Sahaj Yog Ka Arth - Osho

सहज योग का अर्थ  - ओशो 
Sahaj Yog Ka Arth Osho

सहज-योग का अर्थ होता है — कृत्रिम न होओ , स्वाभाविक रहो अपने ऊपर आदर्श मत ओढो़ , आदर्श पाखंड लाते हैं ।
आदर्शों के कारण विकृति पैदा होती है ,क्योंकि कुछ तुम होते हो , कुछ तुम होने की चेष्टा करते हो , तनाव पैदा हो जाता है ।
फिर तुम जो हो वह दब जाता है , उसमें जो तुम होना चाहते हो । इसी का नाम पाखंड है ।
सरहपा कहता है ; तुम जैसे हो वैसे ही जीयो ।

जरा सोचो , जरा इस पर ध्यान करो । तुम जैसे हो वैसे ही जीयो , जो परिणाम हो । धोखा न दो ।
अपने को अन्य मत बतलाओ । अगर झूठ बोलते हो तो कह दो कि मैं झूठा हूं और भाई मेरे , मुझसे सावधान रहना , मैं झूठ बोलता हूं । झूठ ही मेरी चर्या है ।
इसलिए कोई मेरा भरोसा न करे । कोई भरोसा करे तो उसकी जोखिम , वह जाने । मैं झूठ बोलता हूं ।
जरा सोचते हो , ऐसा जो आदमी कह सके क्या वह सच्चा नहीं हो गया ? इस कहने में ही सच्चा हो गया ।

इससे बडी़ और सच्चाई क्या होगी कि चोर आकर तुमसे कह जाये कि रात जरा सावधान रहना , कि मेरी नजर तुम्हारी तिजोडी़ पर लगी है , कि मैं आदमी चोर हूं , कि मैं आदमी भला नहीं हूं ,कि मैं लाख दोस्ती बनाऊं तुम सचेत रहना । ऐसा चोर चोर है । ऐसा चोर साधु हो गया ! इस चोर ने अपनी स्वाभाविकता को उदघोषित कर दिया । इस चोर ने अपनी निजता को प्रगट कर दिया ।अब यह असाधु कैसे हो सकता है । इसका पाखंड न रहा ।
फिर एक आदमी है , जो दावा तो सच बोलने का करता है और आड़ में झूठ बोलता है । जिनको भी झूठ बोलना है उन्हें सच बोलने का दावा करना होता है , नहीं तो उनका झूठ मानेगा कौन ? इसलिए झूठ बोलने वाला बार-बार दोहराता है कि मैं सच कह रहा हूं , मैं बिलकुल सच कह रहा हूं , मैं कसम खाकर कहता हूं कि सच कह रहा हूं ।

जब भी कोई आदमी बहुत कसम खाने लगे कि मैं सच कह रहा हूं  तो सावधान हो जाना , क्योंकि यह झूठे का लक्षण है ।

सहज-योग का अर्थ होता है ; – मत करो जटिल । मत बनो झूठ, क्योंकि तुम जितने झूठ हो जाओगे उतने ही दुखी हो जाओगे ।

झूठ दुख लाता है , क्योंकि झूठ के कारण तुम्हारा संबंध सत्य से  छूटने लगता है , टूटने लगता है ।
यह अस्तित्व सत्य है । इसके साथ सत्य हो जाओ तो तुम्हारा संगीत जुड़ जाये , तो तुम्हारी सरगम बैठ जाये ।तुम इसके साथ सत्य हो जाओ तो ही तुम्हारा छंद बैठेगा और तुम्हारे जीवन में नृत्य होगा , उत्सव होगा । इसके साथ तुम सत्य हो जाओ तो इसके साथ लीन हो जाओगे । और उसी लीनता में समाधि है ।

और अगर तुम झूठ रहे तो तुम अलग-थलग रहोगे ।
झूठ बोलोगे , ज्यादा देर नहीं चल पायेगा । चल ही नहीं सकता । झूठ को चलना भी पड़ता है तो सच के पैर उधार लेने पड़ते हैं ।

और सच के पैर और झूठ की देह , इन दोनो के कारण तुम्हारे जीवन में एक द्वंद्व पैदा हो जाता है । और एक झूठ नहीं हजार झूठ हैं , इसलिए हजार द्वंद्व पैदा हो जाते हैं  । इन्हीं द्वंद्वों में ग्रस्त व्यक्ति नर्क में जीता है ।

सहज-योग का अर्थ होता है ; छोडो़ ये द्वंद्व , छोडो़ ये जाल । 

तुम जैसे हो वैसे अपने को स्वीकार कर लो । मत दिखाओ वैसा , जैसे कि तुम नहीं हो । जाने दो सब पाखंड ।
अगर कोई व्यक्ति अपनी संपूर्ण नग्नता में अपने को स्वीकार कर ले तो क्या हो ? क्रांति घट जाती है ।

सहज-योग का अर्थ होता है ; तुम जैसे हो , तुम्हें अंगीकार है । परमात्मा ने तुम्हें जैसा बनाया है, इसमें तुम रत्ती-भर हेर-फेर नहीं करना चाहते हो ।

तुम परमात्मा से अपने को ज्यादा बुध्दिमान सिध्द नहीं करना चाहते हो । परमात्मा ने तुम्हें जैसा बनाया है, उसने तुम्हें जैसा रंगा , वही तुम्हारा रंग है , वही तुम्हारा ढंग है ; तुम उससे अन्यथा होने की न आकांक्षा करते हो न सपना देखते हो ।
सहज-योग परमात्मा के प्रति अनुग्रह का बोध है । सहज भाव से परमात्मा को पुकारना । बिना किसी क्षुद्र आकांक्षा से भरे , चुपचाप जीवन में बहे जाना । तैरना नहीं , संघर्ष नहीं करना , नदी जहां ले जाये उसी तरफ चलना , क्योंकि सभी नदियां अंततः सागर पहुंच जाती हैं ।                                           
अगर कोई चुपचाप बहता चले तो परमात्मा मिलना सुनिश्चित है । परमात्मा मिला ही हुआ है , तुम बहो कि अभी अनुभव में आ जाये । तुम जरा विश्राम करो , मगर तुम बडे़ जद्दो-जहद में लगे हो । तुम बडी़ दौड़-धूप कर रहे हो , आपाधापी में पडे़ हो ।

तुम्हारी आपाधापी और दौड़-धूप के कारण जो तुम्हारे भीतर बैठा है वह दिखाई नहीं पड़ता । तुम इतने उलझे हो , इतने व्यस्त हो कि उसे देखो ही कैसे जो मौजूद ही है ।
परमात्मा तुम्हारा स्वभाव है । इसलिए परमात्मा को पाना नहीं है । पाने की दौड़ छोड़कर जरा बैठो और परमात्मा का अनुभव शुरु हो जाता है । हम शाश्वत नीड़ बनाने में लग जाते हैं , वहीं भूल हो जाती है ।

 जीवन प्रवाह है । शाश्वत मत नीड़ बना , यायावर प्राणों के ! जीवन एक सरित-प्रवाह है और हम जगह-जगह पकड़ लेते हैं , जोर से पकड़ लेते हैं ,आसक्त हो जाते हैं । नीड़ बनाने में लग जाते हैं — शाश्वत नीड़ ! जैसे यहां सदा रहना है ।

सहज-योग कहता है ; यहां कुछ भी सदा रहने को नहीं ;सभी बहा जा रहा है , प्रवाहमान है । सब क्षण-भंगुर है । पकडो़ मत , जीयो । और जो चला जाये उसे जाने दो , ताकि जो नया आ रहा है उसके  लिए तुम्हारा हृदय खाली हो , खुला हो । बीते कलों का हिसाब मत रखो और आनेवाले कलों की चिंता मत करो ।  आज जो आया है , इसे नाचो , इसे गाओ , इसे गुनगुनाओ । और इसी गीत में प्रार्थना पूरी हो जाती है ।

इसी गीत में सिध्दों का सहज-योग सध गया , झेन फकीरों का –
क्षण-बोध सध गया । ये एक ही घटना के दो पहलू हैं ।
सहज योग ( सरहपा-तिलोपा वाणी ) 

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