Guru Par Sandeh Aur Shraddha - Osho

गुरु पर संदेह और श्रद्धा - ओशो 
Guru par Sandeh Aur Shraddha osho

“‘मैं यही कहता हूं कि जो बात आपकी बुद्धि को उचित मालूम पड़े, आपके विवेक से ताल—मेल खाये, उसे ही स्वीकार करना। जो न ताल—मेल खाये उसे छोड़ देना, फेंक देना।’

गुरु की तलाश में भी यह बात लागू है, लेकिन तलाश के बाद यह बात लागू नहीं है। सब तरह से विवेक की कोशिश करना, सब तरह से बुद्धि का उपयोग करना, सोचना—समझना। लेकिन जब कोई गुरु विवेकपूर्ण रूप से ताल—मेल खा जाये और आपकी बुद्धि कहने लगे कि मिल गयी वह जगह, जहां सब छोड़ा जा सकता है, फिर वहां रुकना मत। फिर छोड़ देना।
लेकिन अगर कोई यह सोचता हो कि एक बार किसी के प्रति शिष्य—भाव लेने पर फिर इंच—इंच अपनी बुद्धि को बीच में लाना ही है, तो उसकी कोई भी गति न हो पायेगी। उसकी हालत वैसी हो जायेगी जैसे छोटे बच्चे आम की गोई को जमीन में गाड़ देते हैं, फिर घड़ी—घड़ी जाकर देखते है कि अभी तक अंकुर फूटा या नहीं। खोदते है, निकालते है। उनकी गोई में कभी भी अंकुर फूटेगा नहीं। फिर जब गोई को गाड़ दिया, तो फिर थोड़ा धैर्य और प्रतीक्षा रखनी होगी। फिर बार—बार उखाड़ कर देखने से कोई भी गति और कोई अंकुरण नहीं होगा।

तो कृष्ण ने भी जब कहां है, ‘मामेकं शरणं ब्रज‘, तो उसका मतलब यह नहीं है कि तू बिना सोचे—समझे किसी के भी चरणों में सिर रख देना। सब सोच—समझ, सारी बुद्धि का उपयोग कर लेना। लेकिन जब तेरी बुद्धि और तेरा विवेक कहे कि ठीक आ गयी वह जगह, जहां सिर झुकाया जा सकता है, तो फिर सिर झुका देना।
इन दोनों बातों में कोई विरोध नहीं है। इन दोनों बातों में विरोध दिखायी पड़ता है, विरोध नहीं है। और अर्जुन ने भी ऐसे ही सिर नहीं झुका दिया, नहीं तो यह सारी गीता पैदा नहीं होती। उसने कृष्ण की सब तरह परीक्षा कर ली, सब तरह, चिंतन, मनन, प्रश्‍न, जिज्ञासा कर ली। सब तरह के प्रश्‍न पूछ डाले, जो भी पूछा जा सकता था, पूछ लिया। तभी वह उनके चरणों में झुका है। लेकिन अगर कोई कहे कि यह जारी ही रखनी है खोज, तो फिर जिज्ञासा तक ही बात रुकी रहेगी और यात्रा कभी शुरू न होगी।

यात्रा शुरू करने का अर्थ ही यह है कि जिज्ञासा पूरी हुई। अब हम कोई निर्णय लेते हैं और यात्रा शुरू करते हैं। नहीं तो यात्रा कभी भी नहीं हो सकती।
तो, एक तो दार्शनिक का जगत है, वहां आप जीवन भर जिज्ञासा जारी रख सकते हैं। धार्मिक का जगत भिन्न है, वहां जिज्ञासा की जगह है, लेकिन प्राथमिक। और जब जिज्ञासा पूरी हो जाती है तो यात्रा शुरू होती है। दार्शनिक कभी यात्रा पर नहीं निकलता, सोचता ही रहता है। धार्मिक भी सोचता है, लेकिन यात्रा पर निकलने के लिए ही सोचता है। और अगर यात्रा पर एक—एक कदम करके सोचते ही चले जाना है तो यात्रा कभी भी नहीं हो पायेगी। निर्णय के पहले चिंतन, निर्णय के बाद समर्पण।”

– ओशो

[महावीर वाणी – 27]

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