- Ka Sove Din Rein
- Kahe Kabir Diwana
कबीर अनूठे हैं। और प्रत्येक के लिए उनके द्वारा आशा का द्वार खुलता है।
ओशो
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- Kan Thore Kankar
बाबा मलूकदास—यह नाम ही मेरा हृदय-वीणा को झंकृत कर जाता है। जैसे अचानक वसंत आ जाय! जैसे हजारों फूल अचानक झर जायं! नानक से मैं प्रभावित हूं; कबीर से चकित हूं; बाबा मलूकदास से मस्त। ऐसे शराब में डूबे हुए वचन किसी और दूसरे संत के नहीं हैं। नानक में धर्म का सारसूत्र है, पर रूखा-सूखा। कबीर में अधर्म को चैनौती है—बड़ी क्रांतिकारी, बड़ी विद्रोही। मलूक में धर्म की मस्ती है; धर्म का परमहंस रूप; धर्म को जिसने पीया है, वह कैसा होगा। न तो धर्म के सारतत्व को कहने की बहुत चिंता है, न अधर्म से लड़ने का कोई आग्रह है। धर्म की शराब जिसने पी है, उसके जीवन में कैसी मस्ती की तरंग होगी, उस तरंग से कैसे गीत फूट पड़ेंगे, उस तरंग से कैसे फूल झरेंगे, वैसे सरल अलमस्त फकीर का दिग्दर्शन होगा मलूक में।
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‘संत दरिया प्रेम की बात करेंगे। उन्होंने प्रेम से जाना। इसके पहले कि हम उनके वचनों में उतरें...अनूठे वचन हैं ये। और वचन हैं बिलकुल गैर-पढ़े लिखे आदमी के। दरिया को शब्द तो आता ही नहीं था; अति गरीब घर में पैदा हुए—धुनिया थे, मुसलमान थे। लेकिन बचपन से ही एक ही धुन थी कि कैसे प्रभु का रस बरसे, कैसे प्रार्थना पके। बहुत द्वार खटखटाए, न मालूम कितने मौलवियों, न मालूम कितने पंडितों के द्वार पर गए लेकिन सबको छूंछे पाया। वहां बात तो बहुत थी, लेकिन दरिया जो खोज रहे थे, उसका कोई भी पता न था। वहां सिद्धांत बहुत थे, शास्त्र बहुत थे, लेकिन दरिया को शास्त्र और सिद्धांत से कुछ लेना न था। वे तो उन आंखों की तलाश में थे जो परमात्मा की बन गई हों। वे तो उस हृदय की खोज में थे, जिसमें परमात्मा का सागर लहराने लगा हो। वे तो उस आदमी की छाया में बैठना चाहते थे जिसके रोएं-रोएं में प्रेम का झरना बह रहा हो। सो, बहुत द्वार खटखटाए लेकिन खाली हाथ लौटे। पर एक जगह गुरु से मिलन हो ही गया।’ - ओशो
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- Kashta Dukh Aur Shanti
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- Kople Phir Phoot
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- Kranti Sutra
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- Krishna Smriti
सोलह कला संपूर्ण व्यक्तित्व वाले कृष्ण कोई व्यक्ति नहीं, एक संपूर्ण जीवन-दृष्टि के रूप में हमारे जीवन के कैनवस पर अपने रंग बिखेरते चलते हैं। भारतीय जन-मानस पर कृष्ण की इतनी गहरी छाप ने ओशो को समझने में बहुत बड़ा योगदान दिया है। कृष्ण ने जीवन को उसके सभी आयामों में अंगीकार किया है। संस्कारों में बंधे व्यक्ति के लिए यह इतना आसान नहीं परंतु भले ही अवतार की छवि के रूप में, लेकिन कहीं तो उसका अंतरतम उसे सब स्वीकारने को आंदोलित करता है। उसी साहस को जुटाने के लिए शायद ओशो जैसे रहस्यदर्शी द्वारा इस पुस्तक में की गयी चर्चा सहायक होगी। २६ सितंबर १९७० में नव-संन्यास का सूत्रपात हुआ और २८ सितंबर को ओशो ने इस विषय पर जो प्रवचन दिया वह परिशिष्ट के रूप में इस पुस्तक में जोड़ा गया है जिसमें नव-संन्यास को लेकर पूछे गए प्रश्नों के उत्तर हैं।
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- Kya Sove To Bawari
‘अगर कोई भी विचार पहुंचाना हो, लगता हो कि प्रीतिपूर्ण है, पहुंचाने जैसा है, तो उसके लिए बल इकट्ठा करना, संगठित होना, उसके लिए सहारा बनना एकदम जरूरी है। तो उसके लिए तो डिटेल्स में सोचें, विचार करें। लेकिन ये सारी बातें जो मुझे सुझाई हैं, ये सब ठीक हैं।
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