"आखिर दुनिया कि सरकारें आज भी ओशो से डरती क्यों है?"
क्या मनुष्य ओशो को समझने को तैयार है?
टॉम रॉबिन्स एक प्रसिद्ध अमरिकी उपन्यासकार हैं जिनके कुछ उपन्यासों का हॉलिवुड में फिल्मांतरण भी किया गया है। 1987 में उन्होंने डॉ. जॉर्ज मेरेडिथ द्वारा ओशो पर लिखी पुस्तक, 'भगवान: दि मोस्ट गॉडलैस यैट दि मोस्ट गॉडली ऑफ मैन, की भूमिका लिखी थी। उसी भूमिका को उन्होंने अपनी पुस्तक 'वाइल्ड डँक्स फ्लाइंग बैकवर्ड' में एक टिप्पणी के साथ सम्मिलित किया है। प्रस्तुत है उनकी पुस्तक से यह संपूर्ण आलेख:
मैं ओशो का शिष्य नहीं हूं। मैं किसी भी गुरु का शिष्य नहीं हूं। बल्कि मैं तो मानता हूं कि पूर्वीय गुरु व्यवस्था पश्चिम में चेतना के विकास में उपयोगी नहीं है (जबकि इस बात को मानने वाला भी मैं पहला होउंगा कि जो 'उपयोगी' होता है वह सदा महत्वपूर्ण नहीं होता)। जिस प्रकार का व्यक्तिवादी होने का मैं दावा करता हूं उसके साथ गुरत्व का थोडा-सा भी मेल नहीं बैठता। लेकिन हां, यदि मुझे अपनी आत्मा किसीको सौंपनी ही हो तो मैं किसी राजनैतिक पार्टी या किसी मनोविश्लेषक की बजाय ओशो जैसे किसी को सौंपना चाहूंगा।
तो, मैं कोई संन्यासी नहीं हूं। लेकिन जब कोई हरी बयार मेरे द्वार-दरवाजों को झकझोर जाए तो उसे पहचानने की क्षमता जरुर रखता हूं, और ओशो तो वह प्यारी-सी आंधी हैं जो इस ग्रह को अपनी चपेट में लेते हुए रबाइयों और पोपों की टोपियां उडा रही है, ब्यूरोक्रेट्स की मेजों पर पडे झूठ के पुलिंदो को तितर-बितर कर रही है, शक्तिशालियों की घुडसालों में अफरा-तफरी मचा रही है, रुग्ण नैतिकतावादियों की धोतियां खोल रही है, और आध्यात्मिक रुप से मरे हुओं को वापस जिंदा कर रही है।
ओशो नाम का यह तूफान कोई झूठ-मूठ के आश्वासन नहीं देता। वे कोई सांप का तेल नहीं बेच रहे। वे न तो आपके दांतो को मजबूत करने के लिए कोई मंडला देते हैं और न ही आपको करोडपति बनाने के लिए कोई मंत्र देते हैं। अध्यात्म के बाजार में सब नियमों को उन्होंने ताक पर रख दिया है। उनके इस ताजातरीन रवैये ने उन्हें मनुष्य के इतिहास की सबसे मजबूत संगति में ला बैठाया है।
जीसस के पास अपनी कहानियां थीं, बुध्द के पास अपने सूत्र थे, मौहम्मद के पास अरेबियन नाइट की कल्पनाएं थीं। ओशो के पास लोभ, भय, अज्ञान और अंधविश्वास से लिप्त मानव प्रजाति के देने के लिए कुछ अधिक मौजूं है : उनका ब्रह्मांडीय व्यंग।
मेरे अनुसार, ओशो ने जो किया है वह है हमारे नकाबों को भेद डालना, हमारे भ्रमों को ध्वस्त कर देना, हमें हमारी अंधी लतों से निकालना, और सबसे महत्वपूर्ण तो हमें चेताना कि स्वयं को बहुत गंभीरता से लेकर कैसे हम स्वयंको ही सीमित कर लेते हैं। परम आनंद की ओर उनका मार्ग हमारे अहंकार को मजाक में उडाता हुआ जाता है।
हां, बहुत से लोगों को यह मजाक समझ में नहीं बैठता। खासकर सत्ताधीशों के। मजाक तो उनके सिर के ऊपर से निकल जाता है, लेकिन कहीं गहरे में वे यह जरूर महसूस करते हैं कि ओशो के संदेश में उनके लिए कुछ खतरनाक है। नहीं तो एक आकेले ओशो को ऐसी प्रताडना के लिए वे क्यों चुनते जैसी उन्होंने किसी बनाना रिपब्लिक के तानाशाह या किसी माफिया डॉन को भी न दी होती? अगर रोनाल्ड रीगन का बस चलता तो वह इस कोमल से शाकाहारी को व्हाइट हाउस के दालान में सूली पर लटकाना देना पसंद करता।
उनको जिस खतरे का अहसास होता है वह यह है कि ओशो के शब्दों में जो छिपा है, उसे यदि पूरी तरह से समझ लिया गया तो नर-नारीयां उनके नियंत्रण से मुक्त हो जाएंगे। राज्य, और अपराध में उनके भागीदार-संगठित धर्म--को स्वतंत्र और मुक्त मनुष्यों की संभावना से अधिक कुछ भी आतंकित नहीं करता।
लेकिन स्वतंत्रता एक शक्तिशाली शराब जैसी है। इसे पीने वालों को इसके नशे के साथ समायोजन बिठाने में समय लगता है। कुछ लोग-जिनमें ओशो के कुछ संन्यासी भी होंगे-यह समायोजन कभी नहीं बिठा पाते। संसार भर में कितने ही लोग हैं जिन्होंने कई प्रकार की स्वतंत्रताओं की बात की है, लेकिन बार-बार हमने देखा है कि लोग अपनी स्वतंत्रता को संभाल नहीं पाते। 'ओशो का अनुसरण करने वाले कितने लोग स्वतंत्र हो पाते हैं, और कितने उस स्वतंत्रता को संभाल पाते हैं यह देखा जाना अभी बाकी है'।
इतिहास को देखें और मनुष्य नाम के पशु की जडता को देखें तो लगता तो ऐसा है कि उसकी भ्रष्ट उदासीनता को तोडने के लिए एक करुणामय मनीषी की गैरपारंपरिक प्रज्ञा से भी अधिक शायद यह जरूरी हो कि यह मनुष्यता पूरी समाप्त हो और फिर से शुरू हो।
खैर, वह हो कि न हो, लेकिन ओशो की प्रज्ञा हमें उपलब्ध है। उनकी अंतर्दृष्टि हमें उपलब्ध है और हम चाहें तो अपने मुखौटों के पार देख सकते हैं। इस अंतर्दृष्टि में ताकत है कि वह परिणाम की परवाह किए बगैर अभिव्यक्त हो सकती है। इस अंतर्दृष्टि में प्रेम भी है और नटखट शरारत भी। यह ओशो की जीवंतता है कि वे सारे भौतिक सुविधाओं को खुलकर जीते भी हैं और फिर उन्हीं में अटके रह जाने के खतरे से भी चेताते हैं। 'जोरबा दि बुध्दा की इस अंतर्दृष्टि को हम समझ लें, तो सब समझ गए।
स्वभावत; जिन पत्रकारों ने ओशो पर शोध की है उनमें से अधिकांश उनके तरीकों, उनके संदेश और उनकी उलटबांसियों को समझ ही नहीं पाए। यहां तक कि उनके क ई अनुयायी भी विबूचन में पड गए। खैर, यह कोई नयी बात नहीं है। जीसस, बुध्द और सुकरात भी केवल राजनैतिक-धार्मिक सत्ताओं द्वारा ही नहीं अपने कई शिष्यों द्वारा भी गलत समझे गए थे। यह शायद इस मार्ग का नियम ही है। इसीलिए तो झेन में कहते हैं, 'गुरु सदा सडक पर मार दिया जाता है।' शायद अकसर तो उनके ही द्वारा जो उसे प्रेम करने का दावा करते हैं।
जब भी ओशो के किसी शिष्य ने कुछ आपत्तिजनक किया है तो मीडिया व जनता ने ओशो पर इलजाम लगाया है। वे यह नहीं समझ पाते कि ओशो उन्हें नियंत्रित नहीं करते, और न ही ऐसा उनका कोई इरादा रहा है। ऊपर से किसी द्वारा किसीको नियंत्रित करने का प्रयास उनके संदेश के विपरीत जाता है।
जब भी ओशो के नाम पर कोई मूढता की गई है, उन्होनें अपना सिर झटककर केवल इतना कहा है, 'मुझे पता है वे थोडे बुद्धू हैं, पर उन्हें इससे गुजरना पडेगा।' इतनी स्वतंत्रता, इतनी सहिष्णुता को समझ पाना तो मानव अधिकारों की माला जपने वालों के लिए भी उतना ही मुश्किल है जितना कि किसी जडबुद्धि के लिए। लेकिन उस बाह्य व्यक्ति की भांति जो अभिभूत है कि किस प्रकार ओशो ने जीवन की गहनता को मस्ती दे दी है, मैं जानता हूं कि यदि हमें उस गंदगी से बाहर निकलना है जिसमें अपनी शक्ति की भूख और मालकियत की प्यास के चलते हम इस सुंदर ग्रह को ले आए हैं--तो हमें ओशो को समझना ही होगा। बस कामना करता हूं कि हम उन्हें अपनी अंधी परंपराओं के फिल्टर उतारकर सुनें।
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डॉ. जॉर्ज मेरेडिथ द्वारा लिखीत 'भगवान: दि मोस्ट गॉडलेस येट दि मोस्ट गॉडली ऑफ मैन' की भूमिका,1987
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