प्रेम द्वार है - ओशो

 प्रेम द्वार है - ओशो 



"यदि प्रेम में आवेश है, तब प्रेम नर्क बन जाएगा। यदि प्रेम में आसक्ति है, तब प्रेम एक कैद बन जाएगा। यदि प्रेम आवेशहीन है तब वह स्वर्ग बन जाएगा। यदि प्रेम में कोई आसक्ति नहीं तब वह अपने आप में दिव्य है।

"प्रेम की दोनों संभावनाएं हैं। प्रेम में तुम्हें आवेश और आसक्ति दोनों हो सकते हैं: तब यह ऐसा होता है जैसे तुमने प्रेम के पक्षी की गर्दन में पत्थर बांध दिया हो ताकि वह उड़ न पाए। या फिर जैसे तुमने प्रेम के पक्षी को एक सोने के पिंजड़े डाल दिया हो। पिंजड़ा चाहे जितना भी कीमती क्यों न हो--उसमें हीरे और मोती जड़े हों--पिंजड़ा आखिर पिंजड़ा है और वह पक्षी के उड़ने की क्षमता को नष्ट कर देगा।

"जब तुम प्रेम से आवेश और आसक्ति हटा देते हो, जब तुम्हारा प्रेम पवित्र होता है, निर्दोष, निराकार होता है, जब तुम प्रेम में देते तो हो पर मांगते नहीं, जब प्रेम केवल देना है, जब प्रेम एक सम्राट होता है, भिखारी नहीं; जब तुम प्रसन्न हो क्योंकि किसी ने तुम्हारे प्रेम को स्वीकार किया और तुमने उसका सौदा नहीं किया, तुमने बदले में कुछ नहीं मांगा, तब तुम इस प्रेम के पक्षी को खुले आकाश में मुक्त छोड़ रहे हो। तब तुम उसके पंखों को मजबूती दे रहे हो। तब यह पक्षी अनंत की उड़ान के लिए तैयार हो सकता है।

"प्रेम ने लोगों को नीचे गिराया है और प्रेम ने ही लोगों को ऊपर उठाया है। यह सब इस बात पर निर्भर करता है कि तुमने प्रेम के साथ क्या किया। प्रेम एक बहुत रहस्यपूर्ण घटना है। यह एक द्वार है--जिसके एक तरफ पीड़ा है, दूसरी तरफ आनंद; एक तरफ नर्क है और दूसरी तरफ स्वर्ग; एक तरफ संसार है; जन्म और मृत्यु का चक्र और दूसरी तरफ मोक्ष है। प्रेम द्वार है।

"यदि तुमने केवल वह प्रेम जाना है जो आवेश और आसक्ति से भरा है, तो जीसस के इस कथन को कि "ईश्वर प्रेम है" तुम समझ नहीं पाओगे। जब सहजो प्रेम के गीत गाने लगेगी तब तुम बहुत व्याकुल हो जाओगे तुम सोचोगे: "इसमें कोई सार नहीं! मैंने भी प्रेम किया परन्तु मुझे उसके बदले में दुःख ही हाथ आया। प्रेम के नाम पर मैंने कांटों की ही फसल काटी, मेरे लिए कभी कोई फूल नहीं खिले।" यह दूसरी तरह का प्रेम कल्पनात्मक प्रतीत होगा, यह दूसरी तरह का प्रेम जो पूजा बनता है, प्रार्थना बनता है, मोक्ष बनता है, वह केवल शब्दों के खेल जैसा दिखेगा।

"तुमने भी प्रेम को जाना है--परन्तु जब भी तुमने प्रेम को जाना तुमने वही प्रेम जाना जो आवेश और आसक्ति से भरा है। तुम्हारा प्रेम वास्तव में प्रेम नहीं था। तुम्हारा प्रेम केवल अपने आवेश को, आसक्ति को, काम को ढांकने के लिए एक पर्दा था। बाहर से तुम उसे प्रेम कहते थे, भीतर से यह कुछ और था। जब तुम किसी स्त्री या पुरुष के प्रेम में थे तब तुम क्या अपेक्षा कर रहे थे? तुम असल में कामातुर थे, प्रेम तो केवल बाहरी सजावट थी।

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