केवल प्रेम ही अर्थपूर्ण है - ओशो

 केवल प्रेम ही अर्थपूर्ण है



"वास्तव में, जब तुम प्रेम में पड़ते हो तब तुम उसके लिए सब कारण गिरा देते हो. इसीलिए हम कहतें हैं व्यक्ति प्रेम में गिर गया। यह गिरना कहां से होता है? यह गिरना मस्तिष्क से उतर कर ह्रदय में होता है। हम इस निंदा भरे कथन का प्रयोग करतें हैं: "प्रेम में गिरना," क्योंकि कारण देने वाली हमारी तार्किक बुद्धि, उसे निंदित किए बिना नहीं देख सकती। उसके लिए तो यह एक पतन है। क्या प्रेम वास्तव में एक पतन है या फिर एक उत्थान? क्या तुम उसके साथ बढ़ते हो या फिर घटते? क्या तुम उसमें विस्तीर्ण होते हो या फिर सिकुड़ते हो? प्रेम के साथ तुम बढ़ते हो! तुम्हारी चेतना बढ़ती है, तुम ज्यादा महसूस करते हो; तुम्हारी उन्माद से भर देने वाली भावनाएं बढ़ती हैं, तुम्हारी संवेदनशीलता बढ़ती है। तुम ज्यादा जीवंत होते हो, परन्तु एक बात घट जाती है: तुम्हारी तार्किक बुद्धी। तुम प्रेम के लिए कोई तर्क नहीं दे सकते; वह अंधा होता है। जहां तक तर्क का प्रश्न है, वह अंधा होता है। यह और ही बात है कि ह्रदय के पास अपने तर्क होतें है, यह और ही बात है कि ह्रदय के पास अपनी आंख होती है, परन्तु बुद्धी के पास वहां आंख नहीं होती तो बुद्धि कहती है कि यह पतन है; तुम गिर गए।

"जब तक कि ह्रदय का केंद्र फिर से काम करना आरंभ न कर दे व्यक्ति प्रेम करने में समर्थ नहीं हो पाएगा, आधुनिक मनुष्य का सारा संताप यह है कि जब तक वह प्रेम नहीं करेगा वह अपने जीवन में कोई अर्थ नहीं पा सकता। जीवन अर्थहीन प्रतीत होता है। प्रेम जीवन को अर्थ देता है; केवल प्रेम में ही अर्थ है। जब तक के तुम प्रेम करने में समर्थ नहीं हो तुम अर्थहीन हो, और तुम महसूस करोगे कि तुम व्यर्थ जी रहे हो--असार, और आत्मघात कर लेना तुम्हे आकर्षित करेगा। तब तुम चाहोगे कि खुद को मार डालो, स्वयं को बिल्कुल समाप्त कर दो क्योंकि फिर जीने का क्या सार?

तब तुम्हें बस किसी भी तरह जिए जाना बर्दाश्त नहीं हो पाएगा। तुम सोचोगे, जीने में कुछ तो अर्थ होना चाहिए; अन्यथा प्रयोजन क्या है? स्वयं को बस यूं ही क्यों ढोते रहें? क्यों हर रोज एक ही ढर्रे को दोहराते रहें? रोज सुबह उठना वही वही बातें दोहराना, और रात में फिर सो जाना, अगले दिन फिर वही सब कुछ दुबारा: क्यों?

"यही तुम अब तक करते आए हो, और इस सब से हुआ क्या? और तुम इसे तब तक करोगे जब तक मृत्यु नहीं आ जाती और तुम्हें तुम्हारी देह से छुटकारा नहीं दिला देती। तो इस सब से क्या हासिल?

प्रेम अर्थ देता है। ऐसा नहीं कि प्रेम के द्वारा तुम्हें कोई परिणाम हासिल होंगे या फिर तुम्हारे किसी लक्ष्य की उपलभ्दी होगी - नहीं! प्रेम के द्वारा तो हर क्षण अपने आप में मूल्यवान हो जाता है। तब तुम कभी इस तरह के प्रश्न नहीं पूछते। यदि कोई यह पूछे कि जीवन का क्या अर्थ है, तब यह भलीभांति जान लो कि उसका जीवन प्रेमरिक्त है। जब भी कोई जीवन का अर्थ पूछता है, तो इसका इतना ही अर्थ है कि उसके जीवन में प्रेम का फूल खिल नहीं पाया है। जब कोई प्रेम में होता है, तब वह यह नहीं पूछता कि जीवन का क्या अर्थ है। उसे अर्थ पता होता है; पूछने कि आवश्यकता नहीं होती। वह अर्थ जानता है! अर्थ वहां है: प्रेम ही जीवन में अर्थ है।"

Post a Comment

0 Comments