Asambhav Kranti - Part : 1 To 10

प्रवचन-पहला-(सत्य का द्वार)

मेरे प्रिय आत्मन्,
एक सम्राट एक दिन सुबह अपने बगीचे में निकला। निकलते ही उसके पैर में कांटा गड़ गया। बहुत पीड़ा उसे हुई। और उसने सारे साम्राज्य में जितने भी विचारशील लोग थेउन्हें राजधानी आमंत्रित किया। और उन लोगों से कहाऐसी कोई आयोजना करो कि मेरे पैर में कांटा न गड़ पाए।
वे विचारशील लोग हजारों की संख्या में महीनों तक विचार करते रहे और अंततः उन्होंने यह निर्णय किया कि सारी पृथ्वी को चमड़े से ढांक दिया जाएताकि सम्राट के पैर में कांटा न गड़े। यह खबर पूरे राज्य में फैल गई। किसान घबड़ा उठे। अगर सारी जमीन चमड़े से ढंक दी गई तो अनाज कैसे पैदा होगासारे लोग घबड़ा उठे--राजा के पैर में कांटा न गड़ेकहीं इसके पहले सारी मनुष्य जाति की हत्या तो नहीं कर दी जाएगीक्योंकि सारी जमीन ढंक जाएगी तो जीवन असंभव हो जाएगा।
लाखों लोगों ने राजमहल के द्वार पर प्रार्थना की और राजा को कहाऐसा न करें कोई और उपाय खोजें। विद्वान थेबुलाए गए और उन्होंने कहातब दूसरा उपाय यह है कि पृथ्वी से सारी धूल अलग कर दी जाएकांटे अलग कर दिए जाएंताकि आपको कोई तकलीफ न हो।
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कांटों की सफाई का आयोजन हुआ। लाखों मजदूर राजधानी के आसपास झाडुएं लेकर रास्तों कोपथों को,खेतों को कांटों से मुक्त करने लगे। धूल के बवंडर उठे,आकाश धूल से भर गया। लाखों लोग सफाई कर रहे थे। एक भी कांटे को पृथ्वी पर बचने नहीं देना थाधूल नहीं बचने देनी थीताकि राजा को कोई तकलीफ न हो,उसके कपड़े भी खराब न होंकांटे भी न गड़ें। हजारों लोग बीमार पड़ गएइतनी धूल उड़ी। कुछ लोग बेहोश हो गएक्योंकि चौबीस घंटाअखंड धूल उड़ाने का क्रम चलता था। धूल वापस बैठ जाती थीइसलिए क्रम बंद भी नहीं किया जा सकता था।
सारी प्रजा में घबड़ाहट फैल गई। लोगों ने राजा से प्रार्थना की यह क्या पागलपन हो रहा है। इतनी धूल उठा दी गई है कि हमारा जीना दूभर हो गयासांस लेना मुश्किल है। कृपा करके ये धूल के बादल वापस बिठाए जाएं। कोई और रास्ता खोजा जाए।
फिर हजारों मजदूरों को कहा गया कि वे जाकर पानी भरें और सारी पृथ्वी को सीचें। नदी और तालाब सूख गए। लाखों भिश्तियों ने सारी राजधानी कोराजधानी के आसपास की भूमि को पानी से सींचा। कीचड़ मच गई,गरीबों के झोपड़े बह गए। बहुत मुसीबत खड़ी हो गई। फिर राजा से प्रार्थना की गई कि यह क्या हो रहा है--क्या आप हमें जीने न देंगेक्या आपके पैर में एक कांटा लगता है तो हम सबका जीवन मुश्किल हो जाएगाकोई और सरल रास्ता खोजें।
और तभी एक बूढ़े आदमी ने आकर राजा को कहामैं यह जूता आपके लिए बना लाया हूंइसे पहन लेंकांटा फिर आपको न गड़ेगा और हमारा जीवन भी बच जाएगा।
राजा हैरान हुआ। इतना सरल उपाय भी हो सकता था क्यापैर ढंके देखकर वह चकित हो गया। क्या कोई इतना बुद्धिमान मनुष्य भी था जिसने इतनी सरलता से बात हल कर दीजिसे लाखों विद्वान हल न कर सके! करोड़ों रुपया खर्च हुआहजारों लोग परेशान हुए--इतनी सरल बात थी।
और सारे पंडितसारे विद्वान क्रोध औरर् ईष्या से भर गए--यह बूढ़ा आदमी खतरनाक था। इस सब के प्रति,इस बूढ़े आदमी के प्रतिउन सबके मन में तीव्र रोष भर गया। उन्होंने कहाजरूर इस आदमी को शैतान ने ही सहायता दी होगी। क्योंकि हम इतने विचारशील लोग नहीं खोज पाए जो बातइसने खोज ली है! जरूर इसमें कोई खतरा है।
राजा को उन्होंने समझाया। यह जूता खतरनाक सिद्ध होगाशैतान का हाथ इसमें होना चाहिए। क्योंकि हमारी सारी बुद्धिमत्ता जो नहीं खोज सकीयह बूढ़ा आदमी कैसे खोज लेगाराजा को उन्होंने भड़कायासमझाया। राजा भयभीत हो गया। उस बूढ़े आदमी को सूली दे दी गई। वह पहला समझदार आदमी सूली पर चढ़ा। और उसके बाद जितने लोगों ने यह सलाह दी है कि कृपा करेंपृथ्वी को परेशान न करेंअपने पैर ढंक लेंउन सभी को सूली दी जाती रही है।
शायद इसीलिए वह पहला क्रांतिकारी व्यक्ति जिसने जूते की ईजाद की थीउसके वंशज आज भी अपमानित हैं--आज भी चमार का कोई आदर नहीं है। शायद पंडितों का ही हाथ होगा इसमें।
इस कहानी से इन तीन दिनों की चर्चा को मैं शुरू करना चाहता हूं। इस वजह से कि सारी दुनिया में सभी मनुष्यों का एक ही प्रश्न है--दुख के कांटे जीवन को पीड़ित किए रहते हैं। अशांति के कांटेचिंता के कांटेअज्ञान और अंधकार के कांटे गड़ते हैं और कोई उपाय समझ में नहीं आता कि इनसे कैसे बचा जाए। और सभी लोग बुद्धिमानों कीतथाकथित बुद्धिमानों की सलाह मानकर सारी पृथ्वी को ढंकने की आयोजना में लग जाते हैं--अपने को छोड़करअपने को भूलकर! अपने पैर को ढंकने की सीधी सी युक्ति किसी की भी समझ में नहीं आती।
इतनी सीधी युक्ति हैलेकिन इस जमीन पर दस-पांच ही ऐसे लोग हुए हैंजिन्होंने अपने पैर ढंके हों। अधिक लोग पृथ्वी को ही बदलने की कोशिश करते रहे हैं। और ये अधिक लोगजितनी इन्होंने कोशिश की हैजमीन को ढंक देने कीधूल-कांटों से अलग कर देने कीउतनी ही जमीन मुश्किल में पड़ती चली गई। इन सभी सुधारकों के कारण ही मनुष्य जाति इतनी पीड़ाओं में उलझ गई है कि आज कोई छुटकारा भी दिखाई नहीं पड़ता है।
लेकिन एक सीधी सी बात थी कि हर आदमी अपने पैर ढंक ले और कांटों से मुक्त हो जाए। लेकिन यह सीधी सी बात--आश्चर्य ही है कि मुश्किल से ही कभी किसी को दिखाई पड़ती है। इस सीधी सी बात को ही इन तीन दिनों में समझाने की आपको कोशिश करूंगा। नाराज आप जरूर होंगे मन में क्योंकि सीधी बात किसी को समझाई जाए तो नाराजगी होती है। इतनी सीधी बात को भी समझाने की कोशिश करने से गुस्सा आता है। ऐसा लगता है कि क्या आप हमें इतना नासमझ समझते हैं कि इस सीधी सी बात को हमें समझाएं।
लेकिन क्षमा मैं बाद में मांग लूंगाबात तो यही मुझे समझानी है। क्योंकि यही एकमात्र कष्ट है मनुष्य के सामने। कांटे उसे चुभते हैंलेकिन पैर को जूते से ढंकने का खयाल नहीं आता है। सब तरफ दृष्टि जाती है,हजारों उपाय सूझते हैं जीवन को शांत कर लेने के--एक उपाय भर नहीं सूझता हैअपने को बदल लेने काअपने को ढंक लेने का। और सब योजना चलती है--सुख की और आनंद की। खोज की सब दिशाएं खोज ली जाती हैंसिर्फ एक दिशा अनछुई रह जाती है--वह है स्वयं की दिशा। जैसे स्वयं को हम देखते ही नहीं और सबको देखते रहते हैं।
तो यहां इन तीन दिनों में इस सीधी सी बात पर थोड़ा सा हम विचार करेंगे कि क्या स्वयं को भी देखा जा सकता हैक्या यह संभव नहीं है कि हम अपने को बदल लें?क्या यह संभव नहीं है कि हमारी दृष्टि स्वयं के परिवर्तन और चिकित्सा पर चली जाएक्या यह नहीं हो सकता है कि हम अपने को ढंक लें और दुखों और पीड़ाओं से मुक्त हो जाएं। क्या उस राजा को जो समझदार लोगों ने सलाहें दी थींवे ही हम भी मानते रहेंगेक्या उस बूढ़े और सीधे आदमी की बात हमारे खयाल में भी नहीं आएगी?
इसी संबंध में थोड़ी सी बातें इन तीन दिनों मैं आपसे कहूंगा। इसके पहले कि वे तीन दिनों की चर्चाएं शुरू हों,कुछ और थोड़ी सी प्राथमिक बातें आज ही मुझे कह देनी हैं। क्योंकि आज रात से जो तीन दिन का जीवन शुरू होगा उसे मैं चाहूंगा--आपका मन भी चाहता होगा,इसीलिए आप यहां आए हैं--कि वे तीन दिन उपलब्धि के दिन हो जाएं। उन तीनों दिनों में कोई झलककोई किरण जीवन के अंधेरे को आलोकित कर दे। उन तीन दिनों में कोई मार्ग सूझ जाए। उलझाव के बाहर निकलने की कोई दिशा खयाल में आ जाए। वह खयाल में लेकिन अकेली मेरी कोशिश से नहीं आ सकती है। मेरी अकेली कोशिश और आपका सहयोग न हो तो फिर मैं आपके सामने नहींदीवालों के सामने बोल रहा हूं। आपके सहयोग से ही आप दीवाल नहीं रह जातेसचेतन व्यक्ति बन जाते हैं।
एक फकीर हिंदुस्तान से चीन गया थाकोई चौदह सौ वर्ष पहले। बड़ा प्यारा आदमी रहा होगा। अगर वह यहां मेरी जगह होता तो आपकी तरफ मुंह करके न बोलता,वह आपकी तरफ पीठ करके बोलता। वह जब भी किसी से बोलता तो पीठ उसकी तरफ करता था और मुंह दीवाल की तरफ। लोग हैरान थे। चीन का सम्राट उससे मिलने आया और जब उसने पीठ की और दीवाल की तरफ मुंह करके बात करने लगा तो उसने कहायह क्या पागलपन है! आप मुझसे बात करते हैंऔर दीवाल की तरफ मुंह किए हैं। उस फकीर ने कहाअब तक मुझे ऐसा आदमी नहीं मिलाजो दीवाल न हो। कोई सहयोग ही नहीं करता तो उससे बोलने का प्रयोजन भी क्या है! सिर्फ भ्रम होता है कि हम बोल रहे हैं। सुनने वाला मौजूद ही नहीं होता है।
तो तीन दिनों में आप किस भांति सहयोग कर सकेंगे,उस संबंध में कुछ तीन सूत्र आज मुझे आपसे कह देने हैं। उन तीन सूत्रों के आधार पर ही आपका सहयोग,आपका को-आपरेशन मिल सकता हैऔर मैं जो कहना चाहता हूं--मैं तो उसे कहूंगा हीलेकिन आपका सहयोग होगा तो आप भी उसे सुन सकेंगे। अन्यथा मेरा कहना तो पूरा हो जाएगाआपके सुनने की भी शुरुआत नहीं होगी। इतने से ही काफी मत समझ लेना की मैंने बोला,तो आपने सुन लिया। यह बात इतनी आसान नहीं है। आपको सुनने के लिए भी कुछ करना होगाजैसा कि बोलने के लिए मुझे कुछ करना पड़ता है। आप यहां निष्क्रिय होकरआप यहां पैसिव होकर अगर तीन दिन बैठे रहेजैसे आप सिनेमा देखते हैं--वैसेतो फिर मेरी बात आपको सुनाई नहीं पड़ेगी।
जिन सत्यों की हमें यहां चर्चा करनी हैउन सत्यों को सुनने के लिए आपको एक्टिव-पार्टिसिपेंटआपको सक्रिय-सहयोगी होना पड़ेगाअन्यथा वे बातें आप तक नहीं पहुंचेंगी। तो आप कैसे अपना सहयोग दे सकेंगेमैं तो बोलूंगालेकिन आप कैसे सुन सकेंगेऔर आप नहीं सुन सके तो कोई अर्थ मेरे श्रम का नहीं होता है। और आप नहीं सुन सके तो शायद आप कहेंगे मैं गयालेकिन कुछ भी नहीं हो पाया। बहुत कुछ हो सकता है। लेकिन उसमें मुझसे ज्यादा महत्वपूर्ण आप हैं। मैं बहुत महत्वपूर्ण नहीं हूं। आप ही ज्यादा महत्वपूर्ण हैं। और वे तीन छोटे से सूत्र हैंजिनके अनुकूल इन तीन दिनों अगर आपने थोड़ी तैयारी की तो जिस बात की आप कामना लेकर आए हैंवह हो सकता है।
उनमें पहला सूत्र है--इन तीन दिनों में इस भांति जीएं,जैसे कि पीछे अब कुछ भी नहीं है और आगे भी कुछ नहीं।
हम तो इस भांति जीते हैंजैसे इस समय कुछ भी नहीं है--जो कुछ हैपीछे था और जो कुछ हैआगे है। वर्तमान काप्रजेंट का--जो मौजूद हैहमारी दृष्टि में कोई आकलन ही नहीं होता है। और सच्चाई यह है कि वर्तमान की ही केवल सत्ता है। एक्जिस्टेंस केवल उसका ही हैजो मौजूद है। न तो जो बीत गया उसकी कोई सत्ता है और न उसकी जो आने को है।
लेकिन या तो हम पीछे की तरफ देखते हुए जीते हैंया आगे की तरफ। या तो अतीत की चिंता हमारे मन में होती हैया भविष्य की कल्पना। लेकिन वर्तमान का कोई बोध नहीं होता है। और वर्तमान का बोध न होतो न तो आप जी सकते हैं और न सुन सकते हैंन समझ सकते हैं--और न सत्य को जानने का द्वार खुल सकता है।
हमारा चित्त निरंतर की आदत के कारण या तो पीछे की स्मृतियों में खोया रहता हैजिनकी अब कोई जगह नहीं रह गई जमीन परपृथ्वी पर। सत्ता में जिनके कोई चिह्न नहीं रह गएसिवाय हमारी मेमोरीहमारी स्मृति को छोड़कर। और या फिर हम भविष्य की ऊहापोह में,कल्पना मेंआने वाले कल के इरादे और विचारों में खोए रहते हैं। ये दोनों ही तरह के लोग कभी भी सत्य को नहीं जान सकते हैं। क्योंकि सत्य है वर्तमान में--इस क्षण में,अभी और यहां। और हम अभी और यहां कभी भी नहीं होते हैं। हम कहीं पीछे या कहीं आगे होते हैं।
बुद्ध बारह वर्षों के बाद अपने गांव वापस लौटे थे। उनके पिता बुद्ध का स्वागत करने गांव के बाहर गए। लेकिन मन में उनके बहुत क्रोध था। बारह वर्ष पहले यह लड़का घर-द्वार छोड़कर भाग गया थाउसकी पीड़ा थीदुख था। जाकर उन्होंने बुद्ध से कहातू अभी भी वापस लौट आमेरे द्वार खुले हैं। बहुत चोटबहुत दुख तूने मुझे पहुंचाया हैलेकिन आखिर मैं पिता हूं। पिता का प्रेम...मैं अपने दरवाजे बंद नहीं कर सकतातुझे क्षमा कर दूंगा,तू वापस आ जा।
बुद्ध ने क्या कहापता है?
बुद्ध ने कहा: मैं निवेदन करूंगाकृपा करके आप एक बार मुझे देखेंजो मैं हूं। जो बारह साल पहले आपके घर से गया थावह अब कहीं भी नहीं है। मैं दूसरा ही होकर लौटा हूं। मैं बिलकुल नया हूं। और आप मुझे देख ही नहीं रहे हैंक्योंकि आपकी आंखों में बारह वर्ष पहले का चित्र ही मौजूद है। आप उसी से बातें कर रहे हैंजो बारह साल पहले था। गंगा में बहुत पानी बह गया बारह वर्षों मेंमुझमें भी बहुत पानी बह गया बारह वर्षों मेंमैं अब बिलकुल दूसरा आदमी होकर लौटा हूं।
लेकिन बुद्ध के पिता की आंखें तो क्रोध से भरी थीं। वे कहने लगेमैं और तुझे नहीं जानूंगामैंने जिसने तुझे पैदा किया और जन्म दियामुझे तू शिक्षा देगामुझे तू समझाएगाबुद्ध ने कहापरमात्मा करे किसी दिन आपके खयाल में आए कि जिसको आपने पैदा किया थावह अब कहां है। मैं निवेदन करता हूंएक बार मुझे देखेंजो मैं हूं।
पता नहीं बुद्ध के पिता देख पाए या नहीं। हम भी नहीं देख पाते हैं। हम भी पीछे-पीछे अटके रह जाते हैं। और जिंदगी रोज बदल जाती है। जिंदगी रोज बदल जाती है,प्रतिपल सब कुछ बदल जाता हैऔर हम पीछे ही उलझे रह जाते हैं। इसलिए जीवन से हमारा संस्पर्श नहीं हो पाता। और या फिर हम आगे के ऊहापोह में और कल्पना में खो जाते हैं।
मैंने सुना है एक आदमी एक ट्रेन में न्यूयार्क की तरफ सफर कर रहा था। एक बीच के स्टेशन पर एक युवक भी सवार हुआ। उस युवक के हाथ के बस्ते को देखकर लगता था वह किसी इंश्योरेंस का एजेंट होगा। उस बूढ़े आदमी के पास वह बैठा। फिर थोड़ी देर बाद उसने पूछा कि क्या महाशय आप बात सकेंगे आपकी घड़ी में कितना बजा हुआ हैवह बूढ़ा थोड़ी देर चुप रहा और उसने कहा क्षमा करेंमैं न बता सकूंगा। उस युवक ने कहाक्या आपके पास घड़ी नहीं है। उस बूढ़े ने कहा,घड़ी तो जरूर हैलेकिन मैं थोड़ा आगे का भी विचार कर लेता हूंतभी कुछ करता हूं। अभी तुम पूछोगे कितना बजा है और मैं घड़ी में देखकर बताऊंगा कितना बजा है। हम दोनों के बीच बातचीत शुरू हो जाएगी। फिर तुम पूछोगेआप कहां जा रहे हैं। मैं कहूंगान्यूयार्क जा रहा हूं। तुम कहोगेमैं भी जा रहा हूं। आप किस मोहल्ले में रहते हैं। तो मैं अपना मोहल्ला बताऊंगा। संकोचवश मुझे कहना पड़ेगाअगर कभी वहां आएंतो मेरे घर भी आना। मेरी जवान लड़की है। तुम घर आओगेनिश्चित ही उसके प्रति आकर्षित हो जाओगे। तुम उससे कहोगे कि चित्र देखने चलती हो। वह जरूर राजी हो जाएगी। और यह मामला यहां तक बढ़ेगा कि एक दिन मुझे विचार करना पड़ेगा कि बीमा एजेंट से अपनी लड़की की शादी करनी है या नहीं करनी है। और मुझे बीमा एजेंट बिलकुल भी पसंद नहीं आते। इसलिए कृपा करोमुझसे तुम घड़ी का समय मत पूछो।
इस आदमी पर जरूर हमें हंसी आ सकती है। लेकिन हम सब इसी तरह के आदमी हैं। हमारा चित्त प्रतिपल वर्तमान से छिटक जाता है औरऔर भविष्य में उतर जाता है। और भविष्य के संबंध में आप कुछ भी सोचें,सभी ऐसा ही फिजूल और व्यर्थ है। क्योंकि भविष्य है नहीं। जो भी आप सोचेंगेसभी कल्पनासभी इमेजिनेशन है। जो भी आप सोचेंगेवह इसी तरह का झूठा और व्यर्थ है। जैसे इस आदमी काइस छोटी सी बात से कि घड़ी में कितना बजा हैइतनी लंबी यात्रा पर कूद जाना। इसका चित्त हम सबका चित्त है।
हम सब प्रतिपल खड़े होते नहीं वर्तमान पर और भविष्य में कूद जाते हैंयाया अतीत में कूद जाते हैं। लेकिन जो क्षण मौजूद होता हैउसमें हम मौजूद नहीं हो पाते। और उसकी ही सत्ता हैवही वास्तविक है। अतीत और भविष्य इन दोनों के बंधनों में मनुष्य की चेतना वर्तमान से अपरिचित रह जाती है। अतीत और भविष्य दोनों मनुष्य की ईजादें हैं। जगत की सत्ता में उनका कोई भी स्थान नहींउनका कोई भी अस्तित्व नहीं।
भविष्य और अतीतपास्ट और फ्यूचर--कल्पित समय हैंस्यूडो टाइम हैंवास्तविक समय नहीं। वास्तविक समयरियल टाइम तो केवल वर्तमान का क्षण है। वर्तमान के इस क्षण में जो जीता हैवह सत्य तक पहुंच सकता हैक्योंकि वर्तमान का क्षण ही द्वार है। लेकिन जो अतीत और भविष्य में भटकता हैवह सपने देख सकता हैस्मृतियों में खो सकता है। लेकिन सत्यसत्य से उसका साक्षात कभी भी संभव नहीं है।
इन तीन दिनों में ऐसे जीएं कि जो क्षण आपके पास है,बस वही है। दूसरा क्षण मनुष्य के हाथ में होता भी नहीं। एक ही क्षण होता हैदो क्षण नहीं होते। और उस एक क्षण को हम गंवा दें--बीते हुए क्षणों के लिए या आने वाले क्षणों के लिएतो बड़ी भूल हो जाती है। एक छोटा सा क्षण मिलता है मनुष्य कोउससे ज्यादा नहीं। उस छोटे से क्षण को जीने की कला ही धर्म में प्रवेश की कला हैवही है आर्ट।
आज रात से ऐसा जीएं कि जो क्षण हैवही है। जो काम आप कर रहे हैंवही कर रहे हैं। यहां सुन रहे हैं तो सिर्फ सुन रहे हैं। इस सुनने में फिर और कुछ भी नहीं।
मैं बोल रहा हूं--उस वक्त अगर आप सोचने लगेंयही गीता में भी लिखा हैतो आप पीछे चले गए। कभी आपने पढ़ा होगाउससे आप मेल-जोल बिठालने लगे--मैं जो कहता थाउसका आपसे संबंध टूट गया। अगर मैं कुछ कह रहा हूं--और आप सोचने लगे कि अगर मैं ऐसा करूं या सोचूंतो कहीं ऐसा तो न हो कि मुझे घर-द्वार छोड़ देना पड़े--आप भविष्य में चले गए। आप समय बताने की जगह लड़की के विवाह का चिंतन करने लगे। क्या होगा मेरी बात से अगर यह सोचने लगे तो आप आगे चले गए। या पुरानी बातों से मेल करने लगे तो पीछे चले गए। और वंचित हो गए उस बात को सुनने सेजो मैं आपसे कहता था।
जो मैं आपसे कह रहा हूं अगर उसे ही सुनना है तो उस सुनने के क्षण में फिर और कहीं आप नहीं होना चाहिए। लेकिन यह केवल सुनने के लिए नहीं हो सकता। यह तो तभी हो सकता हैजब हम चौबीस घंटे ऐसा जीएं--जब आप पानी पी रहे हों तो सिर्फ पानी पीएंऔर भोजन करते हों तो सिर्फ भोजनऔर रास्ते पर चलते हों तो सिर्फ रास्ते पर चलें। और उस क्षण को ही समझ लें--कि इसके आगे कुछ नहीं और पीछे कुछ नहीं--यही है और इसी में मुझे पूरी तरह मौजूद होना है।
यह तो पहला ध्यान रखने का हैइन तीन दिनों में। कठिन नहीं हैखयाल में आ जाएगा तो बहुत सरल है। कठिन तो वह है जो आप कर रहे हैं। जो मैं कह रहा हूं वह तो बहुत सरल है। लेकिन अपने पैर पर जूता चढ़ाने जैसी सरल बात भी मुश्किल से खयाल में आती है। कठिन वह है जो आप कर रहे हैं। जिस ढंग से आप जी रहे हैं वह जीना एकदम कठिन है। आश्चर्य है कि हम जीए चले जा रहे हैं। जो मैं कह रहा हूं वह बहुत सरल है।
यहां से लौटते वक्त उसका प्रयोग करते लौटें। और कम से कम तीन दिन तो कोशिश करें। हो सकता हैतीन दिन में उसकी सच्चाई दिखाई पड़ जाए। और फिर जिसकी सच्चाई हमें दिखाई पड़ जाती हैउससे इस जीवन में अलग होना कठिन है। तीन दिन के लिए हिम्मत करें--पीछे को छोड़ दें।
छूट गया है अतीत आपसे--आप व्यर्थ ही उसे पकड़े हैं। कहां है वहकल का दिन अब कहां हैबीता क्षण अब कहां हैजो गयावह जा चुका। जो अभी नहीं आया,वह नहीं आया। जो हैबस वही है।
तीन दिन देखें। एक-एक पल जीकर देखें। आगे-पीछे नहीं--मौजूद मेंप्रजेंट मेंवर्तमान में। सुबह उठें--तो ऐसे ही बस यही है--दोपहर यही हैसांझ यही है। जो क्षण सामने आए उसको इस तरह लेंजैसे इसके आगे-पीछे और कुछ भी नहीं है। बहुत हैरान हो जाएंगे। इस खयाल से जीने की गति और ही हो जाती है। एक बहुत अदभुत शांतिक्षण में जीने से शुरू होती है।
आदमी कभी शांत नहीं है।
सुनते हैंएक बार सिर्फ सारी मनुष्य जाति शांत हो गई थीएक क्षण को। कोई बहुत होशियार आदमी ने तरकीब निकाली थीतब कहीं यह हो पाया था। लेकिन यह बहुत पुरानी घटना हैआपमें से किसी को भी याद नहीं होगी। किसी किताब में नहीं लिखी गईक्योंकि किताबें बहुत बाद में लिखी गईं। यह उसके पहले की घटना है। और शायद आपने सुनी भी न होगीक्योंकि बहुत ही मुश्किल से किसी को यह पता है।
एक बार एक समझदार आदमी नेएक तरकीब निकाली थी कि सारी मनुष्य जाति को शांत रहने का अनुभव करा दे। उसने यह अफवाह उड़ाईसारी दुनिया में कि चांद पर भी लोग रहते हैं। अगर हम सारे लोग बहुत ताकत से चिल्लाएं तो शायद वे सुन लें। तो सारी पृथ्वी पर एक खास नियत दिनखास समय पर सारे लोग जोर से "हो,होहो...की आवाज करके चिल्लाएंगे। यह अफवाह उड़ा दी।
सारी दुनिया में बड़ी उत्सुकता से उस दिन की प्रतीक्षा की गई। वह क्षण आ गयावह घड़ी आ गईवह पल करीब आने लगा। सारी दुनिया के लोगबच्चों से बूढ़ों तक तैयार थेक्योंकि सारे लोग चिल्लाएंगे तो ही शायद चांद तक रहने वाले लोगों तक आवाज पहुंच सके। और उनसे संबंध पैदा करना था।
ठीक क्षण भी आ गयालेकिन कोई भी नहीं चिल्लाया। क्योंकि हर एक सोचता था कि मैं चुप रह जाऊं तो इतनी बड़ी आवाज सुनने का मौका फिर दोबारा आने वाला नहीं है। सब चिल्लाएंगे--कितनी अदभुत आवाज होगी मैं सुन लूं। और एक के न चिल्लाने से क्या फर्क पड़ेगा। दुनिया में कोई भी नहीं चिल्लाया। और वह एक क्षण टोटल साइलेंस का क्षण थाक्योंकि सभी प्रतीक्षा कर रहे थे। कोई भी पीछे के खयाल में नहीं थाआगे के खयाल में नहीं था। इसी वक्त एक घटना घट रही थी कि सारी दुनिया में सारे लोग चिल्लाएंगे "होहोहो...'--और इस आवाज को हम सुन लें।
उस क्षण--उस अदभुत होशियार आदमी ने बड़ी तरकीब का काम किया था। फिर बहुत समय से ऐसा कोई काम नहीं हुआ। और आदमी की जिंदगी में कोई शांति का क्षण नहीं। उस वक्त सारे लोग हैरान रह गए थे। उस पल के बीत जाने पर लोगों को पता चला थाकितनी गहरी शांति संभव है। क्योंकि उस क्षण कोई पास्ट नहीं था,कोई फ्यूचर नहीं था। एक उसी पल में घटना घटने वाली थी। जरा चूक गए तो चूक गए। तो सारे लोग सचेतऔर प्रत्येक आदमी ने सोचा था मैं सुन लूं। सुना सबने--आवाज नहीं सुनीशांति सुनी। आवाज तो हुई ही नहीं। लेकिन साइलेंस सुनी।
देखें कल सेएक-एक पल में थोड़ा खड़े होकर। हो सकता है वह शांति आप भी सुन सकें। और वह सुन लें तो आपकी जिंदगी दूसरी हो जाती है।
तो अगर आप नहीं मानेंगे इस तरह तो हो सकता है मैं भी किसी दिन अफवाह उड़ाऊं और फिर इस तरह की कोशिश करूं। लेकिन बड़ा कठिन हैआजकल आदमी बहुत समझदार हो गया है। पुराने दिन की बात हैलोग राजी हो गए होंगे चिल्लाने को। अब तो शायद ही कोई चिल्लाने को राजी भी हो। और राजी भी हो जाए तो भी शायद शोरगुल सुनने के लिए कोई न रुकेक्योंकि वैसे ही बहुत शोरगुल हो रहा है। और अब उस शोरगुल से भी कोई फर्क न पड़ेगा।
यह तो पहला सूत्र है: पल-पलमूमेंट टु मूमेंट जीने का।
दूसरा सूत्र। हम निरंतर एक अजीब बीमारी से ग्रसित हैं,और वह बीमारी है अत्याधिक व्यस्त होने की,आक्युपाइड होने की। हर आदमी ऐसा लग रहा हैजैसे बहुत भारी काम में उलझा हुआ है। शायद काम कुछ भी नहीं हैलेकिन आदत अत्याधिक काम में उलझे होने की हमने खड़ी कर ली है। हर आदमी भाग रहा हैदौड़ रहा है और इस भांति संलग्न हैजैसे सारे जगत का भार उसके ऊपर है। इतना व्यस्त मालूम हो रहा है। और यह व्यस्ततायह जो आक्युपाइड माइंड है--यह दिन-रात व्यस्त होना इसके कारण चित्त निरंतर क्षीण होता चला जाता है। विश्राम का कोई भी क्षण न होने से चित्त दुर्बल हो जाता है। और दुर्बल चित्त सत्य को नहीं जान सकता है। सत्य को जानने के लिए शक्ति से परिपूर्णबहता हुआभरा हुआ चित्त चाहिए। और ऐसा चित्त तभी हो सकता हैजब आप अव्यस्त होने की थोड़ी सामर्थ्य पैदा कर लें।
इन तीन दिनों में इस दूसरे सूत्र पर थोड़ा काम करना है। इन तीन दिनों यहां इस भांति जीएं जैसे आप कोई काम नहीं कर रहे हैंविश्राम कर रहे हैं।
कभी आपने देखा आकाश में सांझ कोचीलें आकाश से उतरती हैंतब उनको देखा। वे परों को फैलाकर अत्यंत विश्राम में हवा पर डोलती हुई धीरे-धीरे उतरती आती हैं। कभी खयाल कियाकभी चीलों के पर देखे तुले हुए--न तो पंख हिल रहे हैंन वे हवाओं में तैरने की कोशिश कर रही हैंउन्होंने सिर्फ पंख छोड़ दिए हैं और हवाओं पर सवार हो गई हैंहवाएं उन्हें धीर-धीरे नीचे उतारती ला रही हैं।
सारी प्रकृति इसी भांति विश्राम में जी रही हैसिर्फ मनुष्य को छोड़कर। मनुष्य अति तनाव में है। और उसे खयाल भी नहीं है कि इतना तना हुआ होनाइतना व्यस्तइतना उलझा हुआ होना ही उसे वंचित कर रहा है किसी सत्य कोकिसी आनंद को जानने से।
तो इन तीन दिनों में अत्यंत शांत और अव्यस्त--जैसे आप कोई काम नहीं कर रहे हैंविश्राम कर रहे हैं। इन तीन दिनों को सब भांति आध्यात्मिक छुट्टी के दिन बना लें,स्प्रीचुअल हाली-डे समझ लें। साधारणतः छुट्टी हम मनाते हैंवह भी शरीर की छुट्टी होती हैमन की छुट्टी नहीं होती। इन तीन दिनों में मन को भी छुट्टी दे दें। इस भांति जीएंजैसे कोई भी काम नहीं है। और यहां क्या काम हैआप बिलकुल बिना काम हैं यहां। और इन ती दिनों को बिलकुल ही ऐसे गुजार देना हैजैसे कोई सो कर,विश्राम करके गुजार देता है।
तो इन दिनों में आप पाएंगे आपका मन एक नई ताजगी,ऊर्जा और शक्ति से भर गया। और यह शक्ति बहुत जरूरी है। इस शक्ति के बिना कोई रास्ता नहीं है कि आप तय कर सकें। लेकिन अव्यस्त होना जरूरी है। कोई आक्युपाइड चित्त की दशा न हो।
लेकिन हम तो...एक आदमी को मैं देखता था रोज सांझ वे घूमने जाते थे। लेकिन घूमने भी वे ऐसे जाते थेइतनी तेजी से कि जैसे किसी युद्ध पर जा रहे हों। तो मैंने उन्हें टोका और मैंने कहा कि आप किसी लड़ाई पर जाते हैं रोजउन्होंने कहालड़ाई पर! मैं तो घूमने जाता हूं। तो मैंने कहालेकिन जाते आप ऐसे हैंइतने तने हुएइतने खिंचे हुएइतने परेशानइतने भागे हुएजैसे कहीं पहुंचना हो। कहां पहुंचने के लिए जाते हैंउन्होंने कहा,पहुंचने! मैं सिर्फ घूमने जाता हूं। लेकिन मैंने कहा,आपका मन घूमने की दशा में नहीं होता। घूमने जाने का मतलब है ऐसे जानाजैसे कहीं पहुंचना नहीं है। कोई हम यात्रा थोड़े ही कर रहे हैं। यात्रा जब कोई करता है तो तना हुआखिंचा हुआ--उसे कहीं पहुंचना है।
आपको कहीं पहुंचना नहीं है। और अगर आप सम-वेअरकहीं पहुंचने की कोशिश करेंगे तो एक बात तय समझ लेनावहां नहीं पहुंच सकेंगे जहां आप हैं। और जिस दिन आप इस तरह जीएंगेनो-वेअरकहीं भी नहीं पहुंचना हैउस दिन आप वहां पहुंच जाएंगेजहां आप हैं। जहां मैं बैठा हूंवहां पहुंचने के लिए मुझे सब पहुंचने की जो दौड़ है चित्त सेवह छोड़ देनी होगी।
तो इन दिनों में ऐसी कोशिश न करें कि आप ध्यान सीख रहे हैं। आप ऐसी कोशिश न करें कि सत्य को खोज रहे हैं। ऐसी कोशिश न करें कि परमात्मा के दर्शन करने हैं। अगर यह कोशिश आपके भीतर रही तो आप शांत ही नहीं हो सकेंगेदर्शन तो बहुत दूर है। आप शांत ही नहीं हो सकेंगेसत्य तो बहुत दूर है। आप शांत ही नहीं हो सकेंगेपरमात्मा की यात्रा फिर नहीं हो सकती।
परमात्मा की यात्रा बड़ी अजीब है। परमात्मा की यात्रा वही करता है--वही कर सकता हैजो सब यात्रा छोड़ देता है। इतना शांत हो जाता है कि उसे कहीं भी नहीं पहुंचना है।
एक फकीर था। एक पहाड़ी के किनारे चुपचाप बैठा रहतासोया रहता। एक युवक सत्य कीईश्वर की खोज में पहाड़ पर गया था। उसने उस फकीर से पूछा कि आप चुपचाप यहां क्यों बैठे हैंईश्वर को नहीं खोजना हैउस फकीर ने कहाजब तक खोजता थातब तक नहीं मिला। फिर मैं ऊब गया और मैंने वह खोज छोड़ दी और जिस दिन मैंने सब खोज छोड़ दीमैं हैरान हो गया। मैं तो उसमें मौजूद ही था। खोज रहा थाइसलिए दिखाई नहीं पड़ रहा था।
कई बार खोजने का तनाव ही खोजने में बाधा बन जाता है। कई बार हम जिस चीज को खोजते हैंखोजने के कारण ही उसको नहीं उपलब्ध हो पाते हैं।
कभी खयाल किया आपने--किसी आदमी का नाम खो गया है आपके मन में और आप खोजने को लगे हुए हैं। खोजते हैं और परेशान हो जाते हैंसिर ठोंक लेते हैं कि बिलकुल जबान तक आता हैलेकिन आता नहीं। पता नहीं चलताकहां गयाकैसे खो गया! मालूम है मुझे! यह भी मालूम है कि मुझे मालूम है। भीतर आता हैपर न मालूम कहां अटक जाता है। फिर आप खोज छोड़ देते हैं। फिर आप अपनी बगिया में गङ्ढा खोद रहे हैंया अपने कुत्ते के साथ खेल रहे हैंया अपने बच्चे से गपशप कर रहे हैं और एकदम आप हैरान हो जाते हैंवह नाम मौजूद हो गयावह आ गया है। और तब आप समझ भी नहीं पाते कि यह कैसे आ गया।
आप खोजते थे--खोजने के तनाव की वजह से मन अशांत हो गया। अशांत होने की वजह से उसे रास्ता नहीं मिलता था आने का। वह अटका रह गया पीछे। आप शांत हो जाओ तो वह आ जाए। आप अशांत हो तो वह आए कहां सेद्वार कहां मिलेरास्ता कहां मिले?
भीतर परमात्मा निरंतर आप तक आने की कोशिश कर रहा है। लेकिन आपआप इतने व्यस्त हैं कि आपकी इस व्यस्तता में बाधा देने जैसी अशिष्टता परमात्मा न करेगा। वह आपको परेशान नहीं करेगा। जब आप शांत हो जाएं तो वह आ जाएगा। वह उन मेहमानों में से नहीं है कि आप कुछ भी कर रहे हों और वह आ जाए। जब देखेगा कि आप तैयार हैंतो वह तो हमेशा मौजूद है। भीतर कोई हमारे रास्ता खोज रहा है। लेकिन हम इतने,सतह पर इतने व्यस्त हैंइतनी लहरों से भरे हैं कि उसे रास्ता नहीं मिलता है। कृपा करें रास्ता दें।
आपको परमात्मा को नहीं खोजना है--परमात्मा आपको ही खोज रहा है। आप इतनी ही कृपा करें कि रास्ता दे दें। आप बीच में न खड़े हों अपने और परमात्मा केतो सारी बात हल हो जाती है।
लेकिन शायद हमें इसका खयाल नहीं है। इन तीन दिनों में इस खयाल पर थोड़ा सा ध्यान ले जाएं। तीन दिन इस तरह जीएं कि आपको कोई भी काम नहीं है। और आश्रमों मेंऔर संतोंसाधुओं और महात्माओं के पास आप जाते होंगेउस भांति मेरे पास न आएं। वे आपको काम सिखाते हैं। वे सिखाते हैं--प्रार्थना करोपूजा करो,नाम जपोगीता पढ़ोयह करोवह करो। बहुत जोर से करो। जितना ज्यादा करोगे--एक हजार दफे नाम जपोगे तोएक लाख दफे जपोगे तो और फायदा हैएक करोड़ दफे जपोगे तो और फायदा है। एक दफा गीता पढ़ोगे तो कमहजार दफे पढ़ोगे तो और ज्यादा। एक उपवास करोगे तो कमहजार कर लोगे तो बहुत ज्यादा। वे आपको कोई काम सिखाते हैं। वे आपको किसी काम में लगाते हैं।
मैं आपको कोई काम सिखाने को यहां नहीं हूं। मैं तो चाहता हूं कि आप थोड़ी देर को बेकाम हो जाएं। आपके मन मेंतन में कोई काम न रह जाएतो शायद उस काम से रहित चित्त की अन-आक्युपाइड स्थिति मेंअव्यस्त स्थिति में कुछ फलित हो जाएकुछ घटित हो जाए।
तो दूसरा सूत्र इन तीन दिनों के लिए--व्यस्तता न दिखाएं यहां। कोई फिक्र नहीं अगर मेरी एक चर्चा में न आ पाएं,तो कोई हर्जा नहीं हुआ जाने वाला। कोई फिक्र नहीं,अगर ध्यान को वक्त पर न पहुंच पाएंकोई हर्जा नहीं हुआ जाने वाला। लेकिन इतनी शांति से जीएं इन तीन दिनों में कि आप कोई काम में नहीं लगे हैं--मौज मेंएक आनंद में यहां हैं। यहां कोई साधना करने आए हैं--तो साधना की हमारी धारणा ही कुछ अजीब है। उसमें तो जो जितना बड़ा साधक हैउतना ही तनकर और चुस्त बैठा रहता है। उतना ही तनाव से भरा रहता है। ऐसी साधना यहां नहीं है। मैं तो साधना ही इसको कहता हूं कि आप सब तरह से उपराम कोविश्रांति को--एकदम चित्त के तल पर सब तरह के काम से छुटकारा पा जाएं।
तीन दिन इस तरह काइस तरफ ध्यान देने का आपसे निवेदन है। और जैसे ही आप थोड़े से विश्राम में रहना जान पाएंगेआप हैरान हो जाएंगे। यहां इतने दरख्त हैं,इतने पक्षी बोलते हैंचुपचाप उनके पास दरख्तों के पास जाकर बैठ जाएंलेट जाएं--कुछ न करें। तीन दिनों में ज्यादा समय कुछ न करें। और देखें कि उस न-करने से कुछ हो सकता है क्याअब तक जिन्होंने भी जीवन की गइराइयां जानी हैंवे वे ही लोग हैंजिन्होंने किन्हीं न-करने के क्षणों में परमात्मा से संबंध जोड़ लिया है।
लाओत्से कहा करता थाकुछ करना हो तो संसार की तरफ जाओकुछ न करना हो तो परमात्मा की तरफ।
मैं यह नहीं कह रहा हूं कि आप अपनी दुकानें बंद कर देंगेनौकरियां छोड़ देंगेअपने काम-धंधे बंद कर देंगे,वह मैं नहीं कह रहा हूं। मैं तो सिर्फ इतना निवेदन कर रहा हूंइन तीन दिनों में आप इस एटीटयूड मेंइस दृष्टि में जीने का थोड़ा प्रयोग करें। फिर आप पाएंगे कि बिलकुल चित्त के तल पर बिना काम रहकर भीबाहर के तल पर काम किया जा सकता है। और तब काम योग बन जाता है। भीतर अकर्म होभीतर चित्त पर कोई भी कर्म की भाग-दौड़ न होऔर बाहर जीवन पूरा सक्रिय हो तो जीवन योग हो जाता है। और अकर्म हो भीतर तो कर्म बाहर अपने आप कुशल हो जाता है। दूसरा सूत्र।
और तीसरा सूत्रअंतिम और वह है: सचेत होकर तीन दिन जीने की।
सचेत होकर कभी किसी बिल्ली को चूहा पकड़ते देखा होगा। शायद खयाल न किया होक्योंकि अगर हम जीवन के चारों तरफ खयाल कर लें तो छोटी-छोटी बातों में जीवन के सारे संदेश मौजूद हैं। लेकिन बिल्ली को कौन गुरु बनाना चाहेगान तो बिल्ली भगवा वस्त्र पहनती हैन टीका लगाती हैन त्याग करती है। न बिल्ली कोई तीर्थंकर हैन कोई अवतार है।
बिल्ली से कौन सीखने जाएगा?
लेकिन कभी बिल्ली को देखें--चूहे को पकड़ने के लिए कितनी तत्परता से बैठी हैकितनी सचेत। एक पत्ता हिल जाएगातो बिल्ली अपने पूरे प्राण-पण से कूदने को मौजूद है। एक चूहे की जरा सी खड़खड़ाहट होगीकिसी चूहे के बिल में थोड़ी सी आवाज होगीकिसी को पता नहीं चलेगालेकिन बिल्ली--बिल्ली सचेत है और जागी हुई है।
बिल्ली की भांति सचेत होने का जो आदमी अपने चित्त की तैयारी कर लेता हैउस आदमी से सत्य बचकर नहीं निकल सकता। बिल्ली से चूहा बचकर निकल भी जाए,लेकिन सचेत मनुष्य से सत्य बचकर नहीं निकल सकता। इतनी सचेतना चाहिए।
लेकिन हम तो सोए-सोए जीते हैं। रास्ते पर निकल जाते हैं--न तो हमें वृक्ष दिखाई पड़ते हैंन उन पर बैठे हुए पक्षी हमें सुनाई पड़ते हैंन आकाश में उगा हुआ चांद हमें दिखाई पड़ता है। हमें कुछ भी दिखाई नहीं पड़ता। हम तो जैसे सोए हुए चले जा रहे हैं। कई बार अनुभव हुआ होगा--किसी किताब का एक पन्ना पढ़ते हैंबाद में पता चलता है कि मुझे तो जैसेमैंने कुछ भी नहीं पढ़ा,कुछ खयाल नहीं आता। लेकिन आप पढ़ तो गएसोए-सोए पढ़ गए होंगे।
कभी खयाल आता हैकोई आदमी कोई बात करता है और चूक जाती है--बाद में हमें खयाल आता हैसुनी तो थी! लेकिन कुछ खयाल नहीं पड़तासोए-सोए सुनी होगी। केवल चौबीस घंटे में मुश्किल से कोई क्षण होता होगाजब हम जागकर जिंदगी को थोड़ा-बहुत अनुभव करते होंअन्यथा हम सोए-सोए चलते हैं।
एक शिक्षक थायुवकों को दरख्तों पर चढ़ना सिखाता था। एक युवक को सिखा रहा था। एक राजकुमार सीखने आया हुआ था। राजकुमार चढ़ गया था ऊपर की चोटी तकवृक्ष की ऊपर की शाखाओं तक। फिर उतर रहा थावह बूढ़ा चुपचाप दरख्त के नीचे बैठा हुआ देख रहा था। कोई दस फीट नीचे से रह गया होगा युवकतब वह बूढ़ा खड़ा हुआ और चिल्लायासावधान! बेटे सावधान होकर उतरनाहोश से उतरना! 
Asambhav Kranti - Part : 1 To 10

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