Naye Manushya Ke Janma Ki Disha - Shiksha Me Kranti

१ . नये मनुष्य के जन्म की दिशा -
 शिक्षा में क्रांति - ओशो 
Shiksha Me Kranti Osho

मेरे प्रिय ! मै आपके बीच उपस्थित होकर अत्यंत आनंदित हूं। शिक्षा की स्थिति देखकर ह्रदय मे बहुत पीड़ा होती है। शिक्षा के नाम पर जिन परतंत्रताओ का पोषण किया जाता है,उनसे एक स्वतंत्र और स्वस्थ्य मनुष्य का जन्म संभव नहीं है । मनुष्य जाति जिस कुरूपता और अपंगता मे फंसी है,उसके मूलभूत कारण शिक्षा मे ही छिपे हैं । शिक्षा ने प्रकृति से तो मनुष्य को तोड़ दिया है, लेकिन संस्कृति उससे पैदा नहीं हो सकी है, उल्टे पैदा हुई है --- विकृति । इस विकृति को ही  प्रत्येक पीढी नयी पीढियों पर थोपी चली जाती है । और फिर जब विकृति ही संस्कृति समझी जाती हो तो स्वभावत: थोपने का कार्य पुण्य की आभा भी ले लेता हो तो आश्चर्य नहीं है । और जब पाप पुण्य के वेश में प्रगट होता है, तो अत्यंत घातक हो ही जाता है ।

इसलिए ही तो शोषण सेवा की आड मे खड़ा होता है, और हिंसा अहिंसा के वस्त्र ओढती है, और विकृतियां संस्कृति के मुखौटे पहन लेती है । अधर्म का धर्म के मंदिरों में आवास अकारण नहीं है । अधर्म सीधा और नग्न तो कभी उपस्थित ही नहीं होता है । इसलिए यह सदा है कि मात्र वस्त्रो में विश्वास न किया जाए । वस्त्रो को उघाडकर देख लेना अत्यंत ही आवश्यक है ।

मैं भी शिक्षा के वस्त्रो को उघाडकर ही देखना चाहूंगा । इसमें आप बुरा तो न मानेगे? विवशता है, इसलिए ऐसा करना आवश्यक है । शिक्षा की वास्तविक आत्मा को देखने के लिए उसके तथाकथित वस्त्रो को हटाना ही होगा । क्योंकि अत्याधिक सुंदर वस्त्रो में जरूर ही कोई अस्वस्थ और कुरूप आत्मा वास कर रही है; अन्यथा मनुष्य का जीवन इतनी धृणा,हिंसा और अधर्म का जीवन नहीं हो सकता है ।

जीवन के वृक्ष पर कडवे और विषात्क्त फल देखकर क्या गलत बीजों के बोये जाने का स्मरण नही आता है? बीज गलत नहीं तो वृक्ष पर गलत फल कैसे आ सकते हैं? वृक्ष का विषाक्तत फलो से भरा होना बीज में प्रच्छन्न विष के अतिरिक्त और किस बात की खबर है? मनुष्य गलत है तो निश्चय ही शिक्षा सम्यक नही है ।

यह हो सकता है कि आप इस भांति न सोचते रहे हो, और मेरी बात का आपकी विचारणा से कोई मेल नहीं है । लेकिन मैं माने जाने का नहीं है,  मात्र सुने जाने का निवेदन करता हूँ । उतना पर्याप्त भी है । सत्य को शांति से सुन लेना ही काफी है । असत्य ही माने जाने का आग्रह करता है । सत्य तो मात्र सुन लिए जाने पर ही परिणाम ले आता है ।

सत्य का सम्यक श्रवण ही स्वीकृति है ।

शिक्षाशास्त्र से भी मेरी दृष्टि भिन्न और विरोधी हो सकती है । मैं न तो शिक्षाशास्त्री ही हूं और न समाजशास्त्री ही । किंतु यह सौभाग्य की ही बात है । क्योंकि जो जितना अधिक शास्त्र को जानते हैं, उनके लिए जीवन को जानना उतना ही कठिन हो जाता है । शास्त्र सदा ही सत्य के जानने में बाधा बन जाते हैं । शास्त्र से भरे हुए चित्त में चिंतन समाप्त हो जाता है । चिंतन के लिए तो निर्भार और पक्षपात मुक्त चित्त चाहिए न ? शास्त्र और सिद्धांत पक्ष पैदा करते हैं । और तब जीवन और उसकी समस्याओ के प्रति निष्पक्ष और निर्दोष दृष्टि नहीं रह जाती है । शास्त्र जिसके लिए महत्वपूर्ण है, उसके समक्ष समाधान समस्याओ से भी ज्यादा महत्वपूर्ण हो जाते हैं । वह समस्याओ के अनुरूप समाधान नहीं, वरन समाधानों के अनुरूप ही समस्याओ को देखने लगता है । इससे जो मूढतापूर्ण स्थिति पैदा होती है, उससे समाधानो से समस्याओ का अंत नहीं, अपितु और बढती होती है । मनुष्य का पूरा इतिहास ही इसका प्रमाण है ।

मनुष्य का विचार और आचार इतना भिन्न, स्वविरोधी क्यो है? शास्त्रो और सिद्धांतो के आधार पर जीवन पर थोपे गये समाधानो का ही यह परिणाम है । समाधान समस्याओ से नहीं जन्मे हैं, उन्हें समस्याओ के ऊपर थोपा गया है । समाधान ऊपर है, समस्याये भीतर है । समाधान बुद्धि में है, समस्याये जीवन में है । और यह अंतर्द्वंद्व आत्मघाती हो गया है । सभ्यता के भीतर इस भांति जो विक्षिप्तता चलती रही है, वह अब विस्फोट की स्थिति में आ गयी है । उसके विस्फोट की संभावना से पूरी मनुष्यता भयाक्रांत है । लेकिन मात्र भयभीत होने से क्या होगा? भय की नहीं, वरन साहसपूर्वक पूरी स्थिति को जानने और पहचानने की जरूरत है ।

मैं शास्त्रो को बीच में नहीं लूँगा, क्योंकि मैं समाधानो से अंधा नहीं होना चाहता । मैं तो आपसे कुछ ऐसी बातें करना चाहता हूँ, जो समस्याओ को सीधा देखने से पैदा होती है ।

क्या यह संभव नहीं है कि हम जीवन को सीधा देख सके? क्या यह संभव नहीं है कि हम जीवन को वैसा देखे जैसे की पहले आदमी ने उसे देखा होगा? क्या हमारा मन उतनी सरलता और स्वतंत्रता और सहजता से जीवन को नहीं देख सकता है?

शिक्षा के समक्ष इसे मैं सबसे अहम् समस्या मानता हूं ।

शिक्षा व्यक्ति के चित्त को इतना बोझिल, जटिल  और बूढा कर दे कि उसका जीवन से सीधा संपर्क छिन्न-भिन्न हो जाए तो यह शुभ नहीं है । बोझिल और बूढा चित्त जीवन के ज्ञान, आनंद और सौंदर्य सभी से वंचित रह जाता है । ज्ञान, आनंद और सौंदर्य की अनुभूति के लिए युवा चित्त चाहिए । शरीर तो बूढा होने को आबद्ध है, लेकिन चित्त नहीं । चित्त तो सदा युवा रह सकता है । मृत्यु के अंतिम क्षण तक चित्त युवा रह सकता है, और ऐसा चित्त ही जीवन और मृत्यु के रहस्यों को जान पाता है । ऐसा चित्त ही धार्मिक चित्त है ।

लेकिन शिक्षा तो चित्त को बूढा करती है । वह चित्त को जगाती नही,भरती है और भरने से चित्त बूढा होता है । विचार भरने से चित्त थकता,बोझिल होता और बूढा होता है । विचार देना,स्मृति को भरना है । वह विचार या विवेक का जागरण नहीं है । स्मृति विवेक नहीं है । स्मृति तो यांत्रिक है । विवेक है चैतन्य । विचार नहीं देना है,  विचार को जगाना है । विचार जहाँ जागृत है, वहां चित्त सदा युवा है । और जहां चित्त युवा है, वहां जीवन का सतत संघर्ष है, वहां चेतना के द्वार खुले हैं और वहां सुबह की ताजी हवाये भी आती है, और नये उगते सूरज का प्रकाश भी आता है । व्यक्ति जब दूसरो के विचारों और शब्दों में ही कैद हो जाता है, तो सत्य के आकाश में उसकी स्वयं की उडने की क्षमता ही नष्ट हो जाती है । लेकिन शिक्षा क्या करती है? क्या वह विचार करना सिखातीहै, या कि मात्र मृत और उधार विचार देकर ही तृप्त हो जाती है? विचार से जीवंत और शक्ति कौन-सी है?


लेकिन मात्र दूसरो के विचारों को सीख लेने से जड और मृत भी कोई दूसरी जडता नहीं है । विचार संग्रह जड़ता लाता है । विचार संग्रह से विचार और विवेक का जन्म नहीं होता है ।

विचार और विवेक के आविर्भाव के लिए यांत्रिक स्मृति पर अत्याधिक बल घातक है । उसके लिए तो विचार और विवेक के समुचित अवसर होने आवश्यक है । उसके लिए तो श्रद्धा की जगह संदेह सिखाना अनिवार्य है ।

श्रद्धा और विश्वास बांधते हैं । संदेह मुक्त करता है ।

लेकिन संदेह से मेरा अर्थ अविश्वास नहीं है, क्योंकि अविश्वास तो विश्वास का ही नकारात्मक रूप है  -- न विश्वास, न अविश्वास वरन संदेह  --- विश्वास और अविश्वास दोनों ही संदेह की मृत्यु है । और जहां संदेह की मुक्तिदायी तीव्रता नहीं है, वहां न सत्य की खोज है, न प्राप्ति है ।

संदेह की तीव्रता खोज बनती है । संदेह है प्यास, संदेह है अभीप्सा । संदेह की अग्नि में ही प्राणो का मंथन होता है और विचार का जन्म होता है । संदेह की पीड़ा विचार के जन्म की प्रसव पीड़ा है । और जो उस पीड़ा से पलायन करता है, वह सदा के लिए विचार के जागरण से वंचित रह जाता है ।

क्या हममें संदेह है? क्या हममें जीवन के मूलभूत अर्थो और मूल्यों के प्रति संदेह है? यदि नहीं, तो निश्चय ही हमारी शिक्षा गलत हुई है । सम्यक शिक्षा का सम्यक संदेह के अतिरिक्त और कोई आधार ही नहीं है । संदेह नहीं तो खोज कैसे होगी? संदेह नहीं तो असंतोष कैसे होगा? संदेह नहीं तो प्राण सत्य को जानने और पाने को आकुल कैसे होगे ? इसलिए तो हम सब अत्यंत छिछली तृप्ति के डबरे बन गये हैं, और हमारी आत्माए सतत सागर की खोज में बहनेवाली सरिताए नहीं है ।

यह जड़ता किसने पैदा की है ? निश्चित ही शिक्षा ने और शिक्षक ने । शिक्षक के माध्यम से मनुष्य के चित्त को परतंत्रताओ की अत्यंत सूक्ष्म जंजीरों में बांधा जाता रहा है । यह सूक्ष्म शोषण बहुत पुराना है । शोषण के अनेक कारण हैं  --- धर्म है, धार्मिक गुरु है, राजतंत्र है, समाज के न्यस्त स्वार्थ है, धनपति है, सत्ताधिकारी है ।

सत्ताधिकारी ने कभी भी नहीं चाहा है कि मनुष्य में विचार हो,क्योंकि जहां विचार है, वहां विद्रोह का बीज है । विचार मूलत: विद्रोह है । क्योंकि विचार अंधा नहीं है, विचार के पास अपनी आंखें है । उसे हर कहीं नहीं ले जाया जा सकता । उसे हर कुछ करने और मानने को राजी नहीं किया जा सकता है । उसे अंधानुयायी नहीं बनाया जा सकता है । इसलिए सत्ताधिकारी विचार के पक्ष में नहीं है, वे विश्वास के पक्ष में है । क्योंकि विश्वास अंधा है । और मनुष्य अंधा हो तो ही उसका शोषण हो सकता है । और मनुष्य अंधा हो तो ही उसे स्वयं उसके ही अमंगल में संलग्न किया जा सकता है ।

मनुष्य का अंधापन उसे सब भांति के शोषण की भूमि बना देता है । इसलिए विश्वास सिखाया जाता है, आस्था सिखायी जाती हैं, श्रद्धा सिखायी जाती है । धर्मो ने यही किया है । राजनीतिज्ञों ने यही किया है । विचार से सभी भांति के सत्ताधिकारीयो को भय है । विचार जागृत होगा तो न तो वर्ण हो सकते हैं, न वर्ग हो सकते हैं । धन का शोषण भी नहीं हो सकता है । और शोषण को पिछले जन्मो के पाप-पुण्यो के आधार पर भी नहीं समझाया और बचाया जा सकता है ।

विचार के साथ आएगी क्रांति-- सब तलो पर और सब संबंधों में  --- राजनीतिज्ञ भी उसमें नहीं बचेगे और राष्ट्रो की सीमाये भी नहीं बचेगी । मनुष्य को मनुष्य से तोडनेवाली कोई दीवार नहीं बच सकती है । इससे विचार से भय है, पूंजीवादी राजनीतिज्ञों को भी, साम्यवादी को भी। और इस भय से सुरक्षा के लिए शिक्षा के ढांचे की ईजाद है । यह तथाकथित शिक्षा सैकडो वर्षों से चल रहे एक बडे षडयंत्र का हिस्सा है । धर्म पुरोहित पहले इस पर हावी थे,अब राज्य हावी है ।


विचार के अभाव में व्यक्ति निर्मित ही नहीं हो पाता है । क्योंकि व्यक्तित्व की मूल आधारशिला ही उसमें अनुपस्थित होती है । व्यक्तित्व की मूल आधारशिला क्या है? क्या विचार की स्वतंत्र क्षमता ही नहीं? लेकिन स्वतंत्र विचार की तो जन्म के पूर्व ही हत्या कर दी जाती है । गीता सीखायी जाती हैं, कुरान और बाईबल सिखाये जाते हैं, केपिटल और कम्युनिस्ट मेनीफेस्टो सिखाये जाते हैं--- उनके आधार पर, उनके ढांचे में विचार करना भी सिखाया जाता है । ऐसे विचार से ज्यादा मिथ्या और क्या हो सकता है? ऐसे अंधी पुनरूक्ति सिखायी जाती है और उसे ही विचार करना कहा जाता है ।

जहां आधार है, ढांचा है, विश्वास और श्रद्धा है,वहां विचार असंभव है । विचार के लिए तो समस्त ढांचो से मुक्त चित्त चाहिए । शिक्षा मन को ढांचे दे और पटरियां दे तो उचित नहीं है । उसे तो ढांचो में मन न ढल पाये ऐसी सावधानी और सजगता देनी चाहिए । उसे तो ऐसा बोध देना चाहिए कि संस्कारो में चित्त परतंत्र न हो पावे और व्यक्ति की स्वतंत्र चिंतन धारा का आविर्भाव भी हो सके।
ध्यान दिया जाए तो यह अवश्य ही हो सकता है । स्वतंत्र चिंतन के बीज तो प्रत्येक व्यक्ति में है । अनुकूल सुविधाओं में वे विकसित भी हो सकते हैं । स्वतंत्रताकौन नहीं चाहता है? स्वयं का विवेक और विचार कौन नहीं चाहता है? लेकिन यदि शिक्षा का पूरा यंत्र ही मनुष्य की स्वतंत्रता की जगह परतंत्रता के लिए तैयारी करता हो तो बात ही दूसरी है । तब तो वे थोड़े से व्यक्ति ही आश्चर्य का कारण है जो कि इस यंत्र से गुजरकर भी यंत्र बनने से स्वयं को बचा लेते हैं ।

शिक्षालयो से गुजरकर स्वयं की प्रतिभा को बचा लेने से अधिक दुरूह कार्य और कोई भी नहीं है । विश्वविद्यालयो ने मौलिक प्रतिभाओ को नष्ट करने में अपनी कुशलता का चरम बिंदु तो बहुत पहले ही उपलब्ध कर लिया है ।

मनुष्य की परतंत्रता के लिए ही अनुशासन पर अत्याधिक बल दिया जाता है । विवेक के अभाव की पूर्ति अनुशासन से करने की कोशिश की जाती है । विवेक हो तो व्यक्ति मे और उसके जीवन में एक स्वत: स्फूर्त अनुशासन अपने आप ही पैदा होता है । उसे लाना नहीं पडता है । वह तो अपने आप ही आता है । लेकिन जहां विवेक सिखाया ही न जाता हो, वहां तो ऊपर से थोपे अनुशासन पर ही निर्भर होना पड़ता है । यह अनुशासन मिथ्या तो होगा ही । व्यक्ति का अंत:करण तो सदा भीतर ही भीतर उसके विरोध में सुलगता रहता है ।

ऐसे अनुशासन की प्रतिक्रिया में ही स्वच्छंदता पैदा होती है । स्वच्छंदता सदा ही परतंत्रता की प्रतिक्रिया है । वह उसकी ही अनिवार्य प्रतिध्वनि है । स्वतंत्रता से भरी चेतना कभी भी स्वछन्द नहीं होती है । मनुष्य को स्वच्छंदता के रोग से बचाना हो तो उसकी आत्मा को परिपूर्ण  स्वतंत्रता का वायुमंडल मिलना चाहिए । लेकिन हम तो दो ही विकल्प जानते हैं  - परतंत्रता या स्वच्छंदता । स्वतंत्रता के लिए तो हम अब तक तैयार ही नहीं हो सके हैं । अनुशासन--- दूसरो से आया अनुशासन भी परतंत्रता है । ऐसा अनुशासन जगह-जगह टूट रहा है तो बहुत चिंता व्याप्त हो गई है । यह अनुशासन टूटेगा ही । यह तो टूटना ही चाहिए । उसके होने के कारण ही गलत है । उसकी मृत्यु तो उसमें ही छिपी हुई है । वह तो अराजकता को बलपूर्वक स्वयं में ही छिपाये हुए हैं । और बलपूर्वक जो भी दमन किया जाता है, एक न एक दिन उसका विस्फोट अवश्यभावी है ।

ऐसा अनुशासन हो तो व्यक्ति चेतना की सारी सहजता और आनंद छीन लेता है; और टूटे तो भी व्यक्ति को खंडहर कर जाता है । बाहर से आया हुआ अनुशासन सब भांति मनुष्य के अहित में है । शिक्षा बाह्यानुशासन से मुक्त होनी चाहिए । उसे तो व्यक्ति मे प्रसुप्त विवेक को जगाना चाहिए ।

फिर वह विवेक ही आत्मानुशासन बन जाता है । वैसी चर्या में न दमन होता है, न दबाव होता है । वैसी चर्या तो फूलों जैसी सहज और सरल होती है । और जीवन जब स्व-विवेक के प्रकाश में गति करता है तो अराजकता और स्वच्छंदता की संभावनाये ही समाप्त हो जाती है । जहां दमन ही नहीं है, वहां अराजकता और स्वच्छंदता के विस्फोट भी असंभव है ।

मैं पूछता हूँ कि क्या हम मनुष्य को स्वतंत्र नहीं बना सकते हैं? स्वतंत्रता में स्वच्छंदता का भय मालूम होता है । क्योंकि हमने मनुष्य को परतंत्रताओ से दबा रखा है, और उसकी आत्मा सदा से ही उन परतंत्रताओ से छूटने को तडफडाती रही है । और जब भी संभव हुआ है, उसने बंधन तोडे है । लेकिन बंधन तोडने के प्रयास में वह जिस कटुता, कठोरता और विरोध से भर जाती है, उसके ही कारण स्वतंत्र तो नहीं  होती, स्वच्छंद हो जाती है । स्वतंत्रता सृजनात्मक है, स्वच्छंदता विध्वंसात्मक। लेकिन यदि स्वच्छंदता से बचना हो तो स्वतंत्रता के अतिरिक्त कोई मार्ग नहीं है ।

शिक्षा निश्चय ही ऐसे आधार रख सकती है जो कि मनुष्य को स्वतंत्र बनाये । अनुशासित व्यक्ति अब नही चाहिए । स्वतंत्र और स्वयं के विवेक को उपलब्ध व्यक्ति चाहिए । उनमें ही आशा है और उनमें ही भविष्य है ।

अनुशासन की प्रणालीयो ने क्या किया है? मनुष्य में जड़ता और बुद्धिहीनता लाईं है । अनुशासित व्यक्ति जड तो होगा ही । असल में जो जीतना जड है उतना ही अनुशासित हो जायेगा । देखे, यंत्र कितने अनुशासित है? विवेक सदा ही 'हा' नहीं कह सकता है । उसे 'नहीं' कहना भी आना ही चाहिए । लेकिन अनुशासन 'नहीं' कहना नहीं सिखाता है । वह सदा 'हा' की अपेक्षा करता है । कहा जाए --- गोली चलाओ तो गोली चलाएगा । ऐसी जड़ता के कारण ही तो दुनिया में युद्ध और हिंसा और भांति-भांति की मूर्खताये चलती रही है और चल रही हैं ।

क्या इस दुष्ट-चक्र को अब भी नहीं तोडना है? क्या अणु युध्द के बाद ही अनुशासन लानेवाली शिक्षा बंद होगी? लेकिन तब तो बंद करने की कोई जरूरत ही नहीं होगी । क्योंकि तब न तो अनुशासन ही बचेगे और न अनुशासित ही। मनुष्य के भविष्य के लिए अनुशासित बुद्धि के लोगों से जितना ख़तरा है, उतना किसी और से नहीं । क्योंकि वे केवल आज्ञायें मानना ही जानते हैं । अणु अस्त्रों को चलाने के लिए भी वे आज्ञाशील व्यक्ति सदा तैयार और तत्पर है । काश! अनुशासन की जगह विवेक सिखाया गया होता, आज्ञाकारिता की जगह विचार सिखाया गया होता । तो निश्चय ही दुनिया बिलकुल दूसरी ही हो सकती थी ।

शिक्षा अनुशासन देने को नहीं, आत्म विवेक देने को है । उससे ही जो अनुशासन फलित होगा, वही शुभ और मंगलदायी हो सकता है । क्योंकि उस अनुशासन का फ़िर शोषण नहीं किया जा सकता । धर्म पुरोहितों और राजनीतिज्ञों के हाथ में हिंसा और युध्द के लिए उसे उपकरण नहीं बनाया जा सकता है । उसके आधार पर हिंदू को मुसलमान से नहीं लडाया जा सकता है । और न राष्ट्रो की झूठी और कल्पित सीमाओं पर ही रक्तपात के तांडव नृत्य किये जा सकते हैं । अनुशासन और आज्ञाकारिता के नाम पर मनुष्य से क्या नहीं कराया गया है ?

समाज, शिक्षक के द्वारा नयी पीढी को इस भांति अनुशासित करने का काम लेता रहा है । शिक्षक बहुत से शोषणो का औजार रहा है । वह बहुत से रोगो को संक्रमित करनेवाला उपकरण है । और शायद उसे इसका पता भी नहीं है । क्योंकि वह स्वयं भी ऐसी ही शिक्षा का शिकार है । प्रत्येक पीढ़ी अपनी ईष्याये, अपने द्वेष, अपने वैमनस्य, अपनी शत्रुतायें, अपनी मूढताये,सभी शिक्षक के द्वारा नयी पीढी को वसीयत में दे दी जाती है । अपने अनुभवो और ज्ञान के साथ ही साथ वे अपने रोग और जडताये भी सौंप जाती है । और ज्ञान और अनुभव से भी ज्यादा आग्रह और सचेतता वे अपने रोगो को देने में बरतती है । क्योंकि उनकी शत्रुताये और उनके अंधविश्वास उनके अहंकार ही होते हैं । हिंदू बाप अपने बच्चों को हिंदू होना सिखा जाता है, और जैन अपने बच्चों को जैन, और मुसलमान अपने बच्चों को मुसलमान । और मनुष्य विरोधी जिन संप्रदायों में वह पला था,उसी विष को वह अपने बच्चों को भी सौंप जाना चाहता है ।

शिक्षा के अनेक-अनेक माध्यमो से यह विष फैलाया जाता है । और ऐसी विषाक्त सिखावन के कारण मनुष्यता एक नहीं हो पाती है । और उस धर्म के प्रति भी हमारी आंखें नहीं उठ पाती है जो कि एक है, और एक हो सकता है ।

एसे ही राष्ट्रीयतये सिखाई जाती है । और राष्ट्रीय अहंकारो को गौरवान्वित किया जाता है । एक देश को दूसरे देशो के विरोध में पाला-पोसा और खडा किया जाता है । परिणाम में हिंसा फलती-फूलती है और युद्धो की अग्नि जलती है ।

जहां अहंकार है--- वहां हिंसा है, वहां युध्द है । ऐसे ही और भी बहुत रोग है, जिनके कीटाणु शिक्षक अबोध बच्चों में संक्रमित करते रहते है । मनुष्य के साथ किये जानेवाले जघन्य से जघन्य अपराधों में से एक यह है । शिक्षक अत्यंत जागरूक हो तो ही इस लांछन से वह बच सकता है ।

समाज में जो सत्ताधिकारी है, वे समाज के ढांचे को कभी भी बदलना नहीं चाहते हैं । क्योंकि उनकी सत्ता, स्वार्थ और शोषण उस ढांचे पर ही निर्भर होता है । इस ढांचे को भी शिक्षक नये बच्चो के मनो में बैठाता रहता है । वह उन्हें गतानुगतिक बनाता रहता है और मृत परंपराओं से बांधता रहता है । वह उन्हें विद्रोह नहीं सिखाता है । और जहां विद्रोह नहीं है, वहां विकास नहीं है । शिक्षक का कर्तव्य क्या है? उसका कर्तव्य है विद्रोह सिखाना--- जिस दिन भी शिक्षा विद्रोही होगी,उसी दिन एक बिलकुल ही मनुष्यता का जन्म हो सकता है ।

विद्रोह से क्या अर्थ है?

विद्रोह से अर्थ है  --- मूल्यों में क्रांति । निश्चय ही जीवन मूल्य गलत है, अन्यथा मनुष्य के जीवन में यह अशांति, यह अर्थहीनता, यह विभ्रांति क्यो होती? यह कुरूपता, यह हिंसा, यह ईष्याॅ,यह अधर्म--- यह सब क्या अकारण है? नहीं, जीवन मूल्य गलत है और उसका ही यह सहज परिणाम है ।

जीवन मूल्य बदलने होगे। मनुष्य के लिए नये मूल्य चाहिए । और उसके लिए एक बडे विद्रोह की तैयारी आवश्यक है ।

शिक्षक को निंद्रा से जागना ही होगा । उसके अतिरिक्त और कोई भगीरथ नहीं है, जो कि विद्रोह की गंगा को पृथ्वी पर ला सके । लेकिन शिक्षक बडे भ्रमो में है। समाज उसे भूखा भले मारे ,लेकिन उसके प्रति आदर खूब दिखाता है । शिक्षक को सदा से ही आदर और सम्मान दिया गया है । वह गुरु है, सम्माननीय है, ऐसे उसके अहंकार को पोषित किया जाता है, और उसे भ्रम में डाला जाता है । और फिर उसके द्वारा नयी पीढियों को पुराने ढांचो में ढालने का कार्य लिया जाता है । ऐसे बडे आदरपूर्वक शिक्षक का शोषण होता है । समाज शिक्षक को व्यर्थ ही आदर नहीं देता है । इस आदर के बदले बडे सस्ते में वह बहुत महंगा काम उससे लेता है । मैं पूछता हूं कि क्या शिक्षको को इसका बोध है?

मनुष्य का इतिहास मूर्खताओ से भरा है । अंध विश्वासो और अज्ञानो ने सब कही डेरे डाल रखे हैं । लेकिन शिक्षक उस शृंखला से नयी पीढियों को अलग नहीं होने देता है । वह उसी शृंखला से ये नये आगन्तुकों को बांधता चला जाता है । वह अतीत का भार हमारे सिर पर न हो? वह पैरो के तले की भूमि बने यह तो ठीक, लेकिन सिर का बोझ बने यह तो ठीक नहीं है । भविष्य के निर्माण के लिए अतीत से मुक्त चित्त चाहिए ।

अतीत के अनुभव मनुष्य के ज्ञान को बढाये, लेकिन वे उसे बांधे नहीं । क्योंकि उसे उनसे भी आगे जाना है । अतीत उसकी यात्रा का प्रारंभ है, अंत नहीं । विगत पीढी ने जहां उसे छोड़ा है, उसे उससे आगे जाना है । हर पीढी को, पिछली पीढ़ी को,सब भांति पीछे छोड़ देना है । भौतिक दृष्टि से ही नहीं, मानसिक और आत्मिक दृष्टि से भी । निश्चय ही विदा होती पीढी के अहंकार को इससे चोट लगती है । और इसी अहंकार के कारण वह अपने से आगे कोई भी यात्रा और विकास नहीं देखना चाहती है ।

शायद प्रत्येक व्यक्ति में जो अहंता और ईष्याॅ होती है । वही अहंता और ईष्याॅ पूरी पीढ़ी को भी पकड़ लेती है । पहले धर्मगुरू, आगे और धर्म संस्थापको के जन्म मना ही कर गये हैं । प्रत्येक पैगंबर अपने आपको अंतिम बता गया है । और प्रत्येक ने स्वयं के सवॅज्ञ होने की भी घोषणा कर रखी है, और इस भांति ज्ञान के आगे और विकास के सब द्वार अवरूद्ध कर दिये हैं । स्वर्णयुग तो पीछे थे । आगे तो सब पतन और ह्यास है । मनुष्य को अतीत के खूंटो से बांधना अत्यंत अकल्याणकार है । लेकिन पुरानी पीढ़ी तो अपने शास्त्र, अपने सिद्धांत, अपने गुरु सभी नयी पीढ़ी पर थोप जाना चाहती है । सैकड़ों वर्षों से यह होता ही रहा है । और परिणाम में मनुष्य की आत्मा जितनी विकसित हो सकती थी,वह नही हो पाई। उसे जो प्रौढता मिल सकती थी,वह नहीं मिल पाई। वह अतीत के पाषाणो के नीचे दबी है, और अतीत से इतनी भारग्रस्त है कि उसका सभी उध्वॅगमन बंद हो गया है ।

शिक्षा को मनुष्य की आत्मा को निर्भार करना है । क्योंकि निर्भार आत्माये ही परमात्मा के शिखरों तक गति कर सकती है। जड संस्कारो का भार चेतना के बीज को अंकुरित ही नहीं होने देता, और वह भूमि में दबा-दबा ही नष्ट होता रहता है । अतीत से निर्भार हुए बिना व्यक्ति के स्वयं के व्यक्तित्व का अंकुरण हो ही नहीं सकता है । अतीत की जकड ढीली हो तो ही मनुष्य में विकास होता है । अतीत तो सीढी हैं जिस पर से गुजर जाना है । उसे सिर पर लिए फिरना समझदारी नहीं है ।

संसार में भौतिक समृद्धि तो बढती है, क्योंकि हर पीढी उसे पिछली पीढी से आगे ले जाती है ।लेकिन आत्मिक समृद्धि नहीं बढती, क्योंकि हमारे मन उस दिशा में अतीत से अत्याधिक बंधे हुए हैं । पिता ने जो मकान बनाया था, उसे और बनाने में पुत्र संकोच नहीं करता है ।लेकिन राम, कृष्ण या बुद्ध या महावीर या क्राइस्ट जो वसीयत छोड़ गये हैं, उसके आगे बढाने में कोई बहुत-बहुत गहरा भय हमारे प्राणों को रोक लेता है । यह सिखाया हुआ है, यह भय आरोपित किया हुआ है ।

गीता पर टीका लिखी जा सकती है । लेकिन गीता से आगे विचार नहीं किया जा सकता । कुरान से आगे कुछ है ही नहीं । इससे मनुष्य जाति अत्याधिक पंगु और आत्मिक दृष्टि से दीन हीन हो गई है । बाप से बेटा आगे जाये इसमें उसका असम्मान या अपमान नहीं है । वस्तुतः इसमें ही उसका सम्मान है । यही उसका गौरव है ।

प्रत्येक पीढी को, हर नयी पीढ़ी को इसी भांति तैयार करना चाहिए कि वह उसे सब भांति पीछे छोड़ दे। वह उससे ही बंधी रहे और और उसके दायरे में ही घूमती रहे यह इच्छा रूग्ण है और उससे स्वस्थ्य मन की सूचना नहीं मिलती है । यह विचार करना जरूरी है कि क्या शिक्षा इन रूग्ण लक्ष्मण रेखाओ को खींचने में सहयोगी नहीं रही है?

मैं तो इस पागलपन को समझ ही नहीं पाता हूं । मेरा प्रेम तो यही कहता है कि जो मेरे पीछे जगत में आ रहे हैं, वे सब भांति मेरे आगे बढे। वे एक ऐसी दुनिया बनाये जिसकी हम कल्पना भी नहीं कर सकते थे । उनकी आत्मा हम से उज्वल हो, उनके विचार हमसे निर्मल हो । उनकी आंखें उन सत्यो का साक्षात्कार करे जो हम नहीं कर सके, और उनके चरण उन अज्ञात पथो का स्पर्श करे जो कि हमें स्वप्न में भी ज्ञात नहीं थे । प्रेम तो ऐसी ही प्रार्थनाये कर सकता है । मैं न तो बच्चों को अपने ज्ञान से बांधना चाहूँगा और न अपने अनुभवों से । मैं तो उन्हें मुक्त करना चाहूँगा । प्रेम तो सदा मुक्त करता है । जो बांधता है, वह प्रेम ही नहीं है  --- वह तो हिंसा ही है ।

शिक्षा भविष्योन्मुख होनी चाहिए, अतीतोन्मुख नहीं, तभी विकास हो सकता है । कोई भी सृजनात्मक प्रक्रिया भविष्योन्मुख ही हो सकती है । क्या यह उचित नहीं है कि हम भविष्य के लिए प्रेम और आदर सिखाये? अतीत की अर्थहीन पूजा बहुत हो चुकी । क्या अब यह उचित नहीं है कि भविष्य के सूर्योदयो के लिए हमारे ह्रदयो में प्रार्थनाये हो ? लेकिन हम तो अतीत से बंधे है । अतीत यानी जो बीत गया है और अब सिवाय स्मृति के और कहीं भी नहीं है । हमारे सारे सिद्धांत, सारी धारणाएं, सारे आदर्श अतीत से ही लिए हुए हैं । इस भांति मृत का जीवित पर शासन है । मृत के प्रति सम्मान एक बात है, उसका शासन बिलकुल ही दूसरी बात है । बल्कि शासन के कारण ही स्वस्थ्य सम्मान भी संभव नहीं हो पाता है । शासन के प्रति तो भीतर ही भीतर प्रतिरोध भी संग्रहित होता रहता है । अतीत के प्रति हार्दिक सम्मान तो तभी होगा, जबकि अतीत का कोई भी शासन न हो; वह सम्मान अत्यंत आत्मिक होगा। और उस सम्मान में अनुग्रह होगा और कृतज्ञता होगी। वह कृतज्ञता हमे बांधेगी नहीं बल्कि और निर्भार और हल्का करेगी। ह्रदय उनके प्रति सहज ही कृतज्ञता से भर उठता है जो मुक्त करते हैं ।

जो बांधते हैं, उनके प्रति कृतज्ञता अस्वाभाविक है  और असंभव है ।

शिक्षा को ज्ञान का प्रसार कहा जाता है । निश्चय ही उसे ज्ञान का प्रसारक होना चाहिए । लेकिन जो बंधनों को भी प्रसारित करती हो वह ज्ञान की प्रसारक नहीं हो सकती है । ज्ञान तो वहां है, जहां मन मुक्त है। मन जहां बंधनो में है, वहां ज्ञान कहां? ज्ञान तो स्वयं ही मुक्ति है ।

शिक्षा भय सिखाती है । शिक्षा प्रलोभन सिखाती हैं । शिक्षा ईष्याॅ और प्रतिस्पर्धा सिखाती है । शिक्षा महत्वाकांक्षा के ज्वर में दीक्षा देती है । ऐसी शिक्षा ज्ञान की प्रसारक कैसे होगी? ऐसी शिक्षा मुक्तिदायी कैसे होगी? ऐसे मनुष्य स्वस्थ्य कैसे होगा? यह तो घातक रोगो का प्रसार है ।मित्र, यह ज्ञान प्रसार तो नहीं है, यह तो अज्ञान का ही प्रसार है ।

मैं देखता हूंतो पाता हूं कि भय से अधिक भयानक और कोई बीमारी नहीं है । जीवन में भय से अधिक भयभीत होने को और क्या है? भय तो प्राणो को लकवा ही मार देता है ।भय ज्ञात से बांध देता है और अज्ञात की सब यात्रा बंद हो जाती है । जबकि जीवन में जो भी जानने और पाने योग्य है वह सब अज्ञात है ।

परमात्मा अज्ञात है । सत्य अज्ञात है । सौंदर्य अज्ञात है । प्रेम अज्ञात है । किन्तु भयभीत चित्त तो भय के कारण ज्ञात से ही चिपटा रहता है । वह तो लीक को कभी छोडता ही नहीं । वह तो परिचित पटरियों पर ही दौडता रहता है । वह तो यंत्रवत हो जाता है और उसकी गति कोल्हू के बैल से भिन्न नहीं होती है । धर्म भय सिखाता है  --- नर्को का भय, पापो का भय, दंडो का भय। समाज भय सिखाता है --- असम्मान का भय । शिक्षा भी भय सिखाती है--- असफलता का भय ।

और साथ ही प्रलोभन है  --- स्वर्ग का प्रलोभन, पुण्य फलो का प्रलोभन, सम्मान, पद का प्रलोभन, प्रतिष्ठा का प्रलोभन, सफलताओ, पुरस्कारों का प्रलोभन । प्रलोभन भी भय के सिक्के के ही दूसरे पहलू है । इस भांति व्यक्ति चेतना, भय से और लोभ से भर-भर जाती है । ईर्ष्या और प्रतिस्पर्धा की अग्नि जलाई जाती है, महत्वाकांक्षा का ज्वर जगाया जाता है । फिर इन सब विवर्तो में जीवन नष्ट हो जाता हो तो कोई आश्चर्य नहीं है ।

ऐसी शिक्षा खतरनाक है । ऐसे धर्म खतरनाक है । शिक्षा तो वह है जो अभय सिखाये,अलोभ में प्रतिष्ठा दे, साहस दे और विद्रोह की शक्ति दे --- अज्ञात की चुनौती को मानने की हिम्मत दे। ईर्ष्या, प्रतिस्पर्धा नहीं, प्रेम सिखाये । महत्वाकांक्षा की ज्वरग्रस्त गति नहीं, वरन सहज,स्व-स्फूर्त विकास दे।

लेकिन यह तो तब होगा जब हम प्रत्येक व्यक्ति की निजता की अद्वितीयता को स्वीकार करेंगे । किसी की किसी से तुलना आधारभूत मूल है । तुलना से स्पर्धा पैदा होती है । न कोई किसी से आगे है, न पीछे; न कोई किसी से ऊपर है, न नीचे । प्रत्येक वही है जो वह है और प्रत्येक को वही  होना है । आदर्शो की सिखावन यह नहीं होने देती है । बच्चों को कहा जाता है, राम जैसे बनो,बुद्ध जैसे बनो, गांधी जैसे बनो ।इससे भूल भरी बात और क्या होगी? क्या कोई किसी ओर जैसा बन सकता है या कि कभी बन सका है?

राम तो बनना असंभव है । हां, रामलीला के राम जरूर बन सकते हैं । इसी कारण तो संसार में इतना पाखंड है । पाखंड आदर्श की छाया है । जब तक आदर्श थोपे जायेगे तब तक पाखंड भी रहेंगे । पाखंड को मिटाना है तो आदर्शो को छोडना आवश्यक है ।

वस्तुतः कोई भी मनुष्य किसी दूसरे जैसा होने को पैदा नहीं हुआ है । प्रत्येक को स्वयं जैसा ही होना है । प्रत्येक को, उस बीज को ही वृक्ष तक पहुंचाना है, जो कि उसमें ही छिपा है, और मौजूद है ।

शिक्षा जिस दिन भी व्यक्ति की अद्वितीय और बेजोड निजता के सत्य को स्वीकार करेगी,उस दिन ही एक बडी क्रांति का सूत्रपात हो जाएगा । फिर हम किसी के ऊपर किसी ओर के ढांचे को नहीं थोपेंगे । वरन उस व्यक्ति के बीज में ही जो प्रसुप्त है, उसके जागरण के लिए चेष्टारत होगे। आदर्शो के कारण बहुत हिंसा होती रही है और व्यक्ति को वही होने का अवसर नहीं दिया जा सका है जो कि वह हो सकता है । और अन्य होने के प्रयास में अन्य तो कोई हो ही नहीं पाता है । हां, वह होने से जरूर वंचित रह जाता है जो कि वह हो सकता था ।
मैं अत्यंत विनम्रता से यह निवेदन करना चाहता हूं कि मनुष्य को वही होने दे, जो कि होने को वह पैदा हुआ है । गुलाब गुलाब है, और चमेली चमेली, और जुही जुही । और कोई किसी से न छोटा है, न बडा है। गुलाब को चमेली नहीं होना है और चमेली को जुही नहीं होना है । यह छोटे-बड़े और उंचे-नीचे का मूल्यांकन एकदम झूठा और बेहूदा है । इस मूल्यांकन को नष्ट करे। कवि चमार से बडा नहीं है और न राजनेता ही किसी से बडा है ।

एक अध्यापक राष्ट्रपति होने से बड़ा नहीं हो जाता है । जीवन एक सहयोग है। उसमें सबका अपना-अपना स्थान है और सबकी आवश्यकता है और अनिवार्यता है । कार्यो के साथ पद और प्रतिष्ठा जोडने से सारी दुनिया जिस महत्वाकांक्षा की विक्षिप्तता में पड़ गई है, क्या यह आपको दिखाई नहीं पड रही है?

यह मूर्खतापूर्ण है कि गुलाब को जुही होने का उपदेश दिया जावे या कि घास के फूल को कमल होने के लिए उकसाया जावे। अर्थपूर्ण बात इतनी ही है कि गुलाब पूरा विकसित हो और घास का फूल भी पूरा विकसित हो । उनकी पंखुड़ियां अविकसित न रह जाये और उनकी सुवास उनमें ही बंद न रह जावे। स्वयं की संभावनाये पूरी विकसित हो, इसके अतिरिक्त जीवन का और कोई आनंद नहीं है । और शिक्षा के कार्य की सम्यक दिशा यही है ।

आदर्श सिखाने की आवश्यकता नहीं है और न ही किसी का अनुसरण सिखाने की जरूरत है । व्यक्ति का निज व्यक्तित्व पूर्णता को कैसे प्राप्त हो, इस ओर ही सारे प्रयास केन्द्रित होने चाहिए । और तब ही महत्वाकांक्षा से मुक्ति होगी और ईष्याॅ के ज्वर से छुटकारा होगा । और एक ऐसा समाज निर्मित हो सकेगा जो कि समता और शांति को उपलब्ध हो सके। महत्वाकांक्षा से मुक्त समाज ही वर्गहीन और शोषणशून्य हो सकता है ।

क्या ऐसी शिक्षा नहीं हो सकती है जो कि महत्वाकांक्षा पर आधारित न हो? क्या गणित या संगीत इसलिए सीखा जा सकता है कि उन्हें सीखनेवाले दूसरे साथियों से आगे निकलना है? क्या गणित के प्रेम से ही गणित और संगीत के आनंद से ही संगीत नहीं सीखा जा सकता है? मैं तो देखता हूं कि वस्तुतः संगीत तभी सीखा जा सकता है और उसकी गहराइया तभी स्पर्श की जा सकती है, जब संगीत से ही प्रेम हो और किसी अन्य से प्रतिस्पर्धा नहीं ।

प्रतिस्पर्धापूर्ण मन क्या संगीत को जानेगा? प्रतिस्पर्धा तो विसंगीत ही है उन्होंने ही संगीत को जाना है जो संगीत में डूबे हैं, प्रतिस्पर्धा में दौडे नहीं । दौडने और डूबने में विरोध है । दौडना तनाव है, डूबना विश्रांति है । दौड ज्वर है,  वह स्वयं के बाहर ले जाती है । डूबना स्वास्थ्य है, क्योंकि डूबकर व्यक्ति स्वयं की ही आत्यंतिक गहराइयों में प्रतिष्ठा पाता है । विद्या तो डूबने की कला है । और जो दौडना ही सिखाती है, उसे मैं अविद्या कहता हूं ।

एक दिन शिक्षको की सभा में गया था । शिक्षक दिवस का समारोह था। वहां मैंने उनसे कहा  - एक शिक्षक राष्ट्रपति हो जाए तो इसमें शिक्षक का सम्मान क्या है? क्या शिक्षक नीचे और राष्ट्रपति ऊपर है? यदि ऐसा है तब तो यह शिक्षक या शिक्षा की प्रतिष्ठा नहीं, राजपद और राजनीति की ही प्रतिष्ठा है । हां, एक राष्ट्रपति अपना पद छोड़ शिक्षक हो तब शायद शिक्षक के लिए सम्मान की बात हो भी सकती है ।

राजपदो को हम जब तक ऊपर रखते हैं, तब तक हम बच्चों को जाने-अनजाने राजनीति ही सिखाते हैं । हालांकि राजनीतिज्ञ कहते है कि शिक्षको और विद्यार्थीओ को राजनीति से कोई वास्ता नहीं रखना चाहिए । राजपदो की प्रतिष्ठा दूसरो से भी आकांक्षा को जगाती है । और यदि दूसरे शिक्षक होना छोड़ शिक्षामंत्री और उपराष्ट्रपति और राष्ट्रपति होने के सपने देखते हो,उन स्वप्नों को पूरा करने के लिए दौड़-धूप करते हो तो आश्चर्य कैसा? यह तो स्वाभाविक ही है । और अन्य शिक्षक भी यदि शिक्षक जाति को सम्मानित कराने में लगे हो तो कुछ बुरा तो नहीं है ।
शिक्षा को महत्वाकांक्षा से मुक्त होना ही चाहिए । महत्वाकांक्षा ही तो राजनीति है । महत्वाकांक्षा के कारण ही तो राजनीति सबके ऊपर, सिंहासन पर विराजमान हो गयी है । सम्मान वहां है, जहां पद है । पद वहां है, जहां शक्ति है । शक्ति वहां है, जहां राज्य है ।

इस दौड से जीवन में हिंसा पैदा होती है । महत्वाकांक्षी चित्त हिंसक चित्त है । अहिंसा के पाठ पढाये जाते हैं । साथ ही महत्वाकांक्षा भी सिखायी जाती है । इससे ज्यादा मूढता ओर क्या हो सकती है?

अहिंसा प्रेम है। महत्वाकांक्षा प्रतिस्पर्धा है । प्रेम  सदा पीछे रहना चाहता है । प्रतिस्पर्धा आगे होना चाहती है । क्राइस्ट ने कहा है --- 'धन्य है वे, जो पीछे होने में समर्थ है ।' मैं जिसे प्रेम करूंगा, उसे आगे देखना चाहूंगा और यदि मैं सभी को प्रेम करूंगा तो स्वयं को सबसे पीछे खडाकर आनंदित हो उठूंगा । लेकिन प्रतिस्पर्धा प्रेम से बिलकुल उलटी है । वह तो ईर्ष्या है । वह तो धृणा हैं । वह तो हिंसा है । वह तो सब भांति सबसे आगे होना चाहती है ।

इस आगे होने की होड की शुरुआत शिक्षालयो में ही होती है और फिर कब्रिस्तान तक चलती है । व्यक्तिओ में यही दौड है । राष्ट्रो में भी यही दौड है । युद्ध इस दौड के ही तो अंतिम फल है । यह दौड क्या हैं? इस दौड के मूल में क्या है? मूल में है  --- अहंकार । अहंकार सिखाया जाता है, अहंकार का पोषण किया जाता है ।

छोटे-छोटे बच्चों में अहंकार को जगाया और जलाया जाता है । उनके निर्दोष और सरल चित्त अहंकार से विषाक्त किये जाते हैं । उन्हें भी प्रथम होने के लिए प्रोत्साहित किया जाता है । स्वर्ण पदक और सम्मान और पुरस्कार बांटे जाते हैं । फिर यही अहंकार जीवनभर प्रत की भांति उनका पीछा करता है और उन्हें मरते दम तक चैन नहीं लेने देता ।

विनय के उपदेश दिये जाते हैं और सिखाया अहंकार जाता है । क्या वह दिन मनुष्य जाति के इतिहास में सबसे बड़े सौभाग्य का दिन होगा जिस दिन हम बच्चों को अहंकार सिखाना बंद कर देंगे? अहंकार नहीं, प्रेम सिखाना है । और प्रेम वही होता है, जहां अहंकार नहीं है ।

इसके लिए शिक्षण की आमूल पद्धति ही बदलनी होगी । प्रथम और अंतिम की कोटिया तोडनी होगी । परीक्षाओ को समाप्त करना होगा । और इन सबकी जगह जीवन के उन मूल्यों की स्थापना करनी होगी जो कि अहंशून्य और प्रेमपूर्ण जीवन को सर्वोच्च जीवन दर्शन मानने से पैदा होते हैं ।

प्रेम जब प्रतिस्पर्धा की जगह लेता है,तब सहज ही सफलता की जगह सत्य की प्रतिष्ठा हो जाती है । सफलता ही जिस जीवन व्यवस्था में एकमात्र मूल्य है, वहां सत्य नहीं हो सकता है । सफलता की केन्द्रीय महत्ता ने सफलता के प्राण ही ले लिए है । नहीं, सफल हो जाना ही सब कुछ नहीं है । मात्र सफलता कोई मूल्य ही नहीं है । एक बुरे काम में सफल होने की बजाय एक शुभ कार्य में असफल होना भी ज्यादा मूल्य की और गौरव की बात है । प्रतिस्पर्धा में सफल होने के बजाय प्रेम में असफल होना ही कहीं ज्यादा शुभ है । धन में सफल होने की बजाय धर्म में असफल होना भी क्या ज्यादा मूल्यवान नहीं है?

मैं जीवन का मूल्य, मात्र सफलता में ही नहीं देखता हूं । मैं उसे देखता हूं सत्य में, शिवत्व में, सौंदर्य में; लेकिन सफलता ही जब तक हर बात का मापदंड है, तब तक सत्य की, शिव की और सौंदर्य की और मनुष्य की आत्मा गतिमान नहीं हो सकती है । सत्य के लिए, शिवत्व के लिए, सौंदर्य के लिए, असफलता को भी सीखा जाना चाहिए । उस दिशा में असफलता भी गौरव है, यही दृष्टि पैदा होनी चाहिए । सत्य के लिए हार जाना भी जीत है । क्योंकि उसके लिए हारने के साहस में ही आत्मा सबल होती है और उन शिखरों को छू पाती है, जो कि परमात्मा के प्रकाश से आलोकित है ।

विजय और पराजय अर्थहीन है । अर्थ है  --- मोर्चे का, किस मोर्चे पर विजय या पराजय? --- सत्य के या असत्य के, प्रेम के या धृणा के, मनुष्यता के या दानवता के?

और मैं कहता हूं कि धन्य है वे  लोग जो कि असत्य की विजय को छोडते है और सत्य के साथ पराजय को आलिंगन करते हैं, क्योंकि इस भांति हारकर भी वे जीत जाते हैं और मिटकर भी उसे पा लेते है जो कि अमृत है । लेकिन यह सब तभी संभव है जब शिक्षा में आमूल क्रांति हो और मात्र सफलता और विजय के वे मूल्य अपदस्थ हो जिन्होंने कि सदियों से मनुष्य को पीड़ित कर रखा है ।

सत्य की दिशा में सबसे बड़ा अपराध तो तब हो जाता है, जब हम सत्य के सबंध में रूढ धारणाओं को बच्चों के ऊपर थोपने का आग्रह करते हैं । यह आग्रह अत्यंत घातक दुराग्रह है ।

परमात्मा और आत्मा के सबंध में विश्वास या अविश्वास बच्चों पर थोपे जाते हैं । गीता, कुरान, कृष्ण, महावीर उन पर थोपे जाते हैं ।इस भांति सत्य के सबंध में उनकी जिज्ञासा पैदा ही नहीं हो पाती है । वे स्वयं के प्रश्नों को ही उपलब्ध नहीं हो पाते हैं, और तब स्वयं के समाधानो को खोज लेने का तो सवाल ही नहीं है ।

बने बनाये तैयार समाधानो को ही वे फिर जीवनभर दुहराते रहते है । उनकी स्थिति तोतो की जैसी हो जाती है । पुनरूक्ति चिंतन नहीं है । पुनरूक्ति तो जड़ता है । सत्य किसी और से नहीं पाया जा सकता है, उसे तो स्वयं ही खोजना और पाना होता है ।

क्या यह उचित नहीं है कि बच्चों जिज्ञासा जगाई जाए लेकिन उन्हें समाधानो से न जकडा जाए ? उनमें प्रश्न पैदा किये जाए, लेकिन उन्हें उत्तरो से न भरा जाए ? शिक्षा यदि उन्हें जीवन सत्य के अनुसंधान की महत यात्रा पर ही भेज सके तो उसका कार्य पूरा हो जाता है ।

मेरी दृष्टि में शिक्षक वही है, जो प्रसुप्त समस्याओ को जगा देता है, और जिज्ञासा को जाग्रत कर देता है, और बच्चों को उनके स्वयं के अनुसंधान के लिए साहस और अभय से भर देता है । लेकिन कोई भी व्यक्ति इस अर्थ में शिक्षक तभी हो सकता है, जब वह स्वयं आग्रहों और पक्षपातो से मुक्त हो ।

इसलिए शिक्षक होना बडी साधना है । शिक्षक होने के लिए अत्यंत विद्रोही,सजग और सचेत आत्मा चाहिए । जिस शिक्षक में विद्रोह की अग्नि नहीं है, वह जाने या अनजाने किसी स्वार्थ, किसी नीति, किसी धर्म, या किसी राजनीति का दलाल हो ही जाएगा । क्योंकि तब वह उन पक्षपातो को और उन धारणाओं को बच्चों पर आरोपित करेगा जिनमें कि वह स्वयं ही कैद है ।

शिक्षक स्वयं स्वतंत्र हो तभी वह विद्यार्थी के लिए भी स्वतंत्रता का संदेशवाहक हो सकता है । इसलिए मैंने कहा कि शिक्षक होना बडी साधना है । यह बड़ा विद्रोह है । शिक्षक के भीतर-भीतर एक ज्वलंत अग्नि होनी चाहिए--- चिंतन की, विचार की । उसे बहुत कुछ विध्वंस भी करना है, ताकि वह सृजन कर सके। उसे बहुत कुछ मिटाना है, ताकि वह कुछ बना सके । उसे परंपराओ से छोड़ा गया बहुत-सा कूडा-करकट जलाना है और व्यर्थ के घासपात से मनुष्य के मन की भूमि को साफ करना है, ताकि उस पर प्रेम के और सौंदर्य के फूलों की खेती हो सके ।

यह बहुत बड़ा उत्तरदायित्व है । यदि शिक्षक इसे पूरा कर सकेगा तो ही एक नये मनुष्य का और एक नयी मनुष्यता का जन्म हो सकता है ।





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