प्रवचन - ३० - बोध का जागरण - शिक्षा में क्रांति - ओशो
पहली बात तो, साधारणतः हम ऐसा ही सोचते हैं कि गुलामियों के कारण हमारे चरित्र का पतन हुआ, गुलामी के कारण हमारा व्यक्तित्व नष्ट हुआ!
गुलामी आई, तभी हम चरित्रहीन हुए! गुलामी आई तभी, जब कि हम चरित्रहीन हुए?
उसको ही मैं कहना चाहता हूं कि चरित्रहीनता जो है वह गुलामी के कारण नहीं आई, बल्कि चरित्रहीनता के कारण ही गुलामी आई। और चरित्रहीन हम बने, ऐसा कहना मुश्किल है, चरित्रहीन हम थे। बनने का तो मतलब यह होता है कि हम चरित्रवान थे, फिर हम चरित्रहीन बने। तो हमें कारण खोजने पड़ें कि हम चरित्रवान कैसे थे, कब थे। और कैसे हम चरित्रहीन बने! मुझे नहीं दिखाई पड़ता कि हम कभी चरित्रवान थे। हमारी चरित्रहीनता बड़ी पुरानी है और चरित्रहीन का काफी जो बुनियादी कारण है, वह हमारी संस्कृति में सदा से मौजूद है।उसकी वजह से है। गुलामी का आना बिलकुल स्वाभाविक था, और आज भी आ जाना बिलकुल स्वाभाविक है। और अगर हम जो भी काम करेंगे चरित्रवान बनने के, वे सफल होने वाले नहीं हैं। वे सफल इसलिए नहीं होंगे कि हम फिर वही काम करेंगे जो हमने सदा से किया है।
जैसे, एक तो चरित्र से हम जो मतलब लेते रहे हैं, इस देश में वह मतलब भी बड़ा भ्रांत है। हमने चरित्र से एक ऐसा मतलब लिया सदा से, हम उस व्यक्ति को पूरा चरित्रवान कहते रहे, जो जीवन में दर्शक की भांति खड़ा हो जाए। हमारी जो चरित्र की व्याख्या थी सदा से, वह यह थी कि श्रेष्ठतम तो आदमी वह है, जो जीवन में दर्शक की भांति खड़ा हो जाए। जो जीवन में, जीवन के कर्म में कमीटेड न हो, जो बाहर खड़ा हो जाए जीवन की सारी व्यवस्था के। तो हमने अपने देश में जिन लोगों को सर्वाधिक आदर दिया वे, वे लोग थे जो एक अर्थों में जीवन को छोड़ कर जीवन के बाहर खड़े हो गए थे। तो जो कौम जीवन के बाहर हो जाने को चरित्र की श्रेष्ठतम ऊंचाई समझेगी, उस कौम में जीवन के भीतर जो लोग हों, उनका चरित्र गिरना शुरू हो जाएगा।
जो कौम धर्म को, शील को, ज्ञान को जीवन का छोड़ना बना देगी, त्यागवादी बना देगी, उस कौम के बहुजन जीवन में चरित्र विलीन हो जाएगा, क्योंकि हमारे मन में कहीं एक बात साफ हो गई कि जीवित होना ही चरित्रहीनता है और किसी गहरे पापों का फल है। अगर एक आदमी जन्मा है, तो वह अपने पापों का फल भोग रहा है और जो आदमी पापों के बाहर हो जाएगा, वह साथ ही जीवन के भी बाहर हो जाता है। उसका आवागमन बंद हो जाता है।
तो जीवन का पाप पर्यायवाची है हमारे लिए। और जिसके मन में जीवन…और पाप की याद आती है तो जीवंत, चरित्रवान और पुण्यवान होने का उपाय न रहा। जीवन से भाग कर और पलायन ही उपाय है। तो भारत का मन हजारों साल से पलायनवादी, एस्केपिस्ट है। और इस वजह से हम जीवन के भीतर जहां चरित्र की जरूरत है वहां चरित्र पैदा नहीं कर पाए। हमने एक भगोड़ चरित्र पैदा किया था। यह चरित्र काम का नहीं था। ज्यादा से ज्यादा पूजा के योग्य हो सकता था। यह चरित्र मंदिरों में बिठलाने योग्य हो सकता था। न यह युद्ध के मैदान में किसी काम का था, न यह बाजार के मैदान में किसी काम का था, न जीवन के संबंध में किसी काम का था। तो हम एक जीवंत चरित्र पैदा ही नहीं कर पाते हैं।
इसलिए ऐसा कहना उचित नहीं है कि चरित्र हमने कभी भी खोया, ऐसा ही कहना ज्यादा उचित है कि वह जो संस्कृति विकसित थी उसमें चरित्र आ ही नहीं सका। और अगर हम इसे ऐसा देख सकें तो हमें फिर पूरा का पूरा पुनर्विचार करना पड़ेगा। और पुनर्विचार करें तो ही हम मूल-स्रोत को पा सकेंगे। पृथ्वी के जीवन को हम स्वीकार नहीं किए इसलिए पृथ्वी के जीवन में भी हम स्वीकृत न हो सके और हमने पृथ्वी को धन्यभाग से अंगीकार नहीं किया। इसलिए पृथ्वी भी हमें धन्यभाग से अंगीकार नहीं कर सकी। हम उखड़े हुए लोग हैं जिनकी जड़ें नहीं हैं।
तो एक तो यह खयाल में लेना जरूरी है कि भारत में हम कभी भी अगर चरित्र पैदा करना चाहें तो हमें एक तरह का पुनर्विचार करना पड़े। हमें फिर से यह पृथ्वी जीने योग्य और यह जीवन आनंद योग्य और इस जीवन को भोगना; रस; और इस जीवन के भीतर पुण्य और चरित्र की संभावना को ही स्वीकार करना पड़ेगा। और हमें तब इसके आस-पास की पूरी माइथोलाॅजी, इसके आस-पास का पूरा दर्शन, इसके आस-पास की पूरी दृष्टि को नया करना पड़ेगा। जो कौमें भी परलोकवादी होंगी, उनका चरित्र कूड़ा होगा, रक्तहीन हो जाएगा। असल में रक्तहीनता ही चरित्रबद्ध है। और जहां भी रक्त दिखाई पड़ेगा, वहां खतरा दिखाई पड़ेगा। क्योंकि जहां भी रक्त और स्नायु होगा, वहां जीवन के हजार स्पंदन शुरू हो जाएंगे। हम सबसे घबड़ाएंगे।
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अब हमारी कठिनाई क्या है? हमारी कठिनाई यह है कि हमने रक्तहीन चरित्र! रक्तहीन चरित्र कैसा होगा? सेक्स के भीतर तो चरित्र का उपाय नहीं है, क्योंकि सेक्स तो चरित्रहीनता है, तो सेक्स से भागा हुआ ब्रह्मचारी भर चरित्रवान होगा। वह रक्तहीन होने वाला है जब कि जीवन है चरित्र के भीतर। और सेक्स के भीतर का चरित्र का एक कोड चाहिए, वह विकसित नहीं हो पाएगा, उसके विकसित होने का उपाय नहीं रह जाएगा। उसे तो विकसित हम तब करते हैं जब हम स्वीकार कर लेते हैं कि यह रहा जीवन। इस घर के भीतर जहां मुझे जीना है, यहां की नैतिकता मैं विकसित नहीं करूंगा क्योंकि मैं मानता हूं कि इस घर के भीतर होना ही अनैतिक है। इस घर के भीतर अनैतिकता आ नहीं सकती, मैं इसके बाहर हो जाऊं तो नैतिक हो जाऊंगा।
यह भारत का जो पुरातन, भागता हुआ मन है, इसको जड़ें देने की जरूरत है। और इस जीवन को जो हमें मना है, पृथ्वी का, शरीर का उसको किसी परलोक के जीवन के लिए समर्पित करने की जरूरत नहीं है। अगर परलोक का कोई जीवन है, तो उसके आनंद, उसके पुण्य और उसके चरित्र को ही विकसित होना चाहिए, उसके भागने को नहीं है।
तो एक जो जल्दी में ऐसा खयाल लेना कि चरित्र में कमी गुलामी के कारण आई तो बड़ी कठिनाई हो जाती है। मेरे सामने यह सवाल उठता है कि वह कब था? वह मुझे कभी नहीं दिखाई पड़ता, पूरे ज्ञात इतिहास में कभी नहीं दिखाई पड़ता है। दिखाई पड़ने की हम कुछ भ्रांति में पड़ जाते हैं और इसलिए पड़ जाते हैं कि कुछ चरित्रवान लोग हमें दिखाई पड़ते हैं। वे कुछ चरित्रवान लोग सदा थे, वे आज भी हैं। लेकिन कुछ चरित्रवान लोगों से समाज नहीं बनता। समाज का चरित्र चाहिए।
तो दूसरी बात जो मेरे खयाल में आती है वह यह है कि हमने एक चरित्र की और भी विकसित व्यवस्था की है जो व्यक्तिवाची है। समुदाय का कोई चरित्र नहीं है। और एक-एक व्यक्ति के चरित्रवान होने में हमारा आग्रह है। अगर वह चरित्रवान होता है, तो उसको स्वर्ग मिलता है, और चरित्रहीन होता है, तो नरक मिलता है। लेकिन सामूहिक चरित्र भी कोई चीज है। उसकी हमें कोई धारणा नहीं है। मेरी समझ ऐसी है कि चरित्र होता ही सामूहिक है। व्यक्तिगत चरित्र बेमानी बात है। अगर जंगल में अकेला हूं, तो झूठ और सच बोलने का कोई भी मतलब नहीं है। ब्रह्मचारी, गैर-ब्रह्मचारी होने का भी कोई मतलब नहीं है। नैतिकता, अनैतिकता का भी कोई मतलब नहीं है। सारा चरित्र वहीं से शुरू होता है, जहां से दूसरा मुझे छूता है।
तो जिस देश का चरित्र व्यक्तिवाची रहा हो, उस देश में सच्चे अर्थों में चरित्र पैदा नहीं होगा, क्योंकि चरित्र है ही वहां, जहां से दूसरा आता है मेरे जीवन में। वहीं से पता चलता है कि मैं क्या हूं? मेरे अंर्तसबंधों में ही है, मेरी इंटर रिलेशनशिप में ही है, मैं सर्वस्व होता हूं, हमारी कसौटियां वही हैं। हमने असंगता को चरित्र कहा, दूसरों से छूट जाने को, हट जाने को, अलग हो जाने को, संबंध तोड़ जाने को। एक बेटा मां के अलावा बेटे का चरित्र पूरा कर ही नहीं सकता और एक पति पत्नी के बिना पति के चरित्र को पूरा कर ही नहीं सकता। हमारी सारी चरित्रवानता हमारे संबंधों की बात है और हमने जो चरित्र की भावना विकसित की है, वह व्यक्तिवाची है।
तो हमने तो कुछ व्यक्ति पैदा कर लिए, वे व्यक्ति ऐसे हुए जैसे कि नट रस्सी पर चलता है। जिंदगी तो रास्ते पर चलेगी, एक नट चल सकता है कि बंबई के दो बिल्डिंगों के बीच एक रस्सी बांध कर चल ले तो वह तीर्थंकर हो जाएगा या अवतार हो जाएगा। पर सारी दुनिया तो रस्सियों पर नहीं चल सकेगी। रस्सियां चलने के लिए नहीं हैं, नाटक के लिए हो सकती हैं। एक आदमी चल लेगा, करोड़ों आदमी तो उस मोटे रास्ते पर चलेंगे। उस रास्ते पर चलने का हमने कोई नियम नहीं बनाया है। हमने नियम बनाया है, रस्सी पर चलने वालों के और इस रास्ते पर चलने वाले तो कंडेम्ड हैं ही, तो उन्हें नियम बनाने की कोई जरूरत नहीं है, जरूरत तो रस्सी पर चलने वाले नट के लिए है। तो कभी करोड़ दो करोड़ आदमी में एक आदमी नट हो जाता है और, और महात्मा बन जाता है, ज्ञानी बन जाता है और वह चल जाता है रस्सी पर। हम सब जय-जयकार करके, ताली बजा कर अपने सीमित रूप से चलने लगते हैं। उस राह का कोई नियम नहीं है, उस रूप की कोई व्यवस्था नहीं है। व्यवस्था और नियम रस्सी वाले के लिए है।
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तो दूसरी मेरी समझ है, हमें समूहवाची चरित्र का, और एक ऐसे चरित्र का जो भागता न हो, रुकता हो, ठहरता हो, संबंधित होता हो…बल्कि संबंधित होना भी चरित्रवान होने का एक लक्षण है। हम कितने बड़े पैमाने पर संबंधित होते हैं। यानी मेरी तो समझ है कि जितना चरित्रवान व्यक्ति है उतना उसके संबंधों का अंतर्जाल व्यापक होगा। जितना चरित्रहीन व्यक्ति होगा, उसके संबंधों का जाल…उतना क्षुद्र और छोटा होगा। असल में जिनसे वह संबंधित भी होगा, चरित्रवान होने के कारण उसके और उसके संबंधों के बीच दीवाल होगी, संबंध नहीं हो सकता। एक चोर का क्या संबंध हो सकता है, एक झूठ बोलने वाले का क्या संबंध हो सकता है, एक दगाबाज का क्या संबंध हो सकता है, एक जेबकट का क्या संबंध हो सकता है! असल में अनैतिकता जो है वह असंबंध है और हमारी जो नैतिकता है, वह भी असंबंध है। इन दोनों के बीच बड़ा एक समान तत्त्व है।
तो दूसरी बात जो मुझे दिखाई पड़ती है कि हम चरित्र की समूहवाची दृष्टि का विचार करें कि समूह में चरित्र का क्या अर्थ होता है। चूंकि व्यक्तिवाची चरित्र था इसलिए घूम-फिर कर हमारी सारी चरित्र की धारणा सेक्स के आस-पास रुक गई। आज अगर हम कहते हैं कि फलां आदमी चरित्रहीन है, तो ऐसा पता नहीं चलता है कि वह समय पर न आता होगा, ऐसा पता नहीं चलता होगा कि वह किसी को पैसे में धोखा देता होगा, कि दूध में पानी मिलाता होगा। ऐसा पता चलता है–कि उसके और किसी स्त्री के बीच गलत संबंध हैं। इसलिए एक आदमी झूठ बोले, कालाबाजारी करे, बस जिंदगी भर आंखें नीचे करके गुजर जाए, किसी स्त्री की तरफ न देखे, तो हमारे लिए चरित्र की वह आखिरी सीमा है, वह आखिरी मापदंड बन जाता है कि यह आदमी महान चरित्रवान है क्योंकि स्त्री को नहीं देखता है।
अगर हम बहुत गौर से देखें तो हमारी सारी चरित्र की धारणा यौन केंद्रित है और मजा यह है कि यौन जो है वह अत्यंत व्यक्तिगत बात है, बहुत सामूहिक बात नहीं है। ज्यादा से ज्यादा दो व्यक्तियों के बीच का संबंध है। लेकिन जब मैं झूठ बोलता हूं तो यह संबंध अनंत है। मेरे सेक्स का मामला मेरे और किसी और व्यक्ति के बीच की बात है, लेकिन बहुत गहरे में इसका कोई जातिक अर्थ नहीं है। यह बहुत प्राइवेट और निजी बात है। इस निजी बात को हमने इतना गौरव दिया है और जिसका अनंत व्यापी विस्तार होने वाला है, इसका हमने कोई मूल्य नहीं दिया है। तो इधर मुझे लगता है कि हिंदुस्तान में हम चरित्र को ऊपर न उठा पाएंगे, जब तक हम उसे यौन से मुक्त नहीं कर लेते। और मेरा मानना है कि यौन की धारणा चरित्र के किसी कोने की एक धारणा है। उसको पूरा चरित्र बना लेना हिंदुस्तान में यह तकलीफ हो गई है। हिंदुस्तान में एक आदमी और कुछ भी कर रहा हो, उतना कोई विचार का कारण नहीं पैदा होता है। तो यह जो चरित्र की धारणा है यह साधु और संन्यासी के लिए शायद सार्थक होगी। साधारण जन के लिए किसी अर्थ की नहीं है। साधारण जन के लिए हमें चरित्र की व्यापक धारणा खोज लेनी आवश्यक है।
दूसरी बातः जीवन में एक बार अगर हमने पलायनवादी रुख ले लिया, तब हमारी समस्त नीति और समस्त चरित्र किसी गहरे अर्थ में उतार का और भागने का होता है। और जीवन उनका है, जो आक्रामक है, जो आक्रामक हैं। आक्रामक सामान्य अर्थ में, समस्त अर्थों में–जीवन उनका है जो आक्रामक हैं। और एक बार उन्होंने तय कर दिया हो कि आक्रमण नहीं, तो उससे कोई अर्थ नहीं होता। और जीवन की बड़ी तकलीफ यह है कि यहां विकल्प हमें चुनने पड़ते हैं। या तो आप आगे बढ़िए, या आप पीछे हटा दिए जाएंगे। बीच में खड़े होने की कोई जगह ही नहीं है। यानी कोई यह सोचता हो कि हम आगे न बढ़ेंगे तो हम वहां तो खड़े ही रहेंगे जहां हम खड़े हैं, तो गलती में हैं। जिंदगी ऐसे आदमी को वहां खड़ा नहीं रखती है पीछे हटा देती है।
एडिंग्टन ने एक बात लिखी है कि मनुष्य की भाषा में ‘रेस्ट’…जो सत्य है वह जीवन में उसका पर्याय कहीं भी नहीं है। रेस्ट शब्द बिलकुल झूठा है। विश्राम में कोई भी चीज नहीं है। या तो आगे जा रही है, या पीछे जा रही है। ठहरी हुई कोई भी चीज नहीं है, खड़ी हुई कोई भी चीज नहीं है। या तो वृक्ष जवान हो रहा है या बूढ़ा हो रहा है। या तो आप ठहर गए हैं या सिकुड़ने लगे हैं। या तो आप जी रहे हैं या मरने लगे हैं। इन दोनों के बीच में ऐसी कोई जगह नहीं है कि एक आदमी कहे कि मैं जी तो रहा हूं, लेकिन आगे जीवन में नहीं बढ़ रहा हूं, मैं ठहर गया हूं। तो उसे पता नहीं, उसने मरना शुरू कर दिया। या तो आप पहाड़ पर चढ़ गए हैं, या नीचे उतर गए हैं।
इस देश के साथ क्या कठिनाई हो गई कि जीवन की जो सारी सहज बातें हैं वे सब हमें निंदित करते हैं। जैसे विस्तार है, वह हमारे लिए निंदित हो गया है। हमने अनेक नामों से उसकी निंदा की और संकोच को अनेक नामों से प्रशंसित किया। अब एक आदमी धन बढ़ा रहा है, तो हमने उसकी निंदा की। हमने कहा कि वह परिग्रही है। एक आदमी अगर शक्ति बढ़ा रहा है; एक आदमी अगर सौंदर्य बढ़ा रहा है, एक आदमी अगर योजनाएं बना रहा है विस्तार की तो हम सबकी निंदा करते हैं। हमने उन आदमियों की प्रशंसा की, जो सब तरफ से संकोच करता है, सिकोड़ रहा है अपने को।
तो हमारा चरित्र जो है, वह संकोचवान है, विस्तारवान नहीं है। और जीवन जो है, विस्तार को मानता है, वह संकोच को नहीं मानता है। और जिस दिन हमने यह तय कर लिया है कि हमें सिकुड़ना है उस दिन हमारे पांव ने स्वभावतः तय किया है, हमको फैलना नहीं है, हमको ठहरना है। कोई कठिनाई नहीं है कि मैंने अपने घर को छोटा करना चाहा, पड़ोसी के घर ने अपने घर को बड़ा करना चाहा। फिर हम गुलाम हुए। इस गुलामी का सारा जिम्मा पड़ोसी पर नहीं है, हमारे संकोच की धारणा पर है। और हमारे सारे महात्मा आज भी और अनंत काल से हमको संतोष सिखा रहे हैं। वे कहते हैं सिकुड़ जाओ। उस दिन तक सिकुड़ते जाओ, जिसके आगे सिकुड़ने की जगह न रह जाए। तो हम जगह नहीं देते हैं, उस जगह में सब भर जाता है।
हिंदुस्तान में बुद्ध और महावीर के बाद भयंकर संकोच पैदा हुआ। हिंदुस्तान के मानस में बुद्ध और महावीर के बाद उतना संकोच पैदा हुआ कि उस संकोच की वजह से हिंदुस्तान में सब तरह के आक्रमण आमंत्रित हुए। मेरा मानना यह है कि हमारे सब आक्रमण आमंत्रित हैं। यानी मैं ऐसा कहता हूं कि हम आक्रमण करने ही नहीं जाते, अगर हम न करें तो हम बुलाते हैं। इन दोनों के बीच जगह नहीं है। या तो हम आक्रमण करने जाएंगे, या हम किसी आक्रामक को बुलाएंगे। और बड़े मजे की बात यह है कि जिसकी आप बात करते हैं, अनुशासन और डिसिप्लिन की, वह संकोच की कौम में कभी नहीं होता। उसकी जरूरत नहीं होती। वह विस्तारशील जाति का लक्षण है अनुशासन का, क्योंकि विस्तार के लिए अनुशासन जरूरी है। बिना अनुशासन के विस्तार नहीं किया जा सकता।
इसलिए बहुत बार ऐसा हो जाता है कि ज्यादा श्रेष्ठ संस्कृति कभी अपने से निकृष्ट संस्कृति के सामने झुक जाती है, अगर वह विस्तारवादी नहीं है। और सदा ऐसा हुआ है–चंगीज या तैमूर या हिंदुस्तान में आए हुए सब आक्रामक चाहे वे हूण हों, चाहे वे मुगल हों, चाहे तुर्क हों, कोई भी हों जो भी हिंदुस्तान आए, हिंदुस्तान की संस्कृति के मुकाबले वे सब पिछड़ी हुई कौमें थीं। लेकिन एक मामले में हम मुश्किल में पड़ गए। वे आक्रामक थे और डिसिप्लिनड थे। हम अनाक्रामक थे, अनाक्रामक को डिसिप्लिन की कोई जरूरत न थी। अब हमें आक्रमण करने नहीं जाना है, तो हम दंड-बैठक नहीं लगाते हैं। जब आप मुझ पर आक्रमण करते हैं तब मैं लगाना शुरू करता हूं। या वैसे ही है जैसे कि आग लग जाए, तब हम कुआं खोदने लगते हैं। कुआं जब तक खुदता है तब तक मकान जल जाता है। लेकिन आग लगाने निकलेंगे तो आग से जलने का डर सदा ही है। जैसे कि तैमूर और चंगीज एकदम अशिक्षित, एकदम बर्बर और जंगली। साधन भी उनके पास बहुत नहीं हैं, लेकिन फिर भी एक अदम्य अभीप्सा फैल जाती, तो उन्होंने यूनान तक हिला दिया और इधर चीन के कोने तक हिला दिया। पूरा एशिया और यूरोप–थोड़े से टुकड़ों ने, एक-एक ईंट बजा दी, रोम से लेकर और पेकिंग तक सबको हिला दिया एक दफा। और जो कि बड़े गिने थे, उनको, जिनके जमाने की दो लंबी पुरानी कहानी हैं और जिनको संदेह मिट गया था कि हम कभी हराए जा सकते हैं–उनको बड़ी छोटी कौमों ने, बड़ी खानाबदोश कौमों ने, जिनके पास कोई बहुत सामथ्र्य न थी, लेकिन उनके सामने विस्तार की अभीप्सा थी।
और विस्तार की अभीप्सा के पीछे अनुशासन आता है। सिर्फ रक्षा की अभीप्सा से अनुशासन नहीं आता है। तो मेरी अपनी समझ यह है कि आप सिर्फ अनुशासन का गुणगान करें, तो आप अनुशासन पैदा नहीं करवा सकते हैं। अनुशासन का भी अपना अनुशासन है। अनुशासन का अपना मेथड है जाने का। वह आता ही तब है, जब कोई विस्तारशील भावना काम करती है, जब हम फैल जाना चाहते हैं।
अब जैसे, आज अमरीका में या रूस में समय का एक अनुशासन पैदा होगा, जो उन दो मुल्कों के सिवाय कहीं भी पैदा नहीं होगा। क्योंकि उन्होंने अंतरिक्ष का विस्तार शुरू किया। अभी तक जो समय का अनुशासन था, वह घंटों में चल सकता था, मिनटों में चल सकता था। अब जो समय का अनुशासन है वह सेकेंड के और क्षण के भी हजारवें हिस्से में चलाना होगा। क्योंकि अब अंतरिक्ष की यात्रा जो है उसमें एक सेकेंड भूल-चूक हो जाने से हमारा यात्री सदा को मुक्त हो जाएगा। तब अमरीका एक ऐसी टाइम डिसिप्लिन को उपलब्ध हो जाएगा, जिसकी हमें कल्पना नहीं हो सकती।
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असल में बैलगाड़ी में जो चल रहा है, उसके टाइम का अनुशासन अलग होगा। और राकेट में जो चल रहा है, उसके टाइम का अनुशासन अलग होगा। बैलगाड़ी में चलने वाली कौम से हम कहें कि तुम समय से आ जाओ, तो हम बात गलत कहते हैं। हम उससे कहें, तुम ठीक छह बजे आ जाना
तो इसका कोई मतलब नहीं होता। बैलगाड़ी में तीन होता है समय–सुबह, दोपहर, शाम। वह छह-छह घंटे की होती है। इनका जो विस्तार है–एक आदमी कहता है, हम सांझ आ जाएंगे सूरज ढलने पर। सूरज ढलने पर आ सकता है, सूरज ढलने के घंटे भर पहले आ सकता है, सूरज ढलने के चार घंटे बाद आ सकता है। अभी सांझ ही चली है, क्योंकि बैलगाड़ी भरोसा योग्य ही नहीं है। बैलगाड़ी का अपना समय है।
पैदल चलने वाले आदमी के समय में घंटे नहीं होते हैं, दिन होते हैं। लेकिन अब, जब हम अंतरिक्ष की यात्रा पर निकलेंगे, तो सेकेंड के हजारवें हिस्से पर एक्युरेसी चाहिए। अब चांद का विस्तार अमरीका के मन में टाइम का जो बोध देगा, वह हमारे मन में नहीं हो सकता है। अमरीकी सैनिक के मन में, अमरीकी युवक के मन में जिस नई यात्रा के अभियान पर निकला है वह सारी दुनिया को पिछाड़ देगा समय के मामले में। उसके बराबर समय की सचाई किसी में नहीं रह जाएगी। लेकिन, यह आती है एक दूसरी व्यवस्था से। वह फैल रहा है, पृथ्वी को छोड़ कर बाहर जा रहा है। असल बात यह है कि अब पृथ्वी आक्रमण के लिए बहुत छोटी पड़ गई है। अब जो आक्रमणवान है, अब उनके लिए पृथ्वी बहुत छोटी है। वह एक दुर्बल विलेज से ज्यादा नहीं है, एक बड़ा गांव है जो जमीन पर फैला हुआ है। अब जो वृहत आकांक्षा है, वे चांद-तारे और मंगल और दूर के तारों पर बस्तियां बसाएंगे।
तो मेरी अपनी समझ यह है कि भारत को विस्तारवादी, अब यह शब्द बड़ा खराब मालूम पड़ता है और हमारे हजारों साल की निंदा में उसको बड़ा गंदा कर दिया है। इसके मानस में विस्तार चाहिए, वह विस्तार बहुआयामी होगा। धन का भी हो, यश का भी हो, ज्ञान का भी हो, यात्रा का भी हो, अभियान का भी हो, एडवेंचर का भी हो, वह समस्त दिशाओं में विस्तारवादी हो। तो भारत के युवक की जो पीड़ा है, वह पीड़ा यही है कि युवक होता है विस्तारवादी और भारत का मन है संकोचवादी। भारत का मन है बूढ़े का और उसमें भारत के युवक के लिए भारत के मन के साथ बड़ी बेचैनी हो गई है।
यह लड़ाई बाप से नहीं है भारत के लड़के की, यह लड़ाई बुढ़ापे से चल रही है। यह लड़ाई संकोच से चल रही है। वह कोई कांशस नहीं है, कोई बहुत साफ नहीं है, जो हो रहा है, वह क्या हो रहा है! और हम अपने पुराने ही ढांचे में उसको बिठालने की कोशिश में लगे हैं। वह ढांचा उसके काम का नहीं साबित होगा, वह ढांचा तोड़कर बाहर निकलेगा। क्योंकि अगर हमने समझपूर्वक काम लिया, तो वह खुद ही बिना टूटे हुए ढांचे के बाहर हो सकेगा, नहीं तो ढांचा तोड़ने में फिर भी टूट जाएगा।
तो एक तो मेरा खयाल है कि भारत के मन में हमें अभीप्सा जगाने की जरूरत है। कोई हमने ढाई-तीन हजार वर्ष से सपने नहीं देखे। कोई बड़ा सपना नहीं देखा सिवाय मरने के और मोक्ष जाने के, जो कि कोई सपना नहीं है। हमने तीन हजार वर्ष में ऐसा कोई सपना नहीं देखा जिसको पूरा करने में हमारी शक्तियों की भी पुकार आए। जिसको पूरा करने के लिए हमारा युवक डूबे, जिसको पूरा करने के लिए युवक की जवानी रस ले। हमने कोई सपना नहीं देखा। हम स्वप्न-न्यून कौम हैं। अगर हम पूरा अपने इतिहास को देखें तो हम बड़े हैरान होंगे कि हम अकेली कौम हैं इस पृथ्वी पर जिसके पास कोई उटोपिया और कोई बड़े सपने नहीं हैं। जरूरी नहीं है कि वे सपने पूरे होने वाले हैं। सच तो यह है कि सपने ऐसे चाहिए जो कभी पूरे होने वाले न हों। जो हमें रोज बुलाते रहें और हम रोज बढ़ते रहें और कभी पूरे भी न हों।
हमने जो सपना देखा है वह है सुसाइडल। हमारा सपना जो है वह मरने का है। और मरना भी हम साधारण मरने से तृप्त नहीं हैं, हम कहते हैं हमें इस भांति मरना है कि फिर हम जन्म न सकें। हम असल में एब्सोल्यूट डेथ के आकांक्षी हैं। साधारण मृत्यु से राजी नहीं हैं। या तो पृथ्वी सिंह मरते हों, तो वह साधारण मृत्यु से राजी नहीं हैं, वे कहते हैं–फिर कहीं जन्म न हो। उनकी आकांक्षा ऐसी है कि मरें तो ऐसे मरें कि फिर जन्म ही न हो। तो हम एकदम जन्म-विरोधी, जीवन-विरोधी हैं। आत्मघाती हमारा चित्त है। निश्चित ही हमें कुछ आत्मघाती लोगों ने प्रभावित किया है। कुछ सुसाइडल माइंड्स हमारी छाती पर सवार हो गए हैं और उन्होंने हमारा पूरा का पूरा देश का मानस एक दिशा में मोड़ दिया है।
और सच यह है कि देश के पास बहुत मानस नहीं होता। दस-पांच लोग उसे चलाते हैं। अगर कहीं हमारे ऊपर ऐसे लोग हावी हो जाएं, जो आत्मघाती हों, और मरने की आकांक्षा रखते हों, तो वे हम सबको मरने की दिशा में मोड़ देंगे। तो हमें अब इस देश में ऐसे व्यक्ति चाहिए, बहुत ज्यादा नहीं थोड़े से ही चाहिए, जो जीवन के आकांक्षी हों, जिनके जीवन की आकांक्षा प्रबल और अदम्य हो और जो यह कहने को इनकार करते हों कि हम मरने वाला मोक्ष नहीं चाहते हैं, हम ऐसा मोक्ष चाहते हैं जो परम जीवन हो। हम जन्मों से नहीं डरते हैं, हम ऐसा जन्म चाहते हैं कि उसके बाद मौत ही न हो।
अगर हम यह जीवन के अभियान की कल्पना और यह सपना भारत को दे सकें तो हमारे भीतर की सब अवरुद्ध शक्तियां आज जग सकती हैं। मर नहीं जाती हैं, सिर्फ अवरुद्ध होती हैं और कई बार ऐसा होता है कि अगर भीतर शक्तियां अवरुद्ध हो जाएं, तो उनका अवरुद्ध होना बड़ी बेचैनी पैदा करता है। मार्ग मिलता नहीं और बेचैनी पैदा होती है। यह जो आज जैसा हमें दिखाई पड़ रहा है, यह आजादी भी एक नकारात्मक आजादी है।
अब मैं इधर देखता हूं कि अगर विस्तारवादी हमारा मुल्क होता, तो आजादी पाजिटिव होती, विधायक होती। संकोचवादी मन है इसलिए आजादी नकारात्मक है। हम सिकुड़ गए, पड़ोसी हमारे ऊपर कब्जा कर लिए। अब ज्यादा से ज्यादा हमारी आजादी का कुल मतलब इतना है कि कृपा करके हम पर कब्जा छोड़ो। यह नकारात्मक भाव है आजादी का। यह आजादी का इतना ही भाव है कि कृपा करके हमें गुलाम मत बनाओ। लेकिन जो गुलाम नहीं है, जरूरी रूप से आजाद नहीं हो जाता। गुलाम होना एक स्थिति है, आजाद होना बिलकुल दूसरी स्थिति है। गुलाम न होना सिर्फ बीच की कड़ी है। जैसे हम गुलामी से आजादी में यात्रा करते हैं। तो अभी भारत गुलाम न होना बिलकुल बेमानी है। या तो हम आजाद बनें और या हम गुलाम हो जाएं, वे दोनों चैन की अवस्थाएं हैं। क्योंकि उनकी एक स्थिति है। गुलाम न होना सिर्फ एक सेतु है जिससे हमें आजादी को पहुंचना चाहिए।
लेकिन आजादी का हम करेंगे क्या? आजादी का करने का एक ही अर्थ हो सकता है कि हमारे पास कोई सपने हों जिनको हम पूरा करना चाहें तो आजादी का कोई मतलब है। हमारे पास कोई सपने न हों, हमारे पास सिर्फ एक भाव था, जो किसी भांति ऊपर जो बैठा है, वह नीचे उतर जाए। वह नीचे उतर गया है। अब हम बड़ी दिक्कत में पड़ गए हैं। हमारे पास एक काम भी था, वह भी खत्म हो गया कि किसी को नीचे उतारना था, वह भी नीचे उतर गया। और हमें बड़ी दिक्कत में छोड़ गया है। और ऐसे असमय में उतर गया है जब हमें आशा भी नहीं थी कि उतरेगा। हम बड़े भरोसे में जी रहे थे कि अभी नहीं उतरेगा। आजादी की लड़ाई हम जारी रखेंगे। वह अचानक गर्दन से उतर गया, अब हमारे पास कोई लड़ाई भी नहीं है, कोई काम भी नहीं है।
अब हम बड़ी बेचैनी में पड़ गए हैं। अब हमें ऐसा लगता है कि अब हम क्या करें। भारत के सामने बड़े से बड़ा मनस में सवाल है कि क्या करें, वाॅट टु डू? और जो भी करना है, वह सदा विस्तारवादी होता है। उसमें किसी तरह का विस्तार चाहिए, तो हम दरिद्रता को वरण किए बैठे हैं। हम दरिद्र को कहते हैं, तुम नारायण हो–दरिद्रनारायण, हम तुम्हारी पूजा करेंगे। हम जो आदमी सड़क पर नंगा खड़ा हो जाता है, उसके जाकर पैर छुएंगे। जो आदमी ढंग के कपड़े पहने है वह हमें पापी मालूम पड़ेगा कि भोगी है, कपड़े ठीक से पहने हुए है, आराम से बैठा है। कष्ट झेले, कांटे बिछा कर सड़क पर बैठ जाए, तो महात्मा हो जाए।
यह जो हमारे चित्त की अवस्था है, तो सारे मुल्क को जब तक कांटे पर लिटा दे, तब तक हमारा मन भर नहीं सकता। जब तक सारा मुल्क नंगा न हो जाए और जब तक सारा मुल्क भीख न मांगे तब तक हम तृप्त न होंगे। वह हमारा अंतिम लक्ष्य मालूम होगा। यह हो नहीं सकता, क्योंकि मनुष्य की सहज व्यवस्था के प्रतिकूल है। और कुछ लोग मैसोचिस्ट थे। कुछ लोगों को खुद को कष्ट देने में भी रस आता है। वे उससे बड़े मजे में आनंद में आ जाएंगे। वे कांटे बिछा कर लेटे हैं। वे सिर के बल खड़े होकर शीर्षासन कर रहे हैं। हम भी बड़े प्रसन्न होंगे। और हम कहेंगे कोई बात में आगे हमसे नहीं हो सकता, लेकिन तुम कर रहे हो, तो कम से कम तुम एक आदर्श तो हो।
हमें ये सब आदतें गिरानी पड़ें और जिंदगी की जो सहजता है…इधर मैं इतना हैरान होता हूं कि कई बार ऐसी कठिनाई हो जाती है कि अगर हजारों साल तक हमने अगर कोई सहज बात को इनकार किया हो, तो हम भूल ही जाते हैं कि वह सहज है। जिंदगी की जो सहजता है वह हमें अंगीकार कर लेनी पड़ेगी। और हमारा युवक तत्काल अनुशासन में आ जाए, अगर हम सहज जीवन को स्वीकार कर लें। अगर मुल्क सपने पैदा कर सके, तो युवक अभी प्रतिबद्ध हो जाए। हम सपने के लिए कमिट कर सकें, कि हम अपने को लगा सकें। लेकिन कोई सपना नहीं है। और हम जो बातें करते हैं वे सीधी और बचकानी हैं, और हम जो आदर्श रखते हैं वह ऐसे ही कि वह बेमानी है।
हम कभी कहते हैं कि पंचवर्षीय योजना पूरी करो, जो कि कोई बड़ा सपना नहीं है। युवक के पास बड़े सपने देखने की आकांक्षा है। हम कहते हैं कि पंचवर्षीय योजना पूरी करो। उसके पास बड़ी कामनाएं हैं कि उसका मन भरे, हम उसको ऐसी क्षुद्र कामनाएं बताते हैं कि वह उसको छोड़ ही देता है कि कुछ मतलब की नहीं हैं।
अभी मैं देख रहा हूं कि रूस में पिछले…स्टैलिन के मरने के बाद पूरी शिथिलता आ गई है और रूस का लड़का इनकार करता है। वह कहता है, पंचवर्षीय योजना, इसमें क्या है! और कब तक हम इस बकवास में पड़े रहेंगे। कुछ और करने को है? प्रावदा के सारे एडिटोरियल पिछले दस वर्षों से एक ही बात समझा रहे हैं कि काम करो, काम करो, ज्यादा अन्न पैदा करो। वह यह जो खबर दे रहे हैं, कुछ मामला भीतर गड़बड़ हो गया है, या तो चाबुक के बल पर उससे काम ले लिया गया है, स्टैलिन के वक्त कि उसके पीछे बंदूक लगी है। खुद स्टैलिन उन्नीस सौ अट्ठाइस के बाद कभी किसी गांव में नहीं गया। लेकिन उसकी खेतों और ट्रैक्टर के साथ फोटो और बड़े पोस्टर लगाए गए। वह कभी नहीं गया उन्नीस सौ अट्ठाइस के बाद। और लड़के को बस यही लगाए हुए हैं कि यह करो, यह करो, और लड़का ऊब गया है। सारा साहित्य रूस का बोर्डम पैदा करने वाला है। खेती और अनाज और ट्रैक्टर और बस वही, तो सारा सपना चाहिए उन पर।
हमारे साथ यह मुश्किल है, हमारे पास कोड़ा भी नहीं है और उनके पास कोड़ा भी था। वह स्टैलिन, काम न हो तो आदमी को मिटा भी सकता था। हम वह भी नहीं कर सकते हैं कि हम आदमी को मरने को मजबूर कर दें ताकि कुछ करने को मजबूर होना पड़े, वह भी हम नहीं कर सकते। हम ऐसा सपना भी नहीं देख सकते कि वह स्वेच्छा से मरने की आकांक्षा से भर जाए, और अपने को जूझा दे और कहीं लगा दे। इतना भी नहीं कर सकते, भीतर से धक्का भी नहीं दे सकते। तो हम, एक जिच पैदा हो गई है जिसमें हम खड़े हो गए हैं। इस जिच को बहुत साधारण उपायों से नहीं तोड़ा जा सकता।
इस जिच को तोड़ने के लिए हमें पूरी सांस्कृतिक पृष्ठभूमि में कुछ बुनियादी मुद्दे तोड़ने पड़ेंगे और हमें भारत के लिए नये इमेज देना पड़ें, नई प्रतिमाएं देना पड़ें। बुद्ध और महावीर की प्रतिमाएं इस मामले में काम नहीं देंगी। शिवाजी और प्रताप भी इस मामले में अति साधारण हैं। इस मामले में हम उनको भी बहुत ज्यादा देर तक खींच कर काम में नहीं ला सकते हैं। क्योंकि जिन मुद्दे से वे लड़े थे, वे मुद्दे बहुत बचकाने और साधारण थे। आज मामला बहुत दूसरा है, और ऐसे मामले के लिए भारत की पूरी संस्कृति को सोचकर हमें फिर से निर्धारित करने का खयाल देना पड़ेगा और जहां-जहां संस्कृति में बुनियादी भूलें हैं और जिनकी वजह से सारे उपद्रव पैदा हुए, वे हमें काट कर फेंक देने पड़ें। अनुशासन लाना हो तो भारत के चित्त को विस्तार के काम देने पड़ें। उसके साथ ही अनुशासन अपने आप शुरू होता है।
अनुशासन का मतलब, बड़ा सपना, जो युवक के मन को भा जाए और वह उससे जूझ सके। अब हम देखते हैं कि लड़के को आप भेज देते हैं पढ़ने। जैसा आप कहते हैं, ठीक कहते हैं कि वह अपने बाप के प्रति जिम्मेवारी नहीं ले रहा है, और बाप मेहनत करके पढ़ा रहा है। कांट्रैक्ट वह पूरा नहीं कर रहा है। लेकिन मजा यह है कि उस लड़के को दिखाई पड़ रहा है कि वह एम.ए. के बाद फलाॅप होने वाला है। आप यह नहीं देख रहे कि उसकी आगे है क्या, भविष्य क्या है उसके लिए? ज्यादा मौके इसी बात के हैं कि वह एम.ए. फस्र्ट क्लास लेकर दफ्तरों के सामने क्यू लगा कर खड़ा रहे और नौकरी न मिले। आगे पूरा क्या होने वाला है जिसके लिए वह युनिवर्सिटी में मेहनत करे।
मैं युनिवर्सिटी में देख कर इस बात से हैरान हुआ कि कितने लड़के हैं जो डरते हैं कि अगर हमारी शिक्षा विश्वविद्यालय की पूरी हो गई तो फिर? इसका भय ही मैंने अनुभव किया। इसके लिए भयभीत हैं लड़के कि अब इस साल एम.ए. पूरा हुआ जा रहा है, तो अगले साल के लिए हमें खड़े होना है, किसी एंप्लायमेंट आॅफिस के सामने, और क्लर्क के सिवाय कुछ भी नहीं है। वह भी मिले, तो मुश्किल है। सौ रुपये की नौकरी मिलना मुश्किल है। वह लड़का डर रहा है, पूरे मन से यह घबड़ाहट है कि दो साल और युनिवर्सिटी में किसी तरह गुजर जाएं तो दो साल मैं और लगा दूं। यानी आप जो देख रहे हैं कि पचास प्रतिशत लड़के फेल हो रहे हैं, इसमें फेल होने में भविष्य की कमी है, भविष्य कोई है नहीं।
पिछला जो आज से चालीस साल पहले लड़का मेहनत कर रहा था विश्वविद्यालय में, उसका भविष्य था। अगर वह मिडिल भी पास हो जाता तो तहसीलदार हो जाता। आज से चालीस साल पहले, तीस साल पहले, पचास साल पहले मिडिल जो था, वह बड़ी भारी पोस्ट थी। पहला लड़का जो इलाहाबाद में मैट्रिक हुआ उसका हाथी पर जुलूस निकाला गया था। सारे इलाहाबाद में मैट्रिक हुआ, उसका हाथी पर जुलूस निकाला गया था। सारे इलाहाबाद में फूल बरसाए गए कि एक लड़का मैट्रिक पास हो गया। उस लड़के को जो मैट्रिक पास होने का मजा आया होगा, वह आज किसी लड़के को पी.एचड़ी. होने में भी मजा नहीं है। और गधे पर भी नहीं बिठाएंगे, हाथी तो बहुत दूर की बात है। बल्कि जो पी.एचड़ी. हो गए हैं, हम उससे पूछेंगे कि किस मतलब से हुए?
आदमी को भविष्य चाहिए। असल में भविष्य रोज खींचता है और ताकत देता है। कल कुछ होना चाहिए जो पूरा होने वाला है और उसको पूरा होने के लिए तैयारी आती है। कल कुछ होने वाला नहीं है, तैयारी किसकी करना है। और यह तैयारी कल जाकर एकदम से बेकार हो जाने वाली है, बेकार हो जाएगी। तब तैयारी करके पता चलेगा कि कुछ नहीं हुआ। यानी तैयारी ऐसी चल रही है लड़के की कि आज शादी-विवाह का भरोसा दिला रहे हैं, और वह जान रहा है कि विवाह हो जाएगा, बैंड बज जाएंगे और दुल्हन नहीं आएगी वक्त पर और हम क्यू में खड़े हो जाने वाले हैं, कुछ हाल में होने वाला है नहीं। तो वह घर में सुस्त घूम रहा है, उसके चेहरे पर खुशी नहीं है।
हम उससे कहते हैं तुम जवान हो, तुम्हारे विवाह का वक्त है, तुम खुश नजर आओ। अब वह कहता है, हम जानते हैं कि घोड़ा तो बन जाएगा और बैंड-बाजे बज जाएंगे, दुल्हन आने वाली नहीं है। तो वह डर रहा है, वह घर के भीतर घूम रहा है कि बाहर मुझे मत निकालो। बैंड-बाजे बज रहे हैं तो कहीं देख लेंगे।
आज के पहले शिक्षा थी कम, काम था ज्यादा। भले आदमियों ने अनिवार्य शिक्षा कर दी। अनिवार्य शिक्षा करके शिक्षित तो ज्यादा पैदा कर रहे हैं और काम हम पैदा नहीं कर पा रहे हैं। शिक्षित बढ़ता जा रहा है, काम बिलकुल नहीं बढ़ रहा है। वह बिलकुल परेशानी में पड़ गया है। उससे जब हम बातें करते हैं अपनी, तो उसको हम पर क्रोध आता है बजाय हमारी बातों को पसंद करने के। और जो हमारा नेता है, उसको समझाने जाता है तो उसका मन होता है कि इसकी गर्दन दबा दूं। और वह दबा रहा है, और दस साल के भीतर हिंदुस्तान में नेता होना अपराधी होने के बराबर हो जाने वाला है। एक चोर का…जुलूस तो निकल सकेगा, नेता का नहीं निकल सकेगा। क्योंकि नेता दुश्मन मालूम पड़ रहा है। खुद तो कब्जा करके बैठ गया है अपनी जगह पर और दूसरों को त्याग का उपदेश दे रहा है। खुद तो मजा कर रहा है, अपनी चीज को बिलकुल सिक्युर्ड कर और दूसरों को कह रहा है, तुम त्याग करो देश के लिए और खुद तो त्याग कर नहीं रहा है! और कठिनाई इसकी भी है, यह जो नेता है इसके साथ हमारी भ्रांति हो गई है। इधर गांधी जी की वजह से बड़ी भ्रांतियां हुई हैं। एक तो गांधी जी ने हिंदुस्तान में जो आजादी का आंदोलन चलता था, उस आंदोलन में ऐसे आदमी पैदा किए कि जिनको त्याग की धारणा थी।
असल में जब भी कोई आंदोलन शक्ति पाने के लिए चलता है तब त्याग करना सदा आसान है–एकदम आसान है। क्योंकि आगे शक्ति पाने का लक्ष्य खड़ा होता है, सपना आगे होता है। जो आदमी लड़ रहा था हिंदुस्तान में आजादी के लिए उसके सामने शक्ति पाने का साफ-सीधा मौका था कि सामने एक भविष्य है। भविष्य के मौके पर त्याग करना सदा आसान है क्योंकि सारी शक्ति हमारे हाथ में आने को थी। सारे देश की ताकत हजारों साल के बाद लौटने को है, तो हम संघर्षरत हैं। हम त्याग कर सकते थे, हम जेल जा सकते थे, हम भूखे रह सकते थे, हम भूखे मर सकते थे। लेकिन न गांधी जी को खयाल था, न उनके और साथियों को खयाल था कि यह बात आजादी के पहले की है, आजादी मिलते ही सब बदल जाएगा। आजादी मिलते ही वह जो त्यागी था, वह एकदम से कहेगा कि मुझे वायसराय का भवन चाहिए। कहेगा ही, और फिर उससे आप त्याग की अपेक्षा न कर सकेंगे, क्योंकि त्याग उसने किया था, किसी बड़ी आकांक्षा के लिए। आकांक्षा समाप्त हो गई!
अब त्याग का कोई सवाल नहीं है। अब वह त्याग भंजाएगा। अब उसने–त्याग इकट्ठे कर लिए हैं, अब वह उनका बाजार में बदला चाहेगा। वह बदला ले रहा है और दूसरे युवकों को कह रहा है, त्याग करो। उनके सामने कुछ भी पाने योग्य नहीं है, जिसके लिए त्याग किया जाए। तो इस वजह से एक कठिनाई स्वभावतः होने वाली है। अब यह जो स्थिति है, इस स्थिति को हम कहां से तोड़ना शुरू करें। इस स्थिति को लाना न पड़े। यह बराबर तोड़ा जा सकता है। लेकिन हम जो आकांक्षाएं हजारों साल से सप्रेस किए हुए हैं, उनको मुक्त करना है। अब जहां तक कठिनाई है हमारे युवक की, वह अपने मन की पत्नी भी नहीं पा सकता है।
आप उसको जीवन में क्या भरोसा दिलाने जा रहे हैं? एक लड़की को प्रेम भी तो नहीं करने की स्वतंत्रता है उसको। और तो मामला और दूर है। एक आदमी जिंदगी में, शायद मैं कहूं कि नब्बे प्रतिशत प्रेम की तृप्ति मांगता है और दस प्रतिशत जो मांगता है, वह उसके प्रेम के आसपास होती है। तो दस प्रतिशत भी वह प्रेम के लिए खो सकता है। लेकिन उसकी भी अभीप्सा हम युवक में पैदा नहीं कर पाते हैं। अगर हिंदुस्तान में हम सिर्फ प्रेम का भी मार्ग खुला छोड़ दें, तो भी हिंदुस्तान का युवक और सक्रिय हो जाता है।
वानगाॅग की जिंदगी में एक बहुत अदभुत घटना है। कोई लड़की उसको प्रेम नहीं कर पाई, वह कुरूप था। कोई लड़की उसे कभी प्रेम नहीं कर पाई, करना मुश्किल था, अति कुरूप था। न वह कपड़े ढंग से पहनता था, न वह स्नान ढंग से करता था, न वह किसी से ठीक से बोलता था, न वह ठीक से खाता था। एकदम पागल और दीवाना की तरह घूमता रहता। एक दुकान पर काम करता था, वहां भी वह वैसे ही गंदे और बेवक्त कभी भी पहुंच जाता था और दुकान उसे अलग करने को सोच रही थी कि उसे अलग कर दिया जाए। लेकिन अचानक एक दिन दुकान का मालिक हैरान हुआ कि वह अच्छे कपड़े पहन कर, नहा कर, बाल-वाल कटा कर, दाढ़ी-वाढ़ी साफ करके, इत्र-वित्र लगा कर हाजिर हो गया। उसके मालिक ने पूछाः चमत्कार! हम तो विश्वास ही नहीं कर सकते कि तुम और स्नान करोगे, तुम कभी बाल कटा लोगे और कपड़े धुला सकोगे, तुम्हें हो क्या गया है? तो उसने कहा कि मत पूछिए, एक लड़की मेरी जिंदगी में आ गई है।
आदमी की जो सामान्य दुनिया है, उसमें प्रेम एक तत्व है कि उसे व्यवस्था देता है। हमने इतने अच्छे कपड़े ईजाद किए वे किसी को अच्छे लगे हैं इसलिए ईजाद किए हैं। हमने अच्छे मकान बनाए, उसमें जिसको हम प्रेम करते हैं, इसलिए बनाया है। हमने सुगंधें ईजाद कीं, स्नान ईजाद किया, सब ईजाद किया। इसलिए अगर एक संन्यासी नहाना बंद कर देता है तो बहुत आश्चर्य की बात नहीं है। वह भी किसी के लिए नहाता है। एक संन्यासी अगर कुरूपता में जीने लगता है तो बहुत स्वाभाविक है, उसे अब सुंदर होने का प्रयोजन भी क्या है?
हिंदुस्तान के युवक, उस प्रेम का जो कि युवक के लिए सबसे बड़ा सपना है, वह भी नहीं है। वह भी उसका बाप तय कर रहा है। वह भी जन्म-कुंडली मिलाई जा रही है। तो ठीक था, दस साल के लड़के की आप जन्म-कुंडली मिला लेते तो उसको पता नहीं था कि आप क्या कर रहे थे? पच्चीस साल के लड़के की जन्म-कुंडली मिला रहे हैं। उसे मुश्किल में डाल रहे हैं। तुम अपने खिलाफ उसको खड़ा कर रहे हो और उसकी जिंदगी में जाल बुन रहे हो, जो उसको नुकसान पहुंचा देंगे और उसकी जिंदगी में सप्रेशन डाल रहे हो। न प्रेम है उसकी जिंदगी में, न धन है उसकी जिंदगी में।
मेरी समझ है कि अगर धन न हो, और प्रेम हो, तो भी आदमी जीता है, जी सकता है। लेकिन प्रेम भी नहीं है और धन है नहीं। कोई महत्वाकांक्षा पूरी होती दिखाई नहीं पड़ती। तो इधर हमें कुछ चीजों पर बुनियादी चोट करनी चाहिए। जैसे मेरा मानना है कि हिंदुस्तान में प्रेम विवाह के लिए हमें जगह बनानी चाहिए। साधारण अरेंज्ड मैरिज की व्यवस्था तोड़नी चाहिए। युवक को कहना चाहिए कि पाप है, गुनाह है कि तुम अरेंज्ड विवाह कर रहे हो। जिस युवती को तुमने प्रेम नहीं किया है, उसके साथ जिंदगी भर रहना, तुम अपनी जिंदगी और दूसरे आदमी की जिंदगी बिगाड़ने की तैयारी कर रहे हो।
हमारा जो बाल-विवाह था उसमें सुविधा थी। सुविधा इसलिए थी कि पत्नी भी उसी ढंग की मिलती थी उस विवाह में जैसे बहन मिलती है, मां मिलती है। तो उसे चुनाव की कोई बात न थी। उसमें पति और पत्नी एक साथ बड़े होते थे। जब वे होश में आते थे, तो वे पाते थे कि पत्नी भी मिली है, मां भी मिली है, बहन भी मिली है। जैसे हम मां का कोई चुनाव नहीं करते और बाद में उसके लिए पीड़ित भी नहीं होते कि हमें दूसरी मां क्यों नहीं मिली। उसी तरह हमें दूसरी पत्नी क्यों न मिली, यह भी पीड़ा नहीं होती थी, क्योंकि पत्नी हमारे होश के पहले मिली हुई है। लेकिन अब यह संभव नहीं रहा है। अब होश आ गया है और पत्नी दी जा रही है और हमने इतनी महत्वाकांक्षा जगा दी है और उनको पूरा करने का हमारे पास कोई उपाय नहीं है।
तो हम उन महत्वाकांक्षाओं को जगाएं जो कि हम पूरी कर सकते हैं। जैसे मेरी समझ यही है कि आजादी के बाद हिंदुस्तान में सिर्फ राजनीति एकमात्र महत्वाकांक्षा का द्वार रह गई है। इस एक द्वार से कितने लोग निकल सकेंगे। पचास करोड़ का मुल्क है, तो करोड़ मनुष्य तो नहीं हो सकते। हालांकि कोशिश हमारी यही है और कुछ हैरानी न होगी कि भारत ऐसा इंतजाम कर ले कि पचास करोड़ मनुष्य हों। यह अगर ठीक से न हो सकें, तो रोटेशन में हो सके, इसलिए रोटेशन चल रहा है। यह हर पंद्रह दिन में मनःस्थिति बदलनी चाहिए क्योंकि रोटेशन जितना होगा, उतना ही मनुष्य होने का सुख भी नहीं रहेगा।
यह जो एक ही द्वार रहा अगर हमारे सामने, तो हमारा युवक सृजनात्मक नहीं हो सकता। तो मेरी अपनी समझ है कि साहित्य है, कला है, संगीत है, इन सबके सम्मानित द्वार हमें खोलने चाहिए। अब मेरी समझ में ऐसा आता है कि रूस में पिछले तीस-चालीस साल में, पचास साल में अगर विद्रोह का स्वर पैदा नहीं हो सका जो कि स्टैलिन जैसी हुकूमत में अनिवार्य हो गया होता, तो इसका एकमात्र कारण है कि रूस ने अपने साहित्यकार को इतना सम्मान दिया है जितना कि दुनिया में कहीं भी नहीं दिया है। और सारी क्रांतियां साहित्यकार से शुरू होती हैं। सारा उपद्रव उससे आता है। क्योंकि वे विचारते हैं, वे उपद्रव पैदा करते हैं। असल में जो विचार है, वह विद्रोह है।
जो कौम अपने साहित्यकार को तृप्त कर देती है उस कौम में बगावतें बहुत मुश्किल हो जाती हैं। हिंदुस्तान में पिछले पांच हजार साल तक नहीं हुई, क्योंकि हमने ब्राह्मण को तृप्त किया हुआ है। और शूद्र बगावतें नहीं करते हैं। और न कोई क्षत्रिय बगावतें करते हैं। क्षत्रिय लड़ते हैं, क्रांतियां नहीं करते हैं। क्रांतियां ब्राह्मण करवाते हैं, करते नहीं हैं। लड़ेगा क्षत्रिय, लड़ेगा शूद्र, लड़ेगा वैश्य लेकिन क्रांति का स्वर ब्राह्मण पैदा करेगा।
हिंदुस्तान में बड़ी तरकीब की कीमिया थी। उसकी कीमिया यह थी कि ताकत थी क्षत्रिय के हाथ में, आदर था ब्राह्मण के हाथ में। हमने एक डिवीजन आॅफ रिस्पेक्ट, आदर का एक बहुत गहरा विभाजन किया था। ताकत दे दी थी क्षत्रिय के हाथ में, वह ताकत से तृप्त था। उसके पास शक्ति थी, लेकिन सिर उसका रखवा दिया था ब्राह्मण के पैरों में। उस ब्राह्मण को राजा के महल में नहीं जाना पड़ता था। जाना पड़ता था राजा को ब्राह्मण के झोपड़े में। ब्राह्मण अपने झोपड़े में भी आनंदित था। उसका झोपड़ा महल से ऊपर था, नीचे नहीं था। ब्राह्मणों की जो अकड़ थी, वह किसी बादशाह की भी नहीं थी। वह सड़क पर जिस शान से चलता था, सिकंदर भी नहीं चलता था। हालांकि उसको कुछ भी नहीं था। ब्राह्मण दीन था, दरिद्र था। न पैसा था, न खाना था, न मकान था, लेकिन कुछ और तृप्ति थी, जो इससे भी गहरी थी और इसके लिए वह राजी था।
तो हिंदुस्तान को अपने अब विभाजन करने पड़े सम्मान में। राजनीतिज्ञ अकेला अगर सम्मान का हकदार है, तो हिंदुस्तान में सृजन नहीं होने वाला है। तब हिंदुस्तान में नक्सलाइट पैदा होंगे, हजार तरह के नक्सलाइट पैदा होंगे। यह हिंदुस्तान का ब्राह्मण है, जो दिक्कत डालेगा। और आज ब्राह्मण युनिवर्सिटी में है, स्वभावतः। वहां सब ब्राह्मण पैदा हो रहे हैं और एक-एक युनिवर्सिटी में बीस-बीस हजार लड़के इकट्ठे हो गए हैं। दुनिया में इतने एक साथ कभी भी नहीं इकट्ठे हुए। पांच ब्राह्मणों को इकट्ठा करना मुश्किल था जो कि सदा के उपद्रवी हैं। तो जहां बीस हजार बुद्धिशाली लोग इकट्ठे हो जाएं, वहां से उपद्रव के सूत्र पैदा होने शुरू हो जाएंगे और उनकी कोई आकांक्षा की तृप्ति नहीं होने वाली है।
ऐसा मुझे लगता है कि हम अगर साहित्य को, संगीत को, कला को, चित्रकला को, मूर्तिकला को, इनको हम इतना सम्मान दें कि राजनीतिज्ञ नंबर दो हो जाएं, नंबर एक नहीं। राजनीतिज्ञ को नंबर दो होने में तृप्त होना चाहिए, क्योंकि उसके पास नंबर एक की ताकत है। नंबर दो होने में उसे परेशान नहीं होना चाहिए क्योंकि है वह नंबर एक। ताकत उसके पास नंबर एक की है, इसलिए उसे नंबर दो का नंबर लगा कर लेने में हर्ज नहीं होना चाहिए, दिक्कत नहीं होना चाहिए। उसके नंबर दो में ही खड़े होने की सुविधा है। नंबर एक की ताकत है उसके पास। वह चाहे तो सभी साहित्यकारों की गर्दन कटवा दे और वह चाहे तो सभी चित्रकारों को जेल में डाल दे, और वह चाहे तो सबको नुकसान पहुंचा दे। ताकत उसके पास नंबर एक है। इसलिए नंबर एक के आदमी को नंबर एक का तमगा नहीं चाहिए। नंबर एक का तमगा उसको दे दो जिसके पास नंबर एक की ताकत नहीं है। तो इस तरह हम तृप्ति को विभाजित करते हैं। और यह तृप्ति जितने बड़े पैमाने पर विभाजित होगी, उतना फ्रस्ट्रेशन कम होगा, उतनी सक्रियता बढ़ जाएगी।
और जैसा आपने कहा, यह जो हमारा युवक है उसकी अगर हम सिर्फ बुद्धि को ही विकास दे रहे हैं, तो हम बड़े गहरे खड्डे को अपने हाथ से खोद रहे हैं, जिसमें मुल्क बुरी तरह गिरेगा। क्योंकि अकेली बुद्धि जो है वह बहुत महंगी चीज है। उसके साथ हृदय का साथ चाहिए, नहीं तो बुद्धि खतरनाक हो जाती है। क्योंकि बुद्धि के पास कोई दया और ममता नहीं है। बुद्धि बहुत क्रूर है। इसलिए ब्राह्मण जितना क्रूर हो सकता है, उतना क्षत्रिय नहीं हो सकता है। जो उसकी नजर में जितनी तलवार होती है, उतनी क्षत्रिय की नजर में नहीं होती है। क्षत्रिय के हाथ में होती है, लेकिन ब्राह्मण की नजर में होती है। ब्राह्मण की गर्दन तलवार होती है। ब्राह्मण जितना क्रूर होता है उतना कोई क्षत्रिय क्रूर नहीं होता है।
अकेली बुद्धि जो है, वह बड़ी कठोर हो सकती है, अब उसे सोचना विचारना नहीं है। इसलिए मेरा यह मानना है कि स्टैलिन इतना कठोर हो सका, क्योंकि वह ब्राह्मण है। उसकी सब भाषा ब्राह्मण की है। वह सिर्फ ‘कोट’ करता है। उसको लेनिन और माक्र्स की बातें तोते की तरह कंठस्थ हैं। वह जो भी बोल रहा है, वह हमेशा थ्योरिटिकल है। वह बहुत कठोर हो सका। इतना कठोर लेनिन शायद न हो सकता था और कोई नहीं जानता कि ट्राटस्की उससे भी ज्यादा कठोर हो सकता क्योंकि जो और भी बड़ा ब्राह्मण था। यह जो सिर्फ बुद्धि है, यह बहुत कठोर हो सकती है। इसके पास हृदय नहीं है।
तो हम हृदय को कैसे विकसित करें, इसकी हमें चिंता लेनी पड़ेगी। और हृदय के विकास के लिए भी वैसे ही नियम हैं, जैसे बुद्धि के विकास के लिए हैं। लेकिन हम अपने युवक को हृदय को विकसित करने के लिए कुछ भी नहीं कर पाते हैं। न हम उसे बागवानी सिखा रहे हैं, न हम उसे फूलों का प्रेम सिखा रहे हैं, न हम उसे वीणा का संगीत सिखा रहे हैं, जहां से कि हृदय जन्मता है। न हम उसे प्रेम करने दे रहे हैं, जहां से हृदय का द्वार खुलता है। हम उसके हृदय को सब भांति बंद कर देते हैं। हृदय उसके पास रह जाता है तीन-चार साल के बच्चे का, बुद्धि हो जाती है पच्चीस साल के जवान की। दोनों के बीच कोई तालमेल नहीं रह जाता है। हृदय पड़ा रह जाता है, बुद्धि उसको दिन-रात कठोरता में, चालाकी में, कनिंगनेस में ले जाती है। अकेली बुद्धि चालाक हो जाती है।
तीसरी बातः जैसा आपने कहा, वह यह ध्यान देने की है कि हमें हमारे युवक के शरीर पर बहुत श्रम करने की जरूरत है। हमारे युवक के पास शरीर नहीं है एक अर्थ में। शरीर पर हमारा कोई खयाल नहीं है। शरीर का खयाल न होने का भी कारण है क्योंकि हम शरीर विरोधी कौम हैं।
हिंदुस्तान से काउंट कैसरलिंग वापस लौटा तो उसने अपनी किताब में लिखा है कि हिंदुस्तान में जाकर मुझे पता चला कि बीमार होना अध्यात्म है। ठीक पता चला उसको। अगर हमारा साधु और संन्यासी पीले चेहरे का न दिखाई पड़े, तो हमें शक होगा। इतना खून साधु-संन्यासी में हम देख कर बरदाश्त नहीं करते। वह पीले चेहरे का होना चाहिए, तभी हमें त्यागी मालूम पड़ेगा। वह हरा पत्ता नहीं, पीला पत्ता होना चाहिए, मरता हुआ पत्ता होना चाहिए। हिंदुस्तान हजार साल से शरीर का दुश्मन है। इसे आप देखें, जिस कौम में शरीर का प्रेम…जैसे यूनान ने पैदा किया।
अब यूनान की मूर्तियों को देख कर तबीयत खुश हो जाती है क्योंकि वे शरीर को इंच-इंच प्रेम करते थे और शरीर के एक-एक अनुपात को प्रेम करते थे। एक किसी आदमी का शरीर जरा भी अनुपात के बाहर गया, तो सारे गांव की नजर उस पर चली जाती कि अनुपात के बाहर चला गया। यानी वह आदमी एक अर्थ में अप्रतिष्ठित हो जाता। तो बुढ़ापे तक आदमी फिकर करता कि उसका शरीर का सौष्ठव न खो जाए, उसके शरीर का गठन न खो जाए, उसके शरीर का अनुपात न खो जाए, उसके शरीर का सौंदर्य न खो जाए। लोग एक-दूसरे के शरीर की वैसी ही प्रशंसा करते थे, जैसे एक-दूसरे की बुद्धि की करते हैं।
अगर आदमी से किसी से हम कहें कि आप बहुत बुद्धिमान हो, तो इसमें कोई कठिनाई नहीं होती, लेकिन किसी को हम कहें कि बहुत सुंदर हो, तो जरा बेचैनी सी होती है कि ऐसा क्यों कहा। पुरुष से तो अलग है बात, अगर हम किसी स्त्री से कहें कि बहुत सुंदर हो, तो वह चैंक कर खड़ी हो जाती है। हैरानी की बात है। एक स्त्री सुंदर है, तो किसी को उससे जरूर कहना चाहिए और उसमें उसके पति का ठेका नहीं है कि वही उसको कहे। जिसको भी दिखाई पड़ती है, उसका भी हक है कि वह कहे कि तुम सुंदर हो। और यह कहना उसे सुंदर बनाने में सहयोगी होगा और यह चारों तरफ की नजर उसके सौंदर्य को बताने में सहयोगी है।
इसलिए हमारे मुल्क में क्या होता है। जब तक शादी न हो, लड़की सुंदर होती है। शादी के बाद कुरूप होना शुरू हो जाती है। क्योंकि अब सौंदर्य की कोई जरूरत नहीं रहती, इसलिए शादी के बाद मुश्किल से देखते हैं कि कोई स्त्री सुंदर रह जाती है। पति को भी सुंदर बताने का कोई कारण नहीं है, उनका कांट्रेक्ट हो चुका। और किसी को सुंदर बनाने की कोई वजह नहीं है क्योंकि कोई और सुंदर कहे, तो झगड़ा हो सकता है। इसलिए मैं देखता हूं कि स्त्रियां, पत्नियां पतियों के सामने भूत-प्रेत बनी रहती हैं। कोई बोध नहीं है क्योंकि उससे कोई मतलब नहीं ह,ै लेकिन कैसे भी बरदाश्त करेगा।
और पुरुष को तो कोई सुंदर होने की जरूरत नहीं है। यानी पुरुष को तो कोई सौंदर्य का बोध ही नहीं है कि पुरुष को भी सुंदर होना चाहिए। क्योंकि स्त्री उसका धन पूछती है, उसकी पदवी पूछती है। उसके सौंदर्य को कभी पूछती है? कोई स्त्री फिकर नहीं करती कि उसका पति सुंदर है। वह इसकी फिकर करती है कि उसकी जेब गर्म है। उसे कोई मतलब नहीं है इस बात से। उसका एक बड़ा मकान है, बड़ी कार है, चलेगा। वह आदमी है या नहीं, इससे कोई मतलब नहीं है। तो स्त्रियों और पुरुष के शरीर को नहीं पूछते हैं इस मुल्क में, और अगर पूछे तो पुरुष भी बेचैन होता है क्योंकि हम शरीरवादी नहीं हैं।
हमको खयाल है, हम अध्यात्मवादी हैं। और अध्यात्म में कोई सौंदर्य नहीं होता। अध्यात्म में निराशा…उसका कोई आकार नहीं होता, उसका कोई अनुपात नहीं होता। उसमें कोई मोटी और पतली आत्मा नहीं होती। उसमें कोई स्वस्थ्य और बीमार आत्मा नहीं होती। फिर कोई चिंता की बात नहीं, आत्मा सबके पास है। तो सौंदर्य का बोध न होने से शरीर के संबंध में हमने बड़ी कठिनाई पैदा कर ली है। हमें यह बोध फिर से पैदा करना पड़ेगा। हमें मूर्तियां गढ़नी पड़ें, हमें इसकी प्रतियोगिता निर्मित करनी पड़े, हमें शरीर को फिर से सोचना शुरू करना पड़े कि शरीर का भी अपना मूल्य है। और जब शरीर पैदा हो, तो उसे किसी की बपौती नहीं बनानी चाहिए।
अभी एक मित्र ने मुझे आकर कहा कि बहुत घबड़ा गए। एक स्त्री ने आकर एकदम से उनके गालों पर हाथ रख दिया और कहा कि इतने अच्छे फीचर्स मैंने कभी देखे नहीं। एक अपरिचित स्त्री थी, और उसने कहाः क्या मैं आपके गालों पर हाथ फेर सकती हूं? अपरिचित स्त्री, अपरिचित हाथ होता है तो घबड़ाहट होती है, अपरिचित हाथ था, वह बहुत घबड़ा गया। उसने कहाः यह क्या कर रही हो। लेकिन उसने तो आंख बंद करके उनके चेहरे पर हाथ फेर दिए और अपने रास्ते पर चली गई, उनको धन्यवाद दे गई कि मैंने इतना सुंदर चेहरा कभी नहीं देखा, इसलिए मैं हाथ फेरना चाहती हूं।
अब मैं मानूंगा कि वह एक सुसंस्कृत स्त्री का लक्षण होगा। यह आदमी असंस्कृत सिद्ध हुआ उस स्त्री के सामने। वह कल्चर्ड नहीं है। वह उसको धन्यवाद भी नहीं दे सका कि उसे धन्यवाद देता। बल्कि बीच में अनुभव किया हो, कि यह शक्ल थोड़ी खराब होती तो अच्छा था। तो जरूर कहीं न कहीं इसके अंतःकरण में लगा हुआ है कि यह हमारे युवक और युवतियां एक अर्थ में हमारी किसी भी पीढ़ी से ज्यादा सुंदर संभव हों, इसकी संभावना है।
अब जैसे, आज भी हिंदुस्तान में शरीर सौष्ठव की, सौंदर्य की न कोई प्रतियोगिताएं हैं बड़ी। अब इधर देखता हूं कि हिंदुस्तान की जो भी प्रतियोगिता होती है स्त्रियों की शरीर सौंदर्य की, उसमें अक्सर साधारण औरतें दिखाई पड़ती हैं। और कुछ ही स्त्रियां भाग लेती हैं, जिनको कि हम बाजारू स्त्री कहें। इसमें अच्छे घरों की कोई स्त्री भाग नहीं लेती हैं। हिंदुस्तान में बहुत सुंदर स्त्रियां हैं। लेकिन हिंदुस्तान से जो स्त्री हिंदुस्तान का प्रतिनिधित्व करने जाती है अमरीका, वह बहुत साधारण होती है। वह कभी विजेता बन कर नहीं लौटती है विश्व सौंदर्य में। वह नहीं बन सकती है। क्योंकि अमरीका में अच्छे घर की लड़की आती है, यहां से बाजारू लड़की जाती है। उसमें प्रतियोगिता में कोई जोड़ नहीं बैठता।
हममें बोध जो है, उस बोध को ऊपर जगह…अगर हम जगह बदल सकें, वह बिलकुल तोड़ा जा सकता है, बदला जा सकता है, इस खयाल की जरूरत है। तो आप जो करना चाह रहे हैं, वह बिलकुल ही कर लें। मेरा जो सहयोग चाहिए मैं सहयोग दूंगा। और एक व्यापक अभियान चलाएं और उस अभियान को बहुत से पहलुओं से लें और सारे पहलुओं पर चिंतन चलाएं और नई-नई दृष्टि और नये से नया खयाल पैदा करें। काम तो बहुत बड़ा हो सकता है। और अब करना जरूरी है। अगर हम दस-पंद्रह साल, बीस साल में नहीं कर पाए तो हमारा इस पृथ्वी पर अस्तित्व बिलकुल अनस्तित्व जैसा हो जाएगा। हम आदिवासी हालत में हो जाएंगे।
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