गीता दर्शन, (अध्याय– 3) प्रवचन-सातवां
अहंकार का भ्रम
तस्वविसु महाबाहो गुणकर्मविभागयोः।
गुणा गुणेषु वर्तन्ते इति मत्वा न सज्जते।। २८।।
परंतु हे महाबाहो, गुण-विभाग और कर्म-विभाग को जानने वाला ज्ञानी पुरुष, संपूर्ण गुण गुणों में ही बर्तते हैं, ऐसा मानकर आसक्त नहीं होता है।
जीवन को दो प्रकार से देखा जा सकता है। एक तो, जैसे जीवन का केंद्र हम हैं, मैं हूं और सारा जीवन परिधि है। कील मैं हूं और सारा जीवन परिधि है। अज्ञान की यही मनोदशा है। अज्ञानी केंद्र पर होता है, सारा जगत उसकी परिधि पर घूमता है। सब कुछ उसके लिए हो रहा है और सब कुछ उससे हो रहा है। न तो वह यह देख पाता है कि प्रकृति के गुण काम करते हैं, न वह यह देख पाता है कि परमात्मा की समग्रता कर्म करती है। जो कुछ भी हो रहा है, वही करता है। उसकी स्थिति ठीक वैसी होती है, जैसे मैंने एक कहानी सुनी है कि छिपकली राजमहल की दीवार पर छत से लटकी है और भयभीत है कि अगर वह छत से हट जाए, तो कहीं छत गिर न जाए! वही संभाले हुए है!
कुछ ही समय पहले, कोपरनिकस के पहले, आज से कुल तीन सौ वर्ष पहले आदमी सोचता था कि जमीन केंद्र है सारे यूनिवर्स का, सारे विश्व का। चांदत्तारे जमीन के आस-पास घूमते हैं। सूरज जमीन का चक्कर लगाता है। दिखाई भी पड़ता है। सुबह उगता है, सांझ डूबता है। कोपरनिकस ने एक बड़ी क्रांति उपस्थित कर दी आदमी के मन के लिए, जब उसने कहा कि बात बिलकुल उलटी है; सूरज जमीन के चक्कर नहीं लगाता, जमीन ही सूरज के चक्कर लगाती है। बहुत धक्का पहुंचा। धक्का इस बात से नहीं पहुंचा कि हमें कोई फर्क पड़ता है कि चक्कर कौन लगाता है, सूरज लगाता है कि जमीन लगाती है। हमें क्या फर्क पड़ता है? नहीं, धक्का इस बात से पहुंचा कि आदमी जिस जमीन पर रहता है, वह जमीन भी चक्कर लगाती है! मैं जिस जमीन पर रहता हूं, वह जमीन भी चक्कर लगाती है सूरज का!
आदमी ने हजारों वर्ष अपने अहंकार के आस-पास सारे विश्व को चक्कर लगवाया। कोपरनिकस का मजाक उड़ाते हुए और आदमी का मजाक उड़ाते हुए बर्नार्ड शा ने एक बार कहा था कि कोपरनिकस की बात गलत है। यह बात झूठ है कि जमीन सूरज का चक्कर लगाती है। सूरज ही जमीन का चक्कर लगाता है। बर्नार्ड शा जैसे बुद्धिमान आदमी से ऐसी बात की आशा नहीं हो सकती थी। तो किसी आदमी ने सभा में खड़े होकर पूछा कि आप क्या कह रहे हैं! अब तो सिद्ध हो चुका है कि जमीन ही सूरज के चक्कर लगाती है। आपके पास क्या प्रमाण है? बर्नार्ड शा ने कहा, मुझे प्रमाण की जरूरत नहीं। इतना ही प्रमाण काफी है कि बर्नार्ड शा जिस जमीन पर रहता है, वह जमीन किसी का चक्कर नहीं लगा सकती। सूरज ही चक्कर लगाता है।
सारा मनुष्य का अहंकार सोचता है कि वही केंद्र पर है और सब कुछ। अज्ञानी की यह दृष्टि है, सेंटर जो है जगत का, वह मैं हूं। जैसे गाड़ी का चाक घूमता है कील पर, ऐसे कील मैं हूं; और सब कुछ, विराट मेरे ही आस-पास घूम रहा है।
ज्ञानी की मनोदशा इससे बिलकुल उलटी है। ज्ञानी कहता है, केंद्र हो कहीं भी, हम परिधि पर हैं, यह भी परमात्मा की बहुत कृपा है। केंद्र तो हम नहीं हैं। ज्ञानी कहता है, केंद्र मैं नहीं हूं। केंद्र अगर होगा, तो परमात्मा होगा। हम तो परिधि पर उठी हुई लहरों से ज्यादा नहीं हैं। कोई उठाता है, उठ आते हैं। कोई गिराता है, गिर जाते हैं। कोई करवाता है, कर लेते हैं। कोई रोक देता है, रुक जाते हैं। किसी का इशारा जिंदगी बन जाती है; किसी का इशारा मौत ले आती है। न हमें जन्म का कोई पता है, न हमें मृत्यु का कोई पता है। न हमें पता है कि श्वास क्यों भीतर जाती है और क्यों बाहर लौट जाती है। नहीं, हमें कोई भी पता नहीं है कि हम क्यों हैं, कहां से हैं, कहां के लिए हैं।
तो ज्ञानी कहता है, विराट का कर्म है और मैं तो उस कर्मों की लहरों पर एक तिनके से ज्यादा नहीं हूं। इसलिए कर्म मेरा नहीं, कर्म विराट का है। और जो भी फलित हो रहा है–हार या जीत, सुख या दुख, प्रेम या घृणा, युद्ध या शांति–जो भी घटित हो रहा है जगत में, वह प्रकृति के गुणों से घटित हो रहा है। ऐसा जो व्यक्ति जान लेता है, उसके जीवन में अनासक्ति फलित हो जाती है। उसके जीवन में फिर आसक्ति का जहर नहीं रह जाता है। फिर आसक्ति की बीमारी नहीं रह जाती है।
एक घटना मैंने सुनी है। मैंने सुना है, एक झेन फकीर हुआ, रिंझाई। वह एक गांव के रास्ते से गुजरता था। एक आदमी पीछे से आया, उसे लकड़ी से चोट की और भाग गया। लेकिन चोट करने में उसके हाथ से लकड़ी छूट गई और जमीन पर नीचे गिर गई। रिंझाई लकड़ी उठाकर पीछे दौड़ा कि मेरे भाई, अपनी लकड़ी तो लेते जाओ। पास एक दुकान के मालिक ने कहा, पागल हो गए हो? वह आदमी तुम्हें लकड़ी मारकर गया और तुम उसकी लकड़ी लौटाने की चिंता कर रहे हो! रिंझाई ने कहा, एक दिन मैं एक वृक्ष के नीचे लेटा हुआ था। वृक्ष से एक शाखा मेरे ऊपर गिर पड़ी। तब मैंने वृक्ष को कुछ भी नहीं कहा। आज इस आदमी के हाथ से लकड़ी मेरे ऊपर गिर पड़ी है, मैं इस आदमी को क्यों कुछ कहूं! नहीं समझा वह दुकानदार। उसने कहा, पागल हो! वृक्ष से शाखा का गिरना और बात है। इस आदमी से लकड़ी तुम्हारे ऊपर गिरना वही बात नहीं है।
रिंझाई कहने लगा, एक बार मैं नाव खे रहा था। एक खाली नाव आकर मेरी नाव से टकरा गई। मैंने कुछ भी न कहा। और एक बार ऐसा हुआ कि मैं किसी और के साथ नाव में बैठा था। और एक नाव, जिसमें कोई आदमी सवार था और चलाता था, आकर टकरा गई। तो वह जो नाव चला रहा था मेरी, वह गालियां बकने लगा। मैंने उससे कहा, अगर नाव खाली होती, तब तुम गाली बकते या न बकते? तो उस आदमी ने कहा, खाली नाव को क्यों गाली बकता! रिंझाई ने कहा, गौर से देखो; नाव भी एक हिस्सा है इस विराट की लीला का। वह आदमी जो बैठा है, वह भी एक हिस्सा है। नाव को माफ कर देते हो, आदमी पर इतने कठोर क्यों हो?
शायद वह दुकानदार फिर भी नहीं समझा होगा। हममें से कोई भी नहीं समझ पाता है।
एक आदमी क्रोध से भर जाता है और किसी को लकड़ी मार देता है। इस मारने में प्रकृति के गुण ही काम कर रहे हैं। एक आदमी शराब पीए होता है और आपको गाली दे देता है; तब आप बुरा नहीं मानते; अदालत भी माफ कर सकती है उसे, क्योंकि वह शराब पीए था। लेकिन अगर एक आदमी शराब पीए, तो हम माफ कर देते हैं; और एक आदमी के शरीर में क्रोध के समय ऐड्रीनल नामक ग्रंथि से विष छूट जाता है, तब हम उसे माफ नहीं करते।
जब एक आदमी क्रोध में होता है, तो होता क्या है? उसके खून में विष छूट जाता है। उसके भीतर की ग्रंथियों से रस-स्राव हो जाता है। वह आदमी उसी हालत में आ जाता है, जैसा शराबी आता है। फर्क इतना ही है, शराबी ऊपर से शराब लेता है, इस आदमी को भीतर से शराब आ जाती है। अब जिस आदमी के खून में जहर छूट गया है, अगर वह घूंसा बांधकर मारने को टूट पड़ता है, तो इसमें इस आदमी पर नाराज होने की बात क्या है! यह इस आदमी के भीतर जो घटित हो रहा है प्रकृति का गुण, उसका परिणाम है।
कृष्ण यह कह रहे हैं कि जो आदमी जीवन के इस रहस्य को समझ लेता है, वह आदमी अनासक्त हो जाता है।
बुद्ध एक गांव में ठहरे हैं–अंतिम दिन, जहां उनकी बाद में मृत्यु हुई–एक गरीब आदमी ने उन्हें भोजन पर बुलाया। बिहार के गरीब सब्जी तो नहीं जुटा पाते थे। अब भी नहीं जुटा पाते हैं। तो कुकुरमुत्ता बरसात में पैदा हो जाता है–वृक्षों पर, पत्थरों पर, जमीन में–छतरी, उसको ही काटकर रख लेते हैं। फिर उसे सुखा लेते हैं। फिर उसी की सब्जी बना लेते हैं। गरीब था आदमी। उसके घर में कोई सब्जी न थी। लेकिन बुद्ध को निमंत्रण कर आया, तो कुकुरमुत्ते की सब्जी बनाई। कुकुरमुत्ता कभी-कभी विषाक्त हो जाता है, पायजनस हो जाता है। कहीं भी उगता है; अक्सर गंदी जगहों में उगता है।
वह सूखा कुकुरमुत्ता विषाक्त था। बुद्ध ने चखा, तो वह कड़वा था। लेकिन वह गरीब पंखा झल रहा था, और उसकी आंखों से आनंद के आंसू बह रहे थे। तो बुद्ध ने कुछ कहा न, वे खाते चले गए। वह कड़वा जहर था। लौटे तो बेहोश हो गए। चिकित्सकों ने कहा कि बचना मुश्किल है। खून में जहर फैल गया है। उस आदमी ने बेचारे ने कहा कि आपने कहा क्यों नहीं कि कड़वा है!
बुद्ध ने कहा, देखा मैंने तुम्हारे आंखों के आंसुओं को, उनके आनंद को देखा मैंने कुकुरमुत्ते के कड़वेपन को। देखा मैंने मेरे खून में फैलते हुए जहर को। देखा मैंने मेरी आती हुई मौत को। फिर मैंने कहा, मौत तो रोकी नहीं जा सकती, आज नहीं कल आ ही जाएगी। कुकुरमुत्ता कड़वा है, इसमें नाराजगी क्या! जहर मिल गया होगा। तुम इतने आनंदित हो कि जो मृत्यु आने ही वाली है, जो रोकी न जा सकेगी, आज-कल आ ही जाएगी, उस छोटी-सी घटना के लिए तुम्हारी खुशी को छीनने वाला क्यों मैं बनूं? कहूं कि कड़वा है, तो तुम्हारी खुशी कड़वी हो जाए। और सब चीजें अपने गुण से हो रही हैं: जहर कड़वा है; भोजन कराने वाला आनंदित है; भोजन करने वाला भी आनंदित है। बुद्ध ने कहा, मैं पूरा आनंदित हूं। जहर मुझे नहीं मार पाएगा। जहर जिसे मार सकता है, उसे मार लेगा। जहर का जो गुण है, वह शरीर के जो गुण हैं, उन पर काम कर जाएगा। मैं देखने वाला हूं, मैं मरने वाला नहीं हूं।
लेकिन बुद्ध की मृत्यु हो गई। मृत्यु के पहले बुद्ध ने अपने भिक्षुओं को बुलाकर कहा कि जाओ गांव में डुंडी पीट दो, सारे गांव में खबर कर दो कि जिस आदमी ने बुद्ध को अंतिम भोजन दिया, वह परम पुण्यशाली है। भिक्षुओं ने कहा, आप क्या कहते हैं! वह आदमी हत्यारा है। बुद्ध ने कहा, तुम्हें पता नहीं है; कभी-कभी हजारों-लाखों वर्षों में बुद्ध जैसा व्यक्ति पैदा होता है। उसको जो मां पहली दफे भोजन देती है, वह भी धन्यभागी है। और जो आदमी उसे अंतिम भोजन देता है, वह भी कम धन्यभागी नहीं है। इस आदमी ने मुझे अंतिम भोजन दिया, यह बहुत धन्यभागी है।
और भिक्षु तो चले गए; आनंद रुका रहा। आनंद ने बुद्ध से कहा कि मेरा मन नहीं होता; आप यह क्या कह रहे हैं! बुद्ध ने कहा, आनंद तू समझता नहीं। जहर ने अपना काम किया, उस आदमी ने अपना काम किया। मैं बुद्ध हूं, मुझे मेरे गुणधर्म के अनुसार काम करने दो, अन्यथा लोग क्या कहेंगे। और अगर मैं यह कहकर न जाऊं और मर जाऊं, तो मुझे खयाल है कि तुम मिलकर कहीं उसकी हत्या न कर दो! कहीं उसके घर में आग न लगा दो! अगर तुमने यह भी न किया, तो वह जन्मों-जन्मों के लिए नाहक अपमानित और निंदित तो हो ही जाएगा।
एक और छोटी बात कहूं। उमास्वाति ने उल्लेख किया है एक फकीर का, एक साधु का कि वह पानी में उतरा। एक बिच्छू पानी में डूब रहा है। उसने उसे हाथ में ले लिया। लेकिन बिच्छू जोर से डंक मारता है। हाथ कंप जाता है, बिच्छू गिर जाता है। वह फिर बिच्छू को उठाता है। किनारे खड़ा एक आदमी कहता है कि तुम पागल तो नहीं हो! वह बिच्छू, जो तुम्हें काट रहा है और जहर से भरे दे रहा है, तुम उसे बचाने की कोशिश क्यों कर रहे हो?
वह फकीर कहता है कि बिच्छू अपना गुणधर्म निभा रहा है, मैं अपना गुणधर्म न निभाऊं, तो परमात्मा के सामने बिच्छू जीत जाएगा और मैं हार जाऊंगा। मैं साधु हूं, बचाना मेरा गुणधर्म है। वह बिच्छू है, काटना उसका गुणधर्म है। वह अपना काम पूरा कर रहा है, तुम मुझे मेरा काम पूरा क्यों नहीं करने देते हो!
कृष्ण कह रहे हैं अर्जुन से, जो व्यक्ति, जीवन गुणों के अनुसार वर्तित हो रहा है और कर्म भी महाप्रकृति की विराट लीला के हिस्से हैं, ऐसा जान लेता है, वह कर्म में अनासक्त हो जाता है। ऐसे व्यक्ति को दुख नहीं व्यापता; ऐसे व्यक्ति को सुख नहीं व्यापता। ऐसे व्यक्ति को सफलता-असफलता समान हो जाती है। ऐसे व्यक्ति को यश-अपयश एक ही अर्थ रखते हैं। ऐसे व्यक्ति को जीवन-मृत्यु में भी कोई फर्क नहीं रह जाता है। और ऐसी चित्तदशा में ही परमात्मा का, सत्य का, आनंद का अवतरण है।
इसलिए वे कृष्ण अर्जुन से कहते हैं, तू भाग मत। तू इस भांति बर्त, समझ कि जो हो रहा है, हो रहा है। तू उसके बीच में अपने को भारी मत बना, अपने को बीच में बोझिल मत बना। जो हो रहा है, उसे होने दे और तू उस होने के बाहर अनासक्त खड़ा हो जा। यदि तू अनासक्त खड़ा हो सकता है, तो फिर युद्ध ही शांति है। और अगर तू अनासक्त खड़ा नहीं हो सकता, तो शांति भी युद्ध बन जाती है।
प्रश्न: भगवान श्री, अहंकाररूपी भ्रम से आसक्ति पैदा होती है, तो कृपया अहंकार की उत्पत्ति को अधिक स्पष्ट करें ?
अहंकाररूपी भ्रम से आसक्ति उत्पन्न होती है, अहंकार कैसे उत्पन्न होता है? दोत्तीन बातें समझ लेनी उपयोगी हैं। पहली बात तो अहंकार कभी उत्पन्न नहीं होता, सिर्फ प्रतीत होता है। उत्पन्न कभी नहीं होता, सिर्फ प्रतीत होता है। जैसे रस्सी पड़ी हो और सांप प्रतीत हो। उत्पन्न कभी नहीं होता, सिर्फ प्रतीत होता है। लगता है कि है, होता नहीं। अहंकार भी लगता है कि है, है नहीं।
जैसे हम लकड़ी को पानी में डालें और लकड़ी तिरछी दिखाई पड़ती है–होती नहीं, जस्ट एपियर्स–बस प्रतीत होती है। बाहर निकालें, सीधी पाते हैं। फिर पानी में डालें, फिर तिरछी दिखाई पड़ती है। और हजार दफे देख लें और पानी में डालें, अब आपको भलीभांति पता है कि लकड़ी तिरछी नहीं है, फिर भी लकड़ी तिरछी दिखाई पड़ती है। ठीक ऐसे ही अहंकार दिखाई पड़ता है, पैदा नहीं होता। इस बात को तो पहले खयाल में ले लें। क्योंकि अगर अहंकार पैदा हो जाए, तब उससे छुटकारा बहुत मुश्किल है। अगर दिखाई ही पड़ता हो, तो समझ से ही उससे छुटकारा हो सकता है। फिर चाहे वह दिखाई ही पड़ता रहे, तो भी छुटकारा हो जाता है। अहंकार कैसे दिखाई पड़ता है, अहंकार के दिखाई पड़ने का जन्म कैसे होता है, यह मैं जरूर कहना चाहूंगा।
पहली बात। एक बच्चा पैदा होता है। हम उसे एक नाम देते हैं–अ, ब, स। कोई बच्चा नाम लेकर पैदा नहीं होता। किसी बच्चे का कोई नाम नहीं होता। सब बच्चे अनाम, नेमलेस पैदा होते हैं। लेकिन बिना नाम के काम चलना मुश्किल है। अगर आप सबके नाम छीन लिए जाएं, तो बड़ी कठिनाई पैदा हो जाएगी। और मजा यह है कि नाम बिलकुल झूठा है; फिर भी उस झूठ से काम चलता है। अगर नाम छीन लिए जाएं, तो सचाई तो यही है कि नाम किसी का कोई भी नहीं है। सब बिना नाम के हैं। लेकिन बड़ी कठिनाई हो जाएगी। जिस जगत में हम जीते हैं संबंधों के, जिस माया के जगत में हम जीते हैं, उस जगत में झूठे नाम बड़े काम के हैं। और कोई चीज काम की हो, इसीलिए सच नहीं हो जाती। और कोई चीज काम में न आती हो, इसीलिए झूठ नहीं हो जाती। यूटिलिटी और ट्रुथ में फर्क है; उपयोगिता और सत्य में फर्क है। बहुत-सी झूठी चीजें उपयोगी होती हैं।
घर में मिठाई रखी है और बच्चे को हम कह देते हैं, भूत है, भीतर मत जाना। भूत होता नहीं, मिठाई होती है; लेकिन बच्चा भीतर नहीं जाता। भूत का होना काम करता है, यूटिलिटेरियन है, उपयोगिता तो सिद्ध हो जाती है। और बच्चे को अगर समझाते कि मिठाई के खाने से क्या-क्या दोष हैं, और मिठाई के खाने से क्या-क्या हानियां हैं, और मिठाई के खाने से क्या-क्या बीमारियां होंगी, तो वे सब बेकार थीं। वे सच थीं, लेकिन वे कारगर नहीं थीं। बच्चे के लिए तो बिलकुल अर्थ की नहीं थीं। भूत काम कर जाता है; बच्चा कमरे के भीतर नहीं जा पाता। जो भूत नहीं है, वह मिठाई और बच्चे के बीच खड़ा हो जाता है। उपयोगी है।
नाम बिलकुल नहीं है, लेकिन आपके और जगत के बीच एक लेबल की जरूरत है, अन्यथा मुश्किल और कठिनाई हो जाती। एक भूत खड़ा हम कर देते हैं कि इसका नाम राम, इसका नाम कृष्ण, इसका नाम अर्जुन, इसका नाम यह, उसका नाम वह। नाम एक झूठ है। लेकिन नाम गहरे उतर जाता है। और इतना गहरे उतर जाता है कि आपको नींद में भी पता होता है कि आपका नाम क्या है, बेहोशी में भी पता होता है कि आपका नाम क्या है! जो नहीं है, वह भी पता होता है। आपके नाम को कोई गाली दे दे, तो खून में जहर दौड़ जाता है। अब नाम बिलकुल झूठ है, लेकिन खून में दौड़ने वाला जहर बिलकुल सच है।
यह करीब-करीब ऐसे होता है जैसे सपने में आप डर गए और एक जंगली जानवर ने आपकी छाती पर पंजा रख दिया। अब नींद खुल गई। अब पता चल गया कि सपना है, लेकिन पसीना अभी भी बहे चला जाता है और छाती अभी भी धड़के चली जाती है। अब मालूम है कि सपना था, कोई जंगली जानवर नहीं है। अपने घर में सोए हुए हैं। दरवाजा बंद है, कहीं कोई नहीं दिखाई पड़ता, बिजली जल रही है, लेकिन अभी धड़कन जारी है। वक्त लगेगा, मोमेंटम पकड़ गया। हृदय धड़कने लगा। धड़केगा थोड़ी देर। एकदम से बंद नहीं हो सकता। एकदम से बंद हो जाए, तो खतरा भी है; धीरे-धीरे, धीरे-धीरे उतरेगा। जैसे धीरे-धीरे चढ़ा, वैसे धीरे-धीरे उतरेगा। अब आप भलीभांति जानते हैं कि बड़ी अजीब बात है–सपना और हृदय को धड़का जाता है! हृदय बहुत सच है और सपना बिलकुल झूठ है।
नाम जिंदगीभर काम देता है। लेकिन आपका नाम दूसरों के लिए काम देता है, आपके लिए काम नहीं देता। तो आपको स्वयं को बुलाने के लिए भी तो कोई इशारा चाहिए, वह इशारा मैं, ईगो, अहंकार है। तो दो तरह के नाम हैं। एक नाम जो मेरा दूसरों के बुलाने के लिए है–वह मेरा नाम; और एक जो मैं स्वयं अपने को बुलाऊंगा–मैं। अन्यथा बड़ी मुश्किल हो जाएगी कि मैं कौन हूं। और अगर मैं अपना नाम बुलाऊं, तो आपको समझने में मुश्किल होगी कि मैं किसके बाबत कह रहा हूं, अपने बाबत या दूसरों के बाबत। इसलिए मैं सबके लिए काम कर जाता है। प्रत्येक व्यक्ति अपने लिए मैं कहता है, वह कामन नेम है खुद के लिए। और दूसरे के लिए, उपयोग के लिए एक नाम है। इसलिए हो भी सकता है, आप अपना नाम कभी भूल जाएं, लेकिन मैं को आप कभी नहीं भूल सकते। क्योंकि आपका नाम दूसरे लोग उपयोग करते हैं, वह उनको याद रहता है। आप तो सिर्फ मैं का ही उपयोग करते हैं।
मैंने सुना है, पहले महायुद्ध में अमेरिका में पहली बार राशनिंग हुई। और एडिसन, एक बड़ा वैज्ञानिक, उसको भी अपना राशनकार्ड लेकर और राशन के लिए क्यू में खड़ा होना पड़ा। लेकिन एडिसन बहुत बड़ा वैज्ञानिक था। कोई एक हजार उसने आविष्कार किए। शायद पृथ्वी पर किसी दूसरे आदमी ने इतने आविष्कार नहीं किए। गहन से गहन प्रतिभा का मनुष्य था। सैकड़ों लोग उसे आदर देते थे। तो कोई उसका नाम तो कभी लेता नहीं था। तीस साल से उसने अपना नाम नहीं सुना था सीधा, कि किसी ने कहा हो, एडिसन। कोई उसको प्रोफेसर कहता, कोई उसको कुछ कहता। लेकिन नाम तो उसका कोई सीधा नहीं लेता था। क्यू में खड़ा है। उसका कार्ड लगा हुआ है राशन का।
जब उसके कार्ड का नंबर आया और क्यू में वह सामने आया, तो कार्ड वाले क्लर्क ने चश्मा ऊपर उठाकर आवाज लगाई कि थामस अल्वा एडिसन कौन है? वे सज्जन खड़े ही रहे, एडिसन खड़े ही रहे। फिर उसने दुबारा कहा कि भई, यह कौन आदमी है एडिसन, आगे आओ! तब क्यू में से किसी ने झांककर देखा और उसने कहा कि मालूम होता है, जो आदमी सामने खड़ा है, वह एडिसन है; मैंने अखबार में तस्वीर देखी है; लेकिन वह तो चुप ही खड़ा है! आदमी क्यू के बाहर आया और उसने कहा, महाशय! जहां तक हमें याद आता है, आपकी शकल एडिसन से मिलती-जुलती है। उसने कहा कि हो न हो यह मेरा ही नाम होना चाहिए। लेकिन सच बात यह है कि तीस साल से मुझे किसी ने कभी पुकारा नहीं, तो मुझे खयाल में नहीं रहा। लेकिन परिचित मालूम पड़ता है, नाम मेरा ही होना चाहिए!
खुद के बुलाने के लिए मैं, दूसरों के बुलाने के लिए नाम। एक ही मैं से काम चल जाता है। नाम अनेक रखने पड़ते हैं, क्योंकि दूसरे बुलाएंगे। यह मैं बचपन से ही बच्चे को स्मरण हम दिलाना शुरू करते हैं। लेकिन साइकोलाजिस्ट कहते हैं कि बच्चे को पहले मैं का पता नहीं चलता, पहले तू का पता चलता है। बच्चे को पहले मैं का पता नहीं चलता। इसलिए छोटे बच्चे अक्सर कहते हैं कि इसको भूख लगी है; वे यह नहीं कहते कि मुझे भूख लगी है। मुझे का अभी बोध नहीं होता। वे कहते हैं, इसको भूख लगी है। या पेट बता देते हैं कि यहां भूख लगी है। मैं का बोध बच्चे को बाद में आता है, तू का बोध पहले आता है, क्योंकि तू पहले दिखाई पड़ता है चारों तरफ। बच्चे को अपना पूरा शरीर भी अपना है, यह भी बहुत बाद में पता चलता है।
छोटे बच्चे अगर अपना अंगूठा चूसते हैं, तो आप समझते हैं कि वे अपना अंगूठा चूस रहे हैं। मनोवैज्ञानिक, खासकर जिन्होंने बच्चों पर प्रयोग किया है–जीनपियागेट, जिंदगीभर जिसने बच्चों के अध्ययन में लगाई है–वह कहता है, बच्चों को पता नहीं होता कि अपना अंगूठा चूस रहे हैं। वे तो कोई और ही चीज समझकर चूसते रहते हैं। उनको यह पता नहीं होता कि यह उनका अंगूठा है। जिस दिन पता चल जाएगा, उनका अंगूठा है, उस दिन तो वे भी नहीं चूसेंगे।
शरीर भी पूरा अपना है, इसका भी बच्चे को पता नहीं होता। बच्चे को सपने में और जागने में भी फर्क नहीं होता। सुबह जब उठता है, तो सपने के लिए रोता है कि मेरा खिलौना कहां गया, जो सपने में उसके पास था! बच्चे को अभी मैं का भी पता नहीं होता। मैं का बोध उसे तू को देखकर पैदा होता है। चारों तरफ और लोग हैं, और धीरे-धीरे उसे पता चलता है कि मैं अलग हूं, मेरा हाथ अलग है, मेरा मुंह अलग, मेरे पैर अलग; मैं उठता हूं तो अलग, दूसरे उठते हैं तो अलग। धीरे-धीरे यह चारों तरफ जो जगत है, इससे वह अपने को आइसोलेट करना सीखता है कि मैं अलग हूं। फिर उसके मैं का जन्म होना शुरू होता है। वह प्रयोग करना शुरू करता है, मुझे भूख लगी है।
कभी आप खयाल करें। जब भी आपको भूख लगती है, तब अगर ठीक से गौर से देखें, तो आपको पता चलता है कि भूख लगी है; आपको भूख कभी नहीं लगती। पता चलता है, भूख लगी है, पेट में लगी है। पता चलता है, पैर में चोट लगी है, दर्द हो रहा है। लेकिन आप कहते हैं, मुझे भूख लगी है। बहुत गौर से देखें और बहुत ठीक से अगर ठीक भाषा का प्रयोग करें, तो आपको कहना चाहिए, पता चलता है कि पेट में भूख लगी है। फैक्चुअल, अगर तथ्यगत सूचना देना चाहें, तो आपको कहना चाहिए, पता चलता है कि पैर में चोट लगी है। पता ही चलता है।
लेकिन अगर ऐसा कहेंगे, तो पागल समझे जाएंगे। जिंदगी की उपयोगिता मैं के आस-पास खड़ी है। पर कभी हम भूल जाते हैं धीरे-धीरे कि यह मैं एक कामचलाऊ शब्द है, यह सत्य नहीं है। यह कामचलाऊ शब्द है, यह सत्य नहीं है। और धीरे-धीरे इस कामचलाऊ शब्द को हम सत्य मानकर जीने लगते हैं। फिर हम विभाजन कर लेते हैं। विभाजन वैसा ही जैसे आप कहते हैं कि यह मेरा आंगन है! आपका आंगन है, बिलकुल सच है, लेकिन पृथ्वी बंटती नहीं। आपका आंगन भला हो, लेकिन पृथ्वी अनबंटी है। पड़ोसी के आंगन और आपके आंगन के बीच में पृथ्वी में कोई दरार नहीं पड़ती। आपके मकान और पड़ोसी के मकान के बीच में पृथ्वी टूटती नहीं। न हिंदुस्तान और पाकिस्तान के बीच में कोई खाई है, और न हिंदुस्तान और चीन के बीच में पृथ्वी टूटती है। पृथ्वी एक है। लेकिन कामचलाऊ शब्द है कि मेरा देश। तो ऐसा लगता है कि मेरा देश कहीं टूट जाता है और दूसरे का देश वहां से शुरू होता है और बीच में कोई खाई है। कहीं कोई खाई नहीं है। मेरा देश एक राजनैतिक शब्द है, जो खतरनाक सिद्ध होता है, अगर आपने समझा कि यह जीवन का शब्द बन गया है।
मैं एक मनोवैज्ञानिक उपयोगिता है। लेकिन आप सोचते हैं, मैं का मतलब है, जहां मैं समाप्त होता हूं, वहां मैं बिलकुल समाप्त होता हूं और दूसरे शुरू होते हैं। आप कहीं समाप्त नहीं होते। अगर हम विज्ञान से भी पूछें, तो विज्ञान भी कहेगा, आप कहीं समाप्त नहीं होते। दस करोड़ मील दूर जो सूरज है, वह अगर ठंडा हो जाए, तो मैं ठंडा हो जाऊं। तो मैं और सूरज अलग-अलग हैं? अगर अलग-अलग हैं, तो सूरज हो जाए ठंडा, मैं क्यों ठंडा होऊं! सूरज और मैं कहीं जुड़े हैं। तभी तो सूरज ठंडा हो, तो मैं ठंडा हो जाऊं। अभी हवाओं में आक्सीजन है, कल न रह जाए, तो मैं समाप्त। यह मेरे भीतर जलता हुआ दीया बुझा! तो फिर इन हवाओं से मैं अलग हूं?
एक क्षण को अलग नहीं हैं। आप जो श्वास ले रहे हैं, वह आपसे हवा का जोड़ है। आप प्रतिपल जुड़े हुए हैं। आप हवा में ही जी रहे हैं, जैसे मछली पानी में, सागर में जी रही है। सागर न रह जाए, तो मछली नहीं है। ऐसे ही आप भी हवा के सागर में जी रहे हैं। हवा न रह जाए, तो आप भी नहीं हैं। लेकिन आप कहते हैं, मैं अलग हूं। अगर आप अलग हैं, तो ठीक है, एक पांच मिनट श्वास न लें और जीकर देखें। तब आपको पता चलेगा कि यह मैं उपयोगी तो था, सत्य नहीं है।
हवा भी मुझसे जुड़ी है। अभी जो श्वास आपके पास थी थोड़ी देर पहले, अब वह मेरे पास है। और मैं कह भी नहीं पाया कि मेरे पास है, कि वह किसी और के पास चली गई। वह श्वास किसकी थी? आपके खून में जो अणु दौड़ रहे हैं, वे अभी आपके पास हैं, कल किसी वृक्ष में थे, परसों किसी नदी में, उसके पहले किसी बादल में थे। किसके हैं वे? आपके शरीर में जो हड्डी है, वह न मालूम कितने लोगों के शरीर की हड्डी बन चुकी है और अभी न मालूम कितने लोगों के शरीर की हड्डी बनेगी। उस पर जल्दी से अपना कब्जा मत कर लेना। वह आपकी क्या है? आपके पास जो आंख है, वे आंख के अणु और न मालूम किन-किन आंखों के अणु बन चुके हैं। पूरी जिंदगी इकट्ठी है।
जब कृष्ण कहते हैं यह कि अज्ञानीजन अपने को अहंकार में बांधकर व्यर्थ फंस जाते हैं, तो उसका मतलब केवल इतना है। इसका मतलब यह नहीं है कि कृष्ण मैं का उपयोग न करेंगे। कृष्ण भी उपयोग करेंगे, उपयोग तो करना ही पड़ेगा। लेकिन उपयोग को कोई सत्य न मान ले। उपयोग तो करना ही पड़ेगा, लेकिन उपयोग को कोई पकड़कर यह न समझ ले कि वही सत्य है। बस, इतना स्मरण रहे, तो जीवन से आसक्ति कम होनी शुरू हो जाती है। क्योंकि आसक्ति वहीं है, जहां मैं है। मेरा वहीं है, जहां मैं है। अगर मुझे यह पता चल जाए कि मेरी जैसी कोई सत्ता ही नहीं है, सब इकट्ठा है, तो मैं किस चीज को मेरा कहूं और किस चीज को पराया कहूं! फिर कोई चीज अपनी नहीं, कोई चीज पराई नहीं; सब उसकी है, सब प्रभु की है। ऐसी मनोदशा में आसक्ति विलीन हो जाती है।
प्रकृतेर्गुणसंमूढाः सज्जन्ते गुणकर्मसुः।
तानकृत्स्नविदोमन्दान्कृत्स्नविन्नविचालयेत्।। २९।।
और प्रकृति के गुणों से मोहित हुए पुरुष गुण और कर्मों में आसक्त होते हैं। उन अच्छी प्रकार न समझने वाले मूर्खों को, अच्छी प्रकार जानने वाला ज्ञानी पुरुष चलायमान न करे। बहुत कीमती सूत्र कृष्ण इसमें कह रहे हैं। वे कह रहे हैं, प्रकृति के गुणों से मोहित हुए…।
इस मोहित शब्द को थोड़ा गहरे में समझना जरूरी है। मोहित हुए अर्थात सम्मोहित हुए, हिप्नोटाइज्ड। सुना होगा आपने कि सिंह के सामने शिकार जब जाता है, तो भाग नहीं पाता, सम्मोहित हो जाता है, हिप्नोटाइज्ड हो जाता है, खड़ा रह जाता है; भूल ही जाता है कि भागना है। सिंह की आंखों में देखता हुआ अवरुद्ध हो जाता है, मैग्नेटाइज्ड हो जाता है, रुक ही जाता है। भागना ही भूल जाता है। यह भी भूल जाता है कि मृत्यु सामने खड़ी है। अजगर के बाबत तो कहा जाता है कि शिकार अपने आप खिंचा हुआ उसके पास चला आता है। आकाश में उड़ता हुआ पक्षी खिंचता हुआ चला आता है; कोई परवश, कोई खींचे चला जाता है।
संस्कृत का यह शब्द है, पशु। इसका मतलब इतना ही होता है कि जो पाश में बंधा हुआ खिंचा चला आता है, उसे पशु कहते हैं। जैसे एक गाय को हमने बांध लिया रस्सी में और खींचे चले आ रहे हैं। गाय पाश में बंधी हुई खिंची चली आती है। ऐसे ही प्रत्येक व्यक्ति प्रकृति के गुणों में खिंचा हुआ पशु की तरह वर्तन करता है, मोहित हो जाता है, हिप्नोटाइज्ड हो जाता है। इसमें दोत्तीन बातें हिप्नोटिज्म की खयाल में लें, तो खयाल में आ सकेगा।
एक चेहरा सुंदर लगता है आपको, खिंचे चले जाते हैं। लेकिन कभी आपने सोचा है कि चेहरे में क्या सौंदर्य हो सकता है! आप कहेंगे, होता है, बिलकुल होता है। लेकिन फिर आपको सम्मोहन के संबंध में बहुत पता नहीं है। मेरे एक मित्र, जिनको सुंदर चेहरों पर बड़ा ही आकर्षण था। उनसे मैंने कहा, आकर्षण है क्या सुंदर चेहरों में? उन्होंने कहा, है। फिर भी मैंने कहा, क्या है? नाक थोड़ी लंबी होती है कि थोड़ी छोटी होती है, तो आपके हृदय की धड़कन में क्यों फर्क पड़ता है? आंख थोड़ी बड़ी होती है कि छोटी होती है, कि चेहरा थोड़ा अनुपात में होता है कि गैर-अनुपात में होता है, इससे आपके भीतर क्या होता है? उन्होंने कहा, होता है। आप सौंदर्य को नहीं मानते?
तो मैंने उन्हें सम्मोहित करके बेहोश किया। जब वे बेहोश हो गए, तो पास में पड़े हुए तकिए को मैंने उनके पास रखा और मैंने कहा, यह तकिया इतना सुंदर है, जितनी कोई स्त्री आपने कभी नहीं देखी है। इसे पास में लो, आलिंगन करो, चूमो, प्यार करो। उन्होंने तकिए को पास में लिया, खूब प्रेम किया। फिर मैंने उनसे कहा कि जब तुम होश में आ जाओगे, आधा घंटे बाद, फिर तुममें प्रेम की लहर आएगी और इस तकिए को तुम फिर छाती से लगाओगे। पोस्ट-हिप्नोटिक सजेशन! आधा घंटे बाद होश में आने के बाद, आधा घंटे बाद तुम विवश हो जाओगे, तुम्हारे बस में न रहेगा, बस तुम उठाओगे तकिए को, छाती से लगाओगे और चूमोगे।
फिर वे होश में आ गए। फिर हम सब बैठकर गपशप करने लगे। फिर सब ठीक बात हो गई। घड़ी मैं देख रहा हूं। तकिया उनके पास में पड़ा है। उसे उठाकर मैंने आलमारी में बंद कर दिया। उनकी आंखें देख रहा हूं। पच्चीस मिनट, तीस मिनट और बेचैनी उनकी शुरू हुई। जो लोग भी बैठे थे, वे भी देख रहे हैं कि अब वे बेचैन हो गए हैं। वे बड़ी मुश्किल में पड़ गए हैं। अब वे ठीक उसी हालत में हैं, जैसी हालत में कामुकता से भरा हुआ आदमी हो जाता है। लेकिन तकिए के प्रति कोई कामुकता होती है? उठे।
मैंने कहा, कहां जा रहे हैं? उन्होंने कहा कि जरा वह तकिया मुझे देखना है, क्योंकि मुझे वह बहुत पसंद पड़ा, उसी तरह का तकिया मैं भी बाजार से खरीदना चाहता हूं। अब वे रेशनलाइज कर रहे हैं। उनको भी पता नहीं है। अब वे तर्क दे रहे हैं। मैंने कहा, छोड़ो भी, मैं तुम्हें यहीं बताए देता हूं कि तकिया कहां से लिया गया है। वहां से तुम तकिया ले लेना। उन्होंने कहा कि नहीं, जरा मैं देखना ही चाहता हूं। उनकी चाल देखने जैसी थी; जैसे भौंरा फूल के पास जाता है, बस वैसे ही वे आलमारी खोलकर। लेकिन सब हम बैठे हैं। तकिए को उठाकर देखते हैं उसे, उनकी आंखें, उनके हाथ। वह तकिया बड़ा जीवित हो गया है, क्योंकि अनकांशस में सम्मोहित कर रहा है। तकिया उन्हें खींच रहा है, क्योंकि तकिया सुंदर है, यह भाव गहरे अचेतन में उनके प्रवेश कर गया है।
एक क्षण उन्होंने हमारी तरफ देखा, फिर जैसे बेहोश आदमी, फिर वे हमारी फिक्र भूल गए, फिर उन्होंने तकिए को छाती से लगाकर चूमना शुरू कर दिया। हमने कहा भी कि यह क्या पागलपन कर रहे हो! पर वे पागलपन कर चुके थे। फिर बैठ गए। पसीना आ गया। घबड़ा गए और कहने लगे, मैंने यह क्या किया? यह हुआ क्या? मैंने कहा, ठीक ऐसे ही स्त्री और पुरुष सुंदर मालूम हो रहे हैं। ठीक ऐसे ही। वह प्रकृति के द्वारा डाला गया मोह है, वह प्रकृति के द्वारा डाली गई हिप्नोसिस है। वह हमारे अचेतन में जन्मों-जन्मों से डाला गया, बांधा गया वासना का बीज है। वह काम कर रहा है। वह काम करता है, फिर वह जुड़ जाता है। वह चीजों से भी जुड़ जाता है।
कृष्ण कह रहे हैं, प्रकृति के गुणों से मोहित हुआ पुरुष…।
वही दुख है, वही पीड़ा है सब की। हम किन-किन चीजों से मोहित होते हैं, जरा खयाल करना, तो बड़ी हैरानी होगी। अगर चित्र देखें, फिल्म देखें, पेंटिंग्स देखें, कविताएं उठाएं, नाटक पढ़ें, उपन्यास देखें; अगर सारी मनुष्य जाति का पूरा का पूरा साहित्य, जिसको हम बड़ा भारी साहित्य कहते हैं, उसे उठाकर देखें, तो बड़ी हैरानी होगी। कुछ चीजों से आब्सेशन आदमी को पैदा हो गया है, पागल की तरह। और किसी को खयाल में नहीं है कि क्या हो गया है। और कभी खयाल में नहीं आता कि प्रकृति के गुण इस भांति मोहित कर सकते हैं!
अब स्त्रियों के स्तन सारी मनुष्य जाति को पीड़ित किए हुए हैं। सारे चित्र, सारी तस्वीरें, कविताएं, साहित्य, उन्हीं से भरा हुआ है। सब कवि, सब चित्रकार पागल मालूम पड़ते हैं। स्त्री के स्तन में क्या है? लेकिन छोटे बच्चे की पहली पहचान स्तन से होती है। पहला प्रेम और पहला ज्ञान स्तन से जुड़ता है। पहला एसोसिएशन, उसके दिमाग में पहला इंप्रेशन स्तन का बनता है। फिर वह जिंदगीभर पीछा करता है। वह सम्मोहित हो गया। अब वह बूढ़ा हो गया, अभी भी वह स्तन से सम्मोहित है।
यह बचपन में पड़ी पहली छाप है। इसको बायोलाजिस्ट कहते हैं, यह ट्रॉमेटिक इंप्रेशन है। वे कहते हैं, चूंकि बच्चे के चित्त पर सबसे पहली छाप मां के स्तन की पड़ती है, इसलिए बुढ़ापे के मरते दम तक स्तन पीछा करता है। और कुछ भी नहीं। बस, सम्मोहित हो गया आदमी; फिर बड़े से बड़ा कालिदास हो, कि भवभूति हो, कि पिकासो हो, कि कोई भी हो, बड़े से बड़ा चित्रकार, बड़े से बड़ा कवि, बस वह उसी में उलझा हुआ है। आश्चर्यजनक है।
लेकिन कृष्ण कहते हैं, प्रकृति के गुण को न समझने से और उनसे सम्मोहित हो जाने से, हिप्नोटाइज्ड हो जाने से आदमी अज्ञान में, मोह में, आसक्ति में, दुख में पड़ता है। और नासमझों से भरा हुआ जगत है। ये सभी इसी तरह…मनोवैज्ञानिक फेटिश शब्द का प्रयोग करते हैं। वे कहते हैं, आदमी अंगों से प्रभावित हो तो हो, वस्त्रों से, वस्तुओं से, उन तक से प्रभावित और पागल हो जाता है। उन सबसे भी उसके संबंध जुड़ जाते हैं और उनके पीछे भी वह उसी तरह मोहित होकर घूमने लगता है। यह जो स्थिति है चित्त की, इस स्थिति से जो नहीं जागेगा, वह कभी धर्म के सत्य को नहीं जान सकता। वह सिर्फ प्रकृति के गुणों में ही भटकता रहेगा।
रंग मोहित करते हैं। अब रंगों में क्या हो सकता है? लेकिन भारी मोहित करते हैं। किसी को एक रंग अच्छा लगता है, तो वह दीवाना हो जाता है। उसको पागल किया जा सकता है, उसी रंग के साथ। बहुत बड़ा चित्रकार हुआ वानगाग, वह पीले रंग से आब्सेस्ड था। पीला रंग देखे, तो पागल हो जाए। धूप में खड़ा रहे, सूरज की धूप में खड़ा रहे, क्योंकि पीली धूप बरसे। जहां पीले फूल खिल जाएं, फिर वह घर के भीतर न आ सकता था। एक साल आरलिस की धूप में खड़े होकर वह पीले रंग को देखता रहा। और इतनी धूप में खड़े होने की वजह से पागल हुआ, दिमाग विक्षिप्त हो गया। लेकिन पीला रंग उसके लिए पागलपन था। जरूर कहीं बचपन में कोई ट्रॉमेटिक एक्सपीरिएंस, बचपन में कभी कोई ऐसी घटना घट गई, जिससे वह पीले रंग से बिलकुल आब्सेस्ड हो गया।
नेपोलियन इतना बड़ा हिम्मत का आदमी, शेर से लड़ जाए, लेकिन बिल्ली से डरे। सिंहों से जूझ जाए, लेकिन बिल्ली को देख ले, तो पूंछ दबाकर भाग जाए। क्या हो गया? छह महीने का था–क्योंकि नेपोलियन जैसे आदमी की जिंदगी उपलब्ध है, इसलिए जानने में आसानी है–छह महीने का था, पालने पर सोया था, एक जंगली बिलाव ने उसकी छाती पर पैर रख दिया। छह महीने का बच्चा, जंगली बिलाव, छाती पर पैर–चित्र बैठ गया गहरे, अनकांशस में उतर गया। फिर नेपोलियन बड़ा हो गया। सब बात भूल गई। लेकिन बिल्ली दिखे कि नेपोलियन फिर छह महीने का हो जाए। बिल्ली दिखी कि वे रिग्रेस किए, वे वापस छह महीने के हुए।
और कहते हैं मनोवैज्ञानिक कि नेल्सन से जिस युद्ध में नेपोलियन हारा, उसमें नेल्सन सत्तर बिल्लियां युद्ध के मैदान में साथ बांधकर ले गया था। बिल्लियां सामने थीं, फौज पीछे थी। और जब नेपोलियन ने बिल्लियां देखीं, अपने पास के साथी को कहा, अब मेरा बस काम नहीं कर सकता, अब मैं कुछ भी नहीं कर सकता, मेरी सूझ-बूझ खोती है। जैसे अर्जुन ने कृष्ण से कहा न कि मेरा गांडीव ढीला पड़ा जाता है। मेरे गात शिथिल हुए जाते हैं। अब मेरे बस के बाहर है। क्यों? क्योंकि ये मेरे प्रियजन हैं। यह मेरा भी आब्सेशन है। यह मेरा भी सम्मोहन है। कौन मेरा है? कौन पराया है?
बिल्ली से भय है नेपोलियन को; छह महीने का हो गया वह। अब उसकी स्थिति न रही कि वह लड़ ले। हारा पहली दफा उसी दिन। और संभावना बहुत है कि नेल्सन ने नहीं हराया, बिल्लियों ने हराया। नेल्सन की हैसियत न थी इतनी। नेपोलियन बड़ा अदभुत आदमी था। लेकिन ऐसा अदभुत आदमी भी हिप्नोटाइज्ड है। हम सब ऐसे ही, हम सब ऐसे ही जी रहे हैं।
यह अर्जुन को क्या हो गया! इतना बहादुर आदमी, जिसे कभी सवाल न उठे, अचानक युद्ध के मैदान पर खड़ा होकर इतना शिथिल, इतना निर्वीर्य क्यों हुआ जा रहा है? हुआ जा रहा है, क्योंकि बचपन से जिन्हें अपना जाना, आज उनसे ही लड़ने की नौबत है। बचपन से जिन्हें मेरा माना, आज उनसे ही लड़ने की नौबत है। बचपन से कोई भाई था, कोई बंधु था, कोई महापिता थे, कोई कोई था, कोई ससुर था, कोई रिश्तेदार था, कोई मित्र था, कोई गुरु थे, वे सब सामने खड़े हैं। वह सब मेरा घिरकर सामने खड़ा है। और उस मेरे पर हाथ उठाने की हिम्मत अब उसको नहीं होती है। ऐसा नहीं है कि वह कोई अहिंसक हो गया है। ऐसा कुछ भी नहीं है। अगर ये मेरे न होते, तो वह युद्ध में इनको जड़-मूल से काटकर रख देता। उसका हाथ ठहरता भी नहीं। उसकी श्वास रुकती भी नहीं। वह इनको काटने में सब्जी काटने जैसा व्यवहार करता। लेकिन कहां कठिनाई आ गई है? वह मेरा उसका आब्सेशन है। वह मेरा उसका सम्मोहन बन गया है।
कृष्ण कह रहे हैं, प्रकृति में गुण हैं, अर्जुन। और आदमी उनसे मोहित होकर जीता है। साधारण आदमी उनसे मोहित होकर जीता है। वही मोह उसे अंधेरे में घेरे रखता है और वही मोह उसे अंधेरे में धक्का दिए चला जाता है। ज्ञानी पुरुष को एक तो अपने इस सम्मोहन से मुक्त हो जाना चाहिए।
ज्ञानी पुरुष का अर्थ है, डिहिप्नोटाइज्ड, जिसको अब कोई चीज सम्मोहित नहीं करती। रुपया उसके सामने रखें, तो उसे वही दिखाई पड़ता है, जो है। लेकिन रुपए से जो सम्मोहित होता है, उसे रुपया नहीं दिखाई पड़ता। उसे न मालूम क्या-क्या दिखाई पड़ने लगता है! वह शेखचिल्ली की कहानियों में चला जाता है। उसे रुपए में दिखाई पड़ता है कि अब एक से दस हो जाएंगे, दस से हजार हो जाएंगे, हजार से करोड़ हो जाएंगे; और सारी दुनिया ही जीत लूंगा और न मालूम क्या-क्या उस रुपए में स्वप्न उठने लगते हैं। उस एक पड़े हुए रुपए में हजार स्वप्न पैदा होने लगते हैं। लेकिन जिसे सम्मोहन नहीं है, उसे रुपए का ठीकरा ही दिखाई पड़ता है। उपयोगिता है, वह भी दिखाई पड़ती है। लेकिन कोई सपना पैदा नहीं होता। सम्मोहन सपने का उदभावक है। हिप्नोटाइज्ड, मोहग्रस्त चित्त ही कल्पनाओं में, सपनों में भटकता है, आकांक्षाओं में, महत्वाकांक्षाओं में भटकता है।
कृष्ण कहते हैं, ज्ञानी पुरुष स्वयं भी इससे जाग जाता है और ऐसा व्यवहार नहीं करता कि वे अज्ञानी, जो सम्मोहन में भरे जी रहे हैं, उनके जीवन में अस्तव्यस्त होने का कारण बन जाए। इसका यह मतलब नहीं है कि वह उनके सम्मोहन तोड़ने का प्रयास नहीं करता। उनके सम्मोहन तोड़ने का प्रयास किया जा सकता है, लेकिन सम्मोहित हालत में उनके जीवन की धुरी को अस्तव्यस्त करना खतरे से खाली नहीं है।
यह क्यों कह रहे हैं? वे यह इसलिए कह रहे हैं कि अगर तुझे यह भी पता चल गया कि युद्ध व्यर्थ है, तो भी ये युद्ध के लिए तत्पर खड़े लोगों में से किसी को भी पता नहीं है कि युद्ध व्यर्थ है। अगर तू यहां से भागता है, तो सिर्फ कायर समझा जाएगा। अगर तुझे यह भी पता चल गया कि युद्ध व्यर्थ है, तो यहां इकट्ठे हुए युद्ध के लिए तैयार लोगों में से किसी को पता नहीं है कि युद्ध व्यर्थ है। तेरे भाग जाने पर भी युद्ध होगा, युद्ध नहीं रुक सकता है। अगर तुझे पता भी चल गया कि युद्ध व्यर्थ है और तू चला भी जाए, भाग भी जाए, तो केवल जिस धर्म और जिस सत्य के लिए तू लड़ रहा था, उसकी पराजय हो सकती है।
युद्ध तो होगा ही। युद्ध नहीं रुक सकता। ये जो चारों तरफ खड़े हुए लोग हैं, ये पूरी तरह युद्ध से सम्मोहित होकर आकर खड़े हैं। इनको कुछ भी पता नहीं है, इनको कुछ भी बोध नहीं है। इन अज्ञानियों के बीच, इन प्रकृति के गुणों से सम्मोहित पागलों के बीच तू ऐसा व्यवहार कर, जानते हुए भी, देखते हुए भी ऐसा व्यवहार कर कि इन सबके जीवन की व्यवस्था व्यर्थ ही अस्तव्यस्त न हो जाए। और अकेला तू भागकर भी कुछ कर नहीं सकता है। हां, इतना ही कर तू कि अगर तुझे होश आया है, तो तू इतना ही समझ ले कि जिंदगी में सुख-दुख, हार-पराजय सब समान है। वह परमात्मा के हाथ में है। तू कर्ता नहीं है। तू बिना कर्ता हुए कर्म में उतर जा।
मयि सर्वाणिकर्माणि संन्यास्याध्यात्मचेतसा।
निराशीर्निर्ममो भूत्वा युध्यस्व विगतज्वरः।। ३०।।
इसलिए हे अर्जुन, तू अध्यात्म चेतसा हो संपूर्ण कर्मों को मुझमें समर्पण करके आशारहित एवं ममतारहित होकर संतापरहित हुआ युद्ध कर।
कृष्ण कहते हैं, तू सब कुछ मुझमें समर्पित करके, आशा और ममता से मुक्त होकर, विगतज्वर होकर, सब तरह के बुखारों से ऊपर उठकर–बियांड फीवरिशनेस–तू कर्म कर।
इसमें दोत्तीन बातें समझने की हैं। एक, सब मुझमें समर्पित करके! यहां कृष्ण जब भी कहें, जब भी कहते हैं, सब मुझमें समर्पित करके, तो यह कृष्ण नाम के व्यक्ति के लिए कही गई बातें नहीं हैं। जब भी कृष्ण कहते हैं, सब मुझमें समर्पित करके, तो यहां वे मुझसे, मैं से समग्र परमात्मा का ही अर्थ लेते हैं। यहां व्यक्ति कृष्ण से कोई प्रयोजन नहीं है। वे व्यक्ति हैं भी नहीं। क्योंकि जिसने भी जान लिया कि मेरे पास कोई अहंकार नहीं है, वह व्यक्ति नहीं परमात्मा ही है। जिसने भी जान लिया, मैं बूंद नहीं सागर हूं, वह परमात्मा ही है। यहां जब कृष्ण कहते हैं, सब मुझमें समर्पित करके, सब–कर्म भी, कर्म का फल भी, कर्म की प्रेरणा भी, कर्म का परिणाम भी–सब, सब मुझमें समर्पित करके तू युद्ध में उतर। कठिन है बहुत। समर्पण से ज्यादा कठिन शायद और कुछ भी नहीं है। यह समर्पण, सरेंडर संभव हो सके, इसलिए वे दो बातें और कहते हैं, विगतज्वर होकर, बियांड फीवरिशनेस।
हम सब बुखार से भरे हैं। बहुत तरह के बुखार हैं। तरहत्तरह के बुखार हैं। क्रोध का बुखार है, काम का बुखार है, लोभ का बुखार है। इनको बुखार क्यों कह रहे हैं, इनको ज्वर क्यों कहते हैं कृष्ण? ज्वर हैं। असल में जिस चीज से भी शरीर का उत्ताप बढ़ जाए, वे सभी ज्वर हैं। मेडिकली भी, चिकित्साशास्त्र के खयाल से भी। क्रोध में भी शरीर का उत्ताप बढ़ जाता है। खयाल किया है आपने! क्रोध में भी आपका ब्लडप्रेशर बढ़ जाता है, रक्तचाप बढ़ जाता है। क्रोध में हृदय तेजी से धड़कता है, श्वास जोर से चलती है, शरीर उत्तप्त होकर गर्म हो जाता है। कभी-कभी तो क्रोध में मृत्यु भी घटित होती है। अगर कोई आदमी पूरी तरह क्रोधित हो जाए, तो जलकर राख हो जा सकता है, मर ही सकता है। पूरे तो हम नहीं मरते, क्योंकि पूरा हम कभी क्रोध नहीं करते, लेकिन थोड़ा तो मरते ही हैं, इंच-इंच मरते हैं। नहीं पूरे मरते, लेकिन जब भी हम क्रोध करते हैं, तभी उम्र क्षीण होती है, तत्क्षण क्षीण होती है। कुछ हमारे भीतर जल जाता है और सूख जाता है। जीवन की कोई लहर मर जाती और जीवन की कोई हरियाली सूख जाती है। क्रोध करें और देखें कि ज्वर है क्रोध। कृष्ण यहां बड़ी ही वैज्ञानिक भाषा का उपयोग कर रहे हैं।
कभी खयाल किया है कि जब भी सेक्स, कामवासना मन को पकड़ती है, तो शरीर ज्वरग्रस्त हो जाता है, फीवरिश हो जाता है! हृदय की धड़कन बढ़ जाती, रक्तचाप बढ़ जाता, खून की गति बढ़ जाती, श्वास बढ़ जाती, शरीर का ताप बढ़ जाता। प्रत्येक कामवासना में ग्रस्त क्षण में शरीर ज्वरग्रस्त हो जाता है। और अगर बहुत जोर से कामवासना पकड़े, तो पसीना अनिवार्य है, वैसे ही जैसे कि ज्वर में आ जाता है। और अगर और जोर से कामवासना पकड़े, तो मनोवैज्ञानिक कहते हैं कि शरीर पर, सारे शरीर पर चमड़ी पर लाल चकत्ते फैल जाते हैं। स्त्रियों के बहुत जल्दी, क्योंकि उनकी चमड़ी ज्यादा कोमल, ज्यादा डेलिकेट है। लाल चकत्ते पूरे शरीर पर फैल जाते हैं। पुरुषों के शरीर पर भी फैल जाते हैं।
कृष्ण जब कह रहे हैं कि ज्वर से मुक्त हुए बिना कोई समर्पण नहीं कर सकता। क्यों? विगतज्वर ही समर्पण कर सकता है, जिसके जीवन में कोई ज्वर नहीं रहा। अब यह बड़े मजे की बात है, अगर जीवन में ज्वर न रहे, तो अहंकार नहीं रहता, क्योंकि अहंकार के लिए ज्वर भोजन है। जितना जीवन में क्रोध हो, लोभ हो, काम हो, उतना ही अहंकार होता है। और अहंकार समर्पण में बाधा है। अहंकार ही एकमात्र बाधा है, जो समर्पण नहीं करने देती।
और अक्सर ऐसा होता है कि मंदिर में परमात्मा की मूर्ति के सामने जब आप सिर रख देते हैं, तब सिर तो जमीन पर होता है, अहंकार वापस पीछे ही खड़ा रहता है, वह नहीं झुकता। कभी खयाल करना, जब आप मंदिर में झुकें, तो आप देखना कि सिर तो रखा है पत्थर पर और अहंकार पीछे अकड़ा हुआ खड़ा है। वह दूसरे काम कर रहा है। वह देख रहा है कि कोई देखने वाला भी है या नहीं। वह देख रहा है कि मंदिर में कोई आ रहा है कि नहीं। जरा लोग देख लें और गांव में खबर पहुंच जाए कि यह आदमी बड़ा धार्मिक है। वह यह देख रहा है; वह अपने काम में लीन है; वह अपने काम में लगा हुआ है। अहंकार सघन होगा, डेंस होगा। और सघन होता जाएगा, जितना ज्वर होगा जीवन में। और चौबीस घंटे ज्वर के अतिरिक्त क्या है हमारे जीवन में!
हां, बीच-बीच में छोटे-छोटे वक्त रहते हैं, जिनको हम कह सकते हैं, शांति के वक्त। लेकिन वे होते नहीं हैं शांति के। वह सिर्फ दूसरे ज्वर की तैयारी का समय होता है। तैयारी के लिए वक्त लगता है न! आदमी दिनभर, चौबीस घंटे क्रोध नहीं कर सकता, असंभव है। घंटेभर क्रोध करे, तो तीन घंटे विश्राम चाहिए। तीन घंटे विश्राम करके फिर ताजा होना चाहिए, तब फिर क्रोध कर सकता है। तो बीच-बीच में जिनको हम शांति के क्षण कहते हैं, वे विगतज्वर होने के नहीं हैं, वे केवल बीच में विश्राम के और पुनः तैयारी के क्षण हैं।
इसलिए आप एक और बात खयाल करेंगे कि हर आदमी के क्रोध के दौर होते हैं, पीरियड्स होते हैं। और अगर आप डायरी रखें, तो आप अपने पीरियड पकड़ लेंगे, उसी तरह जैसे रोज आदमी जिस वक्त पर सोता है, उसी वक्त पर नींद आती है। रोज भूख लगती है वक्त पर। अगर आप एक महीनेभर डायरी रखें, तो आप बहुत हैरान हो जाएंगे कि आपके क्रोध का भी पीरियड है, जो वक्त पर लौटता है। हमेशा लौट आता है। आपके सेक्स का भी वक्त है, जो हमेशा लौट आता है। लेकिन अगर आप डायरी रखें, तो आपको खयाल रहे कि ठीक इसका भी एक कैलेंडर है, इसके भी आवागमन का एक वर्तुल है।
पूरी जिंदगी हमारी एक ज्वरों के वर्तुल में घूमती रहती है। कभी क्रोध, कभी काम, कभी लोभ, कभी कुछ, कभी कुछ। उसी में हम जीते और रिक्त होते चले जाते हैं। इनसे जो विगत हो जाए, इनके जो पार हो जाए, वही व्यक्ति समर्पण को उपलब्ध हो सकता है। क्योंकि इनके जो पार हो जाए, उसके पास अहंकार बचता ही नहीं। इसलिए समर्पण अपने आप हो जाता है।
यहां एक बात और खयाल में ले लेनी जरूरी है कि समर्पण आप कर नहीं सकते हैं, समर्पण सदा होता है। आपका किया हुआ समर्पण, समर्पण नहीं होगा, क्योंकि करने वाला मौजूद है। और करने वाला ही तो बाधा है, वही तो समर्पण नहीं होने देता। इसलिए अगर कोई कहे कि मैं परमात्मा को समर्पित करता हूं, तभी समझना कि समर्पण हुआ नहीं। क्योंकि कल यह आदमी कहेगा कि वापस लेता हूं, तो परमात्मा क्या कर सकता है! वापस ले लो। नहीं, एक आदमी जब कहे कि अब कोई उपाय ही नहीं है, मैं परमात्मा को समर्पित हूं, तब अब वापस लेने वाला नहीं बचा। इसलिए कभी कोई मैं के रहते समर्पण नहीं कर सकता। अगर ठीक से समझें, तो मैं का न रह जाना ही समर्पण है। और मैं कब नहीं रहेगा? जब ज्वर नहीं रहेंगे।
इसे ऐसा भी समझ लें कि ज्वरों के जोड़ का नाम मैं है। तो अभी मैंने आपसे कहा कि मैं एक भ्रम है। लेकिन भ्रम भी काम करता है, क्योंकि ये ज्वर बड़े सत्य हैं और भ्रम इन ज्वरों के रथ पर सवार हो जाता है। ये ज्वर बड़े सत्य हैं। ये काम, क्रोध, लोभ बड़े सत्य हैं। इनका शारीरिक अर्थ भी है, इनका मानसिक अर्थ भी है। ये साइकोसोमेटिक हैं। ये शरीर और मन दोनों में इनका सत्य है। इनके ऊपर अहंकार सवारी करता है। और इनको जब तक हम विसर्जित न कर दें, तब तक अहंकार रथ के नीचे नहीं उतरता। इनको कैसे विसर्जित करें? ये ज्वर कैसे चले जाएं?
पहली तो बात यह है, इन्हें हमने कभी ज्वर की तरह, बीमारी की तरह देखा नहीं। और जिस चीज को हम बीमारी की तरह न देखें, उसे हम कभी विसर्जित नहीं कर सकते। कोई आदमी टी.बी. नहीं बचाना चाहता और कोई आदमी कैंसर नहीं बचाना चाहता। क्योंकि उनको हम बीमारियों की तरह पहचानते हैं। लेकिन क्रोध, लोभ, मोह, काम, इन्हें हम बीमारियों की तरह नहीं पहचानते। इसलिए हम इन्हें बचाना चाहते हैं। हम कहते हैं कि बिना क्रोध के चलेगा कैसा? कोई आदमी नहीं कहता कि बिना टी.बी. के चलेगा कैसे? नहीं, वह कहता है, टी.बी. हो गई, तो चलेगा ही नहीं। टी.बी. एकदम अलग करो। अभी हम शरीर की बीमारियां तो पहचानने लगे हैं। लेकिन मन की बीमारियां हम अभी तक नहीं पहचान पाए।
और ध्यान रहे, अगर कोई आपके शरीर की बीमारियों की तरफ इशारा करे, तो आप कभी नाराज नहीं होते; लेकिन अगर आपके मन की बीमारियों की तरफ कोई इशारा करे, तो आप लड़ने को तैयार हो जाते हैं। कोई आदमी कहे कि देखिए, आपके पैर में घाव हो गया है, तो आप उससे लड़ते नहीं कि तुमने हमारा अपमान कर दिया कि हमारे पैर में घाव बता दिया। आप धन्यवाद देते हैं कि तुम्हारी बड़ी कृपा कि तुमने याद दिला दी। लेकिन कोई आदमी कहे कि बड़े लोभी हो, तो लकड़ी लेकर खड़े हो जाते हैं कि आप क्या कह रहे हैं! असल में मन की बीमारी को हम बीमारी स्वीकार नहीं करते। मन की बीमारी को तो हम समझते हैं कि कोई बड़ी धरोहर है, उसे बचाना है; उसे बचा-बचाकर रखना है, उसे सम्हाल-सम्हालकर रखना है।
कृष्ण कह रहे हैं, ये सब ज्वर हैं।
इन्हें, पहली तो शर्त यह है कि बीमारी की तरह पहचानें। और जिस दिन आप इन्हें बीमारी की तरह पहचानेंगे, उसी दिन छुटकारा शुरू हो जाएगा। दि वेरी रिकग्नीशन, इस बात की प्रत्यभिज्ञा कि ये बीमारियां हैं, आपको इनमें जाने से रोकने लगेगी। और जब क्रोध आएगा, तब आपको लगेगा कि बीमारी आती है। हाथ ढीले पड़ जाएंगे, भीतर कोई चीज रुक जाएगी। लेकिन क्रोध बीमारी नहीं है, हमारी अकड़ है। हम सोचते हैं, क्रोध नहीं रहेगा, तो रीढ़ ही टूट जाएगी। हम सोचते हैं, क्रोध नहीं रहेगा, तो कौन हमारी फिक्र करेगा। हम सोचते हैं, क्रोध नहीं रहेगा, तो जीवन की गति और जीवन का मोटिवेशन और जीवन की प्रेरणा सब चली जाएगी। हम कहते हैं, लोभ नहीं रहेगा, तो फिर हम क्या करेंगे! हमें पता ही नहीं है कि हम क्या कह रहे हैं!
लोभ की वजह से हम कुछ भी नहीं कर पाते। क्रोध की वजह से हम कुछ भी नहीं कर पाते। काम की वजह से हम कुछ भी नहीं कर पाते। हमारी सारी शक्ति तो इन्हीं छिद्रों में बह जाती है। बहुत दीन-हीन भीतर जो थोड़ी-बहुत शक्ति बचती है, उससे हम किसी तरह जिंदगी घसीट पाते हैं। हमारी जिंदगी आनंद नहीं बन सकती, क्योंकि आनंद सदा ओवर फ्लोइंग एनर्जी है। आनंद सदा ही ऊपर से बह गई शक्ति है, ओवर फ्लोइंग, जैसे नदी में बाढ़ आ जाए और किनारे टूट जाएं और नदी चारों तरफ नाचती हुई बहने लगती है।
किसी पौधे में फूल तब तक नहीं आते, जब तक पौधे में जरूरत से ज्यादा शक्ति न हो। अगर पौधे में जरूरत से ज्यादा शक्ति आती है, तो ओवरफ्लो हो जाते हैं उसके रंग, फूल बन जाते हैं। कोई पक्षी तब तक गीत नहीं गाता, जब तक उसके पास जरूरत से ज्यादा शक्ति न हो। जब जरूरत से ज्यादा शक्ति होती है, तो पक्षी गीत गाता है, मोर नाचता है। लेकिन आदमी की जिंदगी में सब नाच, सब आनंद, सब खो गया है। कारण? मोर हमसे ज्यादा होशियार हैं? कोयल हमसे ज्यादा बुद्धिमान हैं? फूल हमसे ज्यादा वैज्ञानिक हैं? नदियां हमसे ज्यादा प्रज्ञावान हैं?
नहीं, एक ही बात की भूल हो रही है। हम अपने को जरूरत से ज्यादा बुद्धिमान समझे हुए हैं और अपनी बुद्धिमानी में न मालूम कितने प्रकार की मूढ़ताओं को पाल रखा है। बीमारियों को भी हम स्वास्थ्य समझे बैठे हैं। दुश्मनों को मित्र समझते हैं। कांटों को फूल समझ लेते हैं, फिर छाती से लगा लेते हैं। फिर वे गड़ते हैं, चुभते हैं, घाव कर देते हैं। और इन सारे ज्वरों में हमारी इतनी शक्ति व्यर्थ ही व्यय हो जाती है कि ओवरफ्लो करने के लिए, फूल बनने के लिए कभी कोई शक्ति शेष नहीं बचती। इसलिए जिंदगी में आनंद, ब्लिस कभी दिखाई नहीं पड़ता। जिंदगी एक उदास कहानी है।
शेक्सपियर ने कहीं कहा है, ए टेल टोल्ड बाय एन ईडियट, फुल आफ फ्यूरी एंड न्वायज सिग्नीफाइंग नथिंग। एक मूर्ख के द्वारा कही हुई कहानी है जिंदगी। शोरगुल बहुत, मतलब कुछ भी नहीं। बस, बचपन से लेकर बुढ़ापे तक बड़ा शोरगुल, जैसे भारी कुछ होने जा रहा है। अंत में हाथ कुछ भी नहीं है। कहानी लंबी, दृश्य बहुत बदलते हैं, निष्कर्ष कोई भी नहीं, निष्पत्ति कोई भी नहीं। आखिर में खबर आती है, वह आदमी मर गया। और कहानी सदा बीच में ही टूट जाती है।
कहीं कुछ भूल हो रही है। वह भूल यह हो रही है कि जीवन की ऊर्जा, लाइफ एनर्जी ज्वर से बह रही है, बीमारियों से बह रही है। इसलिए जीवन का संगीत, और जीवन के फूल वंचित ही रह जाते हैं, उन्हें शक्ति ही नहीं मिल पाती है। इसलिए आपसे यह भी कहना चाहता हूं, इस सूत्र में कृष्ण के यह भी खयाल कर लें कि वे कह रहे हैं, विगतज्वर होकर अर्जुन, तू मुझको समर्पित हो। समर्पित वही हो सकता है, जो परम शक्तिशाली है। कमजोर कभी समर्पित नहीं होता। समर्पण बड़ा भारी आत्मबल है।
मैंने सुना है, एक युवक ने विवाह किया था नया-नया। और अपनी पत्नी को लेकर वह दूर देश की यात्रा पर गया, नाव में। पुरानी कहानी है। तूफान आ गया और नाव डोलने-डगमगाने लगी और सारे यात्री कंपने-थर्राने लगे। कोई प्रार्थना करने लगा, कोई हाथ जोड़ने लगा, कोई भगवान को बुलाने लगा, कोई मनौती मनाने लगा। लेकिन वह युवक बैठा हुआ है। उसकी पत्नी ने कहा, क्या कर रहे हो तुम! कुछ प्रार्थना नहीं करोगे? कोई उपाय नहीं करोगे? तुम जरा भी भयभीत नहीं मालूम होते! नाव खतरे में है।
उस युवक ने अपनी तलवार म्यान के बाहर निकालकर उस नई-नई दुल्हन के कंधे पर रख दी। चमकती हुई तलवार, गरदन पास में है। जरा और गरदन अलग। लेकिन वह युवती हंसती रही। उस युवक ने पूछा, तुझे भय नहीं लगता? तो उस युवती ने कहा, जब तुम्हारे हाथ में तलवार हो, तो मुझे भय कैसा? उस युवक ने कहा, छोड़! जब परमात्मा के हाथ में सब कुछ है, तो मुझे भय कैसा? तलवार म्यान के भीतर रख ली। जब परमात्मा के हाथ में सब कुछ है, तो मुझे भय कैसा?
लेकिन सब कमजोर प्रार्थनाएं कर रहे हैं; वे प्रार्थनाएं करने वाले मालूम पड़ते हैं कि भक्त हैं बड़े, धार्मिक हैं। यह आदमी धार्मिक है। इतना भरोसा! लेकिन इतने भरोसे के लिए बड़ा बलशाली आदमी चाहिए। यह कहता है, ठीक है, उसके हाथ में है। वह जानेगा, हम क्या सलाह दें? और जब हाथ में तलवार उसके है, तो उसकी मर्जी; अगर गरदन ही काटनी है, तो काट ले। इसी में कुछ हित होगा, तो यही सही।
शक्तिशाली ही समर्पण करता है, अहंकारी सदा कमजोर होता है। लेकिन हम कहेंगे, गलत। अहंकारी कमजोर! अहंकार तो बड़ा बलशाली मालूम पड़ता है।
यहां आपसे एक और मनोवैज्ञानिक सत्य कहूं। एडलर ने इस सदी में कुछ गहरे मनोवैज्ञानिक सत्यों की शोध की है। उसमें एक सत्य यह भी है कि जितना हीन आदमी होता है, उतना ही अहंकारी होता है। जितना इनफीरिआरिटी से पीड़ित आदमी होता है, उतना अहंकारी होता है। क्योंकि जिसके पास शक्ति होती है, उसे अहंकार की कोई जरूरत ही नहीं होती। उसकी शक्ति दिखती ही है; उसकी घोषणा की कोई जरूरत नहीं होती। उसके लिए बैंड-बाजे बजाकर कोई खबर नहीं करनी पड़ती। वह होती ही है।
सूरज कोई खबर नहीं करता कि मैं आता हूं। आ जाता है और सारी दुनिया जानती है कि आ गया। फूल खिलने लगते हैं और पक्षी गीत गाने लगते हैं और लोगों की नींद टूट जाती है। वृक्ष उठ जाते हैं, हवाएं बहने लगती हैं, सागर की लहरें उठने लगती हैं। सब तरफ पता चल जाता है कि आ गया। उसका आना ही काफी है। लेकिन कोई नकली सूरज अगर आ जाए, जिसके पास भीतर कोई ताकत न हो, तो सामने वह बैंड मास्टरों को लाएगा, चोट करो, खबर करो कि मैं आता हूं। क्योंकि खुद के आने से तो कोई खबर नहीं हो सकती।
यह जो हमारा अहंकार है, यह भीतर की कमजोरी को छिपाता है; यह सामने से इंतजाम करता है। पता है इसे कि भीतर मैं कमजोर हूं। सीधा तो मेरा कोई भी पता नहीं चलेगा। हां, मिनिस्टर हो जाऊं, तो पता चल सकता है। कुर्सी पर बैठ जाऊं, तो पता चल सकता है। धन मेरे पास हो, तो पता चल सकता है। बड़ा मकान मेरे पास हो, तो पता चल सकता है। ऐसे मेरा तो कोई पता नहीं चलेगा। कुछ हो, जिसके सहारे मैं घोषणा कर सकूं कि मैं हूं। मैं समबडी हूं, नोबडी नहीं हूं। मैं ना-कुछ नहीं हूं, कुछ हूं। लेकिन कुछ हूं अगर भीतर, तब तो कोई जरूरत नहीं है। महावीर नंगे भी खड़े हो जाएं, तो भी पता चलता है कि वे हैं। बुद्ध भिक्षा का पात्र लेकर भी गांव में निकल जाएं, तो भी पता चलता है कि वे हैं।
बुद्ध एक गांव में गए। उस गांव के सम्राट ने अपने वजीर से पूछा कि मेरी पत्नी कहती है कि बुद्ध के स्वागत के लिए मुझे भी जाना चाहिए। लेकिन क्या यह उचित है? मैं सम्राट, वह एक भिखारी, उसे आना होगा आ जाएगा। आजकल का कोई मंत्री होता, तो वह कहता, धन्य महाराज! आप बिलकुल ठीक कहते हैं। लेकिन उस मंत्री ने इतना सुना, कागज उठाया, कलम उठाया; तो सम्राट ने पूछा, क्या करते हो? उसने कहा, मेरा इस्तीफा स्वीकार करें। उसने कहा, कोई बात नहीं हुई, इस्तीफा किस बात का? तो उसने कहा कि नहीं, ऐसी जगह एक क्षण रुकना कठिन है। क्योंकि जिस दिन सिर्फ अहंकार आत्मा के सामने अपने को श्रेष्ठ समझेगा, उस दिन से बड़ा दुर्भाग्य नहीं हो सकता है। आपको जाना पड़ेगा। क्योंकि बुद्ध भिक्षा का पात्र लिए हुए भी भिखारी नहीं हैं, सम्राट हैं। और तुम सम्राट होते हुए भी भिखारी हो। तुम्हारे पास कुछ नहीं है। तुम से अगर सब छीन लिया जाए, तो तुम ना-कुछ हो जाओगे। बुद्ध ने सब छोड़ दिया है, फिर भी वे सब कुछ हैं।
असल में जो सब कुछ है, वही सब कुछ छोड़ पाता है। जो कुछ भी नहीं है, वह छोड़ेगा कैसे?
अहंकार बहुत दीनता को छिपाए रहता है भीतर। वह हमेशा इनफीरिआरिटी कांप्लेक्स का बचाव है। वह हीनग्रंथि का इंतजाम है, सुरक्षा का, सेफ्टी मेजर है। तो अहंकारी निर्बल होता है। निर्बल अहंकारी होता है। सबल, आत्मबल से भरा हुआ, अहंकारी नहीं होता। और आत्मबल से भरा हुआ व्यक्ति ही समर्पण कर सकता है। क्योंकि समर्पण शक्ति की सबसे बड़ी घोषणा है। यह बात बड़ी कंट्राडिक्टरी मालूम होगी। संकल्प समर्पण का सबसे बड़ा संकल्प है। इससे बड़ा कोई विल पावर नहीं है जगत में कि कोई आदमी कह सके कि मैंने छोड़ा, सब छोड़ा।
कृष्ण जब अर्जुन से कहते हैं, तू सब मुझ पर छोड़ दे। सब– छोड़ अपनी सब बीमारियों को, छोड़ आकांक्षाओं को, छोड़ ममताओं को, छोड़ आशाओं को, छोड़ अपेक्षाओं को–सब छोड़ दे, मुझ पर छोड़ दे। इसमें दो मजेदार बात हैं। अगर अर्जुन बहुत सबल हो, तो छोड़ सकता है। लेकिन कृष्ण बहुत सबल आदमी हैं। छोड़ना भी सबल के लिए संभव है और किसी को इस भांति छोड़ने के लिए कहना भी सबल के लिए संभव है। निर्बल के लिए संभव नहीं है।
कृष्ण कितनी सहजता से कहते हैं, छोड़ सब मेरे ऊपर! दूसरे की बीमारियां लेने को केवल वही राजी हो सकता है, जिसे अब बीमार होने की कोई संभावना नहीं है। दूसरों के भार लेने को केवल वही राजी हो सकता है, जो इतना निर्भार है कि अब कोई भार उसके लिए भार नहीं बन सकता है। दूसरों को सहारा देने के लिए वही कह सकता है, जिसे अब खुद किसी तरह के सहारे की कोई भी जरूरत नहीं रह गई है। कृष्ण बड़ी सबलता से कहते हैं। इतनी सबलता से बहुत मुश्किल से कभी कहा गया है। और अब, अब इतने सबल आदमी खोजना बहुत मुश्किल होता चला जाता है, जो कहें कि छोड़, तू सब मुझ पर छोड़ दे। यह तभी वे कह पाते हैं, जब कि परमात्मा से तादात्म्य इतना गहरा है कि मुझ पर क्या छूटता है, परमात्मा पर छूटता है। कृष्ण बीच में हैं ही नहीं।
अर्जुन भी तभी छोड़ सकता है, जब उसके सारे ज्वरों के बाहर हो जाए। तब तक नहीं छोड़ सकता है, तब तक उसे एक-एक ज्वर पकड़ेगा। वह एक-एक सवाल उठाएगा। उसकी हर बीमारी के अपने सवाल हैं, अपनी जिज्ञासाएं हैं। और गीता अर्जुन की एक-एक बीमारी का उत्तर है। अनेक-अनेक मार्गों से वह कृष्ण से वही-वही पूछेगा। वह कृष्ण से उत्तर नहीं चाह रहा है, वह कृष्ण से मार्ग नहीं चाह रहा है। क्योंकि मार्ग इससे सरल और क्या हो सकता है कि कृष्ण कहते हैं, छोड़ मुझ पर।
एक महिला मेरे पास आई, अभी कोई आठ-दस दिन पहले। वह मुझे कहने लगी कि संतों के हाथ में तो सब कुछ है। आप सब कुछ कर दें मेरे लिए। मैंने कहा, राजी। तू क्या करने का इरादा रखती है? उसने कहा, हमसे क्या हो सकता है! मैंने उसको कहा, राजी। तू अपने को छोड़ने की हिम्मत रखती है? छोटी उम्र नहीं; सत्तर साल उम्र होगी। बूढ़ी स्त्री है। अब कुछ छोड़ने को बचा भी नहीं है, सिर्फ मौत है आगे। न, उसने कहा कि मैं घर अपने लड़के से, बहू से पूछकर आपको कुछ कहूंगी। लेकिन बोली कि संत तो सभी कर सकते हैं, आप कर ही दें। संत क्या नहीं कर सकते!
बड़ा मजेदार है सब मामला। संत निश्चित ही सब कुछ कर सकते हैं, लेकिन सिर्फ उन्हीं के लिए, जो सब कुछ छोड़ने की हिम्मत रखते हैं। तत्काल हो जाता है सब कुछ। संत को कुछ करना नहीं पड़ता, संत तो सिर्फ वीहिकल बन जाता है, सिर्फ परमात्मा के लिए साधन हो जाता है।
कृष्ण कहते हैं, छोड़ मुझ पर। दुनिया बहुत बदल गई है। दुनिया बहुत बदल गई है। कृष्ण कहते हैं, छोड़ मुझ पर। अर्जुन छोड़ने की हिम्मत नहीं जुटा पाता। आज तो हालत और उलटी है। आज तो कोई कहेगा नहीं किसी से कि छोड़ मुझ पर। क्योंकि हम समझेंगे कि पता नहीं बैंक बैलेंस छुड़ा लेगा, कि पता नहीं क्या मतलब है। फिर दुबारा आएंगे ही नहीं वहां। क्योंकि हम तो संतों के पास लेने जाते हैं, देने तो नहीं जाते। यह किस तरह का संत है!
गुरजिएफ था अभी। कोई उससे सवाल पूछता, तो वह कहता, सौ रुपए पहले रख दो। लोग कहते, आप कैसे संत हैं? हम तो सवाल पूछते हैं, आप सौ रुपए! तो गुरजिएफ कहता कि मैं बहुत सस्ते में तुम्हें जवाब दे रहा हूं।
ये कृष्ण बड़ा महंगा जवाब हैं। वे कह रहे हैं, तू छोड़ दे सब। सौ रुपए नहीं, सब। तू अपने को ही छोड़ दे। वे अर्जुन से कह रहे हैं, तू सब छोड़ दे मुझ पर–सारी आशा, सारी आकांक्षा, सारी ममता–मैं तैयार हूं। लेकिन अर्जुन तैयार नहीं है।
अर्जुन की हालत वैसी है, जैसे कभी-कभी ऐसा होता है न कि ट्रेन में कभी कोई देहाती आदमी आ जाता, तो सिर पर बिस्तर रखकर बैठ जाता है। इस खयाल में कि ट्रेन पर कहीं ज्यादा वजन न पड़े। तो वह खुद बैठे रहते हैं, सिर पर बिस्तर रखे रहते हैं। हम सब भी ऐसा ही करते हैं। हम सोचते हैं, कहीं परमात्मा पर ज्यादा वजन न पड़ जाए, इसलिए अपना वजन खुद ही रखे रहते हैं। सब वजन परमात्मा पर है, आपका भी, आपके वजन का भी। और जब उसी पर है, और जब ट्रेन चल ही रही है, तो नाहक सिर पर क्यों बोझ रखे हुए हैं!
वे कृष्ण इतना ही कहते हैं कि बिस्तर नीचे रख, मुझ पर छोड़ दे, तू आराम से बैठ। तू नाहक इतना बोझ क्यों लिए हुए है? तू इतनी चिंता में क्यों पड़ता है कि क्या होगा युद्ध से? कौन मरेगा, कौन बचेगा? इतने लोग मर जाएंगे, फिर क्या होगा? समाज का क्या होगा? राज्य का क्या होगा? तू इतनी सारी चिंताएं अपने सिर पर क्यों लेता है? तू छोड़ दे मेरे ऊपर।
अर्जुन को चिंता है भी नहीं वह सब। हम कभी भी नहीं पहचान पाते कि हम सब तरह से रेशनलाइजेशंस करते रहते हैं। अर्जुन सिर्फ भागना चाहता है। वह अपनों से लड़ने की हिम्मत नहीं जुटा पा रहा है, इसलिए सब तर्क खोज रहा है। वह तर्क का एक जाल खड़ा कर रहा है। वह कह रहा है, यह तकलीफ होगी, यह तकलीफ होगी, यह तकलीफ होगी। कुल मामला इतना है कि तकलीफों से उसे कोई मतलब नहीं है। मतलब उसे सिर्फ इतना है कि मेरों से कैसे लडूं? यह उसका मैं जो है, वह मेरों से लड़ने के लिए तैयार नहीं हो पाता। किसी का मैं नहीं तैयार हो पाता। मेरों से हम कभी लड़ने को तैयार नहीं होते। और इसलिए अक्सर ऐसा होता है कि अगर मेरों से लड़ने की हालत आ जाए, तो बड़ी कठिनाई होती है, तब अगर तेरों से लड़ने का कोई मौका मिल जाए, तो मेरों की लड़ाई एकदम बंद हो जाती है।
आपने देखा, चीन का हमला हो गया हिंदुस्तान पर। तो फिर, फिर हिंदुस्तान में हिंदी बोलने वाले, गैर-हिंदी बोलने वाले का कोई झगड़ा नहीं। फिर हिंदू-मुसलमान का कोई झगड़ा नहीं। फिर मैसूर-महाराष्ट्र का कोई झगड़ा नहीं। फिर मद्रास इसका-उसका, कोई झगड़ा नहीं। सब झगड़े शांत, मेरों से लड़ाई बंद। क्योंकि तेरों से लड़ाई शुरू हो गई।
लड़ने में कोई दिक्कत नहीं, लेकिन मेरों से लड़ने में बड़ी कठिनाई होती है। हां, जब कोई तेरे मिलते ही नहीं, तो मजबूरी में मेरों से लड़ते हैं। इसलिए सारी दुनिया में तेरों से लड़ाई खोजी जाती है; चौबीस घंटे खोजी जाती है। नहीं तो मेरों से लड़ाई हो जाएगी।
अभी मेरे एक मित्र की पत्नी मेरे पीछे पड़ी थी कि मेरे पति को समझा दें कि वे अलग हो जाएं मां-बाप से। मैंने मित्र को बुलाकर पूछा कि लगता तो है कि इतना उपद्रव चलता है, तो अलग हो जाओ। लेकिन एक ही बात मुझे पूछनी है कि अभी तो तुम्हारी पत्नी तुम्हारे मां-बाप से लड़ लेती है, तुम्हें पक्का भरोसा है कि उनसे छूटकर तुमसे नहीं लड़ेगी? मैंने कहा, जहां तक मैं समझता हूं, लड़ेगी। क्योंकि करेगी क्या? वह तेरों से लड़ाई बंद हो जाएगी, तो और पास सरक आएगी।
इसलिए संयुक्त परिवार थे, तो पति-पत्नियों में कलह नहीं थी। आपको मालूम है, संयुक्त परिवार थे, तो पति-पत्नी में कभी कलह नहीं थी। जिस दिन से संयुक्त परिवार टूटा, उस दिन से पति-पत्नी की कलह बहुत गहरी हो गई। पति-पत्नी बच नहीं सकते, वे भी टूटेंगे। संयुक्त परिवार में बड़ा हिस्सा चलता रहता था, अपनों को बचाकर लड़ाई चलती रहती थी। दूसरे काफी थे, उनसे लड़ाई हो जाती थी। अब कोई बचे ही नहीं। अब वे दोनों ही बचे हैं पति-पत्नी। अब वे लड़ेंगे ही। इसलिए अक्सर ऐसा होता है कि पति-पत्नी, सांझ अकेली न बीत जाए, इससे डरे रहते हैं। किसी मित्र को बुला लो, किसी मित्र के घर चले जाओ। कोई तीसरा मौजूद रहे, तो थोड़ा, तो सांझ सरलता से बीत जाती है।
यह जो कृष्ण अर्जुन को कह रहे हैं, तू सब छोड़ दे मुझ पर, फिर तेरे लिए कुछ करने को नहीं बचता। मैं करूंगा, तू वाहन हो जा।
धर्म की एक ही पुकार है कि आप सिर्फ वाहन हो जाएं और परमात्मा को करने दें। आप कर्ता न बनें, परमात्मा पर कर्तृत्व छोड़ दें सब और आप इंस्ट्रूमेंट, साधन मात्र रह जाएं। कबीर ने कहा है कि जब से मैंने जाना, तब से गीत मेरे नहीं रहे। मैं तो सिर्फ बांसुरी हूं। मैं तो सिर्फ बांस की पोंगरी हूं, गीत परमात्मा के हैं। जो भी जान लेता है, वह बांस की पोंगरी रह जाता है। स्वर परमात्मा के, गीत परमात्मा का, हम केवल मार्ग रह जाते हैं।
कृष्ण कहते हैं अर्जुन से, तू बस मार्ग बन जा। मुझे मार्ग दे; जो मुझे करना है, होने दे। मुझे से मतलब, परमात्मा को जो करना है, वह होने दे।
और कृष्ण क्यों इतने आश्वस्त ढंग से अर्जुन से कह सके? अर्जुन को शक नहीं आता कि ये कृष्ण अपने को परमात्मा क्यों बनाए चले जा रहे हैं! अनेकों को शक आता है। जब भी कोई गीता पढ़ता है, तो अगर भक्त पढ़ता है, तब तो उसे कुछ पता नहीं चलता; लेकिन अगर कोई विचार करके पढ़ता है, तो उसे खयाल आता है कि कृष्ण क्यों ऐसा कहते हैं कि मैं, मुझ पर छोड़ दे। बड़े अहंकारी मालूम होते हैं! मुझे अनेक लोगों ने कहा कि कृष्ण का अहंकार भारी मालूम पड़ता है। वे कहते हैं, मुझ पर सब छोड़ दे। एक तरफ अर्जुन से कहते हैं, अहंकार छोड़; और एक तरफ कहते हैं, मुझ पर सब छोड़! तो यह अहंकार नहीं है?
मैंने उनसे कहा कि कृष्ण इतनी सरलता से कहते हैं कि मुझ पर सब छोड़ कि अहंकार नहीं हो सकता। अहंकार कभी सीधा नहीं कहता कि मुझ पर सब छोड़। अहंकार सदा तरकीब से जीता है। अहंकार कहता है कि मैं तो आपके पैर की धूल हूं। जरा आंख में देखें, तब पता चलेगा। इधर हाथ पैर में झुके होते हैं, उधर आंखें आकाश में चढ़ी होती हैं। अहंकार कहता है, मैं तो कुछ भी नहीं। लेकिन अगर आपने मान लिया कि आप बिलकुल ठीक कह रहे हैं, बिलकुल सच कह रहे हैं कि कुछ भी नहीं, तो बड़ा दुखी होता है। नहीं, जब अहंकार कहता है, मैं कुछ भी नहीं, तो वह सुनना चाहता है कि आप कहो कि आप भी कैसी बात कर रहे हैं! आप तो सब कुछ हैं। तब वह प्रसन्न होता है।
अहंकार कभी सीधा नहीं बोलता। उसका कारण है। अहंकार इसलिए सीधा नहीं बोलता कि सीधा अहंकार दूसरे के अहंकार को चोट पहुंचाता है। और दूसरे के अहंकार को चोट पहुंचाकर आप कभी अपने अहंकार की तृप्ति नहीं कर सकते। इसलिए जो कनिंग अहंकार है, जो चालाक अहंकार है–और सब अहंकार चालाक हैं–वे तरकीब से अपनी तृप्ति करते हैं। वे दूसरे के अहंकार को परसुएड करते हैं।
वान पेकार्ड ने एक किताब लिखी है, दि परसुएडर्स, फुसलाने वाले। चारों तरफ हैं। लेकिन अहंकार से बड़ा परसुएडर और कोई भी नहीं है। अहंकार बड़ी तरकीब से फुसलाता है। वह जो कहलवाना चाहता है, जो वह खुद कहना चाहता है, वह दूसरे से कहलवाता है। अगर आप किसी स्त्री से कहलवाना चाहते हैं कि आप बड़े सुंदर हैं, तो आप खुद मत कह देना जाकर कि मैं बड़ा सुंदर हूं, नहीं तो मुश्किल में पड़ जाएंगे। नहीं, आप कहेंगे कि तुम बड़ी सुंदर हो; तुमसे सुंदर कोई भी नहीं; और फिर प्रतीक्षा करना। फिर वह स्त्री जरूर कहेगी कि आपसे सुंदर कोई भी नहीं है।
यह म्यूचुअल ग्रेटिफिकेशन है, यह एक-दूसरे के अहंकार की तृप्ति है। आप उन्हें बड़ा बनाओ, वे आपको बड़ा बनाते हैं। एक नेता दूसरे नेता को बड़ा बनाता है, दूसरा नेता दूसरे को। एक महात्मा दूसरे महात्मा को, दूसरा महात्मा दूसरे को। एक-दूसरे को बड़ा बनाते चले जाओ। इस तरह परोक्ष, इनडाइरेक्ट, अहंकार अपने रास्ते खोजता है।
कृष्ण अदभुत निरहंकारी व्यक्ति हैं। वे कहते हैं, छोड़ मुझ पर। वे इतनी सरलता से कहते हैं कि अहंकार का कहीं लेशमात्र मालूम नहीं पड़ता। अहंकार कभी इतना सरल होता ही नहीं। अहंकार हमेशा तिरछा चलता है। कृष्ण की इतनी सहजता…वे यह भी नहीं कहते कि मैं भगवान हूं, इसलिए छोड़ मुझ पर। क्योंकि वह भी इनडाइरेक्ट हो जाएगा। वे अगर यह भी कहें कि मैं भगवान हूं, छोड़ मुझ पर। ऐसा भी वे नहीं कहते। वे कहते हैं, छोड़ मुझ पर। कोई कारण भी नहीं देते। कोई परोक्ष उपाय भी नहीं करते। सीधा कहते हैं कि छोड़ मुझ पर। यह सरलता ही उनके निरहंकार होने की घोषणा है। इतना अत्यधिक सीधापन, स्ट्रेट फारवर्डनेस उनके निरहंकार होने का सबूत है। और जब वे कहते हैं, छोड़ मुझ पर, तो हमारे सामने वे मौजूद नहीं हैं, इसलिए बड़ी कठिनाई होती है।
दुनिया में जो भी महत्वपूर्ण सत्य आज तक प्रकट हुए हैं, वे लिखे नहीं गए, बोले गए हैं। इस बात को खयाल में रखना। दुनिया का कोई पैगंबर, कोई तीर्थंकर लेखक नहीं था। और दुनिया का कोई अवतार लेखक नहीं था। यह स्मरण रखना। चाहे बाइबिल, और चाहे कुरान, और चाहे गीता, और चाहे बुद्ध और चाहे महावीर के वचन, और चाहे लाओत्से–ये सब वचन बोले गए हैं, ये लिखे नहीं गए हैं। और इनके मुकाबले लेखक कभी भी कुछ नहीं पहुंच पाता, कहीं नहीं पहुंच पाता। उसका कारण है। बोले गए शब्द में एक लिविंग क्वालिटी है।
जब अर्जुन से कृष्ण ने बोला होगा, तो सिर्फ शब्द नहीं था। हमारे सामने सिर्फ शब्द है। जब कृष्ण ने अर्जुन से कहा होगा कि छोड़ मुझ पर, तो कृष्ण की आंखें, और कृष्ण के हाथ, और कृष्ण की सुगंध, और कृष्ण की मौजूदगी ने, सब ने अर्जुन को घेर लिया होगा। कृष्ण की उपस्थिति अर्जुन को चारों तरफ से लपेट ली होगी। कृष्ण के प्रेम, और कृष्ण के आनंद, और कृष्ण के प्रकाश ने अर्जुन को सब तरफ से भर लिया होगा। नहीं तो अर्जुन भी पूछता कि आप भी क्या बात करते हैं! सारथी होकर मेरे और मुझसे कहते हैं, आपके चरणों में सब छोड़ दूं?
नहीं, अर्जुन यह कहने का उपाय भी नहीं पाया होगा। पाया ही नहीं। अर्जुन को यह प्रश्न भी नहीं उठा, क्योंकि कृष्ण की मौजूदगी ने ये सब प्रश्न गिरा दिए होंगे। कृष्ण की मौजूदगी अर्जुन को वहां-वहां छू गई होगी, जहां-जहां प्राण के अंतराल में छिपे हुए स्वर हैं, जहां-जहां प्राण की गहराइयां हैं–वहां-वहां। और इसलिए अर्जुन को शक भी नहीं उठता कि यह कहीं अहंकार तो नहीं पूछ रहा है मुझसे कि इसके चरणों में मैं छोड़ दूं। अहंकार वहां मौजूद ही नहीं था; वहां कृष्ण की पूरी प्रतिभा, पूरी आभा मौजूद थी।
बुद्ध के चरणों में लोग आते हैं और बुद्ध के चरणों में लोग सिर रखते हैं। और बुद्ध के पास आकर त्रिरत्न की घोषणा करते हैं। वे कहते हैं, बुद्धं शरणं गच्छामि। एक दिन एक आदमी आया और उसने बुद्ध से कहा, आप तो कहते हैं, किसी की शरण मत जाओ। आप तो कहते हैं, किसी की शरण मत जाओ; और आपकी ही शरण में लोग आकर आपके सामने ही कहते हैं, बुद्धं शरणं गच्छामि, मैं बुद्ध की शरण जाता हूं। आप रोकते क्यों नहीं?
बुद्ध ने कहा, जो रोक सकता था, वह अब मेरे भीतर कहां है? जो रोक सकता था, वह अब मेरे भीतर कहां है? और किसने तुमसे कहा कि वे मेरी शरण जाते हैं! मेरी शरण वे जाते नहीं, क्योंकि मैं तो बचा नहीं। शायद मेरे द्वारा वे किसी और की शरण जाते होंगे, जो बचा है। मैं तो सिर्फ एक दरवाजा हूं–जस्ट ए डोर, जस्ट ए विंडो–एक खिड़की, एक दरवाजा।
इस खिड़की पर आप हाथ रखकर मकान के भीतर के मालिक को नमस्कार करते हैं। खिड़की क्यों रोके? खिड़की क्यों कहे कि अरे-अरे! यह क्या कर रहे हैं? मत करिए नमस्कार मुझे। लेकिन आप उसको कर ही नहीं रहे हैं।
बुद्ध कहते हैं, मुझे वे नमस्कार करते ही नहीं, मेरी शरण वे जाते नहीं, मैं तो हूं नहीं। एक द्वार है, जहां से वे किसी को निवेदन करते हैं।
कृष्ण जरूर इस क्षण में एक द्वार बन गए होंगे। नहीं तो अर्जुन भी सवाल उठाता, उठाता ही। अर्जुन छोटा सवाल उठाने वाला नहीं है। द्वार बन गए होंगे। और अर्जुन ने अनुभव किया होगा कि जो कह रहा है, वह मेरा सारथी नहीं है; जो कह रहा है, वह मेरा सखा नहीं है; जो कह रहा है, वह स्वयं परमात्मा है। ऐसी प्रतीति में अगर अर्जुन को कठिनाई लगी होगी, तो वह कृष्ण के भगवान होने की नहीं, वह अपने समर्पण के सामर्थ्य न होने की कठिनाई लगी होगी। वही लगी है।
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