Adhyatam Upnishid ..Part 1 To 17

जीवन के द्वार की कुंजी—पहला प्रवचन


                        शांति पाठ

ओम शं नो मित्र: शै वरुण:। शै नो भवर्त्यम।। शं न इंद्रो बृहस्पति:। शं नो विष्णुरुक्रम:।
नमे। क्यणे। नमस्ते वाये।। त्वमेव प्रत्यक्ष ब्लासि त्वमेव प्रत्यक्ष क्ल वादिष्यामि।
            ऋत वादिष्यामि। सत्यं वादिष्यामि। तन्मामवतु।
            ऋक्लारमवतु। अवतु माम्। अवतु वक्तारम्।
                       
                  ओम शांतिः शांतिः शांति:।


ओमहमारे लिए सूर्य देवता कल्याणकारी हों। वरुण कल्याणकारी होंअर्यमा कल्याणकारी                   होंइंद्र और बृहस्पति भी कल्याणकारी होंविष्णु कल्याणकारी हों।
उस ब्रह्म को नमस्कार हो। हे वायु! तुम्हारे लिए नमस्कार हैक्योंकि तुम प्रत्यक्ष ब्रह्म हो।
      मैं तुम्हें ही प्रत्यक्ष ब्रह्म कहूंगासत्य और ऋत के नाम से भी कहूंगा।
            'वे मेरी रक्षा करें। आचार्य की भी रक्षा करें।
                   ओम शांतिः शांति: शांति:।


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जीवन के द्वार की कुंजी :

मैं वही कहूंगा जो मैं जानता हूंवही कहूंगा जो आप भी जान सकते हैं। लेकिन जानने से मेरा अर्थ है,जीना। जाना बिना जीए भी जा सकता है। तब ज्ञान होता है एक बोझ। उससे कोई डूब तो सकता हैउबरता नहीं। जानना जीवंत भी हो सकता है। तब जो हम जानते हैं,वह हमें करता है निर्भारहलकाकि हम उड़ सकें आकाश में। जीवन ही जब जानना बन जाता हैतभी पंख लगते हैंतभी जंजीरें टूटती हैंऔर तभी द्वार खुलते हैं अनंत के।
लेकिन जानना कठिन हैज्ञान इकट्ठा कर लेना बहुत आसान। और इसलिए मन आसान को चुन लेता है और कठिन से बचता है। लेकिन जो कठिन से बचता है वह धर्म से भी वंचित रह जाएगा। कठिन ही नहींजो असंभव से भी बचना चाहता हैवह कभी भी धर्म के पास नहीं पहुंच पाएगा। धर्म तो है ही उनके लिएजो असंभव में उतरने की तैयारी रखते हैं। धर्म है जुआरियों के लिएदुकानदारों के लिए नहीं। धर्म कोई सौदा नहीं है। धर्म कोई समझौता भी नहीं है। धर्म तो है दांव। जुआरी लगाता है धन को दांव परधार्मिक लगा देता है स्वयं को। वही परम धन है। और जो अपने को ही दांव पर लगाने को तैयार नहींवह जीवन के गुह्य रहस्यों को कभी भी जान नहीं पाएगा।
सस्ते नहीं मिलते हैं वे रहस्यज्ञान तो बहुत सस्ता मिल जाता है। ज्ञान तो मिल जाता है किताब में,शास्त्र मेंशिक्षा मेंशिक्षक के पास। ज्ञान तो मिल जाता है करीब—करीब मुफ्तकुछ चुकाना नहीं पडता। धर्म में तो बहुत कुछ चुकाना पडता है। बहुत कुछ कहना ठीक नहींसभी कुछ दाव पर लगा दे कोईतो ही उस जीवन के द्वार खुलते हैं। इस जीवन को जो दाव पर लगा दे उसके लिए ही उस जीवन के द्वार खुलते हैं। इस जीवन को दाव पर लगा देना ही उस जीवन के द्वार की कुंजी है।
लेकिन ज्ञान बहुत सस्ता है। इसलिए मन सस्ते रास्ते को चुन लेता हैसुगम को। सीख लेते हैं हम बातें,शब्दसिद्धातऔर सोचते हैं जान लिया। अज्ञान बेहतर है ऐसे शान से। अज्ञानी को कम से कम इतना तो पता है कि मुझे पता नहीं है। इतना सत्य तो कम से कम उसके पास है।
जिन्हें हम ज्ञानी कहते हैंउनसे ज्यादा असत्य आदमी खोजने मुश्किल हैं। उन्हें यह भी पता नहीं है कि उन्हें पता नहीं है। सुना हुआयाद किया हुआकंठस्थ हो गया धोखा देता है। ऐसा लगता हैमैंने भी जान लिया।
मैं आपसे वही कहूंगा जो मैं जानता हूं। क्योंकि उसके कहने का ही कुछ मूल्य है। क्योंकि जिसे मैं जानता हूं, अगर आप तैयार होंतो उसकी जीवंत चोट आपके हृदय के तारों को भी हिला सकती है। जिसे मैं ही नहीं जानता हूं जो मेरे कंठ तक ही होवह आपके कानों से ज्यादा गहरा नहीं जा सकता। जो मेरे हृदय तक हो,उसकी ही संभावना बनती हैअगर आप साथ दें तो वह आपके हृदय तक जा सकता है।
आपके साथ की तो फिर भी जरूरत होगी,क्योंकि आपका हृदय अगर बंद ही होतो जबरदस्ती उसमें सत्य डाल देने का कोई उपाय नहीं है। और अच्छा ही है कि उपाय नहीं है। क्योंकि सत्य भी अगर जबरदस्ती डाला जाए तो स्वतंत्रता नहीं बनेगापरतंत्रता बन जाएगा।
सभी जबरदस्तियां परतंत्रताएं बन जाती हैं। इसलिए इस जगत में सभी चीजें जबरदस्ती आपको दी जा सकती हैंसिर्फ सत्य नहीं दिया जा सकताक्योंकि सत्य कभी भी परतंत्रता नहीं हो सकतासत्य का स्वभाव स्वतंत्रता है। इसलिए एक चीज भर है इस जगत में जो आपको कोई जबरदस्ती नहीं दे सकताजो आपके ऊपर थोपी नहीं जा सकतीजो आपको पहनाई नहीं जा सकतीओढ़ाई नहीं जा सकती। आपका राजी होना अनिवार्य शर्त हैआपका खुला होनाआपका ग्राहक होनाआपका आमंत्रणआपका अहोभाव से भरा हुआ हृदय। जैसे पृथ्वी वर्षा के पहले पानी के लिए प्यासी होती है और दरारें पड़ जाती हैं—इस आशा में पृथ्वी जगह—जगह अपने ओंठ खोल देती है कि वर्षा हो —ऐसा जब आपका हृदय होता हैतो सत्य प्रवेश करता है। अन्यथा अन्यथा सत्य आपके द्वार से भी आकर लौट जाता है। बहुत बार लौटा हैबहुत जन्मों—जन्मों में।
आप कुछ नए नहीं हैं। इस पृथ्वी पर कुछ भी नया नहीं हैसभी बहुत पुराने हैं। आप बुद्ध के चरणों में भी बैठ कर सुने हैंआपने कृष्ण को भी देखा हैआप जीसस के पास भी उठे —बैठे हैंलेकिन फिर भी वंचित रह गए हैं! क्योंकि कभी भी आपका हृदय तैयार नहीं था। आपके पास से बुद्ध की सरिता बहती निकल गई है,महावीर की सरिता बहती निकल गई हैआप प्यासे रह गए हैं।
आनंद रो रहा थाजिस दिन बुद्ध के प्राण छूटने को थेऔर छाती पीट रहा था। और बुद्ध ने उससे कहा कि तू रोता क्यों हैजरूरत से ज्यादा मैं तेरे पास था,चालीस वर्ष! और अगर चालीस वर्ष में भी नहीं हो पाई वह घटनातो अब रोने से क्या होगा! मेरे मिटने से इतना परेशान क्यों हो रहा है?
तो आनंद ने कहा हैइसलिए परेशान हो रहा हूं कि आप मौजूद थे और मैं न मिट पाया। अगर मैं मिट जाता तो आपको मेरे भीतर प्रवेश मिल जाता। चालीस साल नदी मेरे पास बहती थी और मैं प्यासा रह गया हूं। और अब मैं रोता हूं क्योंकि जरूरी नहीं है कि यह नदी कबकिस जन्म में दुबारा मुझे मिलेगी।
आप कुछ नए नहीं हैं। आपने बुद्धों को दफनाया,महावीरों को दफनायाजीससकृष्णक्राइस्टसबको आप दफना कर जी रहे हैं। वे हार गए आपसेआप काफी पुराने हैं। जब से जीवन हैतब से आप हैं। अनंत—अनंत यात्रा है।
कहां हो जाती होगी चूक?
बस यहीं हो जाती है कि आप खुले ही नहीं हैं,बंद हैं।
मैं तो आपसे वही कहूंगाजो मैंने जाना है। अगर आप भी अपने को एक खुलापन बना सकेंतो आप भी उसे जान लेंगे। और ऐसा नहीं है कि कोई कठिनाई है बहुत! एक ही कठिनाई है और वह आप हैं। कुछ लोग कुतूहल से चलते हैं। जैसे राह चलते बच्चे पूछ लेते हैं,इस वृक्ष का नाम क्या हैऔर अगर आप उत्तर न देंतो तत्थण भूल जाते हैं कि उन्होंने पूछा भी था! वे दूसरी बात पूछने लगते हैं कि यह पत्थर यहां क्यों पड़ा है?पूछने के लिए पूछते हैंजानने के लिए नहीं पूछते। बिना पूछे नहीं रह सकते हैंइसलिए पूछते हैंजानने के लिए नहीं पूछते।
जो लोग कुतूहल से जी रहे हैंवे अभी भी बचकाने हैं। अगर आप ऐसे ही पूछ लेते हैं कि ईश्वर क्या हैजैसे कि कोई बच्चा राह चलते दुकान देख कर पूछ लेता हो कि यह खिलौना क्या हैतो आप अभी बच्चे हैं। और बच्चा तो माफ किया जा सकता हैआप माफ नहीं किए जा सकते।
कुतूहल नहीं चलेगा। धर्म कोई खिलवाड़ नहीं है बच्चों का। और फिर उत्तर भी मिल जाए तो उससे कोई प्रयोजन नहीं है। बच्चे का मजा पूछने में है। उसने पूछा,यही उसका मजा है। आप उत्तर देंगे भीतो उस उत्तर में उसे कोई बहुत रस नहीं है। क्या बात है?
मनसविद कहते हैं कि बच्चे नया—नया बोलना सीखते हैंतो अपने बोलने का अभ्यास करते हैं पूछ—पूछ कर। जैसे बच्चा नया—नया चलना सीखता हैतो बार —बार उठ कर चलने की कोशिश करता है। बोलना सीखता हैतो बार—बार बोलने की कोशिश करता है। इसलिए बच्चे एक ही बात को कई दफा कहते हैं। इसीलिए कई दफा कहते हैंक्योंकि उन्हें बोलने का एक नया अनुभवएक नया आयाम मिला है। उस नए आयाम में वे तैर कर अभ्यास कर रहे हैं। इसलिए कुछ भी पूछते हैंकुछ भी बोलते हैं।
अगर आप भी धर्म की दुनिया में कुछ भी पूछ रहे हैंकुछ भी बोल रहे हैंकुछ भी सोच रहे हैं—और कोई गहरी जिज्ञासा नहीं हैबस कुतूहल है—तो अभी आप और कुछ बुद्धों को दफनाके! अभी और न मालूम कितने बुद्धों को आपके साथ मेहनत करनी पडेगी!
कुतूहल से सत्य का कोई संबंध नहीं है।
कुछ लोग कुतूहल से थोड़ा आगे बढ़ते हैं और जिज्ञासा करते हैं। जिज्ञासा में थोड़ी ज्यादा गहराई है। लेकिन बस थोड़ी ज्यादा। जिज्ञासा भी बहुत गहरी नहीं हैवह भी उथली हैक्योंकि जिज्ञासा है केवल बौद्धिक। और बुद्धि भी ऐसी हैजैसी खाज होती है। खुजलाएंतो थोड़ा रस आता है। ऐसा बुद्धि को भी खाज होती रहती है ईश्वर हैआत्मा हैमोक्ष हैध्यान क्या हैकरने के लिए नहींईश्वर क्या हैजानने के लिए नहीं—चर्चा के लिएबातचीत के लिए। एक बौद्धिक मजा हैएक बौद्धिक व्यायाम है!
तो लोग ऊंची बातें करते हैंलेकिन उन बातों पर कभी भी कोई दाव नहीं लगाते। ईश्वर है या नहींइससे कोई प्रयोजन नहीं है। और ईश्वर हो तोईश्वर न हो तोवे जैसे हैं वैसे ही बने रहते हैं।
यह बड़े मजे की बात है। एक आदमी मानता है कि ईश्वर है और एक आदमी मानता है कि ईश्वर नहीं है,और दोनों की जिंदगी बराबर एक सी! कोई गाली दे तो उसे भी क्रोध आता है जो मानता है कि ईश्वर है और उसे भी क्रोध आता है जो मानता है कि ईश्वर नहीं है! बल्कि कई दफा तो यह देखा जाता है कि जो मानता है ईश्वर है,उसे ज्यादा क्रोध आता है! क्योंकि जो मानता है कि ईश्वर नहीं हैवह ज्यादा से ज्यादा क्या कर सकता है आपका?गाली दे सकता हैमार सकता हैहत्या कर सकता है! लेकिन जो मानता है ईश्वर हैवह आपको नर्क तक में सड़ा सकता है! उसके पास ज्यादा उपाय हैं क्रोधित होने के।
अगर ईश्वर के मानने और न मानने से कोई भी अंतर जीवन में न पड़ता होतो उसका अर्थ है कि यह ईश्वर से कोई संबंध नहीं हैबौद्धिक बातचीत है। ऐसी जिज्ञासा हो तो आदमी दार्शनिक हो जाता हैचिंतन—मनन करने लगता हैशास्त्र अध्ययन करने लगता है,बहुत सिद्धात इकट्ठे कर लेता हैपक्ष मेंविपक्ष में सोच लेता हैवाद—विवाद करता हैशास्त्रार्थ करता है,लेकिन जीता कभी नहीं।
अगर आप भी सिर्फ जिज्ञासा से भरे हैंतो यात्रा नहीं होगी। जिज्ञासा से भरे हुए लोग वे हैंजो मील के पत्थर के पास बैठ जाते हैं और पूछते हैंमंजिल क्या है?कितनी दूर हैऔर सदा यही पूछते हैंलेकिन कभी उठ कर चलते नहीं।
जानते तो आप भी कितना हैं! क्या कमी है जानने में! करीब—करीब सभी कुछ जानते हैं। जो बुद्ध ने जाना होमहावीर नेकृष्ण ने जाना होवह सभी आप भी तो जानते हैं! गीता में पढ़ कर आपको ऐसा नहीं लगता कि ये बातें तो हमें भी मालूम हैं?
मालूम आपको भी हैंपर सिर्फ बुद्धि तक हैं। आपके हृदय तक उनका बीज नहीं पहुंचा है। और बुद्धि पर रखे हुए विचार वैसे ही होते हैंजैसे पत्थर पर कोई बीज को रख दे। बीज तो होता हैलेकिन पत्थर पर रखा रहता है। अंकुर नहीं फूट सकता। अंकुर फूटना हो तो बीज को पत्थर से गिरना पड़ेजमीन खोजनी पड़े। और जमीन की भी ऊपर की सतह ठीक नहीं हैक्योंकि और गीली जगह चाहिए। तो थोड़ा जमीन के भीतर पहुंचना पड़ेजहां थोड़ी पानी की सुविधा होथोड़ा रस बहता हो।
बुद्धि पर पत्थर की तरह बीज रख जाते हैं। हृदय तक जब तक न गिर जाएंतब तक गीली जगह नहीं मिलती। हृदय में थोड़ा रस बहता हैथोड़ा प्रेम। वहा थोड़ा पानी है। वहा कोई बीज गिरे तो अंकुरित होता है,नहीं तो कभी अंकुरित नहीं होता।
जिज्ञासु व्यक्तियों के पास बहुत कुछ होता है,लेकिन पत्थर पर रखे हुए बीजों की भाति। जमीन भी ज्यादा दूर नहीं होतीलेकिन थोड़ी यात्रा भी मुश्किल है। चलना बिलकुल नहीं हैतो पत्थर पर ही बीज रखा रह जाता है। इतनी यात्रा तो करनी ही पड़ेगी कि बीज पत्थर से नीचे गिरेजमीन पर आएजमीन में जगह खोजे,थोड़ी गीली भूमि को पाएथोड़ा छिप जाए अंधेरे में।
ध्यान रहेजगत में जो ली जन्म पाता हैवह गहन मौनएकांतअंधेरे को चाहता है। बुद्धि में तो जितनी चीजें रखी हैंवे सब खुले प्रकाश में रखी हैं। वहा अंकुर नहीं होते। हृदय आपके भीतर गीली जमीन है,छिपी हुई। वहां कुछ पैदा होता है।
इसलिए जो सिर्फ जिज्ञासा से जीते हैंवे विद्वान बन जाते हैंपंडित बन जाते हैंज्ञानी बन जाते हैं,लेकिन कुछ अंकुरित नहीं होता उनके भीतरकोई नया जन्मकोई नया जीवनकोई नए फूल—कुछ भी नहीं।
एक और—जिससे संबंध है हमारा—एक और भी दिशा है खोज कीउसे हम कहते हैंमुमुक्षा। जानने की फिक्र नहीं हैजीने की फिक्र है। जानने की फिक्र नहीं हैहोने की फिक्र है। यह सवाल नहीं है कि ईश्वर है,सवाल यह है कि क्या मैं ईश्वर हो सकता हूंअगर ईश्वर हो भी और मैं ईश्वर न हो सकूं तो कोई सार नहीं है। सवाल यह नहीं है कि मोक्ष हैसवाल यह है कि क्या मैं भी मुक्त हो सकता हूंअगर मैं मुक्त हो ही न सकूं और मोक्ष हो भी कहींतो क्या अर्थ हैयह बात नहीं है कि आत्मा है भीतर या नहींहो या न होसवाल असली यह है कि क्या मैं आत्मा हो सकता हूं?
मुमुक्षा है होने की खोज। और जब कोई होना चाहता हैतब दाव पर लगना पडता है। इसलिए कहता हूं, धर्म है जुआरियों का काम। वही कहूंगा जो मैं जानता हूं जो जीया है। अगर आप तैयार हुए दाव पर लगाने को,तो जो मेरा अनुभव है वह आपका अनुभव भी बन सकता है।
अनुभव किसी के नहीं होतेजो भी लेने को तैयार होउसी के हो जाते हैं। सत्य पर किसी का कोई अधिकार नहीं। जो भी मिटने को राजी हैवही उसका मालिक हो जाता है। सत्य तो उसका हैजो भी उसे मागने की तैयारी दिखलाता हैजो भी अपने हृदय के द्वार खोलता है और उसे पुकारता है।
इस उपनिषद को इसीलिए चुना है। यह उपनिषद अध्यात्म का सीधा साक्षात्कार है। सिद्धात इसमें नहीं हैं,इसमें सिद्धों का अनुभव है। इसमें उस सब की कोई बातचीत नहीं है जो कुतूहल से पैदा होती हैजिज्ञासा से पैदा होती है। नहींइसमें तो उनकी तरफ इशारे हैं जो मुमुक्षा से भरे हैंऔर उनके इशारे हैं जिन्होंने पा लिया है।
कुछ ऐसे लोग भी हैं कि जिन्होंने नहीं पाया,लेकिन फिर भी मार्ग—दर्शन देने का मजा नहीं छोड़ पाते। मार्ग—दर्शन में बड़ा मजा है। सारी दुनिया में अगर सबसे ज्यादा कोई चीज दी जाती हैतो वह मार्ग—दर्शन है! और सबसे कम अगर कोई चीज ली जाती हैतो वह भी मार्ग—दर्शन है! सभी देते हैंलेता कोई भी नहीं है! जब भी आपको मौका मिल जाए किसी को सलाह देने कातो आप चूकते नहीं। जरूरी नहीं है कि आप सलाह देने योग्य हों। जरूरी नहीं है कि आपको कुछ भी पता होजो आप कह रहे हैं। लेकिन जब कोई दूसरे को सलाह देनी होतो शिक्षक होने का मजा छोड़ना बहुत मुश्किल हो जाता है।
शिक्षक होने में मजा क्या हैआप तत्काल ऊपर हो जाते हैं मुफ्त में और दूसरा नीचे हो जाता है। अगर कोई आपसे दान मांगने आएतो दो पैसे देने में कितना कष्ट होता है! क्योंकि कुछ देना पडता है जो आपके पास है। लेकिन सलाह देने में जरा भी कष्ट नहीं होताक्योंकि जो आपके पास है ही नहींउसको देने में कष्ट क्या! आपका कुछ खो ही नहीं रहा है। बल्कि आपको कुछ मिल रहा है। मजा मिल रहा है। अहंकार मिल रहा है। आप भी सलाह देने की हालत में हैं आजऔर दूसरा लेने की हालत में है। आप ऊपर हैंदूसरा नीचे है।
इसलिए कहता हूं कि इस उपनिषद में कोई सलाहकोई मार्ग—दर्शन देने का मजा नहीं हैबड़ी पीड़ा है। क्योंकि उपनिषद का ऋषि जो दे रहा हैवह जान कर दे रहा है। वह बांट रहा है कुछ—बहुत हार्दिक,बहुत आतरिक। संक्षिप्त इशारे हैंलेकिन गहरे हैं। बहुत थोड़ी सी चोटें हैंलेकिन प्राण—घातक हैं। और अगर राजी होंतो तीर सीधा हृदय में चुभ जाएगा और जान लिए बिना न रहेगा। जान ही ले लेगा।
इसलिए थोड़ा सावधान! थोड़ा सचेत! क्योंकि यह सौदा ही खतरनाक है। इसमें पागल हुए बिना कोई मार्ग ही नहीं है। इसमें अपने को मिटाए बिना पाने का कोई उपाय ही नहीं है। यहां तो खोने वाले ही बस पाने वाले बनते हैं। और इसीलिए इस उपनिषद को भी चुन लिया है। ऐसे तो सीधा ही आपसे कह सकता हूं र कोई कारण इस उपनिषद को चुनने का नहीं है—बहाना! आडू! क्योंकि तीर सीधा मारोआदमी बच सकता है,उपनिषद की आडू से थोड़ी सुविधा रहेगी। इसलिए चुन लिया है कि आपको ऐसा भी पता नहीं लगेगा कि मैं कोई सीधा ही आपको तीर मार रहा हूं! तो बचने का जरा उपाय कम हो जाता है। सभी शिकारी जानते हैं कि थोड़ी आडू से शिकार ठीक होता है। यह उपनिषद सिर्फ आडू हैऔर इससे कुछ लेना—देना ज्यादा नहीं है।
जो मैंने जाना है वही कहूंगालेकिन उसमें और उपनिषद में कोई अंतर नहीं हैक्योंकि इस उपनिषद के ऋषि ने जो कहा है वह जान कर ही कहा है।
यह उपनिषद अध्यात्म के सूक्ष्मतम रहस्यों का उदघाटन है। लेकिन अगर मैं उपनिषद पर ही बात करता रहूं तो डर है कि बात—बात ही रह जाए। इसलिए चर्चा तो पृष्ठभूमि होगीइस चर्चा के साथ—साथ प्रयोग! जो कहा हैजो इस ऋषि ने देखा है या जो मैं कहता हूं मैंने देखा हैउस तरफ आपके चेहरे को मोड़ने की कोशिश,उस तरफ आपकी भी आंखें उठानीउस तरफ आपकी भी आंखें उठाने का प्रयास—वही मुख्य होगा। उपनिषद की बात तो सिर्फ हवा पैदा करने के लिए होगी कि आपके चारों तरफ वे तरंगें पैदा हो जाएं कि आप भूल जाएं बीसवीं सदी कोपहुंच जाएं उस लोक में जहां यह ऋषि रहा होगा। मिट जाए यह जगत जो चारों तरफ बहुत बेरौनक और बहुत कुरूप हो गया हैऔर याद आ जाए उन दिनों की जब यह ऋषि जिंदा रहा होगा। एक हवाएक वातावरणबस उसके लिए उपनिषद। पर उतना काफी नहीं है—जरूरी हैकाफी नहीं है।
तो जो मैं कहता हू,  अगर आप उसको सुन कर ही रुक जाते हैंतो मैं मानूंगा आपने सुना भी नहीं;क्योंकि सुन कर जो चलता नहीं हैमैं नहीं मान सकता कि उसने सुना है। अगर आप सोचते हैं कि सुन कर आपकी समझ में आ गया—इतनी जल्दी मत करना। सुन कर समझ में आता होता तो हम कभी के समझ गए होते। सुन कर ही समझ में आता होता तो इस दुनिया में समझदारों की कमी न होतीनासमझ खोजना मुश्किल हो जाता। मगर नासमझ ही नासमझ हैं!
सुन कर कुछ भी समझ में नहीं आता। सुन कर सिर्फ शब्दों पर मुट्ठियां बंध जाती हैं। सुन कर नहींकरके ही समझ में आता है। इसलिए सुनना करने के लिए—समझने के लिए नहीं। सुनना करने के लिएकरना समझने के लिए। सुन कर ही सीधा मत सोच लेना कि समझ गए। वह बीच की कड़ी के बिना कोई भी उपाय नहीं हैकोई भी रास्ता नहीं है। लेकिन मन कहता है कि समझ गएअब करने की क्या जरूरत है! मंजिलें चल कर पहुंची जाती हैं। सब भी समझ लिया होयात्रा—पथ पूरा स्मृति में आ गया होपूरा नक्शा जेब में होफिर भी बिना चले कोई मंजिल तक कभी पहुंचता नहीं है।
लेकिन सपना देखा जा सकता है। कोई आदमी यहीं सो जाएऔर सपना देख सकता है कहीं भी पहुंचने का। मन सपना देखने में बड़ा कुशल है।
और ऐसा मत सोचना कि आप ही ऐसे सपने देखते हैं। जिनको आप बहुत बुद्धिमान कहते हैंवे भी इसी तरह के सपने देखते रहते हैं। साधु हैंसंन्यासी हैं,महात्मा हैंवर्षों—वर्षों से खोज में लगे हैंलेकिन कहीं इंच भर नहीं पहुंचते। यात्रा ही नहीं करते! वे जो वर्षों से खोज में लगे हैंवह सारी की सारी खोज वर्तुलाकार है। बुद्धि में ही वर्तुल बन जाता हैभंवर बन जाता है। उसी भंवर में घूमते रहते हैं। फिर उस भंवर में सब समा जाता है—वेद समा जाते हैंउपनिषद समा जाते हैंकुराने,बाइबिलें समा जाती हैं—उस भंवर में सब समा जाता है,लेकिन एक इंच भी गति नहीं होती।
उपनिषद की हम चर्चा करेंगे—उपनिषद समझाने के लिए नहींउपनिषद बन जाने के लिए। यहां सुन कर कुछ कंठस्थ हो जाए और आप भी बोलने लगें,तो मैंने आपका नुकसान कियामैं फिर आपका मित्र साबित न हुआ। यहां सुन कर आपजो सुना है वह बोलने लग जाएंतो कोई मूल्य नहीं है। यहां सुन कर आपको भी वह हो जाएआप भी वह देख लेंवह आख आपकी भी खुल जाए—तो ही।
ऐसा समझेंएक कवि गीत गाता है किसी फूल के संबंध में। गीत में बड़ा माधुर्य हो सकता हैछंद हो सकता हैलय हो सकती हैसंगीत हो सकता है। गीत की अपनी खूबी है।
लेकिन गीत कितना ही गाए उस फूल कोऔर कितना ही गुनगुनाएतो भी गीत गीत हैफूल नहीं है। और लाख हो गतिऔर लाख हो छंदतो भी गीत गीत हैफूल की सुगंध नहीं है। और आप उसी गीत से तृप्त हो जाएं तो आप भटक गए।
उपनिषद गीत है किसी फूल काजिसे आपने देखा नहीं अभी। गीत गजब का हैगाने वाले ने देखा है। पर गीत से तृप्त मत हो जानागीत फूल नहीं है।
ऐसा भी हो जाता है कि कभी—कभी आप फूल के पास भी पहुंच जाते हैं—कभी—कभी! कभी—कभी फूल की एक झलक भी मिल जाती है—अचानक,आकस्मिक! क्योंकि फूल कोई विजातीय नहीं है,आपका स्वभाव हैआपके बिलकुल निकट हैकिनारे—किनारे है। कभी—कभी छू जाता है—बिना आपके,बावजूद आपके। कभी—कभी फूल एक झलक दे जाता है। कोई बिजली कौंध जाती है। किसी क्षण में,आकस्मिकअनुभव में आ जाता है : कुछ और भी है इस जगत मेंयही जगत सब कुछ नहीं है। इस पथरीले जगत के बीच कुछ और भी हैजो पत्थर नहीं फूल है —जीवंतखिला हुआ। जैसे किसी स्वभ में देखा हो या अंधेरी रात में चमकी हो बिजली और कुछ दिखा हो और फिर खो गया हों—ऐसा कभी—कभी आपके जीवन में भी हो जाता है। कवियों के जीवन में अक्सर हो जाता है। चित्रकारों के जीवन में अक्सर हो जाता है। फूल की झलक बिलकुल पास आ जाती है।
फिर भीफूल कितने ही पास हो और कितनी ही झलक मिल गई होपास होना भी दूर होना ही है। और कितने ही पास आ जाए फूलतो भी फासला तो बना ही रहता है। और मैं बिलकुल हाथ से भी छू लूं फूल कोतो भी पक्का नहीं है कि जो अनुभव मुझे होता है वह फूल का हैक्योंकि हाथ खबर लाने वाला है। और हाथ अगर बीच में गलत खबर दे देतो कुछ भरोसा नहीं। और हाथ सही ही खबर देगाइसको मानने का कोई कारण नहीं। फिर हाथ जो खबर देगावह फूल के संबंध में कम और हाथ के संबंध में ज्यादा होगी। फूल ठंडा मालूम पड़ता हैजरूरी नहीं कि फूल ठंडा हो। हो सकता है हाथ गरम होइसलिए फूल ठंडा मालूम पड़ता है। खबर हाथ के संबंध में हैक्योंकि खबर जब भी किसी माध्यम से आती है तो सापेक्ष होती है। पक्का नहीं हुआ जा सकता।
पोपो का मैं एक संस्मरण पढ रहा था। पोपोफ एक साधिका थी और गहरी साधिका थी। और पियोत्तर दिमित्रोविच आसपेंस्की के पास साधना करती थी। एक दिन बैठी थी पासएक सज्जन ने आकर आसपेंस्की से पूछा कि ईश्वर है या नहीं? तो आसपेंस्की ने कहा कि ईश्वरनहींईश्वर नहीं है!
फिर आसपेंस्की थोड़ी देर रुका और उसने कहा,लेकिन मैं कोई गारंटी भी नहीं कर सकताक्योंकि जो भी मैं जानता हूं वह सब माध्यम से जाना गया है। कभी आख से देखा हैलेकिन आख का भरोसा क्या! कभी कान से सुना हैलेकिन कान गलत सुन सकते हैं! कभी हाथ से छुआ हैलेकिन हाथ का क्या कहना! अभी तक सीधा नहीं देखा है। अभी तक आमने—सामने नहीं हुआ हूंइसलिए कोई गारंटी भी नहीं है। अभी तक जो भी जाना हैउसमें मुझे ईश्वर का कोई अनुभव नहीं हुआ। लेकिन जरूरी नहीं है कि ईश्वर न हो। इससे सिर्फ मेरी खबर मिलती है कि मेरे अनुभव क्या हैं। इसलिए मैं कोई गारंटी नहीं कर सकता कि नहीं ही है। इसलिए मुझ पर भरोसा करके मत रुक जानाखोजना।
जब भी माध्यम से कुछ घटता हैतो भरोसे का नहीं है। अगर फूल के बिलकुल पास भी पहुंच जाएंतो भी आख देखती हैहाथ छूते हैंसुगंध नाक में आती है,यह भी दूरी का अनुभव है।
तो कभी—कभी कोई कवि उस परम फूल के इतने पास पहुंच जाता है कि उसके गीत में उतर आती है गज उसकी। लेकिन फिर भी बुद्ध नहीं है वहमहावीर नहीं है वह।
महावीर कौन हैबुद्ध कौन है?
बुद्ध है वह चैतन्यजो फूल ही हो गयाइतनी भी दूरी न रही कि फूल को देखा हो—फूल ही हो गया। फूल होकर ही पूरी तरह जाना जा सकता हैक्या है।
उपनिषद के ऋषि की बात है। गीत है किसी फूल के संबंध में। उसे गुनगुनाना। मिठास है बड़ी उसमेंस्वाद है उसमें बहुत। लेकिन वह फूल नहीं हैगीत ही है। अगर प्रयास करेंगे तो कभी—कभी झलक भी मिलेगी। मेरे पास लोग आते हैं। वे कहते हैंध्यान में बड़ी झलक मिलीलेकिन फिर खो गई। अनंत प्रकाश हो गया था,फिर खो गया। आनंद ही आनंद हो गया थालेकिन अब कहां हैअब खोजते हैं और नहीं मिलता।
झलक का मतलब हैपास पहुंच गए थे। झलक तो खो ही जाएगी। इसलिए ध्यान ज्यादा से ज्यादा झलक ही दे सकता है। उस पर भी मत रुक जानाकि उसी झलक को पकड़ कर बार—बार खोजते रहना है। ध्यान का तो मूल्य ही इतना है कि झलक मिल जाए। फिर आगे जाना है समाधि मेंताकि आप फूल ही हो जाएं।
ध्यान में है झलकसमाधि में है हो जाना। झलकों पर मत रुकना। झलकें बडी प्रीतिकर हैं। सारा जगत बासा मालूम पड़ने लगता है—एक झलक ध्यान में मिल जाए उस जीवंत कीफूल कीउस खिलावट की जो भीतर हैतो सारा जगत फीका और व्यर्थ हो जाता है।
लेकिन फिर कुछ लोग झलकों को पकड़ लेते हैं और उन्हीं को दोहराने लगते हैं और सोचते हैं सब हो गया। नहींजब तक आप ही न हो जाएंईश्वर ही जब तक आप न हो जाएंतब तक भरोसा मत करना कि ईश्वर है। हो सकते हैंक्योंकि हैं ही। खोलना है जरा,उघाड़ना है जराछिपे हैंमौजूद हैं अभी और यहींथोड़े से वस्त्र हैंऔर बड़े झीने वस्त्र हैं कि चाहें तो अभी उतार कर फेंक दें और नग्न हो जाएंऔर ईश्वर हो जाएं। लेकिन बडी पकड़ हैझीने तो हैंलेकिन पकड़ गहरी है।
क्यों है यह पकड़ इतनीयह पकड़ हैक्योंकि हम सोचते हैंये वस्त्र ही हमारा होना हैयही हम हैं,इसके अलावा हमें कुछ और किसी अस्तित्व का पता नहीं। इस उपनिषद में इशारे होंगे उस अस्तित्व केजो वस्त्रों के पार है। और इस उपनिषद के साथ—साथ हम करेंगे ध्यानताकि मिले झलक। और आशा बांधेंगे समाधि कीताकि हम भी हो जाएं वहीजिसे हुए बिना न कोई संतोष हैन कोई शाति हैन कोई सत्य है। उपनिषद शुरू होता है प्रार्थना से। प्रार्थना है समस्त जगत से।
'सूर्य कल्याणकारी हों। वरुणअर्यमाइंद्र और बृहस्पतिविष्णु कल्याणकारी हों। उस ब्रह्म को नमस्कार हो। हे वायु! तुम्हारे लिए नमस्कारक्योंकि तुम प्रत्यक्ष ब्रह्म हो। मैं तुम्हें ही प्रत्यक्ष ब्रह्म कहूंगा। सत्य और ऋत,वे सब मेरी रक्षा करेंआचार्य की भी।'
इस प्रार्थना से शुरू होता है।
धर्म की यात्रा प्रार्थना से शुरू होगी ही।
प्रार्थना का अर्थ है —आस्थाआशा।
प्रार्थना का अर्थ है—इस सारे जगत के साथ हमारे जुड़े हुए होने का भाव।
प्रार्थना का अर्थ है—मुझ अकेले से क्या होगा!
मुझ अकेले से होता तो हो गया होता। मुझ अकेले से तो क्षुद्र भी नहीं सध पाया! चाहा था धन मिल जाएवह भी नहीं मिला! चाहा था पद मिल जाएवह भी नहीं मिला! कैसी—कैसी चाहें की थींबड़ी छोटी थीं,वे भी पूरी न हुईं। मुझ अकेले से तो संसार भी न सधा,तो सत्य की यह महायात्रा मुझ अकेले से हो सकेगी?अकेले—अकेले तो मैं संसार में भी हार गया हूं।
सभी हारे हुए हैं संसार में। जो जीते हुए दिखाई पडते हैंवे भी। बस वे दूसरों को जीते हुए दिखाई पड़ते हैंखुद तो बिलकुल हारे हुए हैं।
आप भी अपने को हारे हुए दिखाई पड़ते होंगे,औरों को तो आप भी जीते हुए दिखाई पड़ते हैं। आपसे भी पीछे लोग हैंजो आपको समझते हैंपा लिया आपनेजीत गए संसार में। लेकिन भीतर से अगर हम आदमी को देखें तो एक—एक आदमी हारा हुआ है।
संसार पराजय की लंबी कथा हैवहा जीत होती ही नहीं। वहा जीत हो ही नहीं सकतीवह संसार का स्वभाव नहीं है। वहा हार ही नियति है। किसी की नहीं,किसी व्यक्ति की नहींसंसार में होने की नियति ही हार है। वहा हारना ही होगा। वहा कोई कभी जीतता नहीं है।
वहा हम नहीं जीत पाए जहा क्षुद्र थास्वप्न था,शंकर कहते हैं माया है। वह माया में भी हार गए! सपना थाभ्रम थावहा भी तो जीत न पाए! जब भ्रम में भी हार गएसपने में भी न जीतेतो यथार्थ मेंसत्य में अकेले से क्या होगा?
प्रार्थना का अर्थ हैसंसार में पराजित हुए व्यक्ति का यह अनुभव कि जन्मों—जन्मों तक चेष्टा करके मैं हार गया क्षुद्र मेंतो विराट में मेरी सामर्थ्य?
इसलिए प्रार्थना।
इसलिए सारे जगत को पुकारा है ऋषि ने कि मुझे साथ देना।
सूर्य को पुकारा हैवरुण को पुकारा है।
ये सब नाम हैंप्रतीक हैं जीवन की समस्त शक्तियों के।
सूर्य को पहले पुकारा हैक्योंकि सूर्य हमारा जीवन है। उसके बिना हम नहीं होंगे। हमारे भीतर सूर्य ही जीता हैजलता है। उधर सूर्य बुझ जाएयहौ हम बुझ जाएं। सूर्य ही हमारा प्राण हैइसलिए पुकारा। कहा :'वायु को नमस्कार है। '
विशेष रूप से वायु को नमस्कार कहा है इस प्रार्थना में।
'क्योंकि तुम प्रत्यक्ष ब्रह्म हो। '
अजीब सी बात है! थोड़ा सोचें। बड़े मजे की बात हैक्योंकि वायु है बिलकुल अप्रत्यक्षऔर सब चीजें प्रत्यक्ष हैं। सूर्य को कहा होता प्रत्यक्ष ब्रह्म होजीते—जागतेजलतेप्रखर—समझ में आता। सूर्य को नहीं कहा प्रत्यक्ष ब्रह्मकहा वायु को जो बिलकुल दिखाई पड़ती नहींबिलकुल अप्रत्यक्ष है।
कहां है प्रत्यक्ष वायुसिर्फ अनुमान है कि है,लगता है कि हैभासता है कि हैदिखाई तो पड़ती नहीं,आंख के सामने कहा हैप्रत्यक्ष का मतलब हैआंख के सामने है जो। आंख के सामने वायु बिलकुल नहीं है। पत्थरपहाड़सब आंख के सामने हैंवायु नहीं है।
लेकिन ऋषि कहता है 'हे वायु! नमस्कार तुम्हें,क्योंकि तुम प्रत्यक्ष ब्रह्म हो। '
इसलिए कहा कि वायु जैसे दिखाई नहीं पड़ती और हैऔर आंख को दिखाई नहीं पड़ती फिर भी आंख को छू रही है प्रतिपल—ऐसा ही परम सत्य हैदिखाई नहीं पड़ताछू रहा है प्रतिपल। वायु दिखाई नहीं पड़ती,क्योंकि हमारे पास देखने वाली आंख नहीं है। वायु तो यहां है। वायु के बिना तो हम भी नहीं हो सकते हैं। वही तो हमारी श्वास में हमें सम्हाले है। उसका ही आवागमन तो हमारा सारा जीवन है। जो इतनी निकट हैश्वास है जो हमारीवह भी दिखाई नहीं पड़तीक्योंकि हमारे पास आंखें बड़ी स्थूल हैं। तो हम जो बहुत मोटा—मोटा है, स्थूल—स्थूल हैवह देख लेते हैंजो सूक्ष्म हैवह हमें दिखाई नहीं पड़ता।
वायु सूक्ष्मतम हैहमारे सामने मौजूद हैभीतर मौजूद हैबाहर मौजूद हैरोएं—रोएं में मौजूद है—और दिखाई नहीं पड़ती! इसलिए कहा कि तुम प्रत्यक्ष ब्रह्म होतुम ठीक ब्रह्म जैसी हो। वह भी यहां मौजूद है और दिखाई नहीं पड़ता! और रोएं—रोएं में वही समाया है,रोआं—रोआं वही है और फिर भी उसका कोई पता नहीं चलता! इसलिए वायु को नमस्कार किया हैकि हम वायु को तो जानते हैंब्रह्म को नहीं जानते। वायु से एक धागा जोडा है कि ब्रह्म भी ठीक वायु जैसा है।
'इसलिए मैं तुम्हें प्रत्यक्ष ब्रह्म कहूंगा', ऋषि कहता है वायु को, 'सत्य और ऋत के नाम से भी कहूंगा।'क्योंकि तुम ठीक उस जैसी हो—जो है और जिसका हमें पता नहीं हैजो हम स्वयं हैं और जिसका हमें पता नहीं हैजो अभी और यहां सदा से मौजूद है और हमें उसका पता नहीं है। लेकिन यह खोज पूरी हो सकेअगर सब देवता रक्षा करें।
देवता से अर्थ हैसदा सेजीवन की अनंत— अनंत शक्तियां। और जीवन है एक विराट जाल अनंत शक्तियों का। आपका होना भी एक विराट जाल है अनंत शक्तियों का। मिलता है आपमें सूर्यमिलता है वरुण,मिलता है इंद्रमिलती है वायुमिलती है अग्निमिलती है पृथ्वीसब कुछ मिलता हैआकाशसब आपमें मिलते हैं। अगर एक व्यक्ति को हम पूरा का पूरा जान लेंतो हमने बीज—रूप में समस्त अस्तित्व को जान लिया। सब कुछ उसमें है। सबका दान उसमें है। सब मिल कर ही उसका अस्तित्व है। इन सबकी सहायता की प्रार्थना है।
लेकिन क्या सूर्य सहायता करेगायह सवाल उठता ही है। प्रार्थना भी की तो क्या सूर्य सहायता करेगाप्रार्थना भी की तो क्या वायु सहायक हो जाएगी?प्रार्थना भी की तो पृथ्वी क्या सहायता करेगी    पृथ्वी की सहायता और सूर्य की सहायता का सवाल नहीं है,आपने प्रार्थना कीयही बडी सहायता है। इसे थोड़ा ठीक से समझ लें। कोई सूर्य आकर आपको सहायता नहीं करेगा। लेकिन आपने प्रार्थना कीइसका जो परिणाम है वह सूर्य पर नहीं होगाआप पर होगा। क्योंकि प्रार्थना करने वाला चित्त हो जाता है विनम्र। प्रार्थना करने वाला चित्त हो जाता है असहाय। प्रार्थना करने वाला चित्त स्वीकार कर लेता है इस बात को कि मुझ अकेले से नहीं होगा। प्रार्थना करने वाला चित्त मिटने को तैयार हो जाता है। प्रार्थना करने वाला चित्त अपने अहंकार कोइस भाव को कि मैं कर सकता हूं, छोड देता है। इसके परिणाम होते हैं।
प्रार्थना का सारा परिणाम आप पर होता है। प्रार्थना से सूर्य नहीं बदलताआप बदलते हैं। प्रार्थना से जगत नहीं बदलताआप बदलते हैं। लेकिन आपके बदलते ही दूसरे जगत में आपका प्रवेश हो जाता है। प्रार्थना आमतौर से जब आप करते हैं तो यही सोचते हैं कि कोई कुछ करेगाइसलिए प्रार्थना कर रहे हैं। न,प्रार्थना है एक उपायएक डिवाइस। हाथ तो आप जोड़ते हैं किसी और के सामनेलेकिन जो परिणाम होता है वह होता है भीतर—जिसने हाथ जोड़े हैंउस पर।
इसलिए बड़ी कठिनाई होती है। अगर आप वैज्ञानिक के सामने कहें कि हे सूर्यसहायता कर! तो वह कहेगामूढूता की बात हैक्या सूर्य तुम्हारी सहायता करेगाऔर कब किसकी सहायता कीकि हे इंद्रवर्षा कर! पागल हो गए होप्रार्थनाओं से कहीं वर्षाएं हो गई हैं?
वैज्ञानिक ठीक कहता है। न तो सूर्य आपकी सुनेगान बादल आपकी सुनेंगेन हवा आपकी सुनेगी;कोई आपकी नहीं सुनेगा। लेकिन आपने पुकारायह आपको बदल जाएगा। आपने कितनी जोर से पुकारा,उतनी गहरी स्प आपके भीतर प्रवेश हो जाएगी। अगर आपके पूरे प्राण पुकार उठेतो आप दूसरे ही आदमी हो जाएंगे।

इसलिए है प्रार्थना।
Adhyatam Upnishid ..Part 1 To 17

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