ष के पास आकर खड़ा हो गया । तो वृक्ष ने पूछा…क्या कर सकता हूँ और मैं तुम्हारे लिए? तुम बहुत दिनों बाद आए!
उसने कहा, तुम क्या कर सकोगे? मुझे दूर देश जाना है धन कमाने के लिए । मुझे एक नाव की जरूरत है!
तो उसने कहा, तुम मुझे काट लो तो मेरी इस पींड़ से
नाव बन जाएगी । और मैं बहुत धन्य होऊँगा कि मैं तुम्हारी नाव बन सकूँ और तुम्हें दूर देश ले जा सकूँ । लेकिन तुम जल्दी लौट आना और सकुशल लौट आना. मैं तुम्हारी प्रतिक्षा करूँगा ।
और उसने आरे से उस वृक्ष को काट डाला । तब वह एक छोटा सा ठूँठ रह गया । और वह दूर यात्रा पर निकल गया । और वह ठूँठ भी प्रतिक्षा करता रहा कि वह आए,आए । लेकिन अब उसके पास कुछ भी नहीं है देने को । शायद वह नहीं आएगा, क्योंकि अहंकार वहीं आता है जहाँ कुछ पाने को है, अहंकार वहाँ नहीं जाता जहाँ कुछ पाने को नहीं है ।
मैं उस ठूँठ के पास एक रात मेहमान हुआ था, तो वह ठूँठ मुझसे बोला कि वह मेरा मित्र अब तक नहीं आया! और मुझे बड़ी पीड़ा होती है कि कहीं नाव डूब न गई हो, कहीं वह भटक न गया हो, कहीं दूर किसी किनारे पर विदेश में कहीं भूल न गया हो, कहीं वह डूब न गया हो, कहीं वह समाप्त न हो गया हो! एक खबर भर कोई मुझे ला दे…अब मैं मरने के करीब हूँ…एक खबर भर आ जाए कि वह सकुशल है, फिर कोई बात नहीं! फिर सब ठीक है! अब तो मेरे पास देने को कुछ भी नहीं है, इसलिए बुलाऊँ भी तो शायद वह नहीं आएगा, क्योंकि वह लेने की ही भाषा समझता है ।
अहंकार लेने की भाषा समझता है । प्रेम देने की भाषा है । इससे ज्यादा और कुछ मैं नहीं कहूँगा ।
जीवन एक ऐसा वृक्ष बन जाए और उस वृक्ष की शाखाएँ अनंत तक फैल जाएँ, सब उसकी छाया में हों और सब तक उसकी बाहें फैल जाएँ, तो पता चल सकता है कि प्रेम क्या है… !!

– ओशो 

(संभोग से समाधि की ओर)

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