प्रवचन - २७ : अंकुरित होने की कला - शिक्षा में क्रांति - ओशो
मेरे प्रिय आत्मन्!
जीवन मिलता नहीं, निर्मित करना होता है। जन्म मिलता है, जीवन निर्मित करना होता है। इसीलिए मनुष्य को शिक्षा की जरूरत है। शिक्षा का एक ही अर्थ है कि हम जीवन की कला सीख सकें। एक कहानी मुझे याद आती है।
एक घर में बहुत दिनों से एक वीणा रखी थी। उस घर के लोग भूल गए थे, उस वीणा का उपयोग। पीढ़ियों पहले कभी कोई उस वीणा को बजाता रहा होगा। अब तो कभी कोई भूल से बच्चा उसके तार छेड़ देता था तो घर के लोग नाराज होते थे। कभी कोई बिल्ली छलांग लगा कर उस वीणा को गिरा देती तो आधी रात में उसके तार झनझना जाते, घर के लोगों की नींद टूट जाती।वह वीणा एक उपद्रव का कारण हो गई थी। अंततः उस घर के लोगों ने एक दिन तय किया कि इस वीणा को फेंक दें–जगह घेरती है, कचरा इकट्ठा करती है और शांति में बाधा डालती है। वह उस वीणा को घर के बाहर कूड़े घर पर फेंक आए।
वह लौट ही नहीं पाए थे फेंक कर कि एक भिखारी गुजरता था, उसने वह वीणा उठा ली और उसके तारों को छेड़ दिया। वे ठिठक कर खड़े हो गए, वापस लौट गए। उस रास्ते के किनारे जो भी निकला, वे ठहर गया। घरों में जो लोग थे, वे बाहर आ गए। वहां भीड़ लग गई। वह भिखारी मंत्रमुग्ध हो उस वीणा को बजा रहा था। जब उन्हें वीणा का स्वर और संगीत मालूम पड़ा और जैसे ही उस भिखारी ने बजाना बंद किया है, वे घर के लोग उस भिखारी से बोलेः वीणा हमें लौटा दो। वीणा हमारी है। उस भिखारी ने कहाः वीणा उसकी है जो बजाना जानता है, और तुम फेंक चुके हो। तब वे लड़ने-झगड़ने लगे। उन्होंने कहा, हमें वीणा वापस चाहिए। उस भिखारी ने कहाः फिर कचरा इकट्ठा होगा, फिर जगह घेरेगी, फिर कोई बच्चा उसके तारों को छेड़ेगा और घर की शांति भंग होगी। वीणा घर की शांति भंग भी कर सकती है, यदि बजाना न आता हो। वीणा घर की शांति को गहरा भी कर सकती है, यदि बजाना आता हो। सब कुछ बजाने पर निर्भर करता है।
जीवन भी एक वीणा है और सब कुछ बजाने पर निर्भर करता है। जीवन हम सबको मिल जाता है, लेकिन उस जीवन की वीणा को बजाना बहुत कम लोग सीख पाते हैं। इसीलिए इतनी उदासी है, इतना दुख है, इतनी पीड़ा है। इसीलिए जगत में इतना अंधेरा है, इतनी हिंसा है, इतनी घृणा है। इसलिए जगत में इतना युद्ध है, इतना वैमनस्य है, इतनी शत्रुता है। जो संगीत बन सकता था जीवन, वह विसंगीत बन गया है क्योंकि बजाना हम उसे नहीं जानते हैं। शिक्षा का एक ही अर्थ है कि हम जीवन की वीणा को कैसे बजाना सीख लें। लेकिन ऐसा मालूम पड़ता है कि जिसे हम आज शिक्षा कहते हैं, वह भी जीवन की वीणा को बजाना नहीं सिखा पाती। वह जीवन की वीणा को रंग-रोगन सिखा देती है करना। जीवन की वीणा को हम रंग कर लेते हैं। जीवन की वीणा को सजा लेते हैं, फूल लगा देते हैं। जीवन की वीणा पर हीरे-मोती जड़ देते हैं, लेकिन न हीरे-मोतियों से वीणा बजती है, न फूलों से, न रंग-रोगन से।
आज की शिक्षा आदमी को सजा कर छोड़ देती है, लेकिन उसके जीवन के संगीत को बजाने की संभावना उससे पैदा नहीं हो पाती। और ऐसा नहीं है कि पहले शिक्षा से हो जाती थी। पहले तो शिक्षा करीब-करीब थी ही नहीं। आज की शिक्षा से भी नहीं होती है, पहले की शिक्षा से भी नहीं हो पाती थी। कहीं न कहीं कोई भूल हो रही है। और वह भूल यही हो रही है कि वीणा के बजाने के नियम पर ध्यान नहीं है, वीणा को सजाने पर ध्यान है। वीणा को सजाने का अर्थ है–एक व्यक्ति को अहंकार दे देना, महत्वाकांक्षा दे देना। आज की सारी शिक्षा एक व्यक्ति के भीतर अहंकार की जलती हुई प्यास के अतिरिक्त और कुछ भी पैदा नहीं कर पाती है। विश्वविद्यालय से निकलता है कोई, तो अहंकार से भरी हुई आकांक्षाएं लेकर निकलता है यह होने की, यह होने की, वहां पहुंच जाने की। सर्व प्रथम हो जाने की पागल दौड़ से भर कर बाहर निकलते हैं। जीवन की वीणा तो पड़ी रह जाती है, प्रथम होने की दौड़ प्रारंभ हो जाती है। पहले ही दिन कक्षा में कोई भर्ती होता है तो हम उसे सिखाते हैं पहले आने का पागलपन। वह एक तरह का बुखार है, जिससे सभी पीड़ित हैं।
महत्वाकांक्षा एक तरह की बीमारी है जो हम सबके प्राणों को घेर लेती है। और अब तक की सारी शिक्षा महत्वाकांक्षा के ज्वर पर ही खड़ी है। मां-बाप भी वह जहर देते हैं, शिक्षक भी वह जहर देते हैं, लेकिन वह जहर देते हैं। वह हर आदमी को सिखाते हैं कि नंबर एक होना है तो ही जिंदगी में सुख है। वह यह हमारा तर्क है शिक्षा का कि जो प्रथम है, वह सुखी है। जीसस ने एक वचन लिखा है जो हमें बहुत पागलपन का मालूम पड़ेगा। जीसस ने लिखा है: धन्य हैं वे लोग जो अंतिम खड़े होने में समर्थ हैं! और हमारी शिक्षा कहती है, धन्य हैं वे लोग जो प्रथम खड़े होने में समर्थ हो जाते हैं! या तो जीसस पागल हैं, या हम सब पागल हैं। जीसस कहते हैं, धन्य हैं वे लोग जो अंतिम खड़े होने में समर्थ हैं। क्यों? क्योंकि जो अंतिम खड़ा हो जाता है, वह सभी बुखार से मुक्त हो जाता है। दौड़ से मुक्त हो जाता है। और जहां कोई बुखार नहीं है, जहां कोई दौड़ नहीं है, जहां कोई पागलपन नहीं है कहीं पहुंचने का; वहां अपने जीवन की वीणा के अतिरिक्त बजाने को और कुछ भी नहीं बचता है।
लेकिन हम तो सभी को दौड़ दे रहे हैं! सारे जगत में एक पागलपन पैदा कर रहे हैं और इसलिए इतनी बेचैनी है, इतनी परेशानी है, इतनी प्रतिस्पर्धा है, इतना संघर्ष है। शिक्षित आदमी उस संघर्ष में ज्यादा है, अशांति में ज्यादा है। सच तो यह है कि जिस देश में जितना ज्यादा लोग पागल होते हों, समझ लेना चाहिए उस देश में उतनी ज्यादा शिक्षा फैल गई है। शिक्षित ज्यादा होंगे तो मानसिक रुग्ण, बीमार ज्यादा होंगे। आज अमरीका सबसे ज्यादा शिक्षित देश है। क्योंकि सबसे ज्यादा आदमियों को पागल वही कर पाता है। सबसे ज्यादा लोग मानसिक रूप से बीमार होते हैं, क्योंकि हर आदमी एक ऐसी दौड़ में है जो पूरी नहीं हो सकती। और अगर पूरी भी हो जाए, तो दौड़ के अंत में पता चलता है कि हाथ खाली रह गए हैं और कुछ भी नहीं मिला है।
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मैंने सुना है, सिकंदर मरा और जिस राजधानी में मरा, उसकी अरथी निकाली गई तो मरने के पहले उसने अपने मित्रों से कहा, मेरे दोनों हाथ अरथी के बाहर लटके रहने देना। मित्रों ने कहाः पागल हो गए हैं आप? अरथी के भीतर हाथ होते हैं सदा, बाहर नहीं होते। सिकंदर ने कहाः मेरी इतनी इच्छा पूरी कर देना हालांकि जीवन में मेरी कोई इच्छा पूरी नहीं हो पाई है। मर कर तुम कम से कम मेरी इतनी इच्छा पूरी कर देना कि मेरे दोनों हाथ बाहर लटके रहने देना। मरे हुए आदमी की इच्छा पूरी करनी पड़ी। उसके दोनों हाथ बाहर लटके हुए थे। जब उसकी अरथी निकली तो लाखों लोग देखने को आए थे। हर आदमी यही पूछने लगा कि अरथी के बाहर हाथ क्यों लटके हैं? कोई भूल-चूक हो गई है। हर आदमी यही पूछ रहा था। सांझ होते-होते लोगों को पता चला, भूल नहीं हुई है। सिकंदर ने मरने के पहले कहा था कि मेरा हाथ बाहर लटके रहने देना। और जब मित्रों ने पूछा था, क्यों? तो सिकंदर ने कहा थाः मैं लोगों को दिखा देना चाहता हूं कि मैं भी खाली हाथ जा रहा हूं। जो पाने की कोशिश की थी, वह नहीं पा सका हूं। मेरे दोनों हाथ खाली हैं, यह लोग देख लें।
शायद इसीलिए हम हाथों को अरथी के भीतर छिपाते हैं ताकि पता न चल जाए कि हाथ खाली हैं। जिंदगी भर दौड़ते हैं और कहीं नहीं पहुंचते हैं। हां, दिल्ली पहुंच सकते हैं। लेकिन वहां पहुंच कर भी कहीं नहीं पहुंचते हैं। पहुंचना नहीं हो पाता। क्योंकि जिस चीज की तलाश में चलता है आदमी आनंद की तलाश में, वह कहीं भी पहुंच कर नहीं मिलता। वह तो उस आदमी को मिलता है जो पहुंचने की दौड़ छोड़ देता है। क्यों? क्योंकि आनंद आदमी के भीतर है, बाहर नहीं। अगर बाहर होता तो हम दौड़ कर पहुंच जाते और पा लेते। अगर मुझे तुम्हारे पास आना हो तो चलना पड़ेगा। लेकिन अगर मुझे मेरे ही पास जाना हो तो चलने की कोई जरूरत नहीं है। अगर मुझे दूर पहुंचना हो तो यात्रा करनी पड़ेगी। लेकिन अगर मुझे पास ही पहुंचना हो तो कम ही यात्रा करनी पड़ेगी और अगर मुझे वहीं पहुंचना हो जहां मैं हूं, तब तो यात्रा करनी ही नहीं पड़ेगी।
एक बहुत बुनियादी भ्रम है कि आनंद कहीं पहुंचने पर मिलेगा। सारी शिक्षा उस भ्रम को पैदा करती है। वह कहती है, फलां जगह पहुंच जाओ तो आनंदित हो सकते हो। यही है प्रमाण-पत्र मिल जाने पर आनंद मिल जाएगा। प्रमाण-पत्र मिल जाते हैं, आनंद नहीं मिलता। तब हाथ में कागज का बोझ घबराने वाला हो जाता है। और तब यह लगता है कि आनंद तो नहीं मिला, लेकिन हम आदमी को दौड़ाते रहते हैं। प्राइमरी में पढ़ता है तो उससे कहते हैं हाईस्कूल में। हाईस्कूल में पढ़ता है तो कहते हैं लक्ष्य है युनिवर्सिटी में। युनिवर्सिटी के बाहर निकलता है तो हम कहते हैं, अब जिंदगी में, शादी में, विवाह में। और सब कहानियां, सब उपन्यास और सब फिल्में जहां शादी विवाह हुए, वहीं दि एण्ड आ जाता है। उधर से हम कह देते हैं, बस। सब कहानियां पढ़ें तो एक बड़ी मजेदार बात है। उन कहानियों में लिखा है, उन दोनों की शादी हो गई, फिर वे दोनों सुख से रहने लगे, हालांकि ऐसा होता नहीं। इसके बाद कहानी नहीं चलती है, क्योंकि इसके बाद कहानी बहुत खतरनाक है। कहानी यहां पूरी हो जाती है।
नहीं, न तो शिक्षित होने से आनंद मिल पाता, न तो विवाह से आनंद मिल पाता है, न संपत्ति से आनंद मिल पाता है, न पद-प्रतिष्ठा से आनंद मिल पाता। काश! दुनिया के सब वे लोग जो बड़े पदों पर पहुंच जाते हैं, ईमानदारी से कह सकें तो वे कह सकेंगे कि कुछ भी नहीं मिला। वे सारे लोग, जो बहुत धन इकट्ठा कर लेते हैं, अगर ईमानदार हों और लोगों को कह दें, शायद वे कहेंगे, धन तो मिल गया, लेकिन और कुछ भी नहीं मिला। लेकिन इतनी कहने की हिम्मत भी नहीं जुटाते। उसका कारण है। कारण यह है, जो आदमी जिंदगी भर दौड़ा हो और जब उसने उस चीज को पा लिया हो, जिसके लिए दौड़ा है। अब अगर वह लोगों से कहे कि पा तो लिया, लेकिन कुछ भी नहीं मिला तो लोग कहेंगे कि तुम व्यर्थ ही दौड़े, तुम्हारा जीवन बेकार हो गया। अब वह अपने अहंकार को बचाने की कोशिश करता है। भीतर तो जान लेता है कि कुछ भी नहीं मिला।
मैंने सुना है, एक जेलखाना था और उस जेलखाने में एक अस्पताल था और उस अस्पताल में जेलखाने के कैदियों को, बीमार कैदियों को रखा जाता था। जंजीरें बंधी रहती थीं, अपनी-अपनी खाटों से। सौ खाटें थीं और जेलखाने की बड़ी दीवाल थी। दरवाजे के पास नंबर एक की खाट थी। उस नंबर एक के खाट का जो मरीज था, सुबह उठ कर बाहर देखता था दरवाजे के और कहता था, अहा! कितना सुंदर सूरज निकला है। निन्यानबे मरीज जो अपनी खाटों में अपनी जंजीरों से बंधे थे, तड़फ कर रह जाते थे कि उनके पास दरवाजा नहीं है, नहीं तो वे भी सूरज को देख लेते। रात होती और वह आदमी कहता कि आज तो पूरे चांद की रात है। चांद आकाश में उठ गया है। और वे निन्यानबे मरीज जो अपनी खाटों से बंधे थे, उनके प्राण तड़फड़ा कर रह जाते कि काश! वे भी नंबर एक की खाट पर होते। नंबर एक की खाट का मरीज बहुत आनंद ले रहा है। कभी वह कहता है कि नर्गिस के फूल खिल गए हैं, कभी कहता, रातरानी खिल गई है, कभी कहता जुही खिल गई है, कभी कहता कि इस समय तो गुलमोहर, सुर्ख आकाश को ढंके हुए है। वे निन्यानबे मरीज उससे कहते कि तुम बड़े सौभाग्यशाली हो, लेकिन मन में कहते कि हे भगवान! यह आदमी कब मर जाए।
नंबर एक तो होना बहुत खतरनाक है। पीछे के सब लोग प्रार्थना करते हैं कि यह आदमी कब मर जाए। ऐसे कोई राष्ट्रपति हो जाता है तो सारे लोग शुभ संदेश भेजते हैं और अगर उनके मन में हम उतर सकें तो वे कहेंगे कि यह आदमी कब विदा हो जाए, कब इसे हम राजघाट पहुंचा दें। यह जगह कब खाली हो, क्योंकि यह जगह खाली हो तो हम पहुंच सकें। वे एक नंबर के मरीज के मरने की प्रार्थनाएं करते थे। कई बार वह मरीज बीमार इतना पड़ जाता था कि होने लगता था कि अब प्रार्थना पूरी हुई, अब पूरी हुई। लेकिन प्रार्थनाएं इतनी आसानी से पूरी तो होती नहीं। वह फिर ठीक हो जाता था, फिर फूलों की बातें करने लगता था। कभी कहता पक्षियों की कतार निकल रही है; कभी कुछ, कभी कहता कि बदलियों ने आकाश को घेर लिया है; बूंदें पड़ रही हैं, लेकिन एक दिन वह मरा।
निन्यानबे मरीजों में से सभी ने कोशिश की कि नंबर एक पर पहुंच जाएं। डाक्टरों को रिश्वत दी, जेलर को रिश्वत दी। आखिर एक सफल हो गया। कोई तो सफल हो ही जाएगा और एक आदमी नंबर एक की खाट पर पहुंच गया है। वहां जाकर उसने देखा कि गुलमोहर के फूल कहां हैं, चांदनी के फूल कहां हैं, सूरज कहां है, चांद कहां है, वहां कुछ भी न था। उस दरवाजे के बाहर जेल की और बड़ी परकोटे की दीवाल थी, और वहां से कुछ भी न दिखाई पड़ता था–न आकाश, न फूल, न चांद, न सूरज।
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वह आदमी हैरान हो गया। लेकिन उसने सोचा कि अब मैं लौट कर पीछे क्या कहूं। अगर मैं कहूं, कुछ भी नहीं है, सिर्फ दीवाल है तो लोग मुझ पर हंसेंगे। हंसना वह चाहते हैं कि हम तो पहले ही जानते थे, वह कहेंगे। इसीलिए तो हमने कोशिश नहीं की। कोशिश उन सबने भी की थी, लेकिन वे कहते हमने कोशिश ही नहीं की, हम पहले ही जानते थे। उस आदमी ने लौट कर, मुस्कुरा कर कहा कि आश्चर्य, जिंदगी व्यर्थ गई जो इस द्वार पर न आ पाए। कितने फूल खिले हैं! सूरज की किरणों का कितना अदभुत जाल है! खुला आकाश है और पक्षी उड़ रहे हैं और उनके गीत सुनाई पड़ रहे हैं! वहां सिर्फ पत्थरों की दीवाल थी, नंबर एक के आगे। लेकिन उसने फिर फूलों की बात की, वह अपनी असफलता को भी स्वीकार नहीं करना चाहता था। ऐसा उस जेल के अस्पताल में रोज होता रहा है। फिर नंबर एक आदमी मर जाता है, दूसरा फिर पहुंच जाता है। वह भी वही कहता है जो पहले आदमी ने कहा था। और पीछे जो लोग हैं, वे सब उसी दौड़ से भर जाते हैं।
हम अपने बच्चों को भी उसी दौड़ से भर देते हैं जिससे हमारे बूढ़े भरे हुए हैं। महत्वाकांक्षा की, एंबीशन की दौड़ से भर देते हैं। और जिस आदमी को एक बार महत्वाकांक्षा का पागलपन चढ़ जाता है, उसका जीवन विषाक्त हो जाता है। उसके जीवन में फिर कभी शांति न होगी, फिर कभी आनंद न होगा और उसके जीवन में फिर कभी विश्राम न होगा। और शांति न हो, विश्राम न हो, आनंद न हो तो जीवन की वीणा को बजाने की फुरसत कहां है?
मैंने तो सुना है, एक आदमी जब मर गया, तब उसे पता चला कि मैं जिंदा था। क्योंकि जिंदगी की दौड़ में पता ही न चला, फुरसत न मिली जानने की कि मैं जिंदा हूं–भागता रहा, भागता रहा, भागता रहा। जब मर गया, तब उसे पता चला कि अरे! जिंदगी हाथ से गई। बहुतों को जिंदगी मरने के बाद ही पता चलती है कि–थी। जब तक हम जिंदा हैं, तब तक हम दौड़ने में गवां देते हैं। मेरी दृष्टि में ठीक शिक्षा उसी दिन पैदा हो पाएगी जिस दिन शिक्षित व्यक्ति गैर-महत्वाकांक्षी होगा, नाॅन-एंबीशस होगा; जिस दिन शिक्षित व्यक्ति पीछे अंतिम खड़े होने में भी राजी होगा। मैं अशिक्षित उसको कहता हूं जो प्रथम होने की दौड़ में है, क्योंकि वह नासमझ है।
मैं शिक्षित उसे कहता हूं जो अंतिम खड़े होने के लिए राजी है। अंतिम खड़े होने के लिए राजी होने का मतलब यह है कि अब दौड़ न रही। जिंदगी अब दौड़ न रही, जिंदगी अब जीना होगी। जिंदगी एक जीना है और जीना अभी होगा, कल नहीं और दौड़ सदा कल के लिए है। दौड़ने वाला हमेशा भविष्य की तरफ देखता रहता है। जब इतना धन मिलेगा तब जीऊंगा। जब इतनी बड़ी गाड़ी होगी तब जीऊंगा। जब इतना बड़ा मकान होगा तब जीऊंगा। अभी कैसे जी सकता हूं? फिर उतना बड़ा मकान बन जाता है। लेकिन जब उतना बड़ा मकान बनता है, तब तक आकांक्षाओं का जाल और आगे चला गया होता है।
अमरीका में एक अरबपति मरा, एण्ड्रू कारनेगी। जब वह मरा तो उसके पास अंदाजन दस अरब रुपयों की संपदा थी। मरने के दो ही दिन पहले एक मित्र ने उससे पूछा कि तुम तो संतुष्ट हो गए होओगे। दस अरब रुपये तुम्हारे पास हैं। उसने कहाः संतुष्ट! मेरी योजना सौ अरब रुपये की थी, मुझसे ज्यादा असंतुष्ट कोई भी नहीं है। मैं एक हारा हुआ आदमी हूं जो अपनी इच्छा पूरी नहीं कर पाया। दस अरब रुपये, उसने कहा, अभी कुछ भी नहीं है मेरे पास। उसने दस अरब रुपये इस भांति कहा, जैसे कोई दस रुपये के लिए कह रहा हो कि सिर्फ दस रुपये!
क्या हम पूछें कि अगर एण्ड्रू कारनेगी के पास सौ अरब रुपये हो जाते तो वह संतुष्ट हो जाता? जो दस अरब से संतुष्ट नहीं हुआ वह सौ अरब से संतुष्ट हो जाता? सौ अरब होते-होते उसका असंतोष हजार अरब पर पहुंच जाता। इसी की संभावना, इसी का गणित ज्यादा साफ मालूम पड़ता है।
भविष्य में जीता है महत्वाकांक्षी, और वर्तमान में है जिंदगी, और वह जीता है कल की आशा में। और जो कल की आशा में जीता है वह आज को खो देता है। और जो कल की आशा में जीता है वह आज क्रोधी रहेगा, दुखी रहेगा, पीड़ित और परेशान रहेगा। सुखी तो कल होना है। लेकिन कल कभी आता नहीं। जब आता है तब आज ही आता है। आज उसके दुखी रहने की आदत बन जाएगी और कल सुखी रहने की आशा की आदत बन जाएगी। अब यह गलत व्यवस्था जिंदगी भर उसे पीड़ित करेगी। इसी गलत व्यवस्था के कारण हमने स्वर्ग में सुख का इंतजाम किया है, मरने से बाद। हम कहते हैं, जब मर जाएंगे तब स्वर्ग में सुख होगा। जब मर जाएंगे तब मोक्ष में सुख होगा। यह महत्वाकांक्षियों की आकांक्षाएं है जिनका लाॅजिकल, तार्किक परिणाम यह हो गया है कि इस पृथ्वी पर सुख हो ही नहीं सकता। सुख तो मरने के बाद होगा। यहां तो हम दुखी ही रहेंगे। आज तो दुखी ही रहेंगे, सुख कल होगा। जिस आदमी के जीवन में इस भांति की भ्रांत धारणा बैठ गई, उस आदमी का जीवन बुनियाद से सड़ जाता है और नष्ट हो जाता है।
सुख आज है और अभी हो सकता है। लेकिन सिर्फ उस व्यक्ति के लिए हो सकता है जो भविष्य की आशा में नहीं, वर्तमान की कला में जीने का रहस्य समझ लेता है। तो मैं शिक्षित व्यक्ति उसको कहता हूं जो आज जीने में समर्थ है–अभी और यहीं। लेकिन इस अर्थ में तो शिक्षित आदमी बहुत कम रह जाएंगे। असल में हम पठित आदमी को शिक्षित कहने की भूल कर लेते हैं। जो पढ़-लिख लेता है, उसे हम शिक्षित कह देते हैं! पढ़ने-लिखने से शिक्षा का कोई संबंध नहीं है।
कबीर जैसे आदमी को भी मैं शिक्षित कहूंगा। यद्यपि वह पढ़-लिख नहीं सकता है। वह कहता है कि मैंने कागज और अक्षर नहीं जाने, लेकिन फिर भी वह आदमी शिक्षित है। क्योंकि वह परम आनंद में जीता है। उसने जीवन की कला सीख ली है। वह जान गया है जीवन की वीणा को कैसे बजाना है। वह शिक्षित है। और यह हो सकता है कि बुद्ध और महावीर अगर हमारे साथ मैट्रिक की परीक्षा में बिठाले जाएं तो पास न हो सकें। कोई पक्का नहीं है। राम ने रावण को जीत लिया, वह ठीक है। लेकिन मैट्रिक की परीक्षा भी जीत पाएं, यह कोई पक्का नहीं है। हमारे अर्थों में वे शिक्षित नहीं हैं। जीसस बिलकुल बेपढ़े-लिखे आदमी हैं और मोहम्मद निपट निरक्षर हैं। लेकिन जीवन की किसी कला को वे जानते हैं, जिनसे हम अपरिचित हैं। कुछ उन्होंने सीख लिया है जो हमें पता नहीं है।
और हम शिक्षित होंगे और आधी जिंदगी, कोई पच्चीस साल की जिंदगी आदमी शिक्षा में व्यय कर देता है और तब अचानक पाता है कि वह खाली हाथ खड़ा है और उसके पास कुछ भी नहीं है। जरूर कहीं कोई भूल हो रही है। और पहली भूल यह हो रही है कि हम भविष्य की आशाओं को सिखा रहे हैं, वर्तमान के सत्य को नहीं। भूल यह हो रही है कि हम महत्वाकांक्षा में जीने की प्रेरणा दे रहे हैं। हम जीवन की वीणा को बजाना नहीं सिखा पा रहे हैं। इस भूल के बहुत से हिस्से हैं जिनकी मैं बात करना चाहूंगा।
पहला हिस्सा तो यह है कि हमारी शिक्षा पांच साल या सात साल के बाद शुरू होती है जो कि बहुत गलत बात है। असल में मनोवैज्ञानिक कहते हैं कि चार साल की उम्र में आदमी पचास प्रतिशत बातें सीख लेता है। जिंदगी भर की पचास प्रतिशत बातें चार साल की उम्र तक सीख ली जाती हैं। फिर इसके बाद पचास प्रतिशत ही सीखने को बचता है। चार साल की उम्र तक आदमी सबसे ज्यादा रिसेप्टिव और ग्राहक होता है। चार साल तक वह आधा हिस्सा सीख लेता है जिंदगी का, जिसे वह जिंदगी भर फिर कभी नहीं भूल पाता है। और हमारी शिक्षा शुरू होगी सात वर्ष में, पांच वर्ष में, जब कि आधा आदमी बन चुका। अब इस आधे बने आदमी को मिटाना और नया बनाना बहुत मुश्किल हो जाएगा।
मैंने सुना है, वेजनर जर्मनी में एक बहुत बड़ा संगीतज्ञ था। उसके दरवाजे पर एक बोर्ड लटका हुआ था। उस बोर्ड पर फीस लिखी हुई थी उसकी कि वह जो लोग संगीत सीखने आते हैं उनसे कितनी फीस लेगा। उसमें पहली फीस तो लिखी हुई थी कि जो आदमी बिलकुल संगीत नहीं जानता उससे आधी फीस लूंगा। और जो आदमी कुछ संगीत जानता है उससे दुगुनी फीस लूंगा। बड़ी मुश्किल की बात थी। जो आदमी जाता था वह कहता था, मैंने दस साल संगीत सीखा है तो मुझसे कुछ कम फीस लें। वेजनर कहता है कि पहले तुमने जो सीखा है वह भुलाना पड़ेगा। उसमें अलग मेहनत करनी पड़ेगी। तुम्हें फिर से कोरा करना पड़ेगा ताकि मैं तुम्हें नया सिखा सकूं। पुराना भुलाना पड़ेगा।
नवीनतम शिक्षा शास्त्री इस बात के लिए चिंतित है कि सात साल के बच्चे को शिक्षा देनी शुरू करना, काफी सीखे हुए आदमी को शिक्षा देनी है जो बहुत कठिन हो जाता है। शिक्षा अंदाजन दो वर्ष के करीब शुरू हो तभी ठीक से शुरू हो सकती है। लेकिन जिसको अभी हम शिक्षा कहते हैं, उसको दो वर्ष के करीब शुरू करना मुश्किल है। दो वर्ष के बच्चे को गणित कैसे सिखाओगे, दो वर्ष के बच्चे को भूगोल कैसे सिखाओगे, दो वर्ष के बच्चे को औरंगजेब कब पैदा हुआ, कब मरा, यह नासमझी की, फिजूल की बातें कैसे सिखाओगे? दो साल का बच्चा कहेगा, कभी भी मरा हो, हमें क्या मतलब! दो साल के बच्चे से कहो, टिम्बकटू यहां है, मेडागास्कर यहां है, वह कहेगा, कहीं भी हो, हमें क्या मतलब है! दो वर्ष के बच्चे को जिसे हम अभी शिक्षा कहते हैं, वह नहीं दी जा सकती। दो वर्ष के बच्चे को कुछ और ढंग से सिखाना पड़ेगा।
न्यूयार्क में एक छोटा सा स्कूल है और एक नर्तकी ने वह स्कूल शुरू किया है। वह छोटे-छोटे बच्चों को उस स्कूल में बहुत और ढंग से सिखा रही है। वहां अगर बच्चों को दो और दो चार होते हैं, यह उसे सिखाना है तो सारे बच्चे नाचते हैं और उनकी अध्यापिका भी नाचती है। और दो और दो चार, दो और दो चार इसी ताल पर नाच शुरू हो जाता है। बच्चे दो और दो चार चिल्ला कर नाचना शुरू कर देते हैं। वह गणित नहीं उनका रस है, उनका रस है नाचना। लेकिन नाचने के बाद वे पूछते हैं, यह दो और दो चार क्या है? तब उनका गणित भी शुरू हो जाता है। दो साल के बच्चों को हमें और ढंग से शिक्षा शुरू करनी पड़ेगी। वे नाचना चाहेंगे, वे गीत गाना चाहेंगे, वे छलांग लगाना चाहेंगे, वे दौड़ना चाहेंगे।
सच तो यह है कि पांच साल के बच्चे भी यही चाहते हैं। सात साल के बच्चे भी यही चाहते हैं। लेकिन सात साल के बच्चों को पांच घंटे, छह घंटे, सात घंटे बूढ़ों की भांति स्कूल में बंद होकर बैठना पड़ता है। उनकी आत्मा की हत्या शुरू हो जाती है। इसलिए जिस दिन छुट्टी होती है स्कूल की, उस दिन बच्चों की खुशी का कोई ठिकाना नहीं, हालांकि घर के लोग सब दुखी हो जाते हैं। और जब स्कूल का घंटा बजता है और बच्चे बाहर निकलते हैं तो उनकी खुशी देखने जैसी है। उनका बस्तों को उछाल कर कूदना और चिल्लाना कि छुट्टी हो गई, ऐसा मालूम पड़ता है कि वे किसी विद्यापीठ से नहीं, किसी कारागृह से मुक्त हुए हैं।
सच में अब तक जिसे हम स्कूल कहते हैं, वह एक तरह का कारागृह है। जिसे हम स्कूल की दीवालें कहते हैं वे अभी भी बच्चों के लिए इनप्रिजनमेंट है। उनके लिए जेल है और पांच-सात घंटे तक छोटे बच्चों को सख्ती से, गंभीरता से बिठा रखना बहुत खतरनाक है। उनके भीतर कुछ कोमल तंतु सदा के लिए टूट जाएंगे। उसमें एक कोमल तंतु तो वह टूट जाएगा जो सहज होने से पैदा होता है, स्पांटेनियस होने से पैदा होता है। वे बच्चे हमेशा के लिए नियंत्रित, कंट्रोल्ड, सम्हाले हुए, अपने को जबरदस्ती दबाए हुए हो जाएंगे। उनकी जिंदगी एक सप्रेशन की, दमन की जिंदगी होगी। और इस, इस दमन के कारण वे आज के, अभी के सुख को लेने में सदा के लिए असमर्थ हो जाएंगे।
बूढ़े भी याद करते हैं बाद में कि बचपन में बड़ा सुख था। उनका सिर्फ एक कारण है कि बच्चे भविष्य की आशा में नहीं जीते। बच्चे अभी जीते हैं। अगर एक बच्चा नदी के किनारे बैठा है तो वह अभी जी रहा है, पत्थरों के साथ, रेत के साथ, पानी के साथ, फूल के साथ। उसे कल की कोई फिकर नहीं है, उसका कल का कोई खयाल ही नहीं है। बच्चा जीता है अभी और हम सारी शिक्षा में ऐसा इंतजाम करते हैं कि वह अभी न जीए, वह आगे जीए। बस रोग शुरू हो जाता है, उसे हम बीमार करना शुरू कर देते हैं।
क्या हम ऐसा नहीं कर सकते हैं कि वह अभी जीए और सीखे? ये दोनों बातें एक साथ नहीं जोड़ी जा सकतीं? क्या खेल और पढ़ना साथ-साथ नहीं हो सकते हैं? थोड़ा पढ़ना कम हो पाएगा शायद, लेकिन हर्ज क्या है? जिंदगी जो आदमी जितना खेल की तरह ले सके, उतना आनंद को उपलब्ध हो सकता है। क्या कभी यह विचार किया है कि खेल सदा अभी होता है। लेकिन हम जिंदगी को एक धंधे की तरह लेते हैं। धंधे का फल सदा आगे होता है। दुकान मैं अभी करूंगा, फल साल भर के बाद आने शुरू होंगे, लाभ फिर होगा। खेल अभी होता है, यहां और अभी।
छोटे बच्चों की जिंदगी में खेल के तत्व को, खेल की व्यवस्था को नष्ट किए बिना यदि हम उन्हें शिक्षा दे सकें, जिसके रास्ते खोजे जा सकते हैं तो शायद हम ज्यादा सुखी मनुष्य को पैदा कर सकते हैं। और ध्यान रहे, जब कोई आदमी दुखी होता है तो वह आस-पास के लोगों को भी दुखी बनाने लगता है। और जब कोई आदमी सुखी होता है तो आस-पास के लोगों को भी सुखी बनाने लगता है। क्योंकि हमारे पास जो है, वही हम बांट सकते हैं–सुख है तो सुख, दुख है तो दुख।
हमारी शिक्षा चेहरों को दुखी कर देती है, उदास कर देती है, हारा हुआ कर देती है। अब एक कक्षा में तीस बच्चे हैं। एक ही बच्चा प्रथम आ पाएगा, उनतीस बच्चे पीछे रह जाएंगे। वह कोई भी उनतीस हों, वह कोई भी एक हो। एक पहला आएगा, उनतीस हार जाएंगे। एक जीत जाएगा। जो बच्चे हार रहे हैं, उनके मन को हम सदा के लिए घातक नुकसान पहुंचा रहे हैं। क्योंकि उनके मन में सदा इनफिरिआरिटी कांप्लेक्स, हीनता का भाव पैदा हो जाएगा कि हम हार गए। अगर दो-तीन वर्ष एक बच्चा हारता चला गया, हारता चला गया तो वह जिंदगी भर के लिए हारा हुआ हो जाएगा।
एक वैज्ञानिक एक प्रयोग कर रहा था। उसने एक कक्षा में–एम.ए. की एक कक्षा के तीस बच्चों को आधा-आधा बांट दिया। पंद्रह लड़कों को एक कमरे में बिठा दिया, पंद्रह को दूसरे कमरे में बिठा दिया। पहले हिस्से को उसने गणित का एक सवाल दिया। वे सब गणित के विद्यार्थी हैं। और सवाल लिखने के पहले उसने एक व्याख्यान दिया। उसने कहा कि यह सवाल बहुत कठिन है। इसको आइंस्टीन भी कर सके, इसमें भी डर है। यह गणित का सवाल इतना कठिन है कि यह शायद ही कोई कर सके। इसके लिए एक बहुत प्रतिभाशाली व्यक्ति चाहिए और प्रतिभाशाली भी तीन-चार घंटे लगाएगा, तभी कर सकता है। उनमें से एक विद्यार्थी ने पूछा, फिर हमसे आप क्यों करवा रहे हैं? उसने कहा, हम सिर्फ यह जानने की कोशिश कर रहे हैं कि तुममें से अगर कोई एकाध दो स्टैप, एकाध दो कदम भी ठीक कर सके तो भी बड़ी गुणवत्ता है। कोशिश करो, सफल तो नहीं हो सकते हो। पंद्रह लड़के थे, उन्होंने कोशिश की।
वह दूसरे कमरे में गया, जहां उसी क्लास के पंद्रह लड़के हैं। वही सवाल बोर्ड पर लिखा और उसने कहाः यह सवाल बहुत सरल है जो गणित नहीं जानते हैं वे भी इसे हल कर सकते हैं। तो एक लड़के ने पूछा फिर हमें करने को क्यों दे रहे हैं? उसने कहा, हम सिर्फ यह जानना चाहते हैं कि क्या एम. ए. की कक्षा में आकर भी एकाध ऐसा विद्यार्थी है जो इसे न कर पाए। उन्होंने भी सवाल हल किया।
जहां उसने कहा था सवाल कठिन है, वहां पंद्रह लड़कों में से सिर्फ तीन लड़के उसे कर पाए, बारह लड़के नहीं कर पाए! और जहां उसने कहा सवाल सरल है, वहां चैदह लड़के कर पाए। सिर्फ एक लड़का नहीं कर पाया! वे एक ही कक्षा के विद्यार्थी हैं! क्या हो गया उनके मन को? अगर मन यह मान ले कि नहीं कर पाऊंगा तो करना असंभव हो जाता है।
जब हम कक्षा में एक विद्यार्थी को प्रथम लाते हैं और उनतीस को पीछे छोड़ देते हैं, तो उनतीस का मन मान लेता है कि प्रथम नहीं आ पाएंगे। वे जिंदगी भर के लिए हारे हुए लोगों की जमात हम पैदा कर रहे हैं। और जिस एक लड़के को प्रथम आने का भाव पैदा हो गया, उसके अहंकार को जगा रहे हैं। वह भी उतना ही खतरनाक है। अब वह जिंदगी भर यह खयाल रखेगा कि मुझे नंबर एक ही खड़े होने की जरूरत है, वह नंबर दो बैठने में बेचैन हो जाएगा।
बर्नार्ड शाॅ मजाक में कहा करता था कि अगर मुझे नरक जाना पड़े तो मैं राजी हूं, लेकिन होना चाहिए नंबर एक। स्वर्ग में भी नंबर दो होने की मेरी इच्छा नहीं है। अगर स्वर्ग भी मिलता हो और नंबर दो रहना पड़े तो मैं वहां नहीं जाता। नरक भी मिलता हो, नंबर एक मिलता हो तो मैं राजी हूं। बर्नार्ड शाॅ के पास गांधी जी का एक मित्र, एक भक्त मिलने गया और उसने बर्नार्ड शाॅ से कहा कि आपका महात्मा गांधी के संबंध में क्या खयाल है? उसने कहा कि महात्मा हैं, बड़े महात्मा हैं, लेकिन नंबर दो। उस आदमी ने पूछाः और नंबर एक कौन है? उसने कहा कि नंबर एक तो मैं हूं। दो ही महात्मा हैं दुनिया में–एक बर्नार्ड शाॅ नंबर एक, और एक महात्मा गांधी, नंबर दो। वह आदमी बहुत चकित हुआ। उसने लौट कर गांधी जी को कहा कि यह बर्नार्ड शाॅ कैसा आदमी है, अपने मुंह से कहता है कि मैं नंबर एक हूं!
लेकिन बर्नार्ड शाॅ गलत आदमी नहीं था, वह हम सब पर मजाक कर रहा है। हम सभी नंबर एक हैं, अपने मन में। नंबर दो भी कोई भी नहीं है। अगर जिंदगी हमें नंबर दो कर देती है तो हम जिंदगी के प्रति क्रोध से भर जाते हैं। और अगर जिंदगी हमें नंबर एक कर देती है तो हम नंबर एक होने के प्रति इतने दुराग्रह से भर जाते हैं कि फिर हम और ढंग से जी ही नहीं सकते। और हमारी सारी शिक्षा हममें यह हालत पैदा कर देती है। इसे बदलना पड़ेगा। यह शिक्षा बहुत वायलेंट है, हिंसात्मक है। यह बहुत से लोगों को दुखी कर देती है, थोड़े से लोगों को सुखी कर देती है। जिन्हें सुखी कर देती है, नंबर एक होने का सुख दे देती है। वे पागल हो जाते हैं सदा के लिए। उन्हें सब जगह नंबर एक होना चाहिए, अन्यथा वे जी न सकेंगे। और जिन्हें नंबर दो कर देती है वे सदा के लिए दुखी हो जाते हैं और हारे हुए हो जाते हैं।
क्या ऐसा नहीं हो सकता कि हम कंपेरिजन को शिक्षा से अलग ही कर दें, तुलना को अलग ही कर दें? यह हो सकता है। इसकी कोई जरूरत नहीं है कि हम तुलना करें एक व्यक्ति की दूसरे व्यक्ति से। सच तो यह है कि दोनों व्यक्ति–दो व्यक्तियों के बीच तुलना असत्य है, असंभव है। मेरे हाथ के अंगूठे पर जो निशान है, वह इस दुनिया में किसी दूसरे के अंगूठे पर नहीं है। मेरा अंगूठा मेरा है, आपका आपका है, कोई तुलना नहीं हो सकती। जब अंगूठे तक इतने अलग हैं तो आत्माएं तो बहुत-बहुत भिन्न हैं, व्यक्तित्व तो बहुत भिन्न-भिन्न हैं। अगर हम पृथ्वी पर एक पत्थर को उठा कर खोजने चले जाएं कि इसी जैसा दूसरा पत्थर मिल जाए तो हमें न मिलेगा।
एक आदमी से दूसरे आदमी की कोई तुलना नहीं हो सकती। एक आदमी अपने ढंग का अनूठा है, अद्वितीय है। एक ऐसी शिक्षा चाहिए जो एक-एक व्यक्ति को यूनिक होने का बोध दे सके। जो यह बोध दे सके कि हर व्यक्ति अद्वितीय है, दूसरे से तुलना की कोई भी जरूरत नहीं है; तब इस जमीन पर ज्यादा सौंदर्य, ज्यादा आनंद संभव हो सकेगा। क्योंकि तब दुख का कोई कारण न रहा। न मुझसे कोई पीछे है, न मुझसे कोई आगे है। मैं अकेला हूं, बिलकुल मेरे जैसा मैं ही हूं, मेरे जैसा कोई दूसरा नहीं है। है भी सत्य यही।
लेकिन अभी हमारी सारी शिक्षा कंपेरिजन, तुलना पर चलती है। बाप अपने बेटे से कहता है, पड़ोसी के बेटे को देख रहे हो, कितने नंबर आ रहे हैं उसके, और तुम्हारी क्या हालत हो जा रही है! वह उसमें जहर डाल रहा हैं। बाप है, सोचता है कि प्रेम कर रहे हैं, लेकिन जहर डाल रहा है। तुलना का जहर डाल रहा है। वह आग भर रहा है उस बच्चे में। अब वह उसको पागल कर देगा कि पड़ोसी के बच्चे से कैसे आगे होना है, और पड़ोसियों की भीड़ है। जमीन पर साढ़े तीन अरब लोग हैं। फिर हर आदमी साढ़े तीन अरब लोगों का दुश्मन हो जाता है। और सबसे लड़ रहा है।
हम कहते तो सहपाठी हैं एक दूसरे को, लेकिन होते हैं सह-दुश्मन। कहते तो यही हैं कि हम साथ-साथ पढ़ रहे हैं, सहपाठी हैं, कलीग्स हैं। कोई कलीग नहीं है इस दुनिया में, क्योंकि इस दुनिया में प्रतिस्पर्धा है, कोई सहपाठी हो कैसे सकता है। वे जो तीस बच्चे एक साथ पढ़ रहे हैं, वे सब उनतीस हरेक के दुश्मन हैं। और हरेक बाकी उनतीस का दुश्मन है, क्योंकि भीतर दुश्मनी चल रही है कि कौन आगे जाता है, कौन किसको पीछे छोड़ जाता है।
यह सारी दुनिया एक शत्रुओं का घेरा हो गई है। वहां सब एक दूसरे से शत्रुता में भरे हैं। ऐसा नहीं है कि वहां दिल्ली की राजनीति में ही शत्रुता है और एक दूसरे को धक्के देकर आगे जाने की कोशिश…हर घर में, हर गांव में, हर कक्षा में, हर स्कूल में, जिंदगी के हर पहलू में और हर कोने में वही दौड़ है कि हम किस तरह दूसरे को धक्का दे दें और आगे हो जाएं। और कोई भी यह नहीं पूछता है कि आगे होकर मिल क्या जाता है। यह जरूरी सवाल कोई उठाता ही नहीं है कि आगे होकर मिल क्या जाता हैै। किसको क्या मिल गया है आगे होकर? किसी को कुछ नहीं मिला है। लेकिन आगे होने की दौड़ में जिंदगी खराब जरूर हो जाती है। और जिंदगी में जो मिल सकता था, वह चूक जाता है।
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जिंदगी में एक ही चीज मिल सकती है और वह है व्यक्तित्व का खिल जाना। मेरे व्यक्तित्व का खिल जाना। दूसरे की तुलना में नहीं, मेरी कली का खिल जाना, किसी की तुलना में नहीं; किसी पड़ोसी के फूल की नजर से नहीं, मेरी अपनी कली पूरी खिल जाए तो मुझे आनंद मिल सकता है।
एक गुलाब का फूल खिलता है और जब पूरा खिल जाता है तो उस पौधे की जिंदगी में कैसा संगीत छा जाता है। लेकिन वह संगीत इसलिए नहीं छाता है कि पड़ोसी के फूल से वह फूल बड़ा है। नहीं, इसलिए नहीं, बल्कि इसलिए कि कली नहीं रह गया। खिल सका, पंखुड़ी-पंखुड़ी खिल गई है और सुगंध बिखेर सका है आकाश में और सूरज में नाच सका है। पड़ोसी फूल से उसे कोई प्रयोजन नहीं है। लेकिन हो सकता है अगर, अगर हमारे शिक्षाशास्त्री कोशिश करें और बगीचे के फूलों को समझाने चले जाएं और गुलाब के फूल को कहें, क्या तू, तू भी कोई फूल है? देख, पड़ोस का गुलाब का फूल कितना बड़ा खिला है। और चमेली को कहें कि तू भी कोई फूल है? गुलाब हो जा! और गुलाब को कहें कि कमल हो जा! देख कमल के फूल को!
पहली तो बात है, फूल सुनेंगे नहीं। क्योंकि फूल इतने नासमझ नहीं हैं कि किसी की सुनने को राजी हो जाएं–सुनेंगे ही नहीं। लेकिन हो सकता है, आदमी के साथ रहते-रहते कुछ फूल बिगड़ गए हों। आदमी की आदतें साथ रहते-रहते प्रवेश कर गई हों, तो हो सकता है, फूल भी सुनने को राजी हो जाएं। और अगर किसी बगिया के फूल सुन लें यह बात और गुलाब का फूल अपनी तुलना करने लगे कमल से, तो पागल हो जाएगा। पागल होने का मतलब यह है कि गुलाब का फूल लाख कोशिश करे, तो भी कमल नहीं हो सकता। और कमल होने की कोशिश में गुलाब भी नहीं हो सकेगा जो कि वह हो सकता था। उसकी ताकत लग जाएगी कमल होने में, उसकी शक्ति लग जाएगी एक व्यर्थ दिशा में और वह जो हो सकता था वह नहीं हो पाएगा, उसकी शक्ति खो जाएगी। उस बगीचे में फिर फूल नहीं खिलेंगे।
आदमी के बगीचे में बहुत कम फूल खिलते हैं। लेकिन कभी खयाल किया है कि जब आदमी के बगीचे में फूल खिलते हैं तो खिलने का एक बहुत सीक्रेट, राज है। कोई नहीं पूछता कि कृष्ण ने किससे अपनी तुलना की और वे किसकी तुलना में अपने को कृष्ण बनाए, कोई नहीं पूछता। कोई नहीं पूछता कि रामकृष्ण किसकी तुलना में अपने को बनाते हैं। कोई नहीं पूछता कि लिंकन किससे तुलना करता है। कोई नहीं पूछता कि रवींद्रनाथ किसकी तुलना में अपने को बनाते हैं। दुनिया में जब भी आदमी के जगत में कोई फूल खिलते हैं तो बिना किसी तुलना के खिलते हैं। लेकिन हम सबको यही सिखाया जाता है।
हम कहते हैं, विवेकानंद जैसे बनो! कोई कहता है, राम जैसे बनो! कोई कहता है, कृष्ण जैसे बनो! आज तक कोई आदमी बन सका है किसी जैसा? कितने हजार साल हो गए कृष्ण को मरे हुए? राम को गए हुए कितने दिन हो गए? अब तक कोई राम तो नहीं बन सका। रामलीला के राम को छोड़ देना। रामलीला के रामों से कोई संबंध नहीं है। रामलीला के राम बन सकते हैं, अगर कोशिश करें तो। सब कोशिश नकली आदमी पैदा करवा देती है। असली तो सिर्फ मैं ‘मैं’ ही बन सकता हूं। और अगर नकली बनना हो तो दूसरे जैसे बनने की कोशिश में लग जाना। और जब नकली खोल बन जाएगी तो जिंदगी बड़ी मुश्किल में हो जाएगी–बाहर कुछ होगा, भीतर कुछ होगा। बाहर राम होगा, भीतर तो वही आदमी होगा। इसलिए स्टेज पर वह राम का काम करेगा, स्टेज के पीछे सिगरेट पीएगा। यही होगा, यही हो रहा है।
हर आदमी के दो चेहरे हैं। और वह एक चेहरा वह है जो उसने कंपेरिजन में तुलना में बना लिया है, किसी और जैसा बना लिया है। और एक उसका चेहरा है जो हो सकता था, जो हो नहीं पाया। असली आदमी अंधेरे में छिप गया है, नकली आदमी रोशनी में आ गया है। तो जिंदगी सब झूठी और पाखंड हो गई है। एक-एक स्कूल और एक-एक बच्चे के मन पर यह बात लिख दी जानी चाहिए कि तुम अपने जैसे बनना। तुम कभी भूल कर किसी जैसे बनने की कोशिश मत करना।
हम कब इतने, इतने सभ्य होंगे कि हम हर आदमी को स्वीकार कर सकें, वह जैसा है वैसा। हम इतने सभ्य कब होंगे जब हम प्रत्येक व्यक्ति को बिना तुलना के सीधा देख सकें, वह जैसा है वैसा। हम कब बंद करेंगे यह गलत खयाल कि हम दूसरे से तौलें हरेक को। नहीं, कोई तराजू नहीं है। कोई किसी से तौला नहीं जा सकता। लेकिन तौल चल रही है!
अब तक की सारी शिक्षा महत्वाकांक्षा, तुलना और दूसरे से प्रतिस्पर्धा पर खड़ी है। इसलिए उसे मैं ठीक शिक्षा नहीं कहता। और अगर वह शिक्षा चलती रही तो आश्चर्य नहीं है कि पचास साल में सारी जमीन एक बड़ा पागलखाना हो जाए। अभी भी हो गई है। अभी भी हो गई है और कोई आश्चर्य नहीं है कि अभी हम पागल लोग हो जाते हैं तो पागलखाने के भीतर बंद करते हैं। कोई आश्चर्य नहीं है कि पचास सौ साल में इंतजाम उलटा करना पड़े क्योंकि पागल इतने ज्यादा हो जाएं कि उनको पागलखाने के भीतर कैसे रखो। तो जो लोग ठीक हों, उनके लिए एक दीवाल बना कर अंदर रखना पड़े और बाकी लोग बाहर रहें। यह हो सकता है। ये हालतें रोज बढ़ती जा रही हैं, ये रोज फैलती जा रही हैं। और इस सबके पीछे गलत शिक्षा है।
एक सम्यक शिक्षा चाहिए जो एक-एक व्यक्ति को आनंद दे सके, शांति दे सके। उसके अपने जीवन के फूल को खिलने की सुविधा दे सके। उसे स्वीकृति दे सके, वह जैसा है वैसी स्वीकृति दे सके। पिता अगर बेटे को प्रेम करता है तो बेटे को प्रेम करने का एक ही मतलब है। और शिक्षक अगर विद्यार्थी को प्रेम करता है तो प्रेम करने का एक ही मतलब है कि वह प्रेम तो दे, लेकिन बेटे को या विद्यार्थी को ढांचों में ढालने की कोशिश न करे। आदमी सांचों में नहीं ढाला जा सकता। आदमी मशीन नहीं है। फोर्ड की कारें एक जैसी हो सकती हैं, लाखों कारें एक जैसी हो सकती हैं। लेकिन आदमी एक जैसा नहीं हो सकता है। दुर्भाग्य होगा उस दिन जिस दिन हम एक जैसे आदमी ढालने में समर्थ हो जाएंगे। लेकिन हमारी कोशिश यही है कि एक जैसे आदमी हम ढाल दें। सब आदमी एक जैसे हो जाएं।
लेकिन यह कोशिश आदमी को मिटाने की कोशिश है। और आदमी इनकार करता है इस कोशिश से, बगावत करता है। आज सारी दुनिया में बच्चे इनकार कर रहे हैं पुरानी शिक्षा से, शिक्षक से, पुराने विद्यालय से। उनके इनकार का कारण हैं। बच्चे क्रोध से भर गए हैं, उनके क्रोध का कारण है। बच्चे तोड़-फोड़ की इच्छा से भर गए हैं। उनकी तोड़-फोड़ की इच्छा का कारण है। सबसे बड़ा कारण यह है कि जो ढांचा हम दे रहे हैं वह ढांचा उनकी आत्मा की कैद बन जाता है; उनकी आत्मा को विकसित नहीं होने देता है; उनकी आत्मा को रोकता है, फैलने नहीं देता। ऐसा है जैसे हमने किसी पौधे के चारों तरफ लोहे की बागुड़ लगा दी है और पौधे की शाखाओं को कहा है, इस तरफ बढ़ना, इस तरफ नहीं और पौधे के फूलों को कहा, इस तरह खिलना, इस तरह नहीं। और पौधे की जान मुसीबत में पड़ गई है और पौधा सारे ढांचे को तोड़ कर जहां उसकी मर्जी हो वहां बढ़ जाना चाहता है।
आदमी अब तक स्वीकृत नहीं हो सका है। हम उसे ढांचे में ढालने की कोशिश करते रहे हैं। क्या हम स्वतंत्र आदमी पैदा कर सकेंगे, शिक्षा से? अगर नहीं कर सकेंगे तो आदमी डूबेगा, उसकी सभ्यता डूबेगी। और यदि हम स्वतंत्र आदमी पैदा करना चाहें तो मैंने सूत्र की दो तीन बातें कही हैं।
एक तो नाॅन-एंबीशस माइंड, गैर-महत्वाकांक्षी चित्त पैदा करना पड़ेगा।
दूसराः एक ऐसा चित्त जो तुलना नहीं करता।
और तीसराः एक ऐसा व्यक्ति जो अपने होने को स्वीकार करता है, वह जैसा है।
एक फकीर के पास कोई मिलने गया था। और उस फकीर से वह कहने लगा, आप बड़े शांत हैं और मैं बड़ा अशांत हूं। मुझे शांत होना है, आप कोई रास्ता बता दें। उस फकीर ने कहाः भाई ठीक है, मैं शांत हूं, तुम अशांत हो, बात खत्म हो गई। मैं तो कभी तुम्हारे पास पूछने नहीं आया कि आप अशांत हैं, आप मुझे अशांत होने का रास्ता बता दें। उस आदमी ने कहाः ठीक है, आप पूछने नहीं आए क्योंकि आप शांत हैं, लेकिन मैं अशांत हूं। मुझे आप जैसा होना है, मुझे रास्ता बता दें। उस फकीर ने कहाः अगर मुझ जैसे होने की कोशिश की तो और अशांत हो जाओगे। अगर शांत होना हो, तो जो हो उसके लिए राजी हो जाओ। किसी और जैसे होने की कोशिश मत करो।
ठीक कहा उस फकीर ने। लेकिन वह आदमी न माना। उसने कहाः नहीं, कोई रास्ता बताएं। फकीर उसे हाथ पकड़ कर बाहर ले गया और बाहर एक चिनार का वृक्ष है आकाश को छूता हुआ, चांदनी में खड़ा–फकीर ने कहाः उस वृक्ष को देखते हो। उस आदमी ने कहाः देखता हूं। देखते हो कितना लंबा है? उसने कहाः देखता हूं। पास में एक गुलाब की झाड़ी है छोटी सी, जमीन को छूती हुई। उसने कहाः इस झाड़ी को देखते हो? इस पौधे को देखते हो? उस आदमी ने कहाः देखता हूं। उस फकीर ने कहाः मैं बीस साल से रह रहा हूं इन्हीं झाड़ियों के पास, इसी वृक्ष के पास। मैंने कभी इस छोटे पौधे को बड़े पौधे से पूछते नहीं सुना कि तू बड़ा लंबा है, मैं कैसे लंबा हो जाऊं, यह बता दे। यह छोटा पौधा अपने छोटे होने से बड़ा आनंदित है। यह बड़ा पौधा अपने बड़े होने से बड़ा आनंदित है। यह बड़ा पौधा छोटा नहीं होना चाहता है, यह छोटा पौधा बड़ा नहीं होना चाहता है। और चूंकि कोई कोई नहीं होना चाहता है, इसलिए इनकी दुनिया में बड़े-छोटे का कोई सवाल नहीं है–जो है, वह है।
लेकिन आदमी ने बड़े सवाल पैदा कर लिए हैं। हर आदमी किसी और जैसा होने की कोशिश में लगा हुआ है। सब हमारी आंखें भटक रही हैं चारों तरफ कि कौन किस जैसा हो जाए। और इस जाल में इतनी मुसीबत हो गई है कि कोई भी वह नहीं हो पा रहा है जो होने के लिए भगवान प्रत्येक को अधिकार देता है। जो अधिकार है मेरा, वह मैं नहीं हो पा रहा हूं और जो मैं नहीं हो सकता हूं उसके होने की कोशिश कर रहा हूं! जो मेरी नियति है, जो मेरी डेस्टिनी है, जो मैं हो सकता हूं, वह मैं नहीं हो रहा हूं।
लिंकन अमरीका का राष्ट्रपति हुआ। वह चमार का लड़का था, गरीब का लड़का था। लोगों को बड़ी तकलीफ हो गई उसके राष्ट्रपति हो जाने से। और जिस दिन, पहले दिन सिनेट में खड़ा हुआ तो एक आदमी ने खड़े होकर कहा कि महाशय लिंकन, यह मत भूल जाना कि तुम्हारे बाप एक चमार थे। लिंकन की आंखों में खुशी के आंसू आ गए और उसने जो कहा, वह याद रखने जैसा है। लिंकन ने कहा, धन्य हैं मेरे मित्र, जिन्होंने यह याद दिला दी। एक बात मैं कहना चाहता हूं कि मेरे बाप जितने अच्छे चमार थे उतना अच्छा प्रेसिडेंट शायद मैं नहीं हो सकूंगा। मेरे बाप जितने अच्छे चमार थे उतना अच्छा प्रेसिडेंट शायद मैं नहीं हो सकूंगा। और दूसरी बात लिंकन ने यह कही कि क्या मैं पूछ सकता हूं, जहां तक मुझे याद आती है, जिन मित्र ने मेरे पिता की याद दिलाई है, मेरे पिता उनके घर के जूते भी बनाते थे। क्या मैं पूछ सकता हूं कि कोई जूता अब तक गड़ रहा है? कोई जूता गलत बना है? कोई जूता–अब तक। मेरे पिता को मरे वर्षों हो गए–तकलीफ दे रहा है? अगर तकलीफ दे रहा हो तो मुझे कहें, हालांकि मेरे पिता की यह ख्याति थी कि उनके जूते कभी किसी को तकलीफ नहीं दिए हैं। वे बड़े कुशल चमार थे।
एक कुशल चमार होने का भी आनंद है। एक कुशल शिक्षक होने का भी आनंद है। एक गिट्टी फोड़ने वाले की भी अपनी कुशलता है। लेकिन हम सब दौड़ में लगे हैं! हम सब दौड़ में लगे हैं कि हम दूसरे जैसे हो जाएं, इसलिए कोई आदमी कुशल नहीं हो पाता। क्योंकि कुशल तो हम वहीं हो सकते हैं, जो हम हो सकते हैं। शिक्षा का एक मात्र लक्ष्य होना चाहिए कि हम प्रत्येक व्यक्ति को उसकी नियति का उदघाटन करा दें। हम उसे उदघाटन करा दें कि वह क्या हो सकता है। और वह जो हो सकता है, उसके होने के लिए उपकरण जुटा दें, और वह जो हो सकता है, उसके होने के लिए सुविधा जुटा दें। एक बीज को हम डाल देते हैं, फिर खाद डाल देते हैं, फिर पानी डाल देते हैं। फिर बीज से अंकुर निकल आता है। बस, शिक्षा अंकुरण बननी चाहिए, आरोपण नहीं।
यह अंतिम बात कहना चाहता हूं, शिक्षा अंकुरण बननी चाहिए, आरोपण नहीं। बीज मैं हूं। शिक्षा भूमि बननी चाहिए, खाद बननी चाहिए, पानी बननी चाहिए। और जो मेरे भीतर से अंकुर निकलेगा, उस अंकुर के निकलने की पूरी स्वतंत्रता होनी चाहिए। तो हम एक ऐसा आदमी पैदा कर सकेंगे जो सुखी है। और हम एक ऐसा आदमी पैदा कर सकेंगे जो वीणा से संगीत पैदा कर लेता है। और जिस दिन हम ऐसा आदमी पैदा कर सकेंगे, उस दिन स्वर्ग को मृत्यु के बाद रखने की जरूरत न होगी, उसे हम पृथ्वी पर ही निर्मित कर सकते हैं।
आने वाली पीढ़ियों को यह सब सोचना पड़ेगा। मैंने ये थोड़ी सी बातें कहीं, ताकि आप सोच सकें। मेरी बातों को मान लेना जरूरी नहीं है। मेरी बातें हैं, आपको मान लेना जरूरी हो भी कैसे सकता है। और मेरी बात को मानने की जल्दी नहीं करना, क्योंकि वह फिर आरोपण हो जाती है। सोचना, विचारना, शायद कुछ ठीक हो। अगर कुछ ठीक लगे खुद के सोचने से, तब वह मेरा नहीं रह जाएगा, वह आपका हो जाता है। और जो सत्य अपना है, वह जीवन में संपत्ति बन जाता है।
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