ओशो का उत्तराधिकार
ओशो का उत्तराधिकार |
ओशो के देहमुक्त होने से पूर्व, कुछ लोग अक्सर यह चर्चा करते थे कि ओशो का उत्तराधिकारी कौन होगा--ये वो लोग चर्च करते थे, जिनकी समझ केवल एक सांसारिक तल की थी, क्योंकि जिसे हम उत्तराधिकार समझते हैं, वो तो माता-पिता से मिलता है, किसी व्यवसायी अथवा उद्योगपति से मिलता है, या कोई राजा अथवा राजनेता अपनी राजनैतिक पार्टी के लिए चुनता है। लेकिन इन अर्थों में ओशो न माता-पिता हैं, न कोई व्यवसायी या राजनेता। ओशो एक बुद्धपुरुष हैं, और उन्होंने अपनी देह में रहते हुए इस बात की बहुत बार घोषणा कर दी कि मेरा कोई उत्तराधिकारी नहीं होगा, और कोई होगा तो सभी मेरे सन्यासी ही मेरे उत्तराधिकारी होंगे। यह उत्तराधिकार सर्वथा भिन्न प्रकार का है, जैसा कि सदा से बुद्धपुरुषों का होता रहा है.
इस उत्तराधिकार को लेकर कोई किसी प्रकार की लड़ाई नहीं हो सकती है. जब यह सभी का है या किसी का भी नहीं तो फिर लड़ाई कैसी? लड़ाई का मूल आधार है एकाधिकार, जो ओशो ने किसी को भी नहीं दिया, लेकिन पुणे में, अपने आश्रम में जहाँ ओशो १९ जनवरी १९९० को देहमुक्त हुए, वहां ओशो के कुछ पाश्चात्य मित्रों ने ओशो के साहित्य--प्रवचनों की पुस्तकें, ऑडियो-वीडियो, उनके हस्ताक्षरों, सभी कुछ पर--अपना एकाधिकार जमाने के इरादे से, गुपचुप ढंग से ओशो के नाम को और उनकी बौद्धिक सम्पदा को विदेश में ट्रेडमार्क करा लिया, और भारत में ओशो के हज़ारों शिष्यों को इसकी खबर बहुत बाद में हुई, जब वे इसके मालिक बन चुके थे.
यह पश्चिम की जीवन शैली है कि वे सब चीज़ों को कॉपीराइट और ट्रेडमार्क के घेरे में बाँध कर उसका व्यवसाय करते हैं, प्रारम्भ में उसके लिए उनकी और से कुछ थोड़ा बहुत विनियोजन, इन्वेस्टमेंट ज़रूर होती है, फिर उनके लिए अपार धनराशि प्राप्त करने के द्वार खुल जाते हैं। जुरिच स्विट्ज़रलैंड में रजिस्टर्ड ओशो इंटरनेशनल फाउंडेशन, जिसमें चार पाश्चात्य जन हैं, और एक भारतीय है, इस दिशा में पूरी तरह संलग्न हैं. ओशो को ब्रांड बना कर अपना व्यवसाय कर रहे हैं. और ओशो के लाखों उत्तराधिकारी सामान्य संन्यासियों को इसकी कोई जानकारी नहीं मिलती कि वे पांच जन कितना कमाते हैं और कहाँ खर्च करते हैं. कहने को ओशो इंटरनेशनल फाउंडेशन विदेश में एक चैरिटेबल ट्रस्ट के रूप में लिए रजिस्टर्ड हैं, और पूना में आश्रम, जो ओशो का हेडक्वार्टर रहा है, वो अब उसका एक फ्रैंचाइज़ मात्र रह गया है, और वे पांच लोग स्विट्ज़रलैंड वाले ट्रस्ट के सदस्य अपने किसी अज्ञात ठिकाने में हेडक्वार्टर होने का मजा ले रहे हैं.
ओशो ने कहा था मेरा कोई उत्तारधिकारी नहीं होगा, या सभी होंगे, लेकिन ये पांच लोग भारत के बाहर स्वघोषित एकाधिकारी और उत्तराधिकारी बन गए. इतना ही नहीं उन्होंने ओशो के हस्ताक्षरों के साथ हेरा-फेरी करके अपने दो सदस्यों के नाम --स्वामी जयेश और स्वामी अमृतो के नाम --ओशो की फ़र्ज़ी वसीयत को भी बना लिया। ओशो के एक अमेरिकन वकील स्वामी प्रेम नीरेन, यूं तो बहुत अच्छे व्यक्ति हैं, लेकिन इन दो दुष्टों के झांसे में आ गए और फ़र्ज़ी वसीयत के साक्षी बन गए.
ओशो का समूचे साहित्य का भारत के बाहर व्यवसाय करने के अतिरिक्त, उनकी निगाह काफी समय से पुणे आश्रम की अचल संपत्ति को बेच कर, उस धन को विदेश की दिशा में डाइवर्ट करने की रही है. इसलिए उन्होंने आश्रम की प्रॉपर्टी का एक बहुत खूबसूरत हिस्सा, जहाँ पर ओशो मैडिटेशन रिसोर्ट का एक विशाल भव्य स्विमिंग पूल है, (प्लाट नंबर १५-१६ पर स्थित इस प्रॉपर्टी का नाम बाशो है) उसको बजाज परिवार को बेचकर करोड़ों रुपए प्राप्त करने की गुपचुप योजना बनायी और डील को फाइनल भी कर लिया। लेकिन ये सब कार्य बिना चैरिटी कमिश्नर की इजाजत के पूर्ण नहीं होता है. पुणे स्थित ओशो फ्रेंड्स फाउंडेशन ने समय रहते इसको चुनौती दी और ओशो फ्रेंड्स फाउंडेशन के साथ विश्व भर के और हज़ारों ओशो प्रेमियों ने प्रधान मंत्री, महाराष्ट्र के मुख्य मंत्री के नाम, गवर्नर के नाम तथा मुंबई के चैरिटी कमिश्नर को अपने विरोध पत्र भेजे हैं। इसकी अगली तारीख निकट आ गयी है--१४ जून। देखें, इसका क्या निर्णय होता है. हम उम्मीद करते हैं कि चैरिटी कमिश्नर ओशो के लाखों प्रेमियों की भावना का सम्मान करते हुए इस प्रोपर्टी की बिक्री पर रोक लगाएंगे।
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