आत्मघाती पलायनवाद - पहला प्रवचन - नये भारत की खोज - ओशो

 

नये भारत की खोज-(पहला)

पहला प्रवचन (४ मई १९६९ पूना, प्रातः)

आत्मघाती पलायनवाद

Naye Bharat Ki Khoj Osho
नये भारत की खोज - ओशो


मेरे प्रिय आत्मन्!

एक अंधेरी रात में आकाश तारों से भरा था और एक ज्योतिषी आकाश की तरफ आंखें उठा कर तारों का अध्ययन कर रहा था। वह रास्ते पर चल भी रहा था और तारों का अध्ययन भी कर रहा था। रास्ता कब भटक गया, उसे पता नहीं, क्योंकि जिसकी आंख आकाश पर लगी हो, उसे जमीन के रास्तों के भटक जाने का पता नहीं चलता। पैर तो जमीन पर चलते हैं, और अगर आंखें आकाश को देखती हों तो पैर कहां चले जाएंगे, इसे पहले से निश्चित नहीं कहा जा सकता। वह रास्ते से भटक गया और रास्ते के किनारे एक कुएं में गिर पड़ा। जब कुएं में गिरा, तब उसे पता चला। आंखें तारे देखती रहीं और पैर कुएं में चले गए। वह बहुत चिल्लाया, अंधेरी रात थी, गांव दूर था। पास के एक खेत से एक बूढ़ी औरत ने आकर बामुश्किल उसे कुएं के बाहर निकाला। उस ज्योतिषी ने उस बुढ़िया के पैर छुए और कहा, मां, तूने मेरा जीवन बचाया, शायद तुझे पता नहीं मैं कौन हूं। मैं एक बहुत बड़ा ज्योतिषी हूं। और अगर तुझे आकाश के तारों के संबंध में कुछ भी समझना हो तो तू मेरे पास आ जाना। सारी दुनिया से बड़े-बड़े ज्योतिषी मेरे पास सीखने आते हैं। उनसे मैं बहुत रुपया फीस में लेता हूं, तुझे मैं मुफ्त में बता सकूंगा।

उस बूढ़ी औरत ने कहा, बेटे, मैं कभी तुम्हारे पास नहीं आऊंगी। क्योंकि जिसे अभी जमीन के गङ्ढे नहीं दिखाई पड़ते, उसके आकाश के तारों के ज्ञान का कोई भरोसा नहीं है।

भारत की समस्याएं तो पृथ्वी की हैं और भारत की आंखें सदा से आकाश पर लगी रही हैं। भारत तारों का अध्ययन कर रहा है और जमीन पर उसके सारे रास्ते भटक गए हैं। और उस ज्योतिषी को तो पता भी चल गया कि कुएं में गिर पड़ा, भारत को अभी भी पता नहीं चल सका है कि हम हजारों साल से कुएं में ही पड़े हैं। लेकिन आंखें तो कुएं में से भी आकाश को देखती रह सकती हैं। आंखें आकाश के तारों की ही बात सोचती रहती हैं और जीवन हमारा कुएं में पड़ गया है। बल्कि कुआं हमें दिखाई न पड़े, इसलिए हम कुएं की तरफ देखते ही नहीं हैं, हम आकाश की तरफ ही देखते रहते हैं। कुएं की तकलीफ दिखाई न पड़े, इसलिए आकाश की तरफ देखते रहते हैं। और धीरे-धीरे हमने यह भूलने की कोशिश की है कि कुआं है भी!

आचार्य शंकर जैसे लोगों ने यह समझाने की कोशिश की है कि यह सब संसार माया है। ये सब गङ्ढे माया हैं, ये सारी समस्याएं माया हैं। जिन लोगों ने इस देश के जीवन की सारी स्थिति को माया कहा है, उन्होंने समस्या को हल करने में कोई भी साथ नहीं दिया, समस्या को भुलाने में सहयोग दिया है। जीवन की समस्याएं बहुत वास्तविक हैं। आकाश के तारों से कम वास्तविक नहीं हैं जीवन के रास्ते–कुएं और गङ्ढे। और आंखों से कम वास्तविक नहीं हैं–पैर। आंखें तो सपना भी देखती हैं और झूठ में उतर जाती हैं। पैर कभी सपना नहीं देखते और जब भी चलते हैं ठोस जमीन पर ही चलते हैं।

इस छोटी सी कहानी से मैं अपनी इन तीन दिनों की बात शुरू करना चाहता हूं। क्योंकि मेरे देखे समस्याएं संसार की हैं और भारत की जो प्रतिभा है, भारत की जो बुद्धिमत्ता है, वह मोक्ष की तरफ झुकी हुई है। समस्याएं शरीर की हैं और भारत की जो प्रतिभा है, वह आत्मा से नीचे बात नहीं करती है। समस्याएं जीवन की हैं और भारत की प्रतिभा कहती है कि जीवन माया है, इल्यूजन है। समस्याएं यहां की हैं और भारत की प्रतिभा वहां दूर आकाश की तरफ देखती रहती है। इस भांति हमारी समस्याएं भी इकट्ठी होती गई हैं। हमने कोई समस्या हल नहीं की। और हमारी प्रतिभा भी विकसित होती गई है। ये दोनों अदभुत घटनाएं एक साथ घट गई हैं। प्रतिभा भी विकसित हुई है, हमने बुद्ध और महावीर जैसे प्रतिभाशाली लोग पैदा किए हैं। और भारत जैसा गरीब, भुखमरा और दीन-हीन देश भी पैदा किया है।

एक तरफ प्रतिभा भी पैदा होती चली गई, दूसरी तरफ हमारी समस्याएं भी इकट्ठी होती चली गईं। हमारी प्रतिभा और हमारी समस्याओं में कोई तालमेल भी है। हमारी जिंदगी कहीं और है और हमारा मन कहीं और है। हमारा बुद्धिमान आदमी बातें कुछ और करता है, और जीता कहीं और है। हमारे जीने में और हमारे विचार में एक बुनियाद द्वैत, एक विरोध पैदा हो गया है। हमारा विचार एक तरफ चलता है, हमारा जीवन दूसरी तरफ चलता है। हमारा विचार और हमारा जीवन एक-दूसरे की तरफ पीठ किए हुए हैं। इसलिए विचार भी विकसित हो जाता है और जीवन अविकसित रह जाता है।

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भारत की समस्याओं में पहली समस्या यही है कि हमारे विचार और हमारे जीवन में कोई तालमेल नहीं है। हमारा जीवन वैसा ही जीवन है, जैसा पृथ्वी पर किसी और का! लेकिन हमारे विचार जीवन के यथार्थ को छूने वाले नहीं हैं। और हम निरंतर उन लोगों से ही पूछते हैं समाधान, जो समस्याओं को ही इनकार करते हैं।

मैंने सुना है, न्यूयार्क में एक घुड़दौड़, एक रेस हो रही थी। पांच मित्र संयुक्त रूप से उस घुड़दौड़ में दांव लगाने के लिए गए हुए थे। उन पांचों मित्रों ने बैठ कर तय किया कि किस घोड़े पर दांव लगाया जाए? गागरिन नाम के घोड़े पर दांव लगाना है, यह उन्होंने तय किया, और अपने एक साथी को, बर्मन नाम के एक युवक को कहा कि वह जाकर पांचों की तरफ से दांव लगा आए। वह युवक गया। वह दांव लगा कर वापस लौटा। लेकिन उसने कहा कि मैं दांव तो गागरिन नाम के घोड़े पर लगाने गया था, लेकिन वहां मुझे एक आदमी मिल गया बंस्कीन और उसने कहा, पागल हुए हो! गागरिन आने वाला ही नहीं है! तू विक्टोरिया नाम की घोड़ी पर दांव लगा दे। तो मैं विक्टोरिया नाम की घोड़ी पर दांव लगा आया हूं। थोड़ी देर में पता चला–गागरिन आ गया नंबर एक और विक्टोरिया नाम की घोड़ी का कोई पता नहीं चला। पांचों मित्रों ने सिर ठोंक लिए।

फिर उन्होंने दूसरे दांव पर तय किया। अपोलो नाम के घोड़े पर लगाने के लिए फिर भेजा मित्र को। वह वापस लौटा और उसने कहा, मैं गया, बंस्कीन मुझे फिर दरवाजे पर मिल गया आफिस के और उसने कहा, पागल हो गए हो! अपोलो कभी आया ही नहीं, कभी आ भी नहीं सकता। ज्योतिषियों का कहना हैं कि जैड नाम का घोड़ा आने वाला है, तुम उस पर दांव लगा दो। मैं जैड पर ही दांव लगा आया हूं। थोड़ी देर बाद खबर आई, अपोलो नंबर एक आ गया है, जैड का कोई पता ही नहीं है। पांचों मित्रों ने सिर पीट लिए।

फिर उन्होंने तीसरी बार दांव लगाने उसी मित्र को भेजा। उसने लौट कर फिर आकर बताया कि बंस्कीन मिल गया था और उसने बताया है कि यह घोड़ा तो आने वाला नहीं है, मैं दूसरे घोड़े पर लगा आया हूं। ऐसे चार दांव वे हार गए और उनके सारे पैसे खत्म हो गए। और चारों बार उन्होंने जिस घोड़े को सोचा था, वह घोड़ा आया। लेकिन उस पर तो दांव नहीं लगाया गया था। फिर उन पांचों के पास इतने ही पैसे बचे थे कि उन्होंने कहा, अब तो अच्छा यही है कि जाकर तुम कुछ काजू खरीद लाओ, हम काजू खा लें और घर चल पड़ें। उस मित्र को भेजा। वहां से वह मूंगफली खरीद कर वापस लौटता था। उन्होंने कहा, मूंगफली खरीद लाए? उसने कहा, बंस्कीन मैट अगेन, वह बंस्कीन फिर मिल गया, उसने कहा, काजू! पागल हो गए हो! काजू खाने से आदमी बीमार पड़ जाता है। और मूंगफली में वे सभी चीजें हैं जो काजू में होती हैं। मूंगफली सस्ती मिलती है। तो मैं मूंगफली खरीद लाया हूं।

लेकिन एक बड़े मजे की बात है, पांचों बार उसे एक ही आदमी मिल गया और पांचों बार वह उसी की बात मानता गया और हर बार हारता चला गया। और फिर उसी की बात मानता चला गया और फिर हारता चला गया।

हमें उस आदमी पर हंसी आती है कि पागल था वह! लेकिन अगर हम भारत की पूरी कथा उठा कर देखें तो हम हैरान होंगे! जिन लोगों की बात हम मानते जाते हैं और दांव लगाते जाते हैं, हर दांव हारते जाते हैं। फिर उन्हीं के पास पूछने जाते हैं, फिर दांव हार जाते हैं। यह हजारों साल से चल रहा है। भारत अब तक कोई दांव जीता नहीं है, और भारत कभी दांव जीतेगा भी नहीं। क्योंकि वह बंस्कीन फिर मिल जाता है उसे दरवाजे पर। जिनसे हम पूछते हैं जीवन की समस्याओं के हल, वे लोग गलत हैं, क्योंकि वे वे लोग हैं, जो कहते हैं जीवन असार है। और जिन लोगों ने यह मान रखा हो कि जीवन असार है, वे जीवन की समस्याओं के हल कैसे बता सकते हैं? जब जीवन असार है तो समस्याएं भी असार हो गईं। और असार समस्याओं के समाधान नहीं खोजने पड़ते हैं। उन समस्याओं के समाधान खोजने पड़ते हैं जो सार हों। और जब जीवन ही असार है तो इसकी कोई समस्या सार्थक नहीं है, सब व्यर्थ है। और भारत हजारों वर्ष से जीवन को माया कहने वाले लोग जीवन को व्यर्थ कहने वाले लोगों से, मोक्ष को सत्य कहने वाले लोग और पृथ्वी को असत्य कहने वाले लोगों से अपनी समस्याओं का समाधान मांग रहा है। हर बार दांव हार जाता है। और फिर हम उन्हीं के पास हाथ जोड़ कर खड़े हो जाते हैं समाधान मांगने के लिए। और कोई भी यह नहीं सोचता कि कहीं ऐसा तो नहीं है कि हमने गलत दरवाजे पर खटखटाना शुरू किया है?

मेरी अपनी दृष्टि में हमारी पहली समस्या यही है कि हम गलत जगह समाधान खोज रहे हैं। जो लोग जीवन को यथार्थ नहीं मानते हैं, उनसे जीवन की कोई समस्या का समाधान नहीं हो सकता है। जीवन की समस्याओं का समाधान वे लोग कर सकते हैं जो जीवन को यथार्थ मानते हैं, जो मानते हैं कि जीवन एक सत्य है। जब समस्या असत्य है तो समाधान की क्या जरूरत है?

एक आदमी को सपने में किसी ने गोली मार दी। वह आदमी जागा और वह आपसे पूछता है कि में अदालत में मुकदमा चलाऊं, सपने में एक आदमी ने मुझे गोली मार दी है? हम कहेंगे, तुम पागल हो, सपना झूठा है, और अदालत में मुकदमा चलाने की कोई भी जरूरत नहीं है। सपना ही झूठा है, तो सपने के भीतर जो गोली मारी गई है वह भी झूठी है, जिसने गोली मारी है वह भी झूठा है। वह सब झूठ है।

भारत ने अपने समस्याओं का समाधान नहीं खोजा है, समस्याओं को इनकार करने की व्यवस्था खोजी है। और जो समाज समस्याओं को इनकार कर देता है, वह कभी हल नहीं कर पाता। बल्कि यह भी हो सकता है कि शायद हम हल नहीं कर पाते हैं इसलिए हमने इनकार करने की व्यवस्था खोज ली है। शायद हम हल नहीं कर सकते हैं, नहीं कर पाते हैं, नहीं सोच पाते हैं, कैसे हल करें? तो हम कहते हैं, यह समस्या ही नहीं है।

शुतुरमुर्ग रेत में मुंह गड़ा कर खड़ा हो जाता है, अगर दुश्मन उस पर हमला करे। रेत में मुंह गड़ाने से दुश्मन दिखाई नहीं पड़ता, तो शुतुरमुर्ग सोचता है, जो दुश्मन दिखाई नहीं पड़ता, वह नहीं है। जो दिखाई नहीं पड़ता, वह हो कैसे सकता है? लेकिन शुतुरमुर्ग के सिर खपा लेने से, रेत में आंख बंद कर लेने से दुश्मन मिटता नहीं है। बल्कि शुतुरमुर्ग आंख बंद कर लेने से और कमजोर हो जाता है। खुली आंख में बच भी सकता था, भाग भी सकता था, लड़ भी सकता था। लेकिन बंद आंख, शुतुरमुर्ग क्या करेगा? दुश्मन के हाथ में और भी खिलवाड़ हो जाता है। लेकिन शुतुरमुर्ग का लॉजिक यह है, तर्क यह है कि जो नहीं दिखाई पड़ता, वह नहीं है। वह दुश्मन को, दुश्मन से पैदा हुई स्थिति को हल करने में नहीं लगता, दुश्मन को भूलने में लग जाता है। आंख बंद करके भूल जाता है कि दुश्मन है।

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भारत अपनी समस्याओं के प्रति एस्केपिस्ट है, पलायनवादी है। वह कहता है, समस्याएं हैं ही नहीं। संसार माया है। यह सब झूठ है, जो दिखाई पड़ रहा है। और सत्य? सत्य वह है, जो दिखाई नहीं पड़ रहा है। सत्य वह है, जो आकाश में है। सत्य वह है, जो मृत्यु के बाद है। सत्य परमात्मा है। और प्रकृति? प्रकृति बिलकुल असत्य है। जब कि सचाई उलटी है, प्रकृति परिपूर्ण सत्य है। और अगर परमात्मा भी सत्य है, तो वह प्रकृति की ही गहराइयों में खोजने से उपलब्ध होगा, प्रकृति के विरोध में खोजने से नहीं। अगर परमात्मा भी सत्य है तो वह इसी जीवन की गहराइयों में मौजूद होगा, इस जीवन की दुश्मनी में किसी आकाश में नहीं। अगर परमात्मा सत्य है तो वह भी मेरे भीतर सत्य होगा और आपके भीतर सत्य होगा; पत्थर में सत्य होगा, पौधे में सत्य होगा। उसका सत्य भी जीवन को इनकार करने में सिद्ध नहीं हो सकता। लेकिन हमने एक होशियारी, एक चालाकी की बात की है। और वह चालाकी की बात यह है कि जीवन के पूरे के पूरे रूप को हमने कह दिया, असत्य है, माया है, इल्यूजन है। और जब सारा जीवन एक सपना है, तो समस्याओं को हल करने की जरूरत क्या है? समस्याएं हैं ही नहीं। जो हल करता है, वह पागल है। तो हिंदुस्तान में वे लोग बुद्धिमान हैं, जो हल नहीं करते और भाग जाते हैं। और वे पागल हैं, जो जिंदगी में जूझते, हल करते हैं, वे नासमझ हैं, वे अज्ञानी हैं। ज्ञानी तो भाग जाता है।

हिंदुस्तान में ज्ञानी वह है, जो भाग जाता है और अज्ञानी वह है, जो जूझता है, लड़ता है, जिंदगी को बदलने की कोशिश करता है। अगर आप किसी बीमारी का इलाज कर रहे हैं तो पागल हैं, नासमझ हैं, अज्ञानी हैं। ज्ञानी तो कहता है, बीमारी है ही नहीं, क्योंकि शरीर ही असत्य है। अगर आप गरीबी को मिटाने की कोशिश कर रहे हैं तो आप अज्ञानी हैं। गरीबी है ही नहीं, आत्मा न गरीब होती है, न अमीर होती है। बाहर जो दिखाई पड़ रहा है, वह सब झूठ है, एक सपना है। न कोई अमीर है, न कोई गरीब है। वह भीतर जो आत्मा है, वह न अमीर है, न वह गरीब है। इसलिए हिंदुस्तान हजारों साल से गरीब है। और गरीब रहेगा, जब तक उसको बंस्कीन मिलता रहेगा। जब तक इन लोगों से वह जाकर पूछता रहेगा कि हम क्या समाधान करें? वे कह देंगे कि जिंदगी तो झूठ है। इसलिए हिंदुस्तान हजारों साल से गरीब रहने के बाद भी गरीबी को दूर नहीं कर पाया। और न ही दूर कर पाएगा। क्योंकि गरीबी को कौन दूर करेगा? बीमारी को कौन दूर करेगा? जिंदगी में इतने दुख हैं, इतना कलह है, इतनी कांफ्लिक्ट हैं, इतना संघर्ष है, इतनी कुरूपता है, सारा जीवन एक नर्क हो गई है। इस नर्क को कौन बदलेगा? इस नर्क को वे लोग ही बदल सकते हैं, जो इस नर्क को यथार्थ मानते हों। यथार्थ मानते हों, तो बदलने के रास्ते खोजे जा सकते हैं। और अगर यह यथार्थ ही नहीं है, तो बात समाप्त हो गई। फिर एक ही काम है, आंख बंद करके बैठ जाने का।

हिंदुस्तान की प्रतिभा आंख बंद करके बैठी है। हम आंख बंद करके बैठने वाले लोगों को आदर भी बहुत देते हैं। हम समझते हैं, जो आदमी आंख बंद करके बैठ जाता है वह धार्मिक हो जाता है। हम सोचते हैं, जो आदमी जिंदगी की तरफ पीठ कर लेता है वह ज्ञानी हो जाता है। हम उसके पैर छूते हैं, क्योंकि इस आदमी ने संसार का त्याग कर दिया, क्योंकि इस आदमी ने जीवन को इनकार कर दिया। जो आदमी जीवन का दुश्मन है, उसे हम सम्मान देते हैं। भारत में जीवन-विरोधी प्रतिभा को सम्मान मिल रहा है, इसलिए जीवन की समस्याओं का हल करने का कोई रास्ता नहीं है।

जीवन की समस्याएं कौन हल करेगा? प्रतिभा से, बुद्धि से जीवन की समस्याएं हल होती हैं। और अगर बुद्धि ने इनकार करने का रास्ता पकड़ लिया हो तो समस्याएं कैसे हल होंगी? हम एक स्कूल में बच्चों को एक सवाल दें, और वे सारे बच्चे उठ कर कहें सवाल मिथ्या है, माया है। क्यों हल करें, जो है ही नहीं? तो उस स्कूल में फिर गणित विकसित नहीं होगा। गणित के विकास की क्या जरूरत रहेगी? सवाल को सही माना जाए तो सवाल को हल करने की कोशिश की जा सकती है। और सवाल को इनकार कर दिया जाए, तो हल करने का क्या सवाल है?

भारत जीवन के सवालों को इनकार कर रहा है। बात ही नहीं कर रहा है। और अगर कभी कोई बात भी करता है, तो वह बात एक्सप्लेनेशन होती है, व्याख्या होती है, समाधान नहीं होता।

जैसे भारत गरीब है, हजारों साल से गरीब है आदमी। और गरीबी को मिटाया जा सकता है। धन पैदा करना आदमी के हाथ में है। धन को बांटना आदमी के हाथ में है। धन की सारी व्यवस्था आदमी के विचार से निष्पन्न होती है।

लेकिन भारत ने एक व्याख्या खोज रखी है। वह कहता है, आदमी, पहली तो बात यह है कि सब झूठ है, जो बाहर दिखाई पड़ता है। गरीबी भी एक सपना है, अमीरी भी एक सपना है। और जब दोनों ही सपने हैं, तो फर्क क्या है? सपनों को बदलने की कोशिश नहीं करनी चाहिए। भूख भी एक सपना है और पेट भरा होना भी एक सपना है। पेट भरे होने वाले आदमी के लिए तो यह बात बहुत अच्छी है, लेकिन भूखे आदमी के लिए बहुत खतरनाक है। पेट भरा आदमी कहता है कि बिलकुल ठीक कहते हैं महाराज, सब जिंदगी सपना है। क्योंकि पेट भरे आदमी को यह व्याख्या बहुत सहयोगी है। जब सभी सपना है तो वह लोगों को लूटता चला जाए, लोगों का खून पीता चला जाए, लोगों को नंगा और भूखा करता चला जाए। जब सभी सपना है तो हर्ज क्या है?

पेट भरे आदमी के लिए यह व्याख्या ठीक है। लेकिन भूखे आदमी के लिए यह व्याख्या जहर है, अफीम है। क्योंकि भूखा आदमी भूखा रह जाएगा। और भूख बहुत सत्य है, शरीर बहुत सत्य है। यह जो पदार्थ है, बहुत सत्य है। यह जो चारों तरफ दिखाई पड़ रहा है, यह बहुत सत्य है, यह असत्य नहीं है। इस जगत में कुछ भी असत्य नहीं है। इस जगत में जो भी है, वह सत्य है। और इस जगत के पूरे सत्य को जो जान लेता है, वही परमात्मा को भी जान पाता है।

जगत के सत्य को अस्वीकार करने से नहीं। लेकिन, या तो हम, एक तरकीब है हमारे पास कि हम कह दें, सब झूठ है, एक दूसरी तरकीब है कि हम कुछ व्याख्याएं खोज लें। हम गरीब आदमी को कहें कि तू अपने पिछले जन्मों के पापों का फल भोग रहा है, इसलिए हम क्या कर सकते हैं?

कल मैं जिस ट्रेन में था, तीन आदमी मेरे डिब्बे में और थे। तीनों पढ़े-लिखे लोग थे। वे तीनों बड़ी देर से विवाद कर रहे थे। फिर एक आदमी ने कहा कि इस साल भी ऐसा मालूम पड़ता है कि पानी नहीं गिरेगा, जगह-जगह अकाल होगा। दूसरे आदमी ने कहा, होने ही वाला है, सब हमारे पापों का फल है। पानी नहीं गिर रहा, वह हमारे पापों का फल है। बिहार में अकाल पड़ा, तो गांधी जी ने कहा कि बिहार के लोगों ने हरिजनों के साथ जो पाप किए, उसका फल भोग रहे हैं। जैसे हिंदुस्तान भर के लोगों ने हरिजनों के साथ पाप नहीं किए हैं?

हमारी हजारों साल की व्याख्या यह है कि जिंदगी की समस्या को इनकार करने के लिए कोई व्याख्या दे दो। आदमी गरीब क्यों है? उसने पिछले जन्मों में बुरे पाप किए हैं, बुरे कर्म किए हैं, इसलिए गरीब है। बात खत्म हो गई। क्योंकि पिछले जन्मों के कर्मों को अब तो नहीं बदला जा सकता। अब तो भोगना ही पड़ेगा। हां, इस जन्म में बुरे कर्म न करे वह आदमी, तो अगले जन्म में वह भी सुख भोग सकता है। अब अगले जन्म का कोई पता नहीं है। और पिछले जन्म के साथ कुछ भी नहीं किया जा सकता। फिर इस गरीबी के साथ क्या किया जाए? सिवाय स्वीकार करने के कोई रास्ता नहीं है। हमारी व्याख्याएं स्वीकृति सिखाती हैं। बदलाहट नहीं, क्रांति नहीं, परिवर्तन नहीं। एक गरीब आदमी क्या करे गरीबी मिटाने के लिए?

पहली तो बात यह है, गरीबी उसके कर्मों का फल है, और कर्म अब नहीं बदले जा सकते हैं। जो उसने पिछले जन्म में किए हैं, उनका फल भोगना पड़ेगा। मैंने अगर आग में हाथ डाल दिया है, तो मेरा हाथ जलेगा और मुझे जलन भोगनी पड़ेगी। पिछले जन्म में कर्म किए थे, उनकी गरीबी मुझे इस जन्म में भोगनी पड़ेगी। अब एक ही रास्ता है, मैं अगले जन्म को सुधार सकता हूं, जिसका कोई भी पता नहीं है। और वह में कैसे सुधार सकता हूं? वह मैं अभी कोई बुरे कर्म न करूं।

और क्रांति भी एक बुरा कर्म है, यह ध्यान रहे। बदलाहट की चेष्टा भी एक बुरा कर्म है। अस्वीकार करना, विद्रोह करना भी एक बुरा कर्म है। किसी को दुख पहुंचाना भी एक बुरा कर्म है। और अगर जिंदगी को बदलना है तो कुछ लोगों को दुख पहुंचेगा। जो लोग जिंदगी की छाती पर सवार हैं, उन्हें उतारने में दुख पहुंचेगा।

तब एक ही रास्ता है कि मैं अपनी गरीबी को भोगूं और भगवान से प्रार्थना करूं कि अगले जन्म में मुझे गरीब न बनाए। फिर इस गरीबी को बदलने का कोई उपाय नहीं रह गया। गरीबी भोगनी पड़ेगी। समस्या को झेलना पड़ेगा। और अगर बहुत कठिन हो जाए समस्या, तो समझना पड़ेगा, यह सब माया है, यह सब खेल चल रहा है, यह सब सपना है, यह सब सच नहीं है।

जैसे एक आदमी बहुत मुसीबत में होता है, और शराब पी लेता है। कभी आपने सोचा कि आदमी शराब क्यों पी लेता है? आदमी शराब इसलिए पी लेता है कि शराब पीकर मुसीबत सपना मालूम पड़ने लगती है, झूठ मालूम पड़ने लगती है। एक आदमी की पत्नी बीमार है, और वह दवा नहीं ला पाता है, और वह इलाज नहीं करवा पाता है, और पत्नी मरने के करीब पड़ी है। वह आदमी शराब पीकर बैठा है। अब पत्नी भी झूठ है, मकान भी झूठ है, सारी दुनिया झूठ है। अब वह मजे में है। अब न पत्नी की चिंता है, न बीमारी की चिंता है, न दवा का इंतजाम करना है। वह आदमी शराब पीकर क्या कर रहा है? वह शराब पीकर सारी दुनिया को झूठ कर रहा है। वह शराब पीकर सारी जिंदगी की चिंताओं को भूलने का उपाय कर रहा है।

शराब पीकर एक आदमी जो करता है, पूरे भारत ने जिंदगी को झूठ कह कर वही काम किया है। पूरी कौम ने शराब पी ली है। और तब फिर समस्याओं को हल नहीं किया जा सकता है। एक शराबी आदमी कैसे समस्याओं को हल करेगा? वह तो समस्याओं को इनकार कर रहा है। वह तो यह कह रहा है, समस्याएं हैं ही नहीं। शराब पिया हुआ आदमी जिंदगी को नहीं बदल सकता। क्योंकि जिस जिंदगी को बदलना है, उसे तो शराब पीकर उसने झूठ कर दिया, उसको भूल गया, उसका विस्मरण कर दिया।

भारत ने एक तरह की शराब पी रखी है। भारत की पूरी प्रतिभा एक तरह की शराब पीए हुए बैठी है। और वह शराब है इस बात की कि हम समस्याओं से घबड़ा कर समस्याओं को इनकार कर दिए हैं। इसलिए पांच हजार सालों के इतिहास में हमने एक भी समस्या हल नहीं की। कोई भी समस्या हल नहीं की। हल करने का हमने सवाल ही नहीं उठाया।

अगर आदमी की उम्र कम है, तो हम कहते हैं, भाग्य में इतना लिखा हुआ है। सारी दुनिया में उम्र बढ़ती चली जाती है, सिर्फ हमारे भाग्य में उम्र लिखी हुई है। रूस के भाग्य में उम्र नहीं लिखी हुई है? स्विटजरलैंड के भाग्य में उम्र नहीं लिखी हुई है? अमेरिका के भाग्य में उम्र नहीं लिखी हुई है?

उन्नीस सौ सत्रह में रूस में क्रांति हुई, तब वहां की औसत उम्र तेईस वर्ष थी। आज उनकी औसत उम्र अड़सठ वर्ष है। उनकी उम्र भाग्य में लिखी हुई नहीं है? भारत की उम्र भाग्य में लिखी हुई है! यहां का पढ़ा-लिखा आदमी भी चार आने के, किनारे रास्ते पर बैठे ज्योतिषी से अपनी उम्र पूछता है। पढ़ा-लिखा आदमी, उम्र पूछने एक चार आने के आदमी के पास जाता है और उम्र का पता लगाता है। उम्र कितनी भी हो सकती है। उम्र कितनी भी की जा सकती है। उम्र को बदला जा सकता है। उम्र को लंबाया जा सकता है, छोटा किया जा सकता है।

हिरोशिमा पर एटम बम गिरा, एक लाख बीस हजार आदमी मर गए। उन सबकी हाथ की रेखाएं समान नहीं थीं। उन एक लाख बीस हजार लोगों के हाथ उठा कर देख लें, उनके हाथ की रेखाएं उसी दिन समाप्त नहीं होती थीं। सभी की समाप्त नहीं होती थीं। शायद ही किसी एकाध आदमी की उम्र की रेखा उस दिन वहां समाप्त हो रही हो, वह संयोग की बात होगी। एक लाख बीस हजार आदमी मर जाते हैं एक घड़ी भर में, एक बम उनके जीवन को समाप्त कर देता है। लेकिन हम इस देश में उम्र की समस्या को लेकर बैठे हैं और हमने मान रखा है कि उम्र तो तय है।

जनसंख्या बढ़ती चली जाती है। हम कहते हैं, वह तो भगवान देता है बच्चे। हमसे ज्यादा बेईमान प्रतिभा खोजनी मुश्किल है। बहुत कनिंग माइंड है हमारा। जो भी हम नहीं बदलना चाहते हैं, उसको हम भगवान पर, भाग्य पर, संसार के ऊंचे-ऊंचे सिद्धांतों पर थोप देते हैं।

जापान अपनी संख्या सीमित कर लिया, फ्रांस ने अपनी संख्या सीमित कर ली। फ्रांस पर मालूम होता है भगवान का कोई वश नहीं चलता। वे तय करते हैं कि कितने बच्चे पैदा करने हैं। हम पर ही भगवान का वश चलता है? या तो ऐसा मालूम पड़ता है कि भगवान का वश सिर्फ कमजोर और नासमझों पर चलता है। और ऐसे भगवान की कोई जरूरत नहीं है जो कमजोरों पर वश चलाता हो।

लेकिन सच्चाई उलटी है। भगवान का इससे कोई संबंध नहीं है। जिस भगवान की हम बातें कर रहे हैं, वह भी हमारे भीतर बैठा हुआ काम कर रहा है। हमारे हाथों से वही कर रहा है, वह हमसे अलग होकर नहीं कर रहा है। अगर हम उम्र बड़ी कर लेंगे, अगर हम गरीबी मिटा देंगे, अगर हम बच्चे कम पैदा करेंगे, तो यह भी भगवान ही कर रहा है हमारे द्वारा। वह जो भी करता है, हमारे द्वारा करता है। हमारे द्वारा के अतिरिक्त उसके पास और कोई उपाय भी नहीं है। क्योंकि हम वही हैं, हम उसके ही हिस्से हैं। हम जो भी कर रहे हैं, वही कर रहा है। रूस में भी वही कर रहा है, और फ्रांस में भी वहां कर रहा है, और भारत में भी वही कर रहा है। लेकिन हमने यहां एक भेद कर रखा है। हमने जिंदगी जैसी है, उसका जो स्टेट्स को है, जैसी हो गई है स्थिर, उसको वैसा ही बनाए रखने के लिए भगवान का सहारा खोज रखा है। और हम कहते हैं कि उम्र भगवान की, बीमारी भगवान की। अंधा आदमी पैदा हो, काना आदमी पैदा हो, तो सब भाग्य का, भगवान का जिम्मा।

ये कोई भी जिम्मे भाग्य और भगवान के नहीं हैं। ये सारी बातें होती रही हैं, क्योंकि आदमी अज्ञान में है। और आदमी का ज्ञान बढ़े तो किसी आदमी के अंधे पैदा होने की कोई भी जरूरत नहीं है। किसी आदमी के लंगड़े-लूले पैदा होने की कोई भी जरूरत नहीं है। किसी आदमी के बेवक्त मर जाने की कोई भी जरूरत नहीं है। वैज्ञानिक तो कहते हैं कि आदमी के शरीर को देख कर ऐसा लगता है कि इस शरीर को कितने ही लंबे समय तक जिंदा रखा जा सकता है। इस शरीर के भीतर मर जाने की कोई अनिवार्यता नहीं है, कोई इनइविटेबिलिटी नहीं है कि यह शरीर मरे ही। आज रूस में डेढ़ सौ वर्ष के उम्र के सैकड़ों बूढ़े हैं। अभी एक स्त्री की मृत्यु हुए, जिसकी उम्र एक सौ अठहत्तर वर्ष थी। आज रूस में किसी को यह कहना कि तुम सौ वर्ष जीओ, आशीर्वाद देना, वह आदमी नाराज हो जाएगा। क्योंकि उसका मतलब है कि आप जल्दी मर जाने की कामना कर रहे हैं।

हम अपनी समस्याओं को अयथार्थ कह कर, अनरियल कह कर उनसे बच गए हैं। बच जाने से समस्याएं मिट नहीं गईं, समस्याएं इकट्ठी होती चली गई हैं।

भारत के पास जितनी समस्याएं हैं, उतनी दुनिया के किसी देश के पास नहीं हैं। क्योंकि भारत ने पांच हजार वर्षों में समस्याओं का ढेर लगा दिया है। सब समस्याएं इकट्ठी होती चली गई हैं। कोई समस्या हमने हल ही नहीं की। बैलगाड़ी जब बनी थी, उस जमाने की समस्या भी मौजूद है, और जेट बन गया, उस जमाने की समस्या भी मौजूद है। वह सारी समस्याएं इकट्ठी होती चली गई हैं। उन सबका बोझ हमारी छाती पर है। और उनको हम हल नहीं कर पाएंगे, जब तक हम आधारभूत सिद्धांतों को न बदल दें, जिनकी वजह से वे इकट्ठी हो गई हैं। उनमें पहली बात आपसे कहना चाहता हूं इस पहले दिन, वह यह है, भागने से काम नहीं चलेगा, पलायन से काम नहीं चलेगा, एस्केपिज्म से काम नहीं चलेगा, इनकार करने से काम नहीं चलेगा, जिंदगी को माया कहने से काम नहीं चलेगा, और जिंदगी को माया कहने वाले लोगों से पूछने से काम नहीं चलेगा। जिंदगी एक यथार्थ है। और कितने आश्चर्य की बात है कि जिंदगी के यथार्थ को भी सिद्ध करना पड़ेगा! यह भी कोई सिद्ध करने की बात है!

एक अंग्रेज विचारक था–बर्कले। वह कहता था, सब झूठ है, सब माया है। वह डाक्टर जॉनसन के साथ घूमने निकला था एक रास्ते पर। रास्ते में वह बात करने लगा कि यह सब जो दिखाई पड़ रहा है, सब झूठ है। डाक्टर जॉनसन ने रास्ते के किनारे का एक पत्थर उठा कर बर्कले के पैर पर पटक दिया। बर्कले पैर पकड़ कर बैठ गया, पैर से खून बहने लगा। जॉनसन ने कहा, क्यों बैठ गए हो पैर पकड़ कर? उठो! सब झूठ है, पत्थर भी झूठ है और चोट भी झूठ है। पैर पकड़ कर क्यों बैठ गए हो? लेकिन बर्कले उतना चालाक नहीं था। अगर वह भारत में पैदा हुआ होता तो जॉनसन इस तरह उत्तर नहीं दे सकते थे।

मैंने सुना है एक दार्शनिक को, जो कहता था, जगत असत्य है, एक राजा के दरबार में बुलाया गया। और उसने सिद्ध कर दिया कि जगत असत्य है।

सिद्ध करने की तरकीबें हैं। सिद्ध किया जा सकता है। सच तो यह है कि सत्य को सिद्ध करने की कोई जरूरत नहीं होती, सिर्फ असत्य को ही सिद्ध करने की जरूरत पड़ती है। सत्य तो है, उसे सिद्ध करने की कोई जरूरत नहीं। असत्य को सिद्ध करने के लिए शास्त्र लिखने पड़ते हैं, तर्क और आर्ग्युमेंट और विवाद देने पड़ते हैं। मेरी दृष्टि में सिर्फ असत्य को ही सिद्ध करने की जरूरत पड़ती है, सत्य को सिद्ध करने की कोई जरूरत नहीं पड़ती। यह बात सिद्ध करने की कोई जरूरत नहीं है कि दीवाल है। वह आप जानते हैं। लेकिन अगर दीवाल नहीं है, यह सिद्ध करना हो, तो फिर बड़े प्रयास करने पड़ेंगे, बड़े तर्क देने पड़ेंगे।

उस विचारक ने बड़े तर्क दिए। और उसने कहा कि सब असत्य है। तर्क क्या है असत्य सिद्ध करने के? पहला तर्क तो यह है कि हम कभी भी चीजें जैसी हैं उनको नहीं जान सकते, चीजों को हम जान ही नहीं सकते। जो भी हम जानते हैं, पिक्चर्स जानते हैं, चित्र जानते हैं। मैं आपको देख रहा हूं, पता नहीं आप वहां हैं या नहीं। सिर्फ मुझे मेरी आंख के भीतर चित्र दिखाई पड़ रहा है कि कुछ लोग यहां बैठे हुए हैं। ये कुछ लोग वहां हैं या नहीं, मुझे क्या पता? रात को सपना देखता हूं, तब भी मुझे लोग दिखाई पड़ते हैं। इसी तरह दिखाई पड़ते हैं, जिस तरह आप दिखाई पड़ रहे हैं। कोई फर्क नहीं होता। रात सपने में भी आप दिखाई पड़ते हैं, दिन में भी दिखाई पड़ते हैं। दोनों में फर्क क्या है? दोनों हालतों में मुझे चित्र दिखाई पड़ते हैं। आपका मुझे कोई पता नहीं है कि आप हैं भी या नहीं। अगर हम कहें कि मैं आपको छूकर देख सकता हूं, तो भी वह दार्शनिक कहता है, छूता हाथ है, मैं तो छूता नहीं आपको। हाथ छूता है और खबर भीतर जाती है। वह खबर झूठ भी हो सकती है, वह खबर सच भी हो सकती है। उस खबर का क्या भरोसा किया जाए? हाथ सच कह रहा है या झूठ कह रहा है, कौन जानें? और कैसे हम मान लें कि हाथ जो कहता है, वह सच कहता है? कुछ नहीं कहा जा सकता।

उस वैज्ञानिक ने, उस विचारक ने बड़े ही तर्कों से सिद्ध किया कि नहीं है जगत, सब माया है।

उस राजा ने कहा, मैं मान गया सब माया है। उसने कहा, लेकिन ठहरिए, आखिरी प्रयोग और हो जाए। उस राजा के पास एक पागल हाथी था। उसने अपने महावतों को कहा कि उस पागल हाथी को ले आओ और इस दार्शनिक को पागल हाथी के सामने छोड़ दो। महल के दरवाजे पर वह पागल हाथी ले आया गया। सब द्वार बंद कर लिए गए। रास्ते पर वह पागल हाथी छोड़ दिया गया और उस दार्शनिक को छोड़ दिया गया। वह दार्शनिक चिल्लाता है, भागता है, हाथ-पैर जोड़ता है कि मुझ बचाओ, मैं मर जाऊंगा। वह हाथी उसके पीछे भाग रहा है। वह दार्शनिक चिल्ला रहा है। वह राजा के सामने हाथ गिड़गिड़ा रहा है। राजा अपने महल के ऊपर खड़ा है और हंस रहा है। फिर बामुश्किल उसे हाथी से बचाया गया। वह पसीना-पसीना हो गया, आंख से उसके आंसू बह रहे हैं, उसकी छाती धड़क रही है। राजा ने उससे कहा, कहिए, हाथी सत्य था? उस दार्शनिक ने कहा, महाराज, हाथी भी असत्य था। और वह आदमी जो चिल्ला रहा था, वह भी असत्य था। और मेरी यह जो धड़कन है, यह भी असत्य है। सभी कुछ असत्य है। आपने मुझे बचाया, यह भी असत्य है। जब सभी कुछ असत्य है, तो हाथी भी असत्य है, उसका रोना भी।

लेकिन बर्कले को यह पता नहीं था। नहीं तो वह डाक्टर जॉनसन से कहता कि यह पैर मैं खून बह रहा है, यह भी असत्य है। यह मैं पकड़ कर बैठा हूं, यह भी असत्य है। यह आपने पत्थर मारा, यह भी असत्य है। सभी कुछ असत्य है।

सभी कुछ असत्य सिद्ध किया जा सकता है, लेकिन उससे हल क्या होता है? उससे जिंदगी कहां बदलती है? जिंदगी वैसी की वैसी चली जाती है। गरीबी गरीबी की जगह होगी। बीमारी बीमारी की जगह होगी। दुख दुख की जगह होगा। समस्या समस्या की जगह होगी। जिंदगी को असत्य कहने से हल क्या होगा? सवाल यह है कि जिंदगी को असत्य कहने से समाधान क्या है?

जिंदगी को असत्य कहने से सिर्फ एक समाधान है और वह यह है कि मैं आंख बंद कर लूं, जो असत्य है, भूल जाऊं उसे, जो असत्य है, खयाल छोड़ दूं उसका, जो असत्य है। लेकिन तब भी क्या फर्क होगा? मेरे आंख बंद करने से भी गरीब गरीब होगा, बीमार बीमार होगा, समस्याएं अपनी जगह होंगी।

भारत ने असत्य कह कर कुछ भी हल नहीं किया। और इसीलिए तो भारत पर दुश्मन आए। भारत पराजित हुआ, गुलाम बना, और भारत का साधु समझाता रहा, यह सब माया है, यह सब संसार है, यह सब चलता रहता है। भारत दुश्मनों के सामने हारा, उस हार में भारत की कमजोरी नहीं थी, भारत की फिलासफी थी, भारत का दर्शन था। जब सभी असत्य है तो हार भी असत्य है, जीत भी असत्य है। कौन जीतता है, कौन हारता है, कोई फर्क नहीं है। कौन दिल्ली के सिंहासन पर बैठता है, कोई फर्क नहीं है। कौन राज्य करता है, कौन पराजित होता है, कौन शोषक है, कौन शोषित है, कोई फर्क नहीं है।

भारत ने जो जीवन-दर्शन विकसित किया है जगत को माया बताने वाला, उस जगत को माया बताने वाले भारत की दृष्टि ने ही भारत को हजारों साल तक गुलाम रखा। वह दृष्टि अब भी मौजूद है। उस दृष्टि के कारण हम जिंदगी की सभी समस्याओं को अस्वीकार कर देने में समर्थ हो गए। जो भी हुआ, हमने अस्वीकार कर दिया कि सब असत्य है। हमें एक तरकीब हाथ लग गई, एक ऐसी तरकीब हाथ लग गई, जिससे हम हर चीज को इनकार कर सकते हैं। और इनकार कर देना हमेशा आसान है, क्योंकि स्वीकार करने पर श्रम करना पड़ता है। इनकार करने में कुछ भी नहीं करना पड़ता। स्वीकार करने पर श्रम करना पड़ेगा, बदलने की चेष्टा करनी पड़ेगी, बदलने के उपाय खोजने पड़ेंगे।

कौन उठाए यह झंझट? भारत की प्रतिभा ने झंझट उठाने से इनकार कर दिया है। इसलिए भारत का प्रतिभाशाली आदमी जंगल भाग जाता है। वह कहता है, कौन उठाए यह झंझट? दुनिया के प्रतिभाशाली लोग झंझट को बदलने की कोशिश करते हैं, भारत का प्रतिभाशाली जंगल भाग जाता है! वह कहता है, कौन उठाए झंझट?

भारत की प्रथम कोटि की जो प्रतिभा है, वह जंगल चली जाती है। द्वितीय और तृतीय कोटि की प्रतिभाएं संसार को चलाती हैं। दुनिया के दूसरे मुल्कों की प्रथम कोटि की प्रतिभा जीवन को चलाती है। इसलिए हम दुनिया के किसी भी मुल्क का मुकाबला नहीं कर सकते। हमेशा पिछड़ते चले जाएंगे। उनका फर्स्ट रेट माइंड दुनिया को चलाता है। हमारा सेकेंड रेट और थर्ड रेट माइंड दुनिया को चलाता है। हम उनके सामने खड़े नहीं हो सकते।

हमारा प्रथम कोटि का विचारक तो भागता है। प्रथम कोटि के विचारक अगर दो-चार भाग जाएं, तो सब कुछ गड़बड़ हो जाता है। शायद आपको पता न होगा? हो सकता था, एक आदमी आइंस्टीन जर्मनी से न भगाया गया होता, तो शायद दुनिया का इतिहास दूसरा होता। एक आइंस्टीन को जर्मनी से भगा देने का परिणाम यह हुआ कि जो एटम बम जर्मनी में बन सकता था, वह अमेरिका में बना। सारी दुनिया का इतिहास अब और ही होगा। अगर हिटलर जीतता और जापान और जर्मनी जीतते तो दुनिया का इतिहास बिलकुल दूसरा होता। हम कल्पना ही नहीं कर सकते कि दुनिया का नक्शा कैसा होता आज?

लेकिन एक विचारक, एक प्रथम कोटि की प्रतिभा का जर्मनी से भागना, सारे इतिहास को बदलने का कारण हो गया। वह आदमी अमेरिका पहुंच गया। वह जो एटम की शोध जर्मनी में चलती थी, वह अमेरिका में जाकर पूरी हुई। और उसी एटम ने घुटने टिकवा दिए जापान के और जर्मनी के। वह एटम जर्मनी में भी बन सकता था। सिर्फ एक आदमी के भाग जाने के कारण अब दुनिया का इतिहास बिलकुल दूसरा होगा।

हिंदुस्तान से कितने प्रथम कोटि के लोग भाग गए हैं, इसका हमें पता है?

हम एक भी आइंस्टीन पैदा नहीं कर सके, एक भी न्यूटन पैदा नहीं कर सके। हमारे पास प्रतिभाओं की कभी नहीं थी। कोई बुद्ध, महावीर या शंकर या नागार्जुन के पास कम प्रतिभा नहीं हैं। लेकिन प्रतिभा की दिशा भागने की है। प्रतिभा की दिशा जीवन से जूझने की नहीं है। जीवन को बदलने की और संघर्ष करने की नहीं है। आंख बंद कर लेने की, खो जाने की है।

शायद हम दुनिया में सबसे ज्यादा बड़ा वैज्ञानिक समाज पैदा कर सकते थे। लेकिन यह नहीं हो सका। क्योंकि विज्ञान वहां पैदा होता है, जो जिंदगी को यथार्थ मानते हैं। जो जिंदगी को अयथार्थ, अनरियल मानते हैं, वहां विज्ञान पैदा नहीं होता। साइंस का मतलब यह है कि जिंदगी सत्य है और उस सत्य के हमें भीतर प्रवेश करना है। जिंदगी के सत्य में प्रवेश करने की कला का नाम साइंस है। लेकिन जिंदगी असत्य है तो प्रवेश करने का सवाल नहीं है। इसलिए भारत में साइंस पैदा नहीं हो सकी। भारत में आज भी साइंस पैदा नहीं हो रही। आप कहेंगे, यह मैं क्या बात कर रहा हूं? हमारे न मालूम कितने बच्चे विज्ञान पढ़ रहे हैं, विज्ञान के ग्रेजुएट हो रहे हैं, एम.एस.सी. हो रहे हैं, बी.एस.सी. हो रहे हैं। हिंदुस्तान में न मालूम कितने लोग विज्ञान का अध्ययन कर रहे हैं, कितने वैज्ञानिक पैदा हो रहे हैं। और मैं कहता हूं कि हिंदुस्तान में विज्ञान अभी भी पैदा नहीं हो रहा। और मैं कुछ कारण से कहता हूं, बहुत सोच कर कहता हूं।

हिंदुस्तान में विज्ञान तब तक पैदा नहीं होगा, जब तक हिंदुस्तान का फिलसफा, हिंदुस्तान की जीवन की फिलासफी नहीं बदलती। हिंदुस्तान में वैज्ञानिक शिक्षण हो रहा है, ट्रेनिंग हो रही है, हिंदुस्तान में टेक्नोलॉजी समझाई जा रही है, बच्चे साइंस पढ़ रहे हैं, लेकिन फिर भी उनका माइंड साइंटिफिक नहीं है।

बी.एस.सी. पढ़ रहा है एक लड़का, और परीक्षा के वक्त हनुमान जी के मंदिर के सामने हाथ जोड़ कर खड़ा हो जाएगा। उसका बी.एस.सी. पढ़ना, उसका साइंस का पढ़ना और हनुमान जी के मंदिर के सामने हाथ जोड़ने में, उसे कोई कंट्राडिक्शन नहीं दिखाई पड़ेगा, कोई विरोध नहीं दिखाई पड़ेगा।

मैं कलकत्ते में एक डाक्टर के घर में मेहमान था। वे एक बड़े फिजिशियन हैं। इंग्लैंड रहे हैं, पश्चिम से डिग्रियां लेकर आए हैं। वे मुझे मीटिंग में ले जाने के लिए बाहर निकले। उनके पोर्च में मैं निकल ही रहा था कि उनकी छोटी बच्ची को छींक आ गई। उस बड़े डाक्टर ने कहा, एक मिनट रुक जाइए। मैंने कहा, क्यों? उसने कहा, आप देखते नहीं, बच्ची को छींक आ गई है। मैंने कहा, तुम्हारी बच्ची को छींक आए, इससे मेरे रुकने का क्या संबंध? और तुम डाक्टर हो, तुम भलीभांति जानते हो कि छींक के आने का कारण क्या होता है? तुम भी यही कह रहे हो? एक गांव का ग्रामीण यह कहता, तो माफ किया जा सकता था। तुम्हें माफ नहीं किया जा सकता। तुम्हें तो, हिंदुस्तान के पास अगर किसी दिन कोई सच में अदालत होगी, उसके सामने खड़ा किया जाना चाहिए। और तुम्हारे सारे सर्टिफिकेट छीन लेने चाहिए, और तुम्हारी डाक्टरी को जुर्म करार दे देना चाहिए, तुम डाक्टर नहीं हो सकते। क्योंकि जो आदमी छींक आने से रुकता है, वह आदमी डाक्टर कैसे हो सकता है?

लेकिन वे डाक्टर बड़े हैं। वह डाक्टरी एक तरफ है, और उनका वह जो ग्रामीण मस्तिष्क है, वह एक तरफ है, वे दोनों अब एक साथ चल रहे हैं। वह एक साथ दोनों काम चल रहा है। वह एक तरह की टेक्नोलॉजी जो उन्होंने सीख ली कि नश्तर कैसे लगाना, फलां बीमारी में फलां दवा देनी, वह सब उन्होंने सीख लिया है। वह तोतारटंत है। लेकिन उनके पास साइंटिफिक माइंड नहीं है, वैज्ञानिक का मन नहीं है। नहीं तो मुझे रोकने के पहले वे खुद सोचते कि छींक न आने से रुकने का क्या संबंध हो सकता है? नहीं, लेकिन यह प्रश्न उनके मन में नहीं उठा। यह प्रश्न उठा ही नहीं। मुझसे कह दिया, और जब मैंने प्रश्न उठाया तो उन्होंने कहा, हां, आप ठीक कहते हैं। लेकिन हर्ज क्या है, रुक भी गए तो हर्ज क्या है? क्या बिगड़ गया? मैंने उनसे कहा, बहुत कुछ बिगड़ गया। तुम्हारे रुकने का सवाल नहीं है। पूरे मुल्क की प्रतिभा रुक गई! तुम्हारे रुकने का सवाल नहीं है, तुम तो बिलकुल रुक जाओ, अब इस छींक के बाद घर से निकलो ही मत, तो कोई हर्जा नहीं है। लेकिन पूरे मुल्क का दिमाग अगर इस तरह सोचेगा तो इस मुल्क में कभी भी विज्ञान का जन्म नहीं हो सकता।

मैं जालंधर में एक घर में अभी था। एक मित्र ने एक बड़ा मकान बनाया। वे एक इंजीनियर हैं, पंजाब के बड़े इंजीनियर, और बहुत अच्छा मकान बनाया। मुझसे कहा कि उनके मकान का उदघाटन कर दूं। मैं गया, उनका फीता काटा। देखा कि नये मकान में सामने एक हंडी लटकी हुई है काली, और हंडी के ऊपर बाल वगैरह लगे हैं और आदमी का चेहरा बना हुआ है। मैंने पूछा, यह क्या है? उन्होंने कहा कि मकान को नजर न लग जाए इसलिए लटकानी पड़ती है।

अब यह आदमी इंजीनियर है! यह आदमी शानदार मकान बनाता है और मकान के सामने एक हंडी लटका देता है, नजर न लग जाए! मकान को नजर लगती है? तो इस आदमी को वैज्ञानिक नहीं कह सकते। यह आदमी टेक्नीशियन है। इस आदमी ने विज्ञान का तंत्र समझ लिया, लेकिन विज्ञान इसकी आत्मा नहीं बन सका। इसके पास वैज्ञानिक का सोच-विचार नहीं है, इसके पास वैज्ञानिक की जिज्ञासा नहीं है। इसके पास आस्था तो धार्मिक की है और शिक्षण वैज्ञानिक का है। और यह बड़ी खतरनाक बात है। इसका हार्दिक हिस्सा भीतर तो पुराने धार्मिक का है, और उसके ऊपर का मस्तिष्क वैज्ञानिक का है। इसके भीतर एक स्प्लिट पर्सनैलिटी है। दो हिस्सों टूट गया यह आदमी। जहां तक इससे सलाह लोगे मकान बनाने के संबंध में, यह वैज्ञानिक की तरह व्यवहार करेगा। और जहां जिंदगी का सवाल उठेगा, यह बिलकुल अवैज्ञानिक हो जाएगा। यह गंडेत्ताबीज बंधवा सकता है, यह जाकर कुछ भी कर सकता है, इसका कोई भरोसा नहीं है। यह आदमी विश्वास के योग्य नहीं है।

भारत में विज्ञान की शिक्षा चल रही है, लेकिन भारत की आत्मा में वैज्ञानिक प्रतिभा पैदा नहीं हो पा रही है। इसलिए हमारा विज्ञान नकल से ज्यादा नहीं हो सकता। हम पश्चिम की नकल कर सकते हैं और नकल से कभी विज्ञान पैदा नहीं होता। नकल से क्या हो सकता है? वे पश्चिम में कुछ बनाएंगे, उसकी नकल करके हम भी बना लेंगे। लेकिन जब तक हम नकल कर पाएंगे, तब तक वे हमसे बहुत आगे निकल जाएंगे। अब ऐसा मालूम पड़ता है कि हम सदा ही पीछे रहेंगे। शायद अब हम कभी भी उनके सामने खड़े नहीं हो सकते। हम कितने ही दौड़ेंगे तो हम पीछे रहेंगे, क्योंकि हम बुनियादी बात भूले हुए बैठे हैं। हमारे पास वैज्ञानिक चिंतन नहीं है।

और वैज्ञानिक चिंतन न होने का कारण? न होने का कारण है, हमने जगत और जीवन की जो रियलिटी है, वह जो यथार्थ है जीवन का, वह जो पदार्थ की सत्ता है, वह जो मैटर का, पदार्थ का होना है चारों तरफ, हम उसको ही इनकार करके बैठे हुए हैं। तो उसकी खोज कौन करे? उसको जानने कौन जाए? उसके रहस्यों का कौन आविष्कार करे? कौन उसके कानून खोजे? कौन उसके नियम खोजे? और जो समाज वैज्ञानिक नहीं, वह समाज धीरे-धीरे शक्तिहीन हो जाता है। शक्ति विज्ञान से पैदा होती है। विज्ञान से शक्ति पैदा होती है, चाहे किसी तरह की शक्ति हो। धन विज्ञान से पैदा होता है, चाहे किसी तरह का धन हो। जीवन का, स्वास्थ्य का, समृद्धि का सारा स्रोत विज्ञान से आता है।

हमने पांच हजार सालों में किस तरह का विज्ञान पैदा किया? किसी तरह का विज्ञान पैदा नहीं किया। जो भी हमने सीखा है, वह सब उधार है। शायद बैलगाड़ी के बाद हमने कोई आविष्कार नहीं किया। और पता नहीं, बैलगाड़ी भी हमने आविष्कार की या वह भी हमने कभी सीख ली होगी। उसका भी कोई भरोसा नहीं है। और अभी भी हमारे सोचने का जो ढंग है, वह बैलगाड़ी वाला ही है। सोचने का जो ढंग है, सोचने का ढंग हमारा बैलगाड़ी से आगे विकसित नहीं हुआ। हम वहीं सोच रहे हैं। बल्कि हमारे बीच तो कई लोग हैं, जो उससे भी पीछे हैं, वे पद यात्रा करते हैं। वे कहते हैं, बैलगाड़ी! बैलगाड़ी भी खतरनाक है, पैदल ही चलना चाहिए।

सारी दुनिया धीरे-धीरे आटोमेटिक यंत्रों पर चली जा रही है। सारी दुनिया धीरे-धीरे सारे यंत्रों को स्वचालित बना लेगी, आदमी को उन्हें चलाने की भी जरूरत न रह जाए। लेकिन हमारे समझदार लोग कहते हैं कि हमें चर्खा और तकली पर निर्भर रहना चाहिए। हमको ये बातें अपील भी करती हैं। ये बातें हमारे समझ में भी आती हैं। क्यों? इसलिए नहीं कि ये बातें ठीक हैं, बल्कि इसलिए कि हमारी प्रतिभा विकसित नहीं हो पाई। इसलिए अविकसित बातें हमारी समझ में आती हैं, विकसित बातें हमारी समझ में नहीं आती। जब भी हमें कोई बैलगाड़ी की दुनिया की बातें कहे, तो हमें अपील करता है, क्योंकि हमारी बुद्धि वहीं तक विकसित हो पाई है। और जब हमसे कोई आगे की दुनिया की बातें कहे, तो हमें बहुत घबड़ाहट होती है। क्योंकि उस अनजान दुनिया में हम असुरक्षित पाते हैं अपने को। वहां हमारी कोई सुरक्षा नहीं मालूम होती। हमें डर लगता है, भय लगता है, क्योंकि हम कुछ भी नहीं जानते उस दुनिया के बाबत। लेकिन भयभीत रह कर हम जी नहीं सकेंगे। और अब आने वाले जगत में या तो हमें अपनी समस्याएं हल करनी पड़ेंगी या हमारी समस्याएं हमारी हत्या कर देंगी। उन्होंने करीब-करीब हमें मार डाला है। हमारी समस्याओं ने हमें करीब-करीब मार डाला है। और इसलिए इस मुल्क में न कोई आदमी प्रसन्न दिखाई पड़ता, न कोई आदमी आनंदित दिखाई पड़ता, न जिंदगी में जिसको हम जीवन का रस कहें कि कोई आदमी जीने का रस भोग रहा है–कि उसके पैर में कोई गर्मी है, कि उसके हृदय में कोई उल्लास है, कि उसके प्राणों में कोई गीत है, ऐसा कुछ भी नहीं दिखाई पड़ता। हर आदमी उदास और बोझ से भरा हुआ है। हर आदमी ऐसा दबा हुआ है कि न मालूम कितने पहाड़ उसके सिर पर रखे हुए हैं। हर आदमी ऐसे चल रहा है कि कब गिर पड़े, तो गिरते ही सुख मालूम हो! कब खत्म हो जाए, तो अच्छा! हर आदमी के भीतर यह भाव चलता है कि कब खतम हो जाऊं, कब आवागमन से छुटकारा हो जाए, कब जीवन से छुट्टी मिल जाए। मैं भावनगर में था। एक चौदह साल की लड़की ने मुझसे आकर कहा कि आप मुझे आवागमन से छुटकारे का रास्ता बताइए! चौदह साल की लड़की, वह पूछती है कि जीवन में न आऊं ऐसा कोई रास्ता बताइए! अब यह चौदह साल की लड़की को पूछना चाहिए कि जीवन का रास्ता बताइए कि जीवन में कैसे जाऊं? जीवन को कैसे जीऊं? जीवन का आनंद, जीवन का रस कैसे पाऊं? चौदह माल की लड़की जीवन के द्वार पर खड़े होकर पूछती है कि जीवन से कैसे बचूं, मरूं कैसे! मरने का रास्ता बताइए!

वे जो लोग पूछते हैं, मोक्ष का रास्ता बताइए? मोक्ष अच्छा शब्द है सिर्फ, मोक्ष अच्छा शब्द है सिर्फ, वे मरने का रास्ता पूछ रहे हैं। और ऐसे मरने का रास्ता पूछ रहे हैं कि अल्टीमेट डेथ, फिर न जन्मना पड़े, फिर न लौटना पड़े, आखिरी मरना हो जाए। स्युसाइडल हैं वे लोग, आत्मघाती हैं वे लोग।

जीवन के रास्ते से परमात्मा तक पहुंचा जा सकता है, मरने के रास्ते से नहीं। अगर परमात्मा कहीं भी मिलेगा तो जीवन की गहराइयों में। लेकिन हम जीवन से भागे हुए लोग पूछ रहे हैं कि मरें कैसे, कोई मरने का सुगम रास्ता बताइए? ऐसा कुछ रास्ता बताइए कि जीते जी अधमरे हो जाएं? पहली बात। उसका नाम संन्यास रख छोड़ा है हमने। जीते जी आधा मरा हुआ आदमी हो, उसको हम संन्यासी कहते हैं। और अगर वह जरा जीवन का रस दिखाए तो गड़बड़ हो गया, भ्रष्ट हो गया। जीवन के प्रति बिलकुल ही वह दुष्टता का व्यवहार करे, जीवन के सब रस द्वार बंद कर दे, जीवन का सारा आनंद सब तरफ से रोक ले, जीवन के संगीत की कहीं से कोई कड़ी सुनाई न पड़ने दे, सब तरफ से बहरा, अंधा, लूला-लंगड़ा हो जाए, फिर हम उसको आदर देंगे कि यह आदमी अच्छा आदमी है। मरा हुआ आदमी अच्छा आदमी है। इसीलिए तो जब आदमी कोई मर जाता है तो हम कहते हैं, बहुत अच्छा आदमी था। जिससे हमने जिंदगी में कभी नहीं कहा कि यह अच्छा आदमी था, मरने पर सारा मुल्क कहता है, बहुत अच्छा आदमी। असल में हम मरे हुए को ही आदर देते हैं। अगर जिंदा में ही वह आदमी मर जाता तो भी हम आदर देते। अगर वह मरा-मरा जीता तो भी हम आदर देते, अगर यह उसने भूल की, नहीं ऐसा किया, तो फिर हम मरने के बाद ही सम्मान करेंगे।

जिंदा आदमी का हमारे मन में स्वीकार नहीं, क्योंकि जीवन का ही हमारे मन में सत्कार नहीं है। जीवन ही हमें खतरनाक मालूम पड़ता है। जीवन जोखिम मालूम पड़ती है। इसलिए इस मुल्क में हम बूढ़े का सम्मान करते हैं, जवान का नहीं। जो मुल्क जितना जीवित होता है, उतना युवा का सम्मान करता है। जो मुल्क जितना मरने लगता है, उतना बूढ़े का सम्मान करता है।

बूढ़े के सम्मान का क्या मतलब है? बूढ़े के सम्मान का सिर्फ एक मतलब है कि यह आदमी हमसे मौत के ज्यादा करीब है। यह आदमी मरने के दरवाजे के हमसे ज्यादा करीब पहुंच गया। बूढ़े का सम्मान जीवन के कारण हम नहीं कर रहे हैं। बूढ़े का सम्मान जीवन के कारण भी हो सकता है कि यह आदमी इतना जीया, इसलिए हम सम्मान करें। लेकिन तब हम जवान का भी सम्मान करेंगे, क्योंकि जवान जितनी तेजी से जीता है, बूढ़ा कैसे जी सकता है? जवान का भी सम्मान होगा और एक बूढ़े का सम्मान इसीलिए होगा कि यह आदमी इतना जीया। लेकिन अभी इसलिए सम्मान नहीं होता। अभी इसलिए सम्मान होता है कि इस आदमी का अब जीवन से संबंध टूटने लगा, अब यह मौत के करीब पहुंचने लगा, अब यह आदमी करीब-करीब मरा हुआ हो गया। इसका एक पैर कब्र में चला गया, अब यह आदमी आदर के योग्य है। और अगर इस पैर कब्र में गए हुए आदमी में हमें जीवन के प्रति थोड़ा रस मिल जाए, तो हम कहेंगे, अरे, इस आदमी का अभी जीवन में रस है।

हम जीवन-विरोधी हैं। और जीवन-विरोधी हम क्यों हैं? और सारा मुल्क क्यों हजारों साल से मोक्ष की कामना कर रहा है? इसका कुल एक कारण है, हम जीवन की कोई भी समस्या हल नहीं कर पाए। तो जीवन इतना गंदा हो गया है, जीवन इतना कुरूप हो गया है, जीवन इतना बोझिल हो गया है कि अब सिवाय जीवन को छोड़ने के और कोई रास्ता नहीं दिखाई पड़ता।

इस मकान में हम बैठे हुए हैं। इस मकान को हम इतना गंदा कर लें, इतनी दुर्गंध भर लें, इतना कूड़ा-कर्कट इकट्ठी कर लें कि इस मकान के भीतर सांस लेना मुश्किल हो जाए, तो हर आदमी यह पूछेगा, बाहर जाने का दरवाजा कहां है? मुझे बाहर जाना है? मैं इस मकान के बाहर कैसे हो जाऊं? लेकिन काश, हम इस मकान को सुंदर कर लें, क्योंकि जो मकान असुंदर हो सकता है, वह सुंदर भी हो सकता है। जो मकान गंदा हो सकता है, वह स्वच्छ भी हो सकता है। जो मकान कुरूप हो सकता है, जो मकान अग्ली हो सकता है, वह एक सुंदर, सौंदर्य का नमूना भी बन सकता है। अगर हम इस मकान को सुंदर कर लें तो फिर कोई नहीं पूछेगा कि बाहर का रास्ता कहां है। बल्कि सड़क पर चलने वाले लोग पूछेंगे कि मकान के भीतर का रास्ता कहां है?

जब कोई कौम मोक्ष की बहुत ज्यादा चिंतना करने लगे, तो समझना चाहिए वह कौम बीमार पड़ गई है। जीते जी आदमी को जीवन की चिंतना करनी चाहिए, मरने की नहीं। जब मरेंगे, तब मरेंगे। उसके पहले क्यों मर जाएं? जब मरेंगे, तब मर ही जाएंगे। तो इतनी जल्दी क्या है? पहले से मरने का इतना आयोजन क्या है?

और मेरी अपनी समझ यह है कि जो आदमी जीवन के रस को जान लेता है, वह कभी नहीं मरता। क्योंकि जीवन के रस को जानने से वह वहां पहुंच जाता है, जहां जीवन का स्रोत है, जहां परमात्मा है। और जो लोग जीवन के रस को नहीं जान पाते और जीवन के आनंद को नहीं जान पाते, वे जीते हैं तो मेरे हुए, मरने की कामना करते हुए। और मर कर भी वे कहीं नहीं पहुंचते। क्योंकि करेगा कौन? करीब-करीब पहले ही मरे हुए थे, मरने का भी उपाय नहीं है। मरते भी तो वे हैं, जो जीते हैं। हम मर भी तो नहीं सकते ठीक से, क्योंकि ठीक से हम जीए ही नहीं। ठीक से जीने वाला, ठीक से मर भी सकता है। और मेरी दृष्टि में ठीक से जीना भी एक आनंद है और ठीक से मरना भी एक आनंद है।

लेकिन न जीवन कोई आनंद है, न मरना कोई आनंद है। सब एक बोझ हो गया है। क्या एक-एक आदमी के सिर पर यह बोझ दिखाई नहीं पड़ता? एक बच्चा पैदा होता है और हम बोझ उसके सिर पर रख देते हैं। पैदा होते ही हम बोझ सिर पर रख देते हैं। उसको हम धार्मिक शिक्षा इत्यादि-इत्यादि अच्छे नाम बोलते हैं, कि हम धार्मिक शिक्षा दे रहे हैं। हर बूढ़ा आदमी यही चाहता है कि दुनिया में कोई बच्चा पैदा न हो, बच्चे की तरह सब बूढ़े पैदा हों।

रवींद्रनाथ ने एक छोटा सा स्कूल खोला था सबसे पहले, जहां अब शांति निकेतन है। रवींद्रनाथ के पास कोई बच्चे भेजने को राजी नहीं हुआ, क्योंकि रवींद्रनाथ वहां जीवन की शिक्षा देना चाहते थे। और लोगों ने कहा, जीवन की शिक्षा! शिक्षा तो मोक्ष की होनी चाहिए, तब लोग सुधरेंगे। और रवींद्रनाथ विश्वास योग्य आदमी न मालूम पड़े। सुंदर कपड़े पहनते है। अगर नंगे होते, लंगोटी लगाते, तो खयाल आता कि यह आदमी ठीक है। बड़े-बड़े बाल रखते हैं, आईने के सामने आधा-आधा घंटे बाल संवारते हैं।

एक बार गांधी जी रवींद्रनाथ के पास ठहरे हुए थे। दोनों घूमने जाते थे सांझ को। रवींद्रनाथ ने कहा, दो क्षण ठहरें, मैं थोड़े बाल संवार आऊं। गांधी के तो बर्दाश्त के बाहर हो गया, कोई कहे बाल संवार आऊं। बाल संवारने की जरूरत है? पहली तो बात, बाल रखने की जरूरत नहीं है। लेकिन रवींद्रनाथ से कुछ कह भी न सके एकदम से। रवींद्रनाथ भीतर चले गए। सोचा था जल्दी लौट आएंगे, लेकिन दस मिनट बीत गए हैं, उनका कोई पता नहीं हैं। वे तो लीन हो गए हैं आईने में। पंद्रह मिनट बीत गए हैं, गांधी की सामर्थ्य के बाहर हो गया। त्यागी की सामर्थ्य बहुत कम होती है। त्याग के लिए तो बहुत होती है, जीवन के रस के लिए बहुत कम होती है। खिड़की से झांक कर देखा, रवींद्रनाथ तो जैसे कि कहीं खो गए हैं, आदमकद आईने के सामने बाल संवारे जाते हैं। गांधी जी ने कहा, क्या कर रहे हैं बुढ़ापे में? चलिए अब? उनकी आंखों में दिखाई पड़ गया होगा रवींद्रनाथ को, रवींद्रनाथ हंसते हुए बाहर आए। गांधी जी ने कहा, इस उम्र में और इतना बाल संवारते हैं?

रवींद्रनाथ ने कहा, जब जवान था, बिना संवारे भी चल जाता था, तब ऐसे भी निकल पड़ता था, तब ऐसे भी सुंदर था, अब संवारना पड़ता है। और रवींद्रनाथ ने कहा कि किसी को मैं कुरूप मालूम पडूं, तो इसे मैं हिंसा मानता हूं। किसी को सुंदर मालूम पडूं, अच्छा लगूं, इसे मैं अहिंसा मानता हूं। किसी को कुरूप लगना भी तो चोट पहुंचाना है। लेकिन यह जीवन का रस वाला कहेगा। किसी को कुरूप लगना भी तो उसको दुख पहुंचाना है, किसी को सुंदर लगना भी तो उसे सुख पहुंचाना है। लेकिन यह जीवन का रस वाला कहेगा।

इस रवींद्रनाथ ने जब पहली दफा स्कूल खोला तो कोई भरोसे का आदमी नहीं था यह। तो कौन इसके पास अपने बच्चों को भेजे? डर यही था कि बच्चे बिगड़ न जाएं? क्योंकि रवींद्रनाथ वीणा बजाएंगे, नाचेंगे, गीत गाएंगे। बच्चे क्या सीखेंगे? ये सब नाचना और गीत गाना और संगीत, यह सब ठीक बातें नहीं हैं। ये अच्छे लोगों के लक्षण नहीं हैं। फिर भी कुछ मित्रों ने बच्चे दिए। लेकिन बच्चे ऐसे थे, जो पहले ही इतने बिगड़ चुके थे कि रवींद्रनाथ उनको बिगाड़ नहीं सकते थे। इस आशा में दिए कि इनको तुम क्या बिगाड़ोगे? दस-पंद्रह-बीस बच्चों को लेकर रवींद्रनाथ ने वहां स्कूल शुरू किया।

बंगाल के एक बहुत बड़े विचारक थे, उन्होंने भी अपना बच्चा दिया हुआ था। वे तीन-चार महीने बाद देखने गए कि क्या हालत है। देखा एक चेरी के वृक्ष के नीचे क्लास लगी हुई है। रवींद्रनाथ टिक कर बैठे हुए हैं। पांच-सात बच्चे नीचे बैठे हुए हैं, पंद्रह-सोलह बच्चे ऊपर वृक्ष पर चढ़े हुए हैं। फल पक गए हैं, बच्चे फल खा रहे हैं। पांच-सात बच्चे नीचे बैठे हैं। किताब बंद है, रवींद्रनाथ आंखें बंद किए बैठे हैं। यह क्लास लगी हुई है। क्रोध से भर गए वह मित्र, जाकर हिलाया रवींद्रनाथ को और कहा, यह क्या हो रहा है? यह स्कूल है? यह क्लास लगी हुई है? यह पढ़ाई हो रही है? यह क्या है कि लड़के ऊपर चढ़े हैं? रवींद्रनाथ ने कहा कि मैं भी दुख अनुभव कर रहा हूं, लेकिन जो ऊपर चढ़े हैं उनके लिए नहीं, जो नीचे बैठे हैं उनके लिए। फल पक गए हैं, और फल बुला रहे हैं। मैं बूढ़ा हो गया, चढ़ नहीं सकता हूं, लेकिन आत्मा मेरी वही है। मैं इन बच्चों के लिए हैरान हो रहा हूं कि ये पांच-सात बच्चे किताबें खोलें क्यों बैठे हैं? जब फल बुला रहे हों और जब चढ़ने की ताकत हो, तब जो नीचे रह जाए, वह रुग्ण है, अस्वस्थ है, बीमार है। मैं इन बच्चों के लिए चिंतित हूं। आंख बंद करके मैं इन्हीं के लिए सोच रहा था कि क्या करूं कि ये भी वृक्ष पर चढ़ जाएं। लेकिन जिन्होंने फलों की पुकार नहीं सुनी, वे मेरी पुकार सुनेंगे?

यह जो जीवन को जीने की कला, कुछ और तरह की शिक्षा होगी। जीवन को जीने का मार्ग बच्चों को किसी और दिशा में दीक्षित करेगा। लेकिन हम अब तक जो करते रहे हैं, वह जीवन की कला नहीं है, वह जीवन से भागने की कला है। छोटे-छोटे बच्चों को दीक्षा दी जाती है मुल्क में, इससे बड़ा कोई अपराध नहीं हो सकता।

एक संन्यासी मेरे पास मेहमान थे। उनकी उम्र होगी कोई बावन वर्ष। मेरे पास दो-चार दिन रहे, मेरी बातें समझीं, तो सरल हो गए। सीधी-सीधी बात करने लगे और मुझ से बोले कि मैं कई अड़चनों में हूं, क्योंकि जब मैं बारह साल का था, तब मुझे दीक्षा दी दे गई और मैं संन्यासी हो गया। और मेरी बुद्धि बारह साल पर ही अटक कर रह गई, क्योंकि उसके बाद मैंने कुछ अनुभव नहीं किया। जिंदगी के सब अनुभव मेरे लिए वर्जनीय हो गए। तो मैंने कहा, फिर भी तुम मुझे कहो कि तुम्हें कौन-कौन से अनुभव की इच्छा है? तो उन्होंने कहा, और सब तो बाद में कहूंगा, सबसे पहले तो मुझे सिनेमा देखना है। मैंने कहा, यह क्या कहते हैं आप? सिनेमा! उन्होंने कहा कि मैं बड़ा हैरान रहता हूं, मैं किसी टाकीज के भीतर अब तक नहीं गया। दरवाजों पर भीड़ लगी दिखती है, टिकट घर के सामने क्यू लगा हुआ है, हजारों लोग क्या देख रहे हैं? वहां क्या है? मैं एक बार भीतर जाकर देखना चाहता हूं।

यह बारह साल के बच्चे की जिज्ञासा है, यह बावन साल के बुद्धिमान आदमी की जिज्ञासा नहीं है। लेकिन क्रोध किस पर किया जाए, इस आदमी पर या उन नासमझों पर जिन्होंने इसे बारह साल में दीक्षा करके और संन्यासी बना दिया?

मैंने पड़ोस के एक मित्र को बुलाया और उनसे कहा कि इन्हें आप ले जाकर आज टॉकीज दिखा लाएं। उन्होंने कहा, क्षमा करिए, जिस धर्म को मैं मानता हूं उसी धर्म के ये संन्यासी हैं। और अगर किसी ने मुझे देख लिया कि मैं इनको लेकर आया, तो मैं भी झंझट में पड़ जाऊंगा। अगर ये कोट-पतलून पहनने को राजी हों, तो मैं कोट-पतलून ले आता हूं। यह इनका डंड-कमंडल लेकर में नहीं ले जा सकता हूं।

कोट पतलून पहनने को वे राजी न हुए। क्योंकि उन्होंने कहा, अगर कोई कोट-पतलून पहने हुए देख ले, तो फिर बड़ी मुश्किल हो जाएगी। फिर मैंने कहा, फिर भी कोई रास्ता निकालो? क्योंकि इनकी इतनी सरल सी जिज्ञासा पूरी न हो पाए, तो ये मोक्ष नहीं जा सकेंगे। मरते वक्त भी जब चारों तरफ मोक्ष की चर्चा चल रही होगी, तब ये किसी सिनेमा, टॉकीज के आस-पास घूमते होंगे।

चित्त वहां घूमता है जहां अटका रह जाता है। जिसे हम नहीं जान पाते, चित्त वहीं अटका रह जाता है।

जीवन जानने योग्य है, ताकि हम जीवन से ऊपर उठ सकें, जीवन में गहरे जा सकें। जीवन भागने योग्य नहीं है। भागा हुआ आदमी जीवन से गहरे भी नहीं जाता, ऊपर भी नहीं जाता, वहीं अटक जाता है जहां से भाग जाता।

मैंने मित्र को कहा, कुछ भी करो, यह बड़ा पुण्यकारी है, तुम इन्हें ले जाओ। बामुश्किल वे राजी हुए। फिर उन्होंने कहा कि फिर भी मैं इनको कंट्रूमेंट एरिया में ले जा सकता हूं। वहां अंग्रेजी की फिल्म चलती है। वहां हिंदी के देखने वाले नहीं होते। और मेरी जाति के लोग सब बाजार में रहते हैं, वहां कोई जाता-वाता नहीं। और वहां जाते भी हैं तो वे ऐसे लोग जाते हैं जो बिगड़ चुके हैं। इनको मैं वहां ले जा सकता हूं। पर वे कहने लगे, वे संन्यासी अंग्रेजी नहीं जानते। वे कहने लगे, अंग्रेजी मैं नहीं जानता हूं। फिर भी मैंने कहा, कोई हर्ज नहीं, फिल्म तो देख ही लेंगे आप। यह तो पता चल जाएगा कि क्या है।

वे अंग्रेजी फिल्म ही देखने गए। लौट कर मुझसे कहने लगे, मेरे मन का इतना बोझ उतर गया, मैं भी कैसा पागल था, वहां तो कुछ भी न था।

लेकिन मैंने कहा, यह जान कर ही जाना जा सकता है। यह बिना जाने नहीं जाना जा सकता। और किसी दूसरे के कहने से भी नहीं जाना जा सकता। अब तुम जाकर किसी बच्चे को दीक्षा मत दे देना। उससे कहना कि तू जान ले। और जानने से ही जीवन में धीरे-धीरे एक फूल खिलता है जो संन्यास का है। वह संन्यास भागा हुआ नहीं होता। वह जीवन के रस और संगीत से ही आया हुआ होता है। तब वह संन्यास हंसता हुआ होता है। तब वह रोता हुआ नहीं होता। तब वह संन्यास जीवंत होता है, लिविंग होता है, तब वह डेड नहीं होता।

भारत अपने बाहर के जीवन की कोई समस्या हल नहीं कर पाया। और इसलिए भारत अपनी भीतर के जीवन की भी कोई समस्या हल नहीं कर पाया है। क्योंकि जो बाहर की ही समस्याएं हल नहीं कर सकते, वे भीतर की समस्याएं कैसे ही कर सकेंगे। बाहर की समस्याएं बहुत सरल हैं। हम वहीं हार गए। भीतर की समस्याएं बहुत जटिल हैं, हम वहां कैसे जीतेंगे?

जो समाज विज्ञान पैदा नहीं कर पाया, मैं आपसे कहना चाहता हूं, वह समाज धर्म भी पैदा नहीं कर सकता हैं। क्योंकि धर्म तो परम विज्ञान है, वह तो सुप्रीम साइंस है। जो अभी पदार्थ के ही नियम नहीं खोज पाया, वह परमात्मा के नियम नहीं खोज सकता है। जो अभी बाहर के ही जगत को नहीं समझ पाया, वह भीतर के जगत को भी नहीं समझ सकता है।

पहले विज्ञान, फिर धर्म। पहले विज्ञान का जन्म हो, तो ही एक वैज्ञानिक धर्म का जन्म हो सकता है। अन्यथा धर्म सिर्फ एक पलायन होगा, भागना होगा, बचाव होगा। समस्याओं से भागना, और तब धर्म एक जहर और अफीम का काम करता है। वह माक्र्स ने गलत नहीं कहा है कि धर्म अफीम का नशा है। वह है। यह धर्म अफीम का नशा है।

लेकिन माक्र्स गलत कहेगा, अगर वह कहे कि ऐसा धर्म हो ही नहीं सकता, जो अफीम का नशा न हो।

ऐसा धर्म हो सकता है। लेकिन वह वैज्ञानिक चिंतन से पैदा होता है। वह विज्ञान की ही प्रक्रिया को अंतर्जगत में लगाने से उपलब्ध होता है।

विज्ञान एक मैथडालॉजी है, विज्ञान एक विधि है। अगर बाहर की तरफ लगाओ तो पदार्थ के राजों को वह जान लेती है और अगर भीतर की तरफ लगाओ तो परमात्मा के राज को वह जान लेती है। बाहर से भीतर की तरफ भागना नहीं है, बाहर से भीतर की तरफ विकसित होना है। इन दोनों बातों के भेद को ठीक से समझ लेना चाहिए। बाहर से भीतर की तरफ विकसित होना है, बाहर से भीतर की तरफ भागना नहीं है। पदार्थ से परमात्मा की तरफ भागना नहीं है, पदार्थ से परमात्मा की तरफ विकसित होना है। क्योंकि पदार्थ और परमात्मा एक ही चीज के दो छोर हैं, दो चीजें नहीं हैं। आत्मा और शरीर एक ही सत्ता के दो हिस्से हैं, दो चीजें नहीं हैं। दो पहलू हैं, दो चीजें नहीं हैं। बाहर का जीवन और भीतर का जीवन एक ही जीवन के दो चेहरे हैं, दो जीवन नहीं हैं। और समस्याओं को जो हल करना चाहता है, उसे समस्याओं को स्वीकृति देनी होगी, और समस्याओं की स्वीकृति से समस्याओं को हल करने के मार्ग खोजने होंगे।

यह पहली बात आपसे कहता हूं, समस्याएं सत्य हैं। तब हम सत्य समाधान खोज सकते हैं। और जो प्रतिभा समस्याओं के सत्य को स्वीकार कर लेती है, वह बड़ी चुनौती स्वीकार करती है, बड़ा चैलेंज। क्योंकि फिर, यह ध्यान रहे, जिस समस्या को हम स्वीकार करते हैं, जब तक वह हल न हो जाए तब तक हमारे प्राणों को चैन नहीं मिलती। जो समस्या स्वीकृत हो जाएगी, वह चैलेंज बन जाती है प्राणों के लिए कि उसे हल करो। और अगर हमने समस्या को कह दिया, वह झूठ है, चुनौती खत्म हो गई। फिर हल करने का प्रश्न ही नहीं उठता। जितनी ज्यादा समस्याएं हम स्वीकार करेंगे, उतनी ही ज्यादा हमारी प्रतिभा विकसित होगी उन्हें हल करने में। और यह भी ध्यान रहे, प्रतिभा हल करने में ही विकसित होती है। सामर्थ्य जूझने से विकसित होती है। चुनौती से सोई हुई शक्तियां जागती हैं। जितनी बड़ी चुनौती, उतनी ही बड़ी भीतर की शक्तियां जाग्रत होती हैं।

भारत ने बाहर की चुनौती इनकार करके भीतर की प्रतिभा को सो जाने का मौका दिया है। भारत के प्राण सो गए हैं। इसलिए बाहर की सारी समस्याएं सत्य हैं, यथार्थ हैं। यह मैं नहीं कह रहा हूं कि वे ही यथार्थ हैं, और यथार्थ भी है, जो उनसे गहरा और ऊपर भी है। लेकिन जो इसी के यथार्थ को नहीं जान पाता, वह उस यथार्थ को कैसे जान पाएगा?

इसलिए भागना नहीं है, जीवन की एक-एक समस्या को हल करना है। और जितनी समस्याएं हल हो जाती हैं, हमारी प्रतिभा उतनी श्रेष्ठतर और ऊपर उठ जाती है। हम और बड़ी समस्याओं को हल करने के योग्य बन जाते हैं। लेकिन अभी उलटी हालत है। हमसे छोटी समस्याएं हल नहीं होतीं और बड़ी समस्याओं को हल करने का हम विचार करते रहते हैं। साइकिल का पंचर भी जोड़ नहीं सकते और परमात्मा की बातें करते रहते हैं। अजीब सी स्थिति है। और यह धोखा भी हमें नहीं दिखाई पड़ता कि हम एक सेल्फ डिसेप्शन में, एक आत्म-प्रवंचना में पड़े हुए हैं।

इसलिए पहला सूत्र: जीवन यथार्थ है; शरीर यथार्थ है; पदार्थ यथार्थ है। जीवन की सारी समस्याएं यथार्थ हैं।

और जो कहते हैं कि जीवन माया है, वे गलत कहते हैं, क्योंकि वे जीवन को हल करने का मार्ग नहीं बताते। जीवन में नशे में डूब जाने, अफीम पी लेने की व्यवस्था करते हैं। और जब तक हम इन्हीं लोगों से पूछे चले जाएंगे, जब तक भारत की प्रतिभा साधु-संन्यासियों से ही पूछे चली जाएगी, तब तक भारत बार-बार हारा, बार-बार पराजित हुआ, बार-बार दुखी हुआ, बार-बार दांव चुक गया, आगे भी दांव चुकता जाने वाला है। साधुओं से नहीं, जीवन से भागे हुए लोगों से नहीं, जीवन के संघर्ष में उतरी हुई वैज्ञानिक प्रतिभा से हमें पूछना पड़ेगा, क्या है हल? क्या है समाधान? और अगर वह प्रतिभा नहीं है, तो वह हमें पैदा करनी पड़ेगी। वह प्रतिभा पैदा होती है, कैसे हो सकती है, उन सूत्रों पर कल सुबह और परसों सुबह आपसे बात करूंगा। इस संबंध में जो भी प्रश्न हों, वह आप लिख कर दे देंगे, ताकि सांझ उनकी बात हो सके।




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