- Bahuri Na Aisa
जीवन ही खतरनाक है। मृत्यु सुविधापूर्ण हैं। मृत्यु ज्यादा और आरामदायक कुछ भी नहीं। इसलिए लोग मृत्यु को वरण करते हैं, जीवन का निषेध।। लोग ऐसे जीते हैं,जिसमें कम से कम जीना पड़े, न्यूनतम--क्योंकि जितने कम जीएंगे उतना कम खतरा है; जितने ज्यादा जीएंगे उतना ज्यादा खतरा है। जितनी त्वरा होगी जीवन में उतनी ही आग होगी, उतनी ही तलवार में धार। जीवन को गहनता से जीना, समग्रता से जीना--पहाड़ों की ऊंचाइयों पर चलना है। ऊंचाइयों से कोई गिर सकता है। जो गिरने से डरते हैं, वे समतल भूमि पर सरकते हैं;चलते भी नहीं घिसटते हैं। उड़ने की तो बात दूर।
और सदगुरु के पास होना तो सूर्य की ओर उड़ान है।
शिष्य तो ऐसे है जैसे सूर्यमुखी का फूल; जिस तरह सूरज घूमता, उस तरह शिष्य घूम जाता। सूर्य पर उसकी श्रद्धा अखंड है। सूर्य ही उसका जीवन है। सूर्य नहीं तो वह नहीं। जैसे ही सूरज डूबा, सूर्यमुखी का फूल बंद हो जाता है। जैसे ही सूरज ऊगा, सूर्यमुखी खिला, आह्लादित हुआ, नाचा हवाओं में, मस्त हुआ, पी धूप। उसके जीवन में तत्क्षण नृत्य आ जाता है।
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- Bharat Ka Bhavishya
जवान आदमी भविष्य की तरफ देखता है। और जो कौम भविष्य की तरफ देखती है वह जवान होती है। जो अतीत की तरफ, पीछे की तरफ देखती है, वह बूढ़ी हो जाती है। यह हमारा मुल्क सैकड़ों वर्षों से पीछे की तरफ देखने का आदी रहा है। हम सदा ही पीछे की तरफ देखते हैं; जैसे भविष्य है ही नहीं, जैसे कल होने वाला नहीं है। जो बीत गया कल है वही सब-कुछ है। यह जो हमारी दृष्टि है यह हमें बूढ़ा बना देती है।
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भारत की प्रतिभा पुराने समाधानों को पकड़ कर ठहर गई है। और इतनी हैरानी मालूम होती है कि पता नहीं कब ठहर गई है, कितने हजार वर्ष पहले, यह भी कहना मुश्किल है? ऐसा ही लगता है कि ज्ञात इतिहास, जब से हम जानते हैं इतिहास को, तब से भारत ठहरा ही हुआ है।
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‘बिन धन परत फुहार’—यह वार्तामाला एक नई ही यात्रा होगी। मैं अब तम मुक्तपुरुषों पर बोला हूं। पहली बार एक मुक्तनारी पर चर्चा शुरू करता हूं। मुक्तपुरुषों पर बोलना आसान था। उन्हें मैं समझ सकता हूं—वे सजातीय हैं। मुक्तनारी पर बोलना थोड़ा कठिन होगा—वह थोड़ा अजनबी रास्ता है। ऐसे तो पुरुष और नारी अंतरतम में एक हैं, लेकिन उनकी अभिव्यक्तियां बड़ी भिन्न-भिन्न हैं। उनके होने का ढंग, उनके दिखाई पड़ने की व्यवस्था, उनका वक्तव्य, उनके सोचने की प्रक्रिया, न केवल भिन्न है बल्कि विपरीत है। अब तक किसी मुक्तनारी पर नहीं बोला। तुम थोड़ा मुक्तपुरुषों को समझ लो, तुम थोड़ा मुक्ति का स्वाद चख लो, तो शायद मुक्तनारी को समझना भी आसान हो जाए।’-ओशो
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सदियों-सदियों से देह के साथ दो अतियां जुड़ी हुई हैं—तिरस्कार या भोग। कभी तो हमने इसे वीरान श्मशान ही बना दिया है तपश्चर्या के नाम पर अत्याचार करके, या फिर इसे वेश्या बना कर छोड़ दिया है, जैसे कि यह अपनी नहीं, किसी की भी न हो। रहस्यदर्शियों ने इसी देह को कभी मंदिर के रूप में देखा है तो कभी अस्तित्व की सर्वश्रेष्ठ कृति के रूप में। यारी उसी शृंखला की एक कड़ी हैं जो इस देह-मंदिर में दीया जलाने की बात करते हैं। पुस्तक का शीर्षक व प्रारंभिक पंक्तियां हैं—‘बिरहिनी मंदिर दियना बार’ अर्थात ‘ऐ बिरही लोगो! अपने घर में आत्म-ज्योति जलाओ’।
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अज्ञात के स्वर जिन्हें सुनाई दें; उनके लिए यह प्रश्नोत्तर माला अदभुत रूप से मार्गदर्शक हो सकती है। अज्ञात के निमंत्रण पर जिस मार्ग पर चलना है; उसके विषय में ओशो कहते हैं : ‘‘एक ही कदम में यात्रा पूरी हो सकती है; बस साहस की बात है। एक क्षण में निर्वाण का अमृत तुम पर बरस सकता है, बस प्रेम से भरी छाती चाहिए।’’
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- Chal Hansa
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