प्रवचन 28 : वासना की धूल, चेतना का दर्पण - ओशो गीतादर्शन

 प्रवचन 28 : वासना की धूल, चेतना का दर्पण

गीता-दर्शन – भाग एक
वासना की धूल, चेतना का दर्पण—(अध्‍याय—3) प्रवचन—दसवां
प्रवचन 28 : वासना की धूल, चेतना का दर्पण - ओशो गीतादर्शन
ओशो गीतादर्शन


धूमेनाव्रियते वह्निर्यथादर्शो मलेन च।
यथोल्बेनावृतो गर्भस्तथा तेनेदमावृतम्‌ ॥३८॥

आवृतं ज्ञानमेतेन ज्ञानिनो नित्यवैरिणा ।
कामरूपेण कौन्तेय दुष्पूरेणानलेन च ॥३९॥

जैसे धुएं से अग्नि और मल से दर्पण ढंक जाता है (तथा) जैसे स्निग्ध झिल्ली से गर्भ ढंका हुआ ह्रै वैसे ही उस काम के द्वारा यह ज्ञान ढंका हुआ है।

और हे अर्जुन! हम अग्नि (सदृश) न पूर्ण होने वाले काम रूय ज्ञानियों के नित्य वैरी से मनुष्य का ज्ञान ढंका हुआ है।

कृष्‍ण ने कहा है, जैसे धुएं से अग्नि ढंकी हो, ऐसे ही काम से ज्ञान ढंका है। जैसे बीज अपनी खोल से ढंका होता है, ऐसे ही मनुष्य की चेतना उसकी वासना से ढंकी होती है। जैसे गर्भ झिल्ली में बंद और ढंका होता है, ऐसे ही मनुष्य की आत्मा उसकी कामना से ढंकी होती है। इस सूत्र को ठीक से समझ लेना उपयोगी है।

पहले तो यह समझ लेना जरूरी है कि ज्ञान स्वभाव है—मौजूद, अभी और यहीं। ज्ञान कोई उपलब्धि नहीं है, कोई एचीवमेंट नहीं है। ज्ञान कोई ऐसी बात नहीं है, जो आज हमारे पास नहीं है और कल हम पा लेंगे। क्योंकि अध्यात्म मानता है कि जो हमारे पास नहीं है, उसे हम कभी नहीं पा सकेंगे। अध्यात्म की समझ है कि जो हमारे पास है, हम केवल उसे ही पा सकते हैं। यह बड़ी उलटी बात मालूम पड़ती है। जो हमारे पास है, उसे ही हम केवल पा सकते हैं; और जो हमारे पास नहीं है, हम उसे कभी भी नहीं पा सकते हैं। इसे ऐसा कहें कि जो हम हैं, अंततः वही हमें मिलता है, और जो हम नहीं हैं, हमारे लाख उपाय, दौड़— धूप हमें वहां नहीं पहुंचाते, वह नहीं उपलब्ध होता, जो हम नहीं हैं।

बुद्ध को जिस दिन ज्ञान हुआ, लोग उनके पास आए और उन्होंने पूछा, आपको क्या मिला? तो बुद्ध ने कहा, यह मत पूछो, यह पूछो कि मैंने क्या खोया! वे लोग हैरान हुए; उन्होंने कहा, इतनी तपश्चर्या, इतनी साधना, इतनी खोज क्या खोने के लिए करते थे या पाने के लिए? बुद्ध ने कहा, कोशिश तो पाने के लिए की थी, लेकिन अब जब पाया, तो कहता हूं कि सिर्फ खोया, पाया कुछ भी नहीं। नहीं उनकी समझ में आया होगा। उन्होंने कहा, हमें ठीक से समझाएं! तो बुद्ध ने कहा, वही पाया जो मुझे मिला ही हुआ था; और सिर्फ वही खोया, जो मेरे पास था ही नहीं, लेकिन मुझे मालूम पड़ता था कि मेरे पास है। जो नहीं था, उसे खो दिया है, और जो था, उसे पा लिया है।

कभी आपने अगर खयाल किया होगा अपने चित्त का, जब वह वासना से भरता है, तो आपको फौरन पता लगेगा कि जैसे धुआं— धुआं चारों ओर घिर गया। कभी कामवासना से जब मन भर जाता है, तो ऐसा ही लगता है, जैसे सुबह, सर्दी की सुबह आप बाहर निकले हों और चारों ओर धुआं— धुआं है। कुछ दिखाई नहीं पड़ता, अंधापन घेर लेता है, फिर भी बढ़े जाते हैं। कोई चीज, जहां नहीं बढ़ना चाहिए, ऐसा भी लगता है, फिर भी बढ़े जाते हैं। कोई भीतर से पुकारता भी है कि अंधेरे में जा रहे हो, गलत में जा रहे हो, फिर भी बढ़े जाते हैं।

कृष्ण ने दूसरा एक प्रतीक लिया है, जैसे दर्पण पर धूल जम जाए, दर्पण पर मल जम जाए। दर्पण है, धूल जम गई है। धूल जमने से दर्पण जरा भी नहीं बिगड़ता है, जरा भी नहीं। दर्पण का कुछ भी नहीं बिगड़ता। और दर्पण इंचभर भी कम दर्पण नहीं होता है धूल के जमने से, दि मिरर रिमेंस दि मिरर; कोई फर्क नहीं पड़ता। धूल कितनी ही पर्त —पर्त जम जाए कि दर्पण बिलकुल खो जाए, तो भी दर्पण नहीं खोता। उसकी मिरर—लाइक क्वालिटी पूरी की पूरी बनी रहती है। उसमें कुछ फर्क नहीं पड़ता। धूल के पहाड़ जमा दें दर्पण के ऊपर, छोटे—से दर्पण पर एवरेस्ट रख दें धूल का, तो भी दर्पण का जो दर्पणपन है, मिरर—लाइक जो उसका गुण है, वह नहीं खोता। वह अपनी जगह है। और जब भी धूल हट जाएगी, दर्पण दर्पण है। और जब धूल थी दर्पण पर, तब भी दर्पण दर्पण था, कुछ खोया नहीं था। इसलिए दूसरा प्रतीक भी कृष्ण का बहुत कीमती है। वे कहते हैं, जैसे धूल जम जाती है दर्पण पर, ऐसे ही वासना जम जाती है आदमी की चेतना पर।

चेतना को दर्पण कहना बहुत सार्थक है। चेतना है ही दर्पण। लेकिन हमारे पास चेतना दर्पण की तरह काम नहीं करती। धूल बहुत है। कुछ नहीं दिखाई पड़ता। अपनी ही शक्ल नहीं दिखाई पड़ती अपनी ही चेतना में, तो और क्या दिखाई पड़ेगा! कुछ नहीं दिखाई पड़ता। अंधे की तरह टटोलकर चलना पड़ता है। वह दर्पण, जिसमें सत्य दिखाई पड़ सकता है, जिसमें परमात्मा दिखाई पड़ सकता है, जिसमें स्वयं की झलक का प्रतिबिंब बन जाता, कुछ नहीं दिखाई पड़ता, सिर्फ धूल ही धूल है। और हम उस धूल को बढ़ाए चले जाते हैं। धीरे— धीरे हम बिलकुल अंधे हो जाते हैं, एक स्तिचुअल ब्लाइंडनेस।

एक अंधापन तो आंख का है। जरूरी नहीं कि आंख का अंधा आदमी भीतर से अंधा हो। जरूरी नहीं कि आंख का ठीक आदमी भीतर से अंधा न हो। एक और अंधापन भी है, जो भीतर के दर्पण पर धूल के जम जाने से पैदा हो जाता है। हम तो दर्पण की तरह व्यवहार ही नहीं करते। एक तो हमें पता ही नहीं चलता कि हमारे भीतर कोई दर्पण है, जिसमें सत्य का प्रतिफलन हो सके! दर्पण का पता कब चलता है? जब दर्पण रिफ्लेक्ट करता है, तभी पता चलता है। अगर आपके पास दर्पण है, उसमें तस्वीर नहीं बनती, प्रतिबिंब नहीं बनता, तो उसे कौन दर्पण कहेगा 

मिलता हो, हम उसे पहचान सकते हैं। अगर सुगंध है वासना, तो दुख नहीं मिलना चाहिए। लेकिन दुख मिलता है, दुख ही दुख मिलता है, फिर भी हम कहे चले जाते हैं, सुगंध।

कृष्‍ण कहते हैं, दुर्गधयुका मल से ढंक जाए जैसे दर्पण। दर्पण कहते हैं।

दर्पण के साथ एक और बात समझ लेनी जरूरी है। दर्पण पर, अब वह सूरज है, न वह आकाश है, न जमीन है, सब बदल चुका। आपने कभी खयाल किया कि दर्पण के सामने आइए तो आपकी चौबीस घंटे में गंगा बहुत बह गई। तू किससे माफी मांगता है!

तस्वीर बन जाती कहै; और हट जाइए, तो तस्वीर मिट जाती है। यह दर्पण क्वालिटी है, यही उसका गुण है। फोटो कैमरे के भीतर भी फिल्म होती है। वह उस पर भी तस्वीर बनती है, लेकिन मिटती नहीं; बन गई, तो बन गई। एक्सपोजर हो गया, तो हो गया। एक दफे बनती है, फिर तस्वीर को पकड़ लेती है कैमरे की फिल्म, फिर छोड़ती नहीं।

दर्पण जैसा कहने का कारण है। सिर्फ जो व्यक्ति धुएं से और दुर्गंधयुक्त मल से मुक्त होता है और जिसका चित्त शुद्ध दर्पण हो जाता है, उसकी स्थिति ऐसी हो जाती है—उसके सामने जो आता है, उसकी तस्वीर बन जाती है; जो हट जाता है, दर्पण कोरा और खाली और मुक्त हो जाता है। मित्र आया, तो खुशी; और चला गया, तो भूल गए। परिवार के लोग रहे, तो आनंद, नहीं रहे, तो बात समाप्त—दर्पण जैसा। फिर कोई चीज पकड़ती नहीं, एक्सपोजर होता ही नहीं। चीजें आती हैं, चली जाती हैं, और दर्पण अपनी शुद्धता में जीता है।

दर्पण को अशुद्ध नहीं किया जा सकता। फोटो के कैमरे की जो फिल्म है, उसको अशुद्ध किया जा सकता है, वह अशुद्ध होने के लिए ही है। वही उसकी खूबी है कि वह फौरन तस्वीर को पकड लेती है और बेकार हो जाती है। दर्पण बेकार नहीं होता। लेकिन हम जिस चित्त से जीते हैं, उसमें हमारी हालत दर्पण जैसी कम और फोटो की फिल्म जैसी ज्यादा है। जो भी पकड़ जाता है, वह पकड़ जाता है, फिर वह छूटता नहीं। एक्सपोजर हो जाता है, छूटता ही नहीं। कल किसी ने गाली दी थी, वह अभी तक नहीं छूटी; चौबीस घंटे बीत गए, वह गज रही है, वह चल रही है। देने वाला हो सकता है, भूल गया हो; देने वाला हो सकता है, अब माफी मांग रहा हो मन में; देने वाला हो सकता है, अब हो ही न इस दुनिया में —र्लोकेन वह गाली गूंजती है। हो सकता है वह आज गंजे, कल गंजे; हो सकता है कब्र में आप उसे अपने साथ ले जाएं और वह गूंजती ही रहे। एक्सपोजर हो गया, दर्पण जैसा नहीं रहा आपका चित्त।

एक सुबह बुद्ध के ऊपर एक आदमी धूक गया और दूसरे दिन माफी मांगने आया। तो बुद्ध ने कहा, पागल, गंगा का बहुत पानी बह चुका है। कहां की बातें कर रहा है! इतिहासों को मत उखाड़, गड़े मुरदों को मत उखाड़; बात खत्म हो गई। अब न तो मैं वह हूं जिस पर तू धूक गया था, न अब तू वह है, जो यूक गया था, न अब वह सूरज है, न वह आकाश है, न जमीन है; सब बदल चुका। चौबीस घंटे में गंगा बहुत बह गई है। तू किससे माफी मांगती है। लेकिन वह कहने लगा, नहीं, मुझे माफ कर दें। बुद्ध ने कहा, तूने धूका ही नहीं। मालूम होता है, तू जो धूक गया था, चौबीस घंटे उसको दोहराता भी रहा है, उसकी जुगाली करता रहा है।

हम सब ऐसे ही जीते हैं। यहां कोई हम में दर्पण जैसा नहीं है। दर्पण जैसा व्यक्ति ही अनासक्त हो सकता है, क्योंकि तब चीजें आती हैं और चली जाती हैं।

वही कृष्ण अर्जुन से कह रहे हैं कि तू दर्पण जैसे ज्ञान को उपलब्ध हो जा। हटा धूल को, जिस धूल के कारण चित्र पकड़ जाते हैं। हटा धुएं को, जिस धुएं के कारण तुझे दिखाई नहीं पड़ता कि तेरे भीतर जो ज्योति है ज्ञान की, वह क्या है। अपने दर्पण को उसकी पूरी शुद्धता में, पूरी प्योरिटी में ले आ, ताकि चीजें आएं और मिटें और जाएं और तेरे ऊपर कोई प्रभाव न छूट जाए, कोई इंप्रेशन, कोई प्रभाव तेरे ऊपर पकड़ न जाए, तू खाली..।

कबीर ने कहा न, ज्यों की त्यों धरि दीन्हीं चदरिया, खूब जतन से ओढी कबीरा, बहुत जतन से ओढी चांदर और फिर ज्यों की त्यों धरि दीन्हीं। जरा भी दाग नहीं लगाया। दर्पण जैसी हो चांदर, तभी हो सकता है ऐसा। अगर चांदर दर्पण जैसी न हो, तो दाग लग ही जाएगा। जिस चांदर की बात कबीर कह रहे हैं, वह कृष्ण के दर्पण की ही बात है। अगर चित्त दर्पण जैसा है, तो कितना ही ओढ़े, कोई दाग नहीं लगता। दर्पण पर दाग लगता ही नहीं। दर्पण कुछ पकड़ता ही नहीं। सब चीजें आती हैं और चली जाती हैं, और दर्पण अपने खालीपन में, अपनी शून्यता में, अपनी निर्मलता में, अपनी शुद्धता में रह जाता है।

लेकिन शुद्धता दर्पण की तो तब हो न, जब उसके ऊपर धूल अशुद्धि की न जमे। दर्पण शुद्ध तो तब हो न, जब मैं स्वयं रहूं, मेरे ऊपर दूसरे न जम जाएं। दर्पण तो शुद्ध तब हो न, जब मैं जो हूं, वही रहूं; उसकी आकांक्षा न करूं, जो मैं नहीं हूं। दर्पण तो शुद्ध तभी हो सकता है न, जब वर्तमान का क्षण पर्याप्त हो और जब भविष्य की कामनाएं न पकड़े और अतीत की स्मृतिया न पकड़े, तभी मन का दर्पण शुद्ध हो सकता है।

ऐसे शुद्ध दर्पण को कृष्ण कहते हैं, ज्ञान। और ऐसा ज्ञान मुक्ति है।

प्रश्न :

भगवान श्री, आप कहते हैं कि खाद की दुर्गंध ही फूल की सुगंध बनती है और काम—ऊर्जा ही आत्म—ऊर्जा बनती है, लेकिन यहां काम को ज्ञानियों का नित्य वैरी कहकर उसके प्रति निदाभाव क्यों व्यक्त किया गया है?

वासना ही रास्ता है परमात्मा से दूर जाने का भी और परमात्मा के पास आने का भी। वासना में ज्यादा जाइए, तो दूर चले जाएंगे, वासना में कम से कम जाइए—लौटते आइए, लौटते आइए—तो परमात्मा में आ जाएंगे। जिस दिन वासना पूर्ण होगी, उस दिन परमात्मा से डिस्टेंस एकोल्युट होगा। जिस दिन वासना शून्य होगी, उस दिन परमात्मा से नो डिस्टेंस पूर्ण होगा। उस दिन निकटता पूरी हो जाएगी, जिस दिन वासना नहीं होगी। जिस दिन वासना ही वासना होगी, उस दिन दूरी पूर्ण हो जाएगी। रास्ता वही होता है। सीढ़ी वही होती है, जो ऊपर ले जाती है मकान के। सीढ़ी नहीं होती है, जो नीचे लाती है मकान के। आप भी वही होते हैं, सीढ़ी भी वही होती है, सिर्फ रुख बदल जाता है। चढ़ते वक्त ऊपर की तरफ नजर होती है, उतरते वक्त नीचे की तरफ नजर होती है।

नहीं, कृष्ण जब वैरी कह रहे हैं वासना को, तो निंदा नहीं कर रहे हैं, सिर्फ सूचना दे रहे हैं अर्जुन को कि वासना वैरी बन सकती है, बन जाती है। सौ में निन्यानबे मौकों पर वैरी ही होती है। और जब मैं कहता हूं कि वासना मित्र है, तो मैं कह रहा हूं कि सौ में निन्यानबे मौकों पर वासना वैरी होती है, लेकिन सौ में निन्यानबे मौके पर भी वासना मित्र बन सकती है। मैं संभावना की बात कह रहा हूं, कृष्ण वास्तविकता की बात कह रहे हैं। कृष्ण कह रहे हैं, जो है, मैं कह रहा हूं वह, जो हो सकता है। और जो है, वह इसीलिए कह रहे हैं, ताकि वह हो सके, जो होना चाहिए। अन्यथा जो है, उसको कहने का कोई भी प्रयोजन नहीं है।

प्रश्न :

भगवान श्री, अभी आपने कहा कि वासना, अधिक वासना का अर्थ है, परमात्मा से अधिक दूरी; और दूसरी जगह आप कहते हैं कि वासना की चरम ऊंचाइयों पर ही रूपांतरण होता है। कृपया इसे स्पष्ट करें।

पढ़कर अपने मन को भी हलका कर लेते हैं।

यह बड़ी तरकीब है चालाक, कनिग! इस भाति वे दोहरा काम करते हैं। इस भांति वे वासना में भी जीते रहते हैं और अपने मन को भी समझाते रहते हैं कि मैं कोई बुरा आदमी नहीं हूं रोज गीता। पढ़ता हूं वासना वैरी है। आदमी तो अच्छा हूं, जरा समय नहीं। आया; अभी प्रभु की कृपा नहीं है, अभी पिछले जन्मों के कर्म बाधा डाल रहे हैं; अभी स्थिति नहीं बनी, इस तरह समझाते। गीता तो रोज पढ़ता ही हूं, इसलिए अपने अहंकार को भी भीतर बचाए रखते हैं कि मैं जानता हूं कि वासना वैरी है। और अपने चित्त को भी चलाए रखते हैं वासना में। ऐसे वे दो नावों पर सवार होते हैं। कहीं नहीं पहुंचते। न पाप के अंत पर पहुंचते, न पुण्य के अंत पर पहुंचते। सदा ही उनकी दो नावें बीच में ही भटकती रहती हैं। अनंत जन्म ऐसे बीत सकते हैं।

अगर कोई आदमी साहस से वासना में ही चला जाए, तो आज नहीं कल वासना के बाहर आना पड़ेगा। सिर्फ परमात्मा के बाहर आने का उपाय नहीं है, बाकी तो कहीं से भी बाहर आना पड़ेगा। क्योंकि जिस दिन पता चलेगा कि व्यर्थ है, उसी दिन लौटना शुरू हो जाएगा। उस दिन फिर कृष्ण की बात उधार नहीं मालूम पडेगी, आथेंटिक, प्रामाणिक हो जाएगी। प्राणों की, अपने ही प्राणों से आई हुई मालूम पड़ेगी। उस दिन गवाही दे सकेगा वाल्मीकि कि ठीक कहते हो तुम, मैं भी दस्तखत करता हूं मैं भी गवाह हूं, विटनेस हूं कि यही बात है। सिर्फ नर्क के और कुछ भी नहीं आता।

इसलिए जब मैं कहता हूं कि वासना की पूर्णता पर ही रूपांतरण होता है, तो मेरी दोनों बातों में कोई विरोध नहीं है। वासना की पूर्णता पर आप परमात्मा से सर्वाधिक दूर होते हैं, लेकिन वासना की पूर्णता पर, चरम स्थिति में रूपांतरण की संभावना भी सर्वाधिक होती है। असल में जो परमात्मा से सर्वाधिक दूर है, वही शायद परमात्मा की सर्वाधिक कमी भी अनुभव कर पाता है। और जो परमात्मा से सर्वाधिक दूर है, वही शायद दौड़कर परमात्मा की गोद में भी गिर पाता है। जिनको लगता है कि हम तो पास ही हैं मंदिर के, पड़ोस में, वे सोचते हैं, कभी भी हो लेंगे। ऐसी कोई जल्दी भी क्या है? पड़ोस में ही मंदिर है, कभी भी मंदिर में चले जाएंगे। आदमी हम भले हैं, ऐसा परमात्मा की तरफ दौड़ने की जरूरत भी क्या है? कभी भी, कभी भी।

एक अंग्रेज लेखक ने एक छोटी—सी किताब लिखी है। उस किताब में उसने लिखा है कि लंदन में दूसरे यात्री आते हैं सारी दुनिया से, तो लंदन का टावर देख लेते हैं; पर लंदन में ऐसे लाखों लोग हैं, जिन्होंने लंदन का टावर नहीं देखा है। नहीं देखा इसलिए कि देख लेंगे कभी भी। रोज उसी के पास से दफ्तर के लिए जाते हैं, देख लेंगे कभी भी! इतने पास है, ऐसा अहसास जो है—देख लेंगे। पेकिंग से आदमी आता है, देख लेता है। टोकियो से आता है, देख लेता है। बंबई से आता है, देख लेता है। लंदन का निवासी टावर के सामने ही रहता है, पत्थर फेंके तो टावर पर पहुंच जाए, लेकिन वह नहीं पहुंचता। वह सोचता है, देख लेंगे।

वैटिकन के पोप से एक दफा एक अमेरिकी यात्री मिलने आया। तीन मित्र साथ ही आए। वैटिकन के पोप ने पूछा कि फ्रांस में कितने दिन रुकने का इरादा है? एक अमेरिकन ने कहा, छ: महीने।

वैटिकन के पोप ने कहा कि तुम थोड़ा—बहुत फ्रांस जरूर देख लोगे।

दूसरे से पूछा, तुम कितने दिन रुकोगे? उसने कहा, मैं तो सिर्फ तीन सप्ताह रुकूंगा। वैटिकन के पोप ने कहा, तुम काफी फ्रांस देख लोगे। तीसरे से पूछा, तुम कितने दिन रुकोगे? उसने कहा, मैं तो सिर्फ एक सप्ताह के लिए आया हूं। वैटिकन के पोप ने कहा कि तुम पूरा फ्रांस देख लोगे। तीनों चकित हुए। उन्होंने कहा, आप क्या कहते हैं! मैं छ: महीना रुकूंगा, मुझसे कहते हैं कि थोड़ा—बहुत देख लोगे। तीन सप्ताह वाले से कहते हैं, काफी देख लोगे। एक सप्ताह वाले से कहते हैं, पूरा देख लोगे! वैटिकन के पोप ने कहा कि जिंदगी का मेरा अनुभव यही है कि जिसके पास लगता है कि बहुत समय है, वह उतना आराम कर लेता है। जिसके पास लगता है कि समय कम है, वह शीघ्रता से दौड़— धूप कर लेता है। जो चीज लगती है कि कभी भी मिल जाएगी, उसे हम कभी नहीं पाते। और जो चीज लगती है कि अब आखिरी घड़ी आ गई, जहां से छूटी तो सदा को छूट जाएगी, हम दौड़ पड़ते हैं।

इसलिए अगर कभी पापी अपने पाप की चरम सीमा से परमात्मा की गोद में सीधा पहुंच जाता है, तो बहुत चकित होने की जरूरत नहीं है। वह दौड़ पाता है। उसे लगता है, आ गई आखिरी जगह, यहां से एक कदम और कि मैं सदा के लिए खो जाऊंगा, फिर लौटने की कोई जगह न रह जाएगी। लौट पड़ता है। आपको नहीं लगता है। आपको लगता है, रास्ता साफ सुथरा है, बिलकुल मेटल रोड है; मजे से चले जा रहे हैं। गति अच्छी है। और फिर भगवान पास है। भले आदमी हैं, दान भी देते हैं, गीता भी पढ़ते हैं, मस्जिद भी जाते हैं, मंदिर भी जाते हैं, साधु—संत को नमस्कार भी करते हैं, और क्या चाहिए! कभी भी चले जाएंगे। पास है। नहीं। इसलिए पाप की पीड़ा मनुष्य को परमात्मा के पास पहुंचा देती है और पुण्य का अहंकार मनुष्य को परमात्मा से दूर कर देता है।

इन्द्रियाणि मनो बुद्धिरस्याधिष्ठानमुच्यते ।
एतैर्विमोहयत्येष ज्ञानमावृत्य देहिनम्‌ ॥४०॥

तस्मात्त्वमिन्द्रियाण्यादौ नियम्य भरतर्षभ ।
पाप्मानं प्रजहि ह्येनं ज्ञानविज्ञाननाशनम्‌ ॥४१॥

अगर अकडता रहे और मरे हुए विद्यार्थी घिराव न करें, तो ठीक है। जिंदा होने चाहिए—पूरे जिंदा, पूरे जीवंत—और फिर गुरु के चरणों पर सिर रख देते हों, तो कुछ अर्थ है।

इंद्रियां मार डाली जाएं, काट डाली जाएं और आपके वश में हो जाएं, तो होती नहीं हैं, सिर्फ भ्रम पैदा होता है। मरी हुई इंद्रियों को क्या वश में करना! नहीं, इंद्रियां वश में हों। स्वस्थ हों, जीवंत हों, लेकिन मालिक न हों। आपको न चलाती हों, आप उन्हें चलाते हों। आपको आज्ञा न देती हों, आपकी आज्ञा उन तक जाती हो। वे आपकी छाया की तरह चलती हों।

साक्षी व्यक्ति की इंद्रियां अपने आप छाया की भांति पीछे चलने लगती हैं। जो अपने को कर्ता समझता है, वही इंद्रियों के वश में होता है। जो अपने को मात्र साक्षी समझता है, वह इंद्रियों के वश के बाहर हो जाता है। जो इंद्रियों के वश में होता है, उसके वश में इंद्रियां कभी नहीं होतीं। और जो इंद्रियों के वश के बाहर हो जाता है, सारी इंद्रियां समर्पण कर देती हैं उसके चरणों में और उनके वश में हो जाती हैं। समर्पण का, इंद्रियों के समर्पण का सूत्र क्‍या है?

भीतर हम दो तरह के भाव रख सकते हैं, या तो भोक्ता का, कर्ता का, या साक्षी का। कर्ता भोक्ता होता है।

मैं एक छोटी—सी कहानी आपसे कहूं फिर अत सूत्र हम ले लें। मैंने सुना है, कृष्ण के गांव के बाहर एक तपस्वी का आगमन हुआ। कृष्ण के परिवार की महिलाओं ने कहा कि हम जाएं और तपस्वी को भोजन पहुंचा दें। लेकिन वर्षा और नदी तीव्र पूर पर और तपस्वी पार। उन स्त्रियों ने कहा, हम जाएं तो जरूर, लेकिन नाव लगती नहीं, नदी कैसे पार करेंगे? खतरनाक है पूर, तपस्वी भूखा और उस पार वृक्ष के नीचे बैठा है। भोजन पहुंचाना जरूरी है। क्या सूत्र, कोई तरकीब है? कृष्ण ने कहा, नदी से कहना, अगर तपस्वी जीवनभर का उपवासा हो, तो नदी राह दे दे। भरोसा तो आ, पर कृष्ण कहते थे, तो उन्होंने कहा, एक कोशिश कर।

जाकर नदी से कहा कि नदी, राह दे दे, अगर तपस्वी उस पार जीवनभर का उपवासा हो। भरोसा तो न हुआ, लेकिन जब नदी ने राह दे दी, तो कोई उपाय न रहा! स्त्रियां पार हुईं। बहुत भोजन बनाकर ले गई थीं। सोचती थीं कि एक व्यक्ति के लिए इतने भोजन की तो जरूरत भी नहीं, लेकिन फिर भी कृण के घर से भोजन आता हो, तो थोडा—बहुत ले जाना अशोभन था, बहुत ले गई थीं, सौ—पचास लोग भोजन कर सकें। लेकिन चकित हुईं, भरोसा तो न आया, वह एक तपस्वी ही पूरा भोजन कर गया।

फिर लौटीं। नदी ने तो रास्ता बंद कर दिया था, नदी तो फिर बही चली जा रही थी। तब वे बहुत घबडाई कि अब तो गए! क्योंकि अब वह सूत्र तो काम करेगा नहीं कि तपस्वी जीवनभर का उपवासा हो। लौटकर तपस्वी से कहा, आप ही कुछ बताएं। हम तो बहुत मुश्किल में पड़ गए। हम तो नदी से यही कहकर आए थे कि तपस्वी जीवनभर का उपवासा हो, तो मार्ग दे दे। नदी ने मार्ग दे दिया। तपस्वी ने कहा, वही सूत्र फिर कह देना। पर उन्होंने कहा, अब! भरोसा तो पहले भी न आया था, अब तो कैसे आएगा? तपस्वी ने कहा, जाओ नदी से कहना, तपस्वी जीवनभर का उपवासा हो, तो राह दे दे।

अब तो भरोसा करना एकदम ही मुश्किल था। लेकिन कोई रास्ता न था, नदी के पार जाना था जरूर। नदी से कहा कि नदी राह दे दे, अगर तपस्वी जीवनभर का उपवासा हो। और नदी ने राह दे दी! भरोसा तो न आया। नदी पार की। कृष्ण से जाकर कहा कि बहुत मुश्किल है! पहले तो हम तुमसे ही आकर पूछने वाले थे कि, अदभुत मंत्र दिया! काम कैसे किया? लेकिन छोड़ो उस बात को

अब। लौटते में और भी बड़ा चमत्कार हुआ है। पूरा भोजन कर। गया तुम्हारा तपस्वी और नदी ने फिर भी राह दी है और हमने यही कहा कि उपवासा हो जीवनभर का।

कृष्ण ने कहा, तपस्वी जीवनभर का उपवासा ही है, तुम्हारे भोजन करने से कुछ बहुत फर्क नहीं पड़ता। पर वे सब पूछने लगीं कि राज क्या है इसका? अब हमें नदी में उतनी उत्सुकता नहीं है। अब हमारी उत्सुकता तपस्वी में है। राज क्या है? उससे भी बड़ी घटना, नदी से भी बड़ी घटना तो यह है कि आप भी कहते हैं। तो कृष्ण ने कहा, जब वह भोजन कर रहा था, तब भी वह जानता था, मैं भोजन नहीं कर रहा हूं; वह साक्षी ही था। भोजन डाला जा रहा है, वह पीछे खड़ा देख रहा है। जब वह भूखा था, तब भी साक्षी था, जब भोजन लिया गया, तब भी साक्षी है। उसका साक्षी होने का — स्वर जीवनभर से सधा है। उसको अब तक डगमगाया नहीं जा सका। उसने आज तक कुछ भी नहीं किया है, उसने आज तक कुछ भी नहीं भोगा है, जो भी हुआ है, वह देखता रहा है। वह द्रष्टा ही है। और जो व्यक्ति साक्षी के भाव को उपलब्ध हो जाता है, इंद्रियां उसके वश में हो जाती हैं।

इन्द्रियाणि पराण्याहुरिन्द्रियेभ्यः परं मनः ।
मनसस्तु परा बुद्धिर्यो बुद्धेः परतस्तु सः ॥४२॥

गया। मन तो विचारों का जोड़ है। लेकिन सुबह उठकर आप कहते हैं कि रात बड़ा आनंद रहा, बड़ी गहरी नींद आई। न स्वप्न आए, न विचार उठे। किसको पता चला फिर कि आप गहरी नींद में रहे? किसने जाना आनंद था वह बुद्धि ने जाना।

बुद्धि मन के भी पार है। जो समर्थ हैं, वे बुद्धि से मन को चलाते हैं, मन से इंद्रियों को चलाते हैं। जो अपने सामर्थ्य को नहीं पहचानते और अपने हाथ से असमर्थ बने हैं, उनकी इंद्रियां उनके मन को चलाती हैं, उनका मन उनकी बुद्धि को चलाता है। वे शीर्षासन में जीते हैं; उलटे खडे रहते हैं। फिर उनको अगर सारी दुनिया उलटी दिखाई पडती है, तो इसमें किसी का कोई कसूर नहीं है।

मैंने सुना है—पता नहीं कहा तक सच बात है, लेकिन सब सच हो सकता है—मैंने सुना है कि पंडित नेहरू एक दिन शीर्षासन कर रहे थे अपने बगीचे में और एक गधा उनके बंगले में घुस गया। एक तो राजनीतिज्ञों के बंगलों के आस—पास गधों के अतिरिक्त और कोई जाता नहीं। और आदमी जाता, तो संतरी रोक लेता है को क्या रोकना! लेकिन वह साधारण गधा नहीं था, वह बौलने वाला गधा था। कई गधे बोलते हैं, इसमें कोई कठिनाई भी नहीं है। वह आकर पंडितजी के पास खड़ा हो गया। वे कर रहे थे शीर्षासन, उनको गधा उलटा दिखाई पडा। वे बड़े हैरान हुए। उन्होंने कहा, गधा, तू उलटा क्यों है? उस गधे ने कहा, पंडितजी! मैं उलटा नहीं हूं, आप शीर्षासन कर रहे हैं। तब तो वे घबड़ाकर उठकर खड़े हो गए। उन्होंने कहा, तू बोलता भी है! उस गधे ने कहा, मैं यही डर रहा था कि कहीं बोलने की वजह से आप मुझे मिलने से इनकार न कर दें। नेहरूजी ने कहा, बेफिक्र रह। मेरे पास इतने गधे आते हैं बोलते हुए कि मैं सुनते—सुनते आदी हो गया हूं। तू बेफिक्री से बोल। पर नेहरू को दिखाई पड़ा कि गधा उलटा है!

हम सबको भी जगत उलटा दिखाई पड़ता है। हम एक बहुत गहरे शीर्षासन में हैं। वह गहरा शीर्षासन शरीर के शीर्षासन से भी गहरा है, क्योंकि सब उलटा किया हुआ है। इंद्रियों की मानकर मन

चल रहा है, मन की मानकर बुद्धि चल रही है और बुद्धि कोशिश करती है कि परमात्मा भी हमारी मानकर चले। पत्तों की मानकर शाखाएं चल रही हैं, शाखाओं की मानकर पींड चल रही है, पींड

कोशिश कर रही है, जड़ें भी हमारी मानकर चलें। और अगर जड़ें नहीं मानती, तो हम कहते हैं, होंगी ही नहीं। अगर परमात्मा हमारी नहीं मानता, हम कहते हैं, नहीं है।

एक आदमी मेरे पास आया। उसने कहा, मैं तो परमात्मा को मानने लगा। क्या हुआ, मैंने कहा। उसने कहा कि मेरे लड़के को नौकरी नहीं लगती थी, मैंने परमात्मा को सात दिन का अल्टिमेटम दिया। सात दिन में नौकरी लग जाए तो ठीक, अन्यथा तू नहीं है। और लग गई! और अब मैं मानने लगा। मैंने कहा कि तू परमात्मा को मानने लगा या परमात्मा तेरे को मानने लगा? उसको भी मनाने की कोशिश चल रही है। मैंने कहा, अगर कल लड़के की नौकरी छूट जाए? तो उसने कहा कि फिर मुझे भरोसा नहीं रहेगा। हम उलटे चल रहे हैं जीवन को।

कृष्ण कहते हैं, इंद्रियां मानें मन की, मन माने बुद्धि की, बुद्धि परमात्मा के लिए समर्पित हो, बुद्धि माने परमात्मा की। तब व्यक्तित्व सीधा, सरल, ऋजु—और तब व्यक्तित्व धार्मिक, आध्यात्मिक हो पाता है।

एक और, एक आखिरी और।

एवं बुद्धेः परं बुद्धवा संस्तभ्यात्मानमात्मना ।
जहि शत्रुं महाबाहो कामरूपं दुरासदम्‌ ॥४३॥

उसकी बुद्धि परमात्मा के लिए समर्पित होकर परमात्मा के वश में हो जाती है।

इंद्रियों को दें मन के हाथ में, मन को दें बुद्धि के हाथ में, बुद्धि को दे दें परम सत्ता के हाथ में।

और कृष्ण कहते हैं, हे कौन्तेय, हे अर्जुन, ऐसा जो अपने को संयमित कर लेता, वह व्यक्ति दुर्जय कामना के पार हो जाता हैअर्थात वह आत्मा को उपलब्ध हो जाता है।

Post a Comment

0 Comments