नास्तिकता - एक अनिवार्य प्रक्रिया - ओशो
आस्तिक होने के लिए नास्तिक होना अत्यंत अनिवार्य है। अभागे हैं वे जिन्होंने कभी नास्तिकता नहीं चखी, क्योंकि वे आस्तिकता का स्वाद न समझ पाएंगे। आस्तिकता उभर कर प्रकट होती है, नास्तिकता की पृष्ठभूमि में। जैसे ब्लैकबोर्ड पर लिखते हैं सफेद खडि़या से, अक्षर-अक्षर साफ दिखाई पड़ता है। यूं तो सफेद दीवाल पर भी लिख सकते हैं, मगर तब अक्षर दिखाई न पड़ेंगे।
इस जगत के बड़े से बड़े दुर्भाग्यों में से एक है कि हम प्रत्येक बच्चे को नास्तिक बनने के पहले आस्तिक बना देते हैं। वह आस्तिकता झूठी होती है, उसमें कुछ प्राण नहीं होते। उस आस्तिकता में पंख नहीं होते। वह निर्वीर्य होती है, निर्जीव होती है। खिलौनों की तरह कृष्ण को पकड़ा देते हैं, राम को पकड़ा देते हैं, बुद्ध को, महावीर को पकड़ा देते हैं। अभी बच्चे में जिज्ञासा भी नहीं जगी, अभी प्रश्न भी नहीं उठा, और हमने उधार दे दिए! जहां प्रश्न ही नहीं है, वहां उधार मिथ्या होगा; वहां उधार की कोई गुंजाइश ही नहीं है। बीमारी ही नहीं है, और तुमने इलाज शुरू कर दिया! तुम दवा पिलाने लगे! तुम्हारी दवा जहर बन जाएगी। और आस्तिकता जहर बन गई है। सारी पृथ्वी आस्तिकता से पीडि़त है, नास्तिकता से नहीं। और आदमी कुछ ऐसा मूढ़ है कि एक अति से दूसरी अति पर जाने में उसे देर नहीं लगती। रूस, चीन और दूसरे कम्युनिस्ट देश दूसरी अति पर चले गए। बच्चा पैदा हुआ, और वे उसे नास्तिकता सिखाने लगते हैं।
सिखाई नास्तिकता उतनी ही थोथी होगी, जितनी सिखाई आस्तिकता। किसी बच्चे को भूख तो नहीं सिखानी होती, प्यास तो नहीं सिखानी होती, नींद तो नहीं सिखानी होती। नास्तिकता वैसी ही स्वभावत: पैदा होती है। नास्तिकता का ठीक अर्थ है: जिज्ञासा, आकांक्षा जानने की, अन्वेषण, खोज। वह यात्रा है। प्रत्येक व्यक्ति अपने साथ लेकर आया है उसके बीज। किसी को नास्तिक बनाने की जरूरत नहीं है और न किसी को आस्तिक बनाने की जरूरत है। बनाया कि चूक हुई। बनाया कि ढोंग हुआ। बनाया कि मुखौटे उढ़ा दिए। फिर मुखौटे हिंदू के हों, कि मुसलमान के, कि ईसाई के, कि नास्तिक के, कम्युनिस्ट के, इससे भेद नहीं पड़ता। दूसरों के द्वारा उढ़ाए गए मुखौटे तुम्हारा चेहरा नहीं हैं। और तुम्हारा चेहरा ही काम आएगा। जीवन उधार नहीं जीया जा सकता। जीवन प्रामाणिक होना चाहिए। हमें इतना धैर्य रखना चाहिए कि बच्चे पर जब जिज्ञासा अपने आप अवतरित होगी, जब वह पूछेगा, तो हम साथ देंगे। और साथ भी बहुत सोच कर देना।
साथ देने का अर्थ नहीं है कि वह पूछे और तुम उत्तर देना। प्रश्न उसका, उत्तर तुम्हारा, मेल कैसे होगा? प्रश्न उसका तो उत्तर भी उसका ही होना चाहिए, तभी तृपित होगी, तभी संतोष होगा, तभी बोध होगा, बुद्धत्व होगा। तो जब बच्चे को जिज्ञासा जगे, प्रश्न उठें, संदेह के झंझावात आएं, तब माता को, पिता को, परिवार को, प्रियजनों को, शिक्षकों को सहयोग देना चाहिए–प्रश्नों के निखारने का, निखारने में, प्रश्नों पर धार रखने में। प्रश्नों पर उत्तर नहीं थोपने हैं, प्रश्नों को त्वरा देनी है, तीव्रता देनी है। प्रश्नों को ऐसी प्रगाढ़ता देनी है कि जब तक व्यक्ति उनके उत्तर स्वयं न खोज ले, चैन न पाए, विश्राम न पाए। उसके प्रश्नों को मूल्य दो।
मगर किसको पड़ी है! हमें जल्दी है हमारे उत्तर थोप देने की। हमारा न्यस्त स्वार्थ यही है कि हम जल्दी से अपने उत्तर थोप दें। बेटा पैदा हुआ, कि चलो उसका यज्ञोपवीत संस्कार करो, कि चलो उसका खतना करवाओ, कि चलो उसको मुसलमान बनाओ, हिंदू बनाओ, ईसाई बनाओ, बपतिस्मा करवाओ। जैसे उसका तो इसमें कुछ भाग ही नहीं है। यह सब दूसरों का गोरखधंधा है, जिसमें उसको फंसना है। ये जो उसे फंसा रहे हैं, ये भी फंसाए गए थे। इनके बाप-दादे भी फंसाए गए थे; और उनके बाप-दादे भी। और ये पीढि़यों दर पीढि़यों बीमारियां सरकती चली जाती हैं, और भी जघन्य होती जाती हैं। ये रोग इतने घने हो जाते हैं कि इनका इलाज करना मुशिकल हो जाता है।
मेरी अपनी सूझ यही है कि जो नास्तिक होने की हिम्मत रखता है, वही कभी संन्यासी भी हो सकता है। संन्यास नास्तिक होने से भी बड़ी हिम्मत है। जो नास्तिक होने की हिम्मत नहीं रखता इसलिए आस्तिक है, उसकी आस्तिकता दो कौड़ी की है, उसका कोई भी मूल्य नहीं है। कचरा है। जितने जल्दी उससे छुटकारा हो जाए, उतना अच्छा है। जो नास्तिक होने तक की हिम्मत नहीं रखता, वह क्या खाक आस्तिक होगा! आस्तिकता बड़ी बात है। नास्तिकता तो छोटी बात है। ‘नहीं’ तो हमेशा छोटा होता है।
‘नहीं’ कहना तो बहुत छोटी बात है। अगर उस छोटी सी बात को भी कहने की हिम्मत नहीं है, तो फिर ‘हां’ जैसी विराट अनुभूति को कैसे स्वीकार करोगे? नास्तिक होना नहीं कहना है। हर बच्चे को नास्तिकता से गुजरना ही चाहिए। वह अनिवार्य प्रक्रिया है। उसे ‘नहीं’ कहना ही चाहिए। उसे ‘नहीं’ कहना सीखना ही चाहिए। क्योंकि ‘नहीं’ कह कर ही तो, ये नहीं के कांटों के बीच में ही तो कभी ‘हां’ का गुलाब खिलेगा।
हां, जिसने ‘नहीं’ कहा है और ‘नहीं’ कहने के लिए कष्ट भोगा है, वह ज्यादा दिन तक ‘नहीं’, नहीं कहता रहेगा। उसे समझ में आनी बात शुरू हो जाएगी, क्योंकि ‘नहीं’ से कोई तृपित नहीं मिलती, संतोष नहीं मिलता, आनंद नहीं मिलता। दूसरे को दुख भला दे दो; मगर दूसरे को दुख देने में तुम्हें थोड़े ही सुख मिलता है! दूसरे को मिटा देने में तुम थोड़े ही बन जाते हो!
नास्तिक की मेरी परिभाषा यही है कि जो ‘नहीं’ कहने में तल्लीन हो गया है। जिसने इतना ‘नहीं’ कहा है कि वह परमात्मा को भी नहीं कह रहा है, आत्मा को भी नहीं कह रहा है, जीवन के सर्वोच्च मूल्यों को नहीं कह रहा है। जो कह रहा है, जीवन सिर्फ पदार्थ है और कुछ भी नहीं, मिट्टी है और कुछ भी नहीं। यहां कुछ सार नहीं है, कुछ शाश्वत नहीं है। ‘नहीं’ कहने में थोड़ी-बहुत देर मजा आ जाए, लेकिन कब तक? जल्दी ही एक बात ख्याल में आएगी: अगर कुछ भी नहीं है–न परमात्मा है, न सत्य है, न सौंदर्य है, न शिवत्व है, न शाश्वतता है, न अमृतत्व है, न बुद्धत्व है–तो फिर जीवन एकदम व्यर्थ है। अर्थ कुछ भी नहीं। व्यर्थ की बकवास है।
नास्तिक अगर प्रामाणिक हो – रूसी नहीं, चीनी नहीं, क्योंकि रूस और चीन में नास्तिक वैसा ही झूठा है, जैसे भारत के आस्तिक झूठे हैं। भारत में आस्तिकता थोपी जाती है, चीन और रूस में नास्तिकता थोपी जाती है। हर थोपी चीज झूठी हो जाती है। जिसके भीतर से नास्तिकता जगी है! और हर बच्चे के भीतर जगती है, जगनी ही चाहिए। मनोवैज्ञानिक प्रक्रिया है। मनोवैज्ञानिक अनिवार्यता है।
– ओशो
[अनहद में बिसराम-2]
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