सुनने की कला - ओशो
आपको सुनते हुए कई बार कुछ शब्द गहरे उतर जाते हैं और अकस्मात एक स्पष्टता तथा समझ होती है। जब मैं आपके द्वारा बोले शब्दों के प्रति स्तुत एकाग्र रहूं तभी ऐसा होता है फिर भी आपके शब्दों की ओर खास ध्यान दिये बिना आपको सुन रहे हों तो शांति उतरती है। वह भी उतनी ही आनन्ददायिनी होती है लेकिन तब शब्द और उनके अर्थ खो जाते है। कृपया आपको सुनने की कला के विषय में हमारा मार्गदर्शन कीजिए । क्योंकि यह आपके श्रेष्ट ध्यानों में से एक है।
शब्दों और उनके अर्थों की बहुत फिक्र मत लेना। यदि तुम शब्दों और उनके अर्थों पर ज्यादा ध्यान लगाते हो तो यह एक बौद्धिक चीज है। निस्संदेह कई बार तुम स्पष्टता प्राप्त कर लोगे। अचानक बादल छंट जाते हैं और सूर्य होता है वहां, लेकिन ये केवल क्षणिक बातें होंगी और यह स्पष्टता ज्यादा मदद न देगी। अगले पल यह जा चुकी होती है। बौद्धिक स्पष्टता ज्यादा काम की नहीं होती
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यदि तुम सुनते हो शब्दों और उनके अर्थों को तो हो सकता है तुम बहुत सारी चीजें समझ लो, लेकिन तुम मुझे न समझ पाओगे और तुम स्वयं को भी न समझ पाओगे। वे बहुत सारी चीजें बहुत लाभप्रद नहीं हैं। शब्दों की और अर्थ की फिक्र मत करना। मुझे सुनो जैसे कि मैं वक्ता नहीं हूं बल्कि एक गायक हूं जैसे कि मैं शब्दों में नहीं बोल रहा तुमसे, बल्कि ध्वनियों में बोल रहा हूं जैसे कि मै कोई कवि हूं।
अर्थ खोजने की जरा भी आवश्यकता नहीं है, कि मेरा अर्थ क्या है। शब्दों और अर्थों पर कोई ध्यान दिये बगैर मात्र मुझे सुने, तो स्पष्टता की अलग गुणवत्ता तुम्हारे पास चली आयेगी। तुम आनन्दमय अनुभव करोगे। तुम शांति, मौन और चैन अनुभव करोगे। यह है वास्तविक अर्थ।
मैं यहां तुम्हें निश्चित बातें समझा देने को नहीं हूं बल्कि तुम्हारे अस्तित्व के भीतर एक निश्चित गुणवंत्ता का सृजन कर देने को यहां हूं। मैं व्याख्या करने के लिए तुमसे बातें नहीं कर रहा हूं मेरा बोलना एक सृजनात्मक घटना है। मैं तुम्हें कोई चीज समझाने की कोशिश नहीं कर रहा हूँ , वह बात तुम पुस्तकों द्वारा भी समझ सकते हो और भी लाखों दूसरे ढंग हैं ऐसी बातों को समझने के लिए । मैं यहां तुम्हें रूपांतरित करने के लिए हूं ।
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मुझे सुनो सरलता से, निर्दोषतापूर्वक, शब्दों और उनके अर्थों के बारे में कोई चिंता किये बिना। उस स्पष्टता को गिरा दो; वह बहुत काम की नहीं है। जब तुम सिर्फ मुझे सुनते हो, पारदर्शी रूप से, बुद्धि अब वहां न रही—हृदय से हृदय, गहराई से गहराई, अंतस से अंतस—तब बोलने वाला खो जाता है और सुनने वाला भी। तब मैं यहां नहीं होता और तुम भी यहां नहीं रहते। एक गहन एकात्म्य बनता है; सुनने वाला और बोलने वाला एक बन जाते हैं। और उस एकात्म्य में तुम रूपांतरित हो जाओगे। उस एकल को उपलब्ध होना ध्यान है। इसे ध्यान बनाओ—न कि चिंतन—मनन, न कि वैचारिक प्रक्रिया; तब शब्दों से ज्यादा बड़ी कोई चीज सम्प्रेषित होती है—अर्थों से परे की कोई चीज। वास्तविक अर्थ, परम अर्थ अवतरित होता है, चला आता है—कोई वह चीज जो शास्त्रों में नहीं है और हो नहीं सकती।
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तुम स्वयं ही पढ सकते हो पतंजलि को। थोड़ा—सा प्रयास और तुम समझ जाओगे उन्हें । मैं यहां इसलिए नहीं बोल रहा हूँ कि इस प्रकार तुम पतंजलि को समझने के योग्य हो जाओगे; नहीं, यह उद्देश्य बिलकुल नहीं है। पतंजलि तो एक बहाना भर हैं, एक खूंटी। मैं उन पर कुछ ऐसा टांग रहा हूं जो शास्त्रों के पार का है।
यदि तुम मेरे शब्दों को सुनते हो तो तुम पतंजलि को समझ जाओगे; एक स्पष्टता होगी। लेकिन यदि तुम मेरे नाद को सुनते हो, यदि शब्दों को नहीं बल्कि मुझे सुनते हो, तब वास्तविक अर्थ तुम्हारे लिए उद्घाटित हो जायेंगे। और उस अर्थ का पतंजलि से कुछ भी सम्बन्ध नहीं है। वह शास्त्रों से पार का सम्प्रेषण है।
– ओशो
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