प्रवचन - ११ - शांति का बीजमंत्र - शिक्षा में क्रांति - ओशो
मेरे प्रिय आत्मन्!
वही विद्या है, जो विमुक्त करे–‘सा विद्या या विमुक्तये।’
इस संबंध में ही थोड़ी सी बात आज की सुबह मुझे आपसे कहनी है। बड़ा अदभुत है यह वचन। बड़ी मौलिक है यह परिभाषा। विद्या की परिभाषा भी यही है और विद्या की कसौटी भी यही है। जो मुक्त करे, वही विद्या है। लेकिन शायद, इसके दूसरे पहलू का आपको कोई खयाल न हो? हम तो मुक्त नहीं हैं। तो जो विद्या हमने पाई है, वह विद्या नहीं होगी, वह अविद्या होगी। हमारे जीवन ने तो कोई मुक्ति नहीं जानी। तो जिन विद्यालयों में हम पढ़े, वे विद्यालय न होंगे, अविद्यालय होंगे। विद्या की तो कसौटी और परिभाषा यही है कि जीवन मुक्ति के आनंद को उपलब्ध हो जाए।
लेकिन जिस विद्या से यह आनंद उपलब्ध न होता हो, उस विद्या को क्या कहें? सारे जगत में विद्या तो बढ़ती जाती है, विद्यालय बढ़ते जाते हैं, विद्यापीठ बढ़ते जाते हैं, विश्वविद्यालय बढ़ते जाते हैं, लेकिन मनुष्य कोई मुक्त होता दिखाई नहीं पड़ता है। वरन मनुष्य और भी बंधता जाता है, और भी जकड़ता जाता है, और भी नीचा गिरता जाता है।
तो बढ़ती हुई यह विद्या, कहीं हम कोई बुनियादी भूल तो नहीं कर लिए हैं? यह बढ़ती हुई विद्या, कहीं अविद्या तो नहीं है? और, मैं आपसे कहना चाहूंगा, यह अविद्या है। मुझे कोई शक नहीं है कि यह अविद्या है। मुझे निश्चित खयाल है कि जिसे हम विद्या समझ कर सारी दुनिया में प्रचारित कर रहे हैं, वह अविद्या है। क्योंकि उससे मनुष्य की आत्मा मुक्त होती दिखाई नहीं पड़ती, मनुष्य और बंधता हुआ, कारागृह में बंद होता हुआ दिखाई पड़ता है। मनुष्य की जीवन-चेतना ऊपर उठती हुई नहीं मालूम पड़ती है, और नीची जाती हुई मालूम पड़ती है। मनुष्य के प्राण ऊर्जा में बहते हुए, दिव्यता की तरफ गतिमान होते हुए दिखाई नहीं पड़ते हैं। बल्कि और नीचे उतरते हुए, पशुता की तरफ पहुंचते हुए मालूम पड़ते हैं।
ऐसी विद्या में दीक्षित लोगों को हम विद्यावान कहें! जहां यह सारी विद्या फैलाई जा रही है और हम उसके लिए अथक श्रम कर रहे हैं–और बहुत अच्छी भली मंशा से! सारी दुनिया में भले लोग श्रम कर रहे हैं–विद्यापीठ बढ़ें, विद्यालय बढ़ें, छात्रावास बढ़ें, शिक्षा बढ़े, मनुष्य ज्ञानवान हो। लेकिन पिछले दो हजार वर्ष का अनुभव कुछ और कहता है!
एक तरफ ज्ञान बढ़ता है, दूसरी तरफ मनुष्य घटता हुआ मालूम पड़ता है। एक तरफ विद्या बढ़ती है, दूसरी तरफ जीवन की क्षीणता होती मालूम पड़ती है। एक तरफ मनुष्य की बुद्धि विकसित होती है, तो दूसरी तरफ उसकी आत्मा टूटती हुई मालूम पड़ती है। कहीं कोई बुनियादी भूल हो रही है। कहीं कोई आधारभूत गलती हो रही है। कहीं हमारी गति और हमारी यात्रा प्रारंभ से ही भूल भरी हो गई है। तो फिर जिस दिशा में हम जाते हैं, वह दिशा हमें आनंद नहीं ला रही है।
आज सारे जगत में पिछली किसी भी सदी से ज्यादा विद्या है, ज्यादा शिक्षा है, ज्यादा विद्यालय हैं। लेकिन आज सारे जगत में पिछली किसी भी सदी से ज्यादा अशांति है, ज्यादा दुख है, ज्यादा पीड़ा है। मनुष्य का जीवन हानि उठाया है, जिसे हम विद्या कहते हैं उससे। हम बहुत भली इच्छा से अपने बच्चों को पढ़ाते हैं, लिखाते हैं, बड़ा बनाते हैं। हमारी कामनाएं, हमारे सपने होते हैं कि वे ऊपर उठें, लेकिन लिखा-पढ़ा कर हम पाते हैं कि वे नीचे उतर गए हैं। अपनी आंखों के सामने हम यह देख रहे हैं और फिर उसी तरह की विद्या को, उसी तरह के विद्यालयों को, उसी तरह के छात्रावासों को हम निर्मित भी करते चले जाते हैं! आदमी से ज्यादा अंधा भी कोई हो सकता है, यह खयाल करना कठिन है; आदमी से ज्यादा भी नासमझ कोई हो सकता है, यह खयाल करना कठिन है। और आदमी ने अपने अतीत के अनुभवों से कोई निष्कर्ष नहीं लिए, कोई परिणाम नहीं निकाले।
एक छोटी-सी घटना मुझे याद आती है। एक गांव में बुद्ध का आगमन हुआ था। जिस सुबह वे गांव में आए, उस गांव में एक गरीब चमार था, सुदास। वह सुदास सुबह ही उठा था। सूरज निकला था और सुदास ने अपनी झोपड़ी के पीछे जाकर देखा, उसकी छोटी-सी तलैया में कमल का फूल खिला था, बेमौसम। अभी ऋतु न थी कमल के खिल जाने की। सुदास ने सोचा, इस फूल को अगर मैं बाजार में ले जाऊं, तो आज जरूर मुझे एक रुपया देने वाला कोई न कोई हिम्मतवर ग्राहक मिल जाएगा–बेमौसम का कमल का फूल है, कोई न कोई खरीद लेगा। वह इस फूल को तोड़ कर बाजार की तरफ चला, सोचा था, अगर एक रुपया मिल जाए तो मैं धन्य हो जाऊं।
रास्ते पर ही था कि नगर के सेठ का रथ, नगर-सेठ का रथ, रास्ते पर गुजरता दिखाई पड़ा। फूल को देख कर ही नगर-सेठ ने रथ रोक लिया और सुदास को कहा, कितने में दोगे सुदास? सुदास की हिम्मत न पड़ी कहने की कि एक रुपये में दूंगा। इतना ही कहा उसने, बेमौसम का फूल है, जो भी आप दे दें। नगर-सेठ ने कहा, पांच सौ स्वर्ण-मुद्राएं मैं तुम्हें देता हूं लेकिन किसी और को मत बेच देना। फूल दे दो! नगर-सेठ यह कह भी नहीं पाया था कि पीछे से राजा का जो सेनापति था, उसका घोड़ा आकर रुक गया। और उसने सुदास को कहाः सुदास, फूल मैंने खरीद लिया है। और नगर-सेठ जितने पैसे देते होंगे, उससे दस गुना ज्यादा मैं दे दूंगा।
सुदास ने कहाः पागल हो गए हैं आप लोग, मैं तो एक रुपया कहने की हिम्मत न जुटा पाता था, नगर-सेठ पांच सौ स्वर्ण-मुद्राएं देते हैं, आप दस गुने ज्यादा देंगे! माना कि बेमौसम का फूल है, लेकिन इतना कौन देगा? आप दस गुनी मुद्राएं देंगे, पांच सौ स्वर्ण-मुद्राएं नगर-सेठ देते हैं। यह बात ही चलती थी कि राजा का रथ भी आ गया। और राजा ने कहाः फूल खरीद लिया गया। सेनापति जितने देते होंगे उससे दस गुना ज्यादा मैं दूंगा।
सुदास बोलाः बात क्या है! हो क्या गया है आप लोगों को! जिनसे एक रुपया छूटने की भी मुझे आशा न थी, वे इतना दे सकते हैं एक फूल के लिए! कारण क्या है? राजा ने कहा, तुम्हें पता नहीं, बुद्ध का आगमन होता है गांव में। हम उनके स्वागत को जाते हैं। मैं ही इस फूल को उन्हें चढ़ाना चाहूंगा, बेमौसम का फूल है। उनकी कल्पना भी नहीं हो सकती कि कमल का फूल भी आज कोई चरणों में रखेगा। यह फूल मैं ही चढ़ाना चाहता हूं।
सुदास ने कहाः फिर बेचने का सवाल नहीं, फूल मैं ही चढ़ा दूंगा। यह फूल मैं ही लिए जाता हूं। राजा ने कहा, पागल हो गए हो सुदास! अब तक सुदास सोचता था, राजा पागल हो गया, नगर-सेठ पागल हो गया, सेनापति पागल हो गया। वे तीनों बोले, पागल हो गए हो? जन्म-जन्म की दरिद्रता मिट जाएगी तुम्हारी आने वाली पीढ़ियों की, फूल बेच दो! सुदास ने कहाः मिट गई जन्म-जन्म की दरिद्रता–इस फूल को हम ही चढ़ा देंगे।
वह पैदल ही बुद्ध के आगमन की प्रतीक्षा में नगर के बाहर चला। राजा पहले पहुंच गए, सेनापति पहले पहुंच गए, नगर-सेठ पहले पहुंचे। उन सबने जाकर बुद्ध को कहा कि आज बड़े आश्चर्य की घटना घट गई है। गांव के एक दरिद्रतम चमार ने किसी भी मूल्य पर एक कमल का फूल बेचने से इनकार कर दिया! और उसने कहा कि मैं ही चढ़ा दूंगा। फिर सुदास भी आया, उसने बुद्ध के चरणों में वह फूल रखा।
बुद्ध ने कहाः पागल सुदास, तूने बेच क्यों न दिया? तेरी पीढ़ियों तक की दरिद्रता मिट जाती।
सुदास ने कहाः प्रभु, प्रेम से पैसा बड़ा नहीं होता है। और रुपये में आत्मा नहीं बेची जा सकती। जब तक यह फूल था, तब तक बेचने को तैयार था। जब से आपके चरणों का खयाल आया, बेचने का सवाल ही नहीं रह गया। मैं खुद ही चढ़ा दूंगा। दरिद्र भी तो प्रेम कर सकते हैं? दरिद्र भी तो आदर कर सकते हैं? दरिद्र भी तो श्रद्धा दे सकते हैं? दरिद्रों के पास भी तो कोई आत्मा है? इस फूल को स्वीकार कर लें!
बुद्ध ने अपने भिक्षुओं को कहाः भिक्षुओ, सुदास पढ़ा-लिखा नहीं है, लेकिन विद्यावान है, शिक्षित है। भिक्षुओ, शिक्षित है सुदास, पढ़ा-लिखा नहीं है। अपठित है, लेकिन विद्यावान है। एक भिक्षु ने पूछाः विद्यावान का आपका अर्थ क्या है? बुद्ध ने कहाः जिसे जीवन में श्रेष्ठतर मूल्यों का बोध है, जो निम्न मूल्यों को श्रेष्ठ मूल्यों के लिए समर्पित कर सके, वही विद्यावान है और सुदास ने प्रेम के लिए पैसे को ठुकरा दिया।
क्या हम आज के लोगों को विद्यावान कह सकते हैं, जो पैसे के लिए प्रेम को ठुकरा देते हों? क्या हम आज के लोगों को शिक्षित कह सकते हैं, जिनकी सारी शिक्षा श्रेष्ठतर मूल्यों की हत्या करती हो और निम्नतर मूल्यों को आगे रखती हो? जो क्षुद्र के लिए विराट को खोने को सदा तैयार हों? जो शरीर के लिए आत्मा बेच सकते हों? जिनके लिए धन के अतिरिक्त और कोई मूल्य नहीं है। जिनकी आंखों में पद के अतिरिक्त जीवन की कोई यात्रा नहीं है। जिनके जीवन में, जिनके चित्त में व्यर्थ के अतिरिक्त सार्थक का कोई ध्यान नहीं, उन सारे लोगों को विद्यावान कहा जा सकता है?
और ऐसी विद्या मुक्त कर सकती है? ऐसी विद्या मुक्त नहीं करती है। लेकिन वही हमारे सामने है। हम विद्यावान बनाएं लोगों को–इंजीनियर बनाएं, डाक्टर बनाएं, रसज्ञ बनाएं, गणितज्ञ बनाएं। लेकिन ये कोई भी विद्या नहीं हैं। ये सब आजीविका के साधन और उपाय हैं, विद्या नहीं हैं। रोटी और रोजी कमा लेने की व्यवस्था है, विद्या नहीं। और हम इन बच्चों को यूरोप भेजें और अमरीका भेजें और हम सोचते हों, हम बहुत बड़ा काम कर रहे हैं? हम केवल रोटी कमाने की कुशलता उन्हें सिखा रहे हैं, और कुछ भी नहीं। हम उन्हें विद्या नहीं दे रहे हैं। विद्या से हम उनका कोई नाता नहीं जोड़ रहे हैं। विद्या का नाता है, जीवन में श्रेष्ठतर मूल्यों का जन्म, हायर वैल्यूज क्या हैं जीवन में, उनका जन्म? उनका अगर जन्म होता है तो मनुष्य जरूर मुक्त होता है। उनका अगर जन्म होता है तो मनुष्य जरूर आनंद से भरता है। जितना जीवन ऊंचा उठता है, उतना ही मुक्त होता है। जितना जीवन श्रेष्ठ की ओर गति करता है, उतने ही बंधन गिरते चले जाते हैं।
बंधन हैं क्या? नीचाइयों के बंधन हैं।
जंजीरें हैं क्या? नीचाइयों की जंजीरें हैं।
मुक्ति क्या है? ऊंचाई पर यात्रा मुक्ति है, ऊंचे से ऊंचे उठ जाने की, रोज स्वयं को अतिक्रमण कर जाने की, रोज स्वयं को ट्रांसेंड कर जाने की। ऊंचाई की यात्रा विद्या है।
लेकिन हम स्वयं के अतिक्रमण को सिखाते हैं? हम सिखाते हैं, स्वयं के भर लेने को, हम सिखाते हैं स्वार्थ को। हम सिखाते हैं सेल्फिशनेस, हम सिखाते हैं शोषण। हम सिखाते हैं, अपने मन को भर लेना किसी तरह, अपनी आकांक्षाओं को पूरा कर लेना, अपनी वासनाओं को कुशलता से सिद्ध कर लेना। और हम सोचते हैं, हम विद्या दे रहे हैं। इससे ज्यादा व्यर्थ और कोई धारणा नहीं हो सकती।
एक बहुत पुराने गुरुकुल में तीन विद्यार्थी अंतिम परीक्षा उत्तीर्ण कर लिए थे। लेकिन उनका गुरु बार-बार कहे जाता था, तुम्हारी एक परीक्षा शेष रह गई है। फिर अंतिम दिवस आ गया, दीक्षांत समारोह हो गया, उन तीनों युवकों को उनकी उपाधियां दे दी गईं। फिर वे सोचने लगे, अंतिम परीक्षा शेष रह गई, क्या शेष ही रह जाएगी? अंतिम परीक्षा हुई नहीं और उपाधियां भी दे दी गईं! पर उन्होंने चुप ही रह जाना ठीक समझा। शायद गुरु भूल गए। शायद हम एक परीक्षा से बच गए हैं। फिर वे अपनी चटाइयां, अपनी लंगोटी, अपनी किताबें लेकर सांझ गुरु के चरणों में सिर रख कर विदा हो गए।
रास्ते में वे सोचने लगे, लेकिन अंतिम परीक्षा क्या हुई? सांझ घिरने लगी, सूरज नीचे उतरने लगा। रात और घना जंगल, वे तेजी से भागे जा रहे हैं। रात होने के पहले उन्हें गांव में पहुंच जाना है। खतरनाक है, बीहड़ है रास्ता। जंगली जानवर हैं, सूरज ढल गया है, बिलकुल अंधेरा उतरने लगा है, और तभी एक झाड़ी के पास पगडंडी पर बहुत कांटे पड़े हैं।
एक युवक छलांग लगा कर बाहर निकल गया, दूसरा युवक रास्ते से नीचे उतर कर पार कर गया। लेकिन तीसरे ने अपनी किताबें नीचे रख दीं और उन कांटों को बीन कर फेंकने लगा। उसके दो मित्रों ने कहाः पागल हुए हो! रात उतरती है, सांझ हो गई है, अंधेरा उतर आएगा और हमें जल्दी गांव पहुंच जाना है। यह समय कांटों के बीनने का नहीं है। यह अवसर नहीं, उठो और चलो। देर हो गई तो खतरा हो सकता है। उस तीसरे युवक ने कहाः मित्रो, अगर सूरज होता और दिन होता तो बीनने की कोई बहुत फिक्र नहीं थी, जो भी आते, वे भी देख लेते कि रास्ते पर कांटे हैं। लेकिन अब हमारे बाद जो भी इस रास्ते से गुजरेगा, कांटे उसे दिखाई पड़ने वाले नहीं हैं। और हम देखते हुए कांटों को निकल जाएं, तो सारी शिक्षा व्यर्थ हो गई। मैं कांटे बीनता हूं, तुम चलो।
उन दो को पता भी नहीं था, कि झाड़ी से गुरु निकल आएगा। झाड़ी में गुरु छिप कर बैठा था। वे कांटे बिखराए गए थे, यह अंतिम परीक्षा थी। उस गुरु ने कहाः बेटो, तुम जो दो पार करके निकल गए हो, वापस लौट चलो, तुम अंतिम परीक्षा में असफल हो गए हो। और जिसने कांटे बीने हैं, वह जाए।
जीवन के रास्तों पर कांटे बीनने की कला जिसे आ गई, वह शिक्षित हो गया, वह विद्यावान हो गया। और जो दूसरों के रास्तों से कांटे बीनेगा एक न एक दिन वह दूसरों के रास्तों पर फूल बिछाने की क्षमता को भी उपलब्ध हो जाता है। और जो आदमी दूसरों के रास्तों पर कांटे देख कर आंख बचा कर निकल जाता है, एक न एक दिन वह दूसरों के रास्तों पर कांटे बिछाने की पात्रता भी उपलब्ध कर लेता है।
वापस लौट चलो दोनों। तीसरे युवक को कहा कि तू उत्तीर्ण हो गया है, तू जा! उनकी कल्पना में भी न रहा होगा कि अंतिम परीक्षा यह होगी!
अंतिम परीक्षा हमेशा प्रेम की परीक्षा है। अंतिम मूल्य हमेशा प्रेम का मूल्य है। जीवन की श्रेष्ठतम ऊंचाइयां प्रेम की ऊंचाइयां हैं। जीवन के हिम-शिखर, जीवन के गौरीशंकर, जीवन के एवरेस्ट प्रेम के एवरेस्ट हैं। जिसे हम विद्या कहते हैं, वह प्रेम सिखाती है? कोई प्रेम का पता नहीं है हमारी विद्या को। विद्या प्रेम नहीं सिखाती, उल्टा अहंकार सिखाती है। अहंकार और प्रेम, दो विरोधी मूल्य हैं।
जहां अहंकार है वहां प्रेम नहीं, जहां प्रेम है वहां अहंकार नहीं।
विद्या सिखाती है अहंकार और बचपन से ही अहंकार को तीव्र करने के हम सब आयोजन करते हैं! पहली कक्षा में ही बच्चे भर्ती होते हैं और हम कहते हैं, प्रथम आ जाना। जो प्रथम आ जाता है, वह पुरस्कृत होता है। जो अंतिम रह जाते हैं, वे अपुरस्कृत हैं। वे जीवन के रास्ते पर उपेक्षित पड़े रह जाते हैं। तीस बच्चे होंगे पहली कक्षा में तो एक बच्चा प्रथम आएगा, और उनतीस–उनतीस पीछे रह जाएंगे। उनतीस की उदासी पर, उनतीस के दुख पर एक का सुख खड़ा होगा। यह हम विद्या सिखा रहे हैं! उनतीस की पीड़ा पर, उनतीस की दीनता और हीनता पर, उनतीस के फ्रस्ट्रेशन पर, उनतीस के हारे हुए होने पर एक की विजय खड़ी होगी–यह हम विद्या सिखा रहे हैं!
और जो प्रथम आ गया है, उसका आनंद यह नहीं होता है कि मैं प्रथम आ गया हूं, उसका आनंद यही होता है कि मैंने दूसरों को प्रथम नहीं आने दिया है, पीछे छोड़ दिया है। हम वायलेंस सिखा रहे हैं, हिंसा सिखा रहे हैं। हम हिंसा सिखा रहे हैं! हिंसा का एक ही अर्थ होता है–दूसरे के दुख में सुख अनुभव करने के सिवाय हिंसा का कोई अर्थ नहीं होता है। न तो पानी छान कर पीने से कोई हिंसा से बचता है और न रात भोजन न करने से कोई हिंसा से बचता है। हिंसा का एक ही अर्थ है मौलिक–हिंसा का अर्थ है, दूसरे के दुख में सुख।
और हम क्या सिखाते हैं बच्चों को? हम सिखाते हैं दूसरों के दुख में सुख अनुभव करना। अगर एक कक्षा में एक ही विद्यार्थी हो और वह प्रथम आ जाए, तो उसे कोई खुशी नहीं होती। उस कक्षा में तीस विद्यार्थी हों तो खुशी बहुत बढ़ जाती है, उनतीस को पीछे छोड़ने की, दुखी करने की। उस कक्षा में तीन हजार विद्यार्थी हों, खुशी और बढ़ जाती है। उस कक्षा में तीन लाख विद्यार्थी हों तो खुशी का कोई ठिकाना नहीं। उस कक्षा में तीन करोड़ हों तब तो बहुत ही आनंद उपलब्ध होता है। राष्ट्रपति बन जाने से भी वही आनंद उपलब्ध होता है–चालीस करोड़ में प्रथम हो जाने का आनंद। राजनीति इसीलिए तो हिंसा है, क्योंकि राजनीति है प्रथम होने की दौड़।
धर्म बिलकुल दूसरी ही दिशा है, विद्या बिलकुल दूसरी ही दिशा है।
जीसस क्राइस्ट ने कहा है, धन्य हैं वे लोग जो अंतिम खड़े होने में समर्थ हैं। बड़ी अजीब बात है। या तो जीसस क्राइस्ट पागल हैं, या हम सब पागल हैं–हम सब जो विद्यालय चलाते हैं और विद्या पढ़ाते हैं, और शिक्षक हैं!
जीसस क्राइस्ट कहते हैं, धन्य हैं वे लोग जो अंतिम खड़े होने में समर्थ हैं और हम सिखाते हैं, धन्य हैं वे लोग जो प्रथम खड़े होने में समर्थ हैं! प्रथम होने की दौड़ सिखाते हैं हम! प्रथम होने की दौड़ कभी किसी को मुक्त नहीं कर सकती, क्योंकि कुछ बुनियादी कारण हैं। पहली तो बात यह है कि जो प्रथम होने की दौड़ में पड़ता है, वह द्वंद्व में पड़ता है, वह कांफ्लिक्ट में पड़ता है, वह संघर्ष में पड़ता है, वह युद्ध की शुरुआत कर रहा है। वह दूसरों से शत्रुता ले रहा है। जो शत्रुता ले रहा है, वह कभी मुक्त नहीं हो सकता, शत्रुओं से बंधा रह जाता है। केवल वही मुक्त होता है जो सबका मित्र है। और सबका मित्र वही हो सकता है जो किसी की प्रतिस्पर्धा में नहीं है, किसी के काम्पिटीशन में नहीं है।
मित्रता का और क्या अर्थ है कि मैं किसी की प्रतिस्पर्धा में नहीं हूं! शत्रुता का और क्या अर्थ है कि मैं प्रतिस्पर्धी हूं! मेरी विजय, या तुम्हारी विजय, यही विकल्प हैं। या तो मैं, या तुम! दोनों के साथ होने का कोई अर्थ नहीं है।
हम प्रतिस्पर्धा सिखाते हैं! बचपन से ही जहर डालते हैं प्रतिस्पर्धा का, हिंसा का, महत्वाकांक्षा का, एंबीशन का! और फिर हम सोचते हैं, ये विद्यालय हैं! ये अविद्यालय हैं, अविद्या के केंद्र हैं। यहीं मनुष्य के मन में पाय.जन, जहर डाला जाता है। यहीं मनुष्य के मन को बचपन से विकृत और विक्षिप्त किया जाता है। यहीं पर इनसेनिटी सिखाई जाती है और फिर वह जीवन भर पागल की तरह दौड़ता है। फिर उसकी दौड़ कुछ भी हो–चाहे वह दौड़ धन में आगे निकल जाने की हो, चाहे वह दौड़ पद में आगे निकल जाने की हो, चाहे वह दौड़ दिल्ली पहुंच जाने की हो, इससे कोई फर्क नहीं पड़ता। लेकिन हम दौड़ सिखाते हैं, दौड़ का फीवर, दौड़ का ज्वर सिखाते हैं। ज्वर से कभी कोई स्वस्थ नहीं हो सकता।
मैंने सुना है, काशी के एक कुत्ते को दिल्ली की यात्रा का खयाल पैदा हो गया। आदमियों को रोज-रोज दिल्ली की तरफ जाते देख कर कुत्तों को भी खयाल पैदा हो जाए तो कोई आश्चर्य तो नहीं। जमाने बदल गए, जब दिल्ली से लोग काशी आया करते थे। अब तो सब काशी से दिल्ली की तरफ जाते हैं! तो कुत्तों ने सोचा कि हम भी अपने प्रतिनिधि, अपने नेता को भेज दें दिल्ली। और उन्होंने अपने एक कुत्ते को दिल्ली भेजने का निर्णय किया। और दिल्ली के कुत्तों को खबर की कि हमारा यह कुत्ता दिल्ली आता है, वहां सर्किट हाउस में रिजर्वेशन कर रखना। एक महीना लग जाएगा कुत्ते को दिल्ली की पैदल यात्रा करने में। कुत्ता कोई भारतीय दिमाग का रहा होगा, पुराने ऋषि-मुनियों की गति से चलता होगा? पैदल ही चलता था। एक महीना लग जाएगा।
दिल्ली के कुत्ते इंतजार करते रहे। वैसे भी उनको नेताओं के स्वागत की पुरानी आदत है। रोज-रोज का अनुभव है। और अब अपना ही नेता आता था तो उन्होंने बड़ा समारोह, बड़ा आयोजन किया। लेकिन वह कुत्ता सात दिन में ही पहुंच गया। दिल्ली के कुत्ते तो बहुत हैरान हुए! नेता उन्होंने आते देखे थे, लेकिन इतनी तीव्रता से कोई नेता दिल्ली नहीं पहुंचता कि सात दिन में ही पहुंच जाए! बड़ी लंबी यात्रा है, दिल्ली बहुत दूर है! जीवन के अंत-अंत तक आदमी दिल्ली पहुंच पाते हैं। इसलिए तो दिल्ली कब्र बन जाती है। वहां से लौटने का मौका मुश्किल से ही किसी को मिलता है। लेकिन कुत्ता सात दिन में आ गया! आदमियों से भी ज्यादा चालाक मालूम होता है। वे सब हैरान थे, उन्होंने पूछाः तुम सात दिन में कैसे आ गए?
उस कुत्ते ने कहाः मत पूछो यह, हमारे जाति भाइयों ने सात दिन में यात्रा पूरी करवा दी। काशी के कुत्तों ने जहां मुझे छोड़ा, दूसरे गांव के कुत्ते मेरे पीछे पड़ गए। उन्होंने दूसरे गांव तक छोड़ा , दूसरे गांव के कुत्ते मेरे पीछे पड़ गए। मुझे विश्राम का मौका ही नहीं मिला। मैं कहीं ठहरने की सुविधा नहीं पा सका। मैं सीधा ही, बिना रुके, नाॅन-स्टाॅप दिल्ली पहुंच गया हूं। लेकिन इतना कहते-कहते ही उस कुत्ते के प्राणांत भी हो गए। क्योंकि नाॅन-स्टाॅप जो यात्रा करता है, वह मृत्यु में ही जाता है, जीवन में नहीं। लेकिन कुत्ते ने यात्रा पूरी कर ली–ज्वर दौड़ने का, और दौड़ाने वाले लोग चारों तरफ!
हम बच्चों के साथ यही करते हैं। उनसे कहते हैं, दिल्ली जाओ। और फिर सारे लोग उनके पीछे पड़ जाते हैं। बचपन में मां-बाप पीछे पड़े रहते हैं। बड़े होते हैं तो पत्नी पीछे पड़ जाती है। बूढ़े होते हैं तो लड़के-बच्चे पीछे पड़ जाते हैं–कि आगे जाओ, आगे जाओ, आगे जाओ! दिल्ली पहुंचना बिलकुल जरूरी है। दिल्ली बिना पहुंचे कोई जीवन का अर्थ नहीं है। एक ज्वर पैदा करते हैं हम बच्चों के आस-पास। ज्वर में दीक्षा देते हैं। फीवर पैदा करते हैं। और ज्वर जितना तीव्र हो बच्चा उतने ही पागलपन से दौड़ना शुरू कर देता है। इसको हम जीवन की गति कहते हैं!
यह गति जीवन को मुक्त करेगी? यह गति मृत्यु में ले जा सकती है, मुक्ति में नहीं। और हममें से अधिक लोग मरते हैं, मुक्त नहीं होते हैं। मुक्त होने का मार्ग बिलकुल दूसरा है। वह विद्या मुक्त करेगी, जो महत्वाकांक्षा से शून्य और रिक्त हो, जो नाॅन-एंबीशस हो, जो महत्वाकांक्षा पैदा न करती हो। लेकिन हम कहेंगे कि अगर महत्वाकांक्षा पैदा न करे विद्या तो फिर आदमी आगे कैसे बढ़ेगा?
पहली तो बात यह है कि आगे बढ़ना कोई मूल्य नहीं है। दूसरी बात यह है कि आगे बढ़ने के और भी सूत्र, और भी मार्ग हैं–एक तो आगे बढ़ना होता है, दूसरे से आगे बढ़ना। और एक आगे बढ़ना होता है, अपने से आगे बढ़ना। मैं जहां कल था, उससे आज आगे निकल जाऊं। यह प्रतिस्पर्धा मेरी मुझसे है, आपसे नहीं। कल जहां सूरज डूबा और मुझे छोड़ गया, आज सुबह उगे सूरज, तो मुझे वहीं न पाए। मैं अपने से आगे बढ़ जाऊं, सेल्फ-ट्रांसेंडिंग हो जाऊं, अपना अतिक्रमण कर जाऊं।
वह विद्या मनुष्य को मुक्त करती है, जो स्वयं से अतिक्रमण, स्वयं के पार होने की कला सिखाती है। वह विद्या मुक्त नहीं करती है, जो दूसरों से प्रतिस्पर्धा और दूसरों को पार करने की कला सिखाती है।
स्मरण रहे, दूसरों को पार करने में जो पड़ जाता है वह जीवन भर दौड़ता रहता है, और कहीं नहीं पहुंचता। क्योंकि दूसरे हमेशा आगे मौजूद होते हैं, जिनको पार करना शेष रह जाता है। अगर कोई मनुष्य अपने को पार करने की गति में, अपने को पार करने की दिशा में संलग्न हो, तो एक दिन वहां पहुंच जाएगा, जहां पार करने को फिर कुछ शेष नहीं रह जाता–महावीर वहां पहुंच जाते हैं, बुद्ध वहां पहुंच जाते हैं, जीसस क्राइस्ट वहां पहुंच जाते हैं, कृष्ण वहां पहुंच जाते हैं–जहां स्वयं को पार करने की चरम-अवस्था उपलब्ध हो जाती है; उस चरम-अवस्था का नाम ही परमात्म-अनुभव है, आत्म-अनुभव है, मोक्ष है–जिसके आगे कोई गति नहीं, जिसके आगे कोई दिशा नहीं, जिसके आगे कोई पहुंचना नहीं।
वह अंतिम मंजिल का नाम मोक्ष है। अंतिम मंजिल का नाम मुक्ति है। जब एक व्यक्ति अपने को सब भांति अतिक्रमण कर जाता है और कुछ भी शेष नहीं बचता आगे, तब–तब उपलब्ध होती है मुक्ति!
लेकिन जो लोग दूसरों को पार करने में लगते हैं, वे कभी पार करने की अंतिम मंजिल पर नहीं पहुंच पाते हैं। क्यों? क्योंकि दूसरे बहुत हैं–वे जो ‘दि अदर’ हैं, वे बहुत हैं। उनको पार करना आसान नहीं, संभव नहीं। आज तक कोई आदमी पार नहीं कर पाया है। और कुछ राज हैं, कुछ रहस्य हैं, जिनकी वजह से कभी कोई पार नहीं कर पाता है। क्या आपको पता है, आज तक किसी आदमी ने यह कहा हो कि मैं प्रथम आ गया, अब मेरे आगे कोई भी नहीं? कोई नेपोलियन, कोई सिकंदर, कोई नेहरू यह कहने की हिम्मत कर सकता है कि मैं आगे आ गया, मेरे आगे कोई भी नहीं? कोई भी यह हिम्मत नहीं कर सकता है। कुछ राज है!
एक फूरिये नाम का वैज्ञानिक था। वह गुबरीले जाति के कुछ कीड़ों पर प्रयोग करता था। वे कीड़े बड़े अदभुत हैं। वे कीड़े हमेशा अपने नेता के पीछे चलते हैं और जब तक नेता चलता जाता है, वे रुकते नहीं। उनकी आदत भी आदमियों जैसी है। आदमी के कई रोग दूसरे कीड़े-मकोड़ों में भी हैं, जैसे नेता के पीछे चलना। तो वे कीड़े आदमियों जैसे हमेशा लीडर के पीछे चलते हैं। फूरिये ने एक तरकीब लगाई। उसने एक गोल थाली में दस-पंद्रह कीड़े छोड़ दिए। वे कीड़े अपने नेता के पीछे चक्कर लगाने लगे। थाली थी गोल, उसका कहीं अंत आने वाला नहीं था। गोल-गोल चक्कर काटते गए, काटते गए। जब तक नेता न रुके, तब तक अनुयायी नहीं रुक सकते। और जब तक अनुयायी चल रहे हैं, तब तक नेता क्या अपनी बेशर्मी करे रुक कर? नेता भी चलता जाता है, कीड़े भी चलते जाते हैं। सिकंदर, नेपोलियन भी चलते हैं, अनुयायी भी चलते हैं। आखिर हालत यह हो गई, कि चैबीस घंटे कीड़े चक्कर ही लगाते रहे, रुके नहीं! क्योंकि नेता रुके तो पीछे के कीड़े कहें कि नेता नाकामयाब हो गया, दूसरा नेता चुनो। अगर पीछे के अनुयायी रुक जाएं तो नेता चिल्लाएगा कि कैसे काहिल, कैसे सुस्त! आखिर कीड़े थक-थककर गिरने लगे और मरने लगे। लेकिन उन कीड़ों को यह समझ में न आ सका कि इस यात्रा का कोई अंत नहीं होगा, यह गोल चक्कर में यात्रा चल रही है।
आदमी को अगर हम गौर से देखें, तो आज तक कोई आदमी यात्रा के अंत पर नहीं पहुंचा है। इससे यह पता चलता है कि शायद किसी गोल थाली में हमारी यात्रा चल रही है, जिसमें हम चक्कर लगाते जाते हैं, लगाते जाते हैं। फिर भी आगे कोई होता है, पीछे कोई होता है। न कभी हम पूरी तरह आगे हो पाते हैं, न पूरी तरह पीछे हो पाते हैं। हमेशा आगे भी कोई, पीछे भी कोई–और यात्रा चलती रहती है, और हम थक-थक कर मर जाते हैं। फूरिये के कीड़े ही नहीं, आदमी भी इसी तरह थक-थक कर मर जाते हैं। दूसरे चलने वाले रास्ते से हटा देते हैं उन्हें और अपनी यात्रा शुरू कर देते हैं। लेकिन जो गिर पड़े हैं, कोई भी गौर से नहीं देखता कि कहीं हम भी तो उसी गिरने के मार्ग पर नहीं चलते चले जा रहे हैं। आज तक कोई आदमी होड़ में, काम्पिटीशन में, प्रतिस्पर्धा में प्रथम नहीं हो सका है–कभी हो भी नहीं सकेगा। उस यात्रा का कोई अंत नहीं है। वह गोल चल रही है।
लेकिन एक और यात्रा भी है। और मंजिल आ जाए तो ही कोई मुक्त होता है, जहां यात्रा समाप्त होती है, वहीं मुक्ति आती है। एक और यात्रा भी है–वह स्वयं को अतिक्रमण करने की, स्वयं को निरंतर पार करने की। स्वयं से निरंतर ऊपर उठ जाने की और आगे चले जाने की। किसी दूसरे से उसका कोई भी संबंध नहीं है। किसी दूसरे से उसका कोई भी नाता नहीं है।
विद्या मैं उसे कहता हूं जो दूसरों से आगे बढ़ना न सिखाए, बल्कि स्वयं का अतिक्रमण, स्वयं से आगे बढ़ना सिखाए।
और जिस दिन कोई आदमी स्वयं से आगे बढ़ने में दीक्षित हो जाता है, उसके जीवन में आनंद के बिलकुल नये द्वार खुल जाते हैं, जिनका उसे पता भी नहीं था। और जो आदमी दूसरों से आगे होने में दीक्षित हो जाता है, उसके जीवन में रोज-रोज दुख, तनाव और पीड़ा और अशांति के नये-नये मार्ग स्पष्ट होते चले जाते हैं।
स्मरण रहे, दूसरे को पीछे करना, दूसरे को दुख देना है। और जो दूसरों को दुख देता है, वह कभी भी आनंद को उपलब्ध नहीं हो सकता है। क्योंकि जो हम दूसरों को देते हैं, वही हम पर वापस लौट आता है। जीवन बड़ा अदभुत है, इसमें जो हम जीवन को देते हैं, उसी की प्रतिध्वनियां हमें सुनाई पड़नी शुरू हो जाती हैं।
मैं एक पहाड़ी पर था। और वहां एक ईको-पाॅइंट था। जहां आवाज हम करें, तो सात बार आवाज गूंज कर वापस लौटती थी। एक मित्र मेरे साथ उस ईको-पाॅइंट पर गए थे। वे मित्र उस ईको-पाॅइंट पर कुत्तों के जैसे भौंकने लगे। पहाड़ियां कुत्तों की आवाज से भर गईं। सात गुनी आवाज वापस लौटने लगी। मैंने उन मित्र को कहा, कि क्या उचित न होगा–अगर चिल्लाना ही है, तो क्या उचित न होगा कि कोई गीत गाओ? क्या उचित न होगा–अगर गीत भी नहीं गाना है, तो कोयल की कोई वाणी बोलो? क्या कुत्ते की आवाज करनी ही जरूरी है? और फिर उन्होंने एक गीत गाया और घाटियां गीत की प्यारी ध्वनियों से गूंज उठीं और गीत वापस आने लगा।
फिर मैंने उन मित्र को कहा कि न केवल इस ईको-पाॅइंट पर, बल्कि जीवन, पूरा का पूरा जीवन एक ईको-पाॅइंट है–जहां हम अगर गालियां बकते हैं तो गालियां वापस लौट आती हैं और अगर गीत गाते हैं तो गीत वापस लौट आते हैं। और अगर हम कांटे फेंकते हैं तो कांटे वापस आ जाते हैं। और अगर फूल बरसाते हैं तो फूल लौट आते हैं।
जीवन एक बड़ी प्रतिध्वनि का केंद्र है–जीवन के भवन में जो हम चिल्लाते हैं, वही वापस आ जाता है। तो अगर हम सिखा रहे हैं, दूसरों को दुख देना, दूसरों को पीछे छोड़ना, दूसरों को उदास करना, दूसरों को पराजित करना; तो स्मरण रहे, यही सब हम पर वापस लौट आएगा, और जीवन के अंत में यही हमारी संपदा होगी।
यह संपदा कैसे मुक्ति को निकट ला सकती है? यह तो नरक को निकट लाएगी, दुख को निकट लाएगी, पीड़ा को, बंधन को निकट लाएगी।
यह बड़े आश्चर्य की बात है कि अगर हम किसी के रास्ते पर कांटे फेंकें तो हम बंधते हैं और अगर हम फूल फेंकें तो हम नहीं बंधते हैं। बंधने का मतलब केवल इतना है कि जब कांटे हम पर लौटते हैं तो दुख लाते हैं और जब फूल हम पर लौटते हैं तो दुख का कोई कारण नहीं रह जाता।
ब्लावट्स्की ने सारी दुनिया में यात्रा की–सारी जगह। उसकी एक अजीब आदत थी। हाथ में एक झोला लिए रहती और बार-बार, चाहे ट्रेन में बैठी हो, चाहे गाड़ी में बैठी हो, झोले में हाथ डाल कर कुछ बाहर फेंकती रहती। लोग पूछते, यह क्या है, क्या फेंकती हैं? ब्लावट्स्की कहती, फूलों के कुछ बीज हैं, रास्ते के किनारे फेंकती हूं। वर्षा आने को है, फिर इन बीजों में अंकुर निकल आएंगे और ये पौधे बड़े हो जाएंगे। और वर्षा में इनके फूल खिल जाएंगे। तो लोग पूछते, बड़ी पागल हो तुम! जिन रास्तों से तुम्हें दुबारा नहीं निकलना, उन रास्तों पर बीज फेंकने का प्रयोजन? और अगर फूल आएं भी तो उनसे मतलब? ब्लावट्स्की कहती कि नहीं, जिन रास्तों से मैं गुजर रही हूं, उन पर किन्हीं दूसरे लोगों के फेंके गए बीजों के फूल आए हैं और उनसे मैं आनंदित हो रही हूं। उनका ऋण हो गया मेरे ऊपर। उस ऋण को मैं कैसे चुकाऊं? उन रास्तों पर बीज फेंक दूं; जिनसे मैं तो नहीं निकलूंगी, लेकिन कभी कोई निकलेगा और आनंदित होगा। और फिर मुझे इससे फर्क नहीं पड़ता कि कौन देखेगा उन फूलों को और कौन आनंदित होगा? मैं तो कल्पना भी करती हूं, कि फूल आ गए हैं और कोई आनंदित हो रहा है तो मेरा प्राण गदगद हो उठता है, मैं आनंद से भर जाती हूं।
कभी आपने कल्पना की है इस बात की कि क्या आपके द्वारा किसी को आनंद उपलब्ध हो रहा है? कल्पना में भी अगर आपको खयाल आ जाए कि किसी के प्राण आपके कारण आनंद से भर रहे हैं, किसी के अंधकारपूर्ण हृदय में आपके कारण प्रकाश का दीया जल रहा है, तो उसकी कल्पना से भी आपके प्राण आनंदित हो उठेंगे। वस्तुतः जब ऐसा होता है तब तो जीवन बड़े आनंद में प्रतिष्ठित हो जाता है। लेकिन हम तो दिन-रात दूसरे के दुख की, दूसरे की पराजय की, दूसरे को हरा देने की योजना और कामना में लगे रहते हैं। परिणाम में हमारा दिल, हमारी आत्मा, हमारा हृदय अगर दुख और अंधकार से भर जाता हो तो कोई आश्चर्य नहीं। यह तो सीधा गणित है। यह तो दो और दो चार जैसी सीधी बात है, यह तो होगा ही।
मैं किसे विद्या कहूं? कौन सी विद्या है–जो मुक्त करती है? वह विद्या जो मनुष्य को आत्मा के निकट ले जाती है, सत्य के निकट ले जाती है। और कौन ले जाएगा सत्य के निकट? कोई दूसरा आपको ले जाएगा? नहीं, कोई दूसरा नहीं ले जा सकता। आपको ही अपना सतत परिष्कार करना होगा। रोज-रोज निखारना होगा अपने भीतर के सोने को। रोज-रोज अग्नि से गुजरना होगा, ताकि कचरा जल जाए और स्वर्ण शेष रह जाए। आत्म-परिष्कार, आत्म-साधना स्वयं से निरंतर ऊंचे उठते जाना है–जो विद्या यह सिखा देती है, वह विद्या मुक्तिदायी बन जाती है।
ये थोड़ी सी बातें मैंने कही, अंत में एक बात और कहूं और अपनी चर्चा पूरी करूंगा।
मनुष्य के जगत में जो भी दुख, जो भी अंधकार, जो भी घृणा और हिंसा पैदा हुई है, वह अविद्या को विद्या समझ लेने से पैदा हुई है। और अगर मनुष्य के जीवन को परिवर्तित करना है तो स्पष्ट भेद करना होगा–क्या है अविद्या और क्या है विद्या?
जो आजीविका सिखाती है, जो लिविंग देती है, रोटी-रोजी देती है, वह है अविद्या।
और जो जीवन सिखाती है, लाइफ देती है–लिविंग नहीं, लाइफ; आजीविका नहीं, जीवन–वह है विद्या।
और हमें अविद्यालय भी खोलने चाहिए और विद्यालय भी खोलने चाहिए। अविद्यालय खोलने चाहिए कि वहां लोग रोटी-रोजी कमाना सीख सकें। क्योंकि आदमी बिना रोटी के नहीं जी सकता है। लेकिन अकेली रोटी से भी आदमी नहीं जी सकता है। हमें अविद्यालय भी खोलने चाहिए और हमें विद्यालय भी खोलने चाहिए। अभी तो हम सभी अविद्यालयों को विद्यालय कहते हैं और महावीर जैसा प्यारा नाम भी लगा लेते हैं, कहते हैं कि महावीर विद्यालय! अभी महावीर के नाम लगाने लायक कोई विद्यालय जमीन पर नहीं है–अभी देर है बहुत! अभी सब विद्यालय आदमियों के हैं। अभी महावीर का कोई विद्यालय नहीं है। लेकिन हो सकता है, अगर हम चाहें तो जरूर हो सकता है। किसी दिन हो सकें–महावीर के विद्यालय, बुद्ध के, क्राइस्ट के, उनके जिन्होंने जाना और जीवन को जीया और पाया। वे हो सकें किसी दिन, इसकी परमात्मा से और आपसे प्रार्थना करता हूं।
मेरी बातों को इतने प्रेम और शांति से सुना, उससे बहुत अनुगृहीत हूं। और अंत में सबके भीतर बैठे परमात्मा को प्रणाम करता हूं। मेरे प्रणाम स्वीकार करें।
‘सा विद्या या विमुक्तये’ विषय पर
बिड़ला क्रीड़ा केंद्र, बंबईः 23 सितंबर 1968
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