Parmatma Ka Praman - Osho

परमात्मा का प्रमाण  - ओशो 
Parmatma Ka Praman Osho

संसार में परमात्मा छिपा है, ऐसा मैंने कभी कहा नहीं। संसार परमात्मा है! छिपे का तो अर्थ हुआ, संसार से कुछ भिन्न है, संसार से कुछ अलग है, संसार की ओट में है, संसार की आड़ में। कोई आड़ ही नहीं है। संसार ही परमात्मा है। सिर्फ तुम्हारी आखें अंधी हैं। परमात्मा ही छिपा है, परमात्मा प्रकट है। सिर्फ तुम आखें बंद किये हो। परमात्मा का नाद गूंज रहा है, लेकिन तुम बहरे हो। तुम्हारा हृदय धड़क नहीं रहा, इसलिए उसके छंद को तुम अनुभव नहीं कर पाते हो। सूरज निकला हो तो भी आंख बंद किये खड़े रहो, तो क्या कहोगे सूरज छिपा है? सिर्फ तुमने आंख अपनी छिपा रखी है, परमात्मा नहीं छिपा है। परमात्मा पर ओट नहीं सिर्फ तुम्हारी आंख पर ओट है। आंख पर पर्दा है, परमात्मा पर पर्दा नहीं है। आंख खोलो।

ये जो आखें तुम्हारी हैं, ये केवल छुद्र को देख सकी हैं। एक और भी आंख है तुम्हारी भीतर, जो विराट को देखने में समर्थ है। ये जो आखें हैं, सतह को छू सकती हैं। एक और आंख है तुम्हारे पास, जो गहराई में प्रवेश कर सकती है। परमात्मा उस गहराई का नाम है। प्रेम की आंख खोलो। भजन में उतरो। नाचो। आनंद में डूबो। परमात्मा की तलाश में जाने की जरूरत नहीं, परमात्मा तुम्हारी तलाश करता आएगा। पुकारो! प्रार्थना करो!
तुम पूछते हो, प्रमाण क्या है? क्या नहीं है जो प्रमाण नहीं है? हर चीज उसका प्रमाण है। ये पक्षियों का गान, वृक्षों का सन्नाटा, ये सूरज की नाचती किरणे, ये हरियाली, ये लोग, तुम–सब प्रमाण हैं। इतना रहस्यपूर्ण जीवन है। और तुम पूछते हो–परमात्मा कहां है। प्रमाण क्या है? इतना अनंत उत्सव चल रहा है और तुम पूछते हो–प्रमाण क्या है?

यह रसीली सहर, यह भीगी फिजा
यह धुंधलका, ये मस्त नजारे
मय में गल्तां है डूबता महताब
रस में डूबे हैं मलगजे तारे
बेतुकल्लुफ समां यह जंगल का
हूर देखे तो खुल्द को वारे
ये घने नख्ल, ये हरे पोधे
जिनमें टांके हैं ओस ने तारे
हाय, ये सुर्ख-सुर्ख ढाक के फूल
ठंढे ठंढे दहकते अंगारे
मुस्कुराया वह तिफ्लके-मशरिक
जगमगाये वह दश्तोदर सारे
ली शुजाओं ने तन के अंगड़ाई
रेंगकर नूर के बहे धारे
किरनें चलकीं, वह रंग-सा बसा
वह छूटे सुर्ख व जर्द फव्वारे
वह गुलों की धड़क उठी छाती
वह खुश-अल्हान बाग चहकारे

तुम और पूछते हो प्रमाण क्या है! कहां नहीं है प्रमाण? प्रत्येक घटना पर, प्रत्येक वस्तु पर उसके हस्ताक्षर हैं। पढ़ना आना चाहिए। गीता सामने रखी है, गान चल रहा है लेकिन तुम्हें पढ़ना नहीं आता। तुम्हें गीत की समझ नहीं है। लेकिन समझ नहीं है, ऐसा मानना तुम्हारे अहंकार के विपरीत पड़ता है। तुम तो मानकर चलते हो समझ है, मैं आंखवाला हूं, तब परमात्मा कहां है?

मैं तुम्हें याद दिलाना चाहता हूं–परमात्मा है, समझ नहीं है। इसलिए परमात्मा मत खोजो, समझ खोजो। निखारो अपने को। थोड़े ध्यान की दिशा में कदम उठाओ। प्रेम और ध्यान के दो पंख तुम्हारे ऊग आएं, फिर परमात्मा का आकाश ही आकाश है। उड़ना तुम्हें आ जाए, आकाश सदा से है। कुछ करना है तुम्हारे भीतर, बाहर कुछ नहीं करना है।

रामकृष्ण से किसी ने पूछा, परमात्मा का प्रमाण क्या है? रामकृष्ण ने कहा–मैं हूं। मैं भी तुमसे कहता हूं–मैं हूं प्रमाण। और मैं तुमसे यह भी कहता हूं, तुम भी हो प्रमाण। प्रमाण ही प्रमाण हैं। कण-कण पर प्रमाण हैं और क्षण-क्षण प्रमाण हैं।
मगर प्रमाण को समझने की कला तुम्हें आती है? हम उतना ही समझ पाते हैं जितना हमारी समझने की पात्रता होती है। छोटा बच्चा है। अभी तुम उसके सामने कामशास्त्र की कीमती से कीमती किताब रख दो, तो भी रस उसे नहीं आएगा। तुम वात्स्यायन के कामसूत्र रख दो, वह सरका देगा। उसे अभी परियों की कहानियों में रस है। अभी भूत-प्रेतों की कहानियों में रस है। अभी तुम उसे कोहिनूर हीरा दे दो, वह एक तरफ कर देगा, और दो पैसे के खिलौने को, घुनघुने को बजाने लगेगा। क्या कोहिनूर कोहिनूर नहीं है? लेकिन बच्चे की समझ अभी खिलौने की समझ है। छोटे बच्चे के सामने तुम सौ रुपये का नोट करो और एक चमकता हुआ तांबे का पैसा, बच्चा तांबे के पैसे को चुन लेगा। सौ रुपये का नोट कागज है, उसका कोई मूल्य नहीं है उसके सामने। चमकदार सिक्का उसे लुभा लेगा।

हम अपनी समझ के अनुकूल देख पाते हैं। यदि तुम्हें परमात्मा नहीं दिखायी पड़ता, तो एक बात सुनिश्चित है कि तुम्हारे भीतर अभी परमात्मा को देखने की क्षमता और पात्रता नहीं है। उस पात्रता को जगाओ। लेकिन लोग उलटा काम करते हैं, वे कहते हैं–परमात्मा का प्रमाण चाहिए। लोग उल्टी बात पूछते हैं, वे कहते हैं–परमात्मा कहां हैं, हमें दिखला दें।
मेरे पास लोग आते हैं, वे कहते हैं, आप हमें परमात्मा दिखला दें तो हम मान लें। उन्होंने एक बात स्वीकार ही कर लीं है कि उनके पास आखें तो हैं ही; बस परमात्मा मौजूद हो जाए तो वे देख ही लेंगे। परमात्मा मौजूद ही है। परमात्मा कभी गैर-मौजूद नहीं होता। जो गैर-मौजूद हो जाए वह परमात्मा नहीं है। मौजूदगी ही उसकी है। सारा अस्तित्व उसका है। अस्तित्व और परमात्मा दो नहीं हैं।

इसलिए मैं तुम्हें फिर याद दिला दूं, मैंने कभी नहीं कहा कि संसार में परमात्मा छिपा है। मैं कह रहा हूं यही कि संसार परमात्मा है। तुम्हारे लिए छिपा है, क्योंकि तुम्हारी आंख छिपी है, ओट में है।

– ओशो

[अथातो भक्ति जिज्ञासा, प्रवचन -16]

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