शिष्य - ओशो
अतीत में शिष्यों ने संगठन खड़े किये। यही उनके रिश्ते थे--कि "हम ईसाई हैं", "हम हिन्दू हैं," की हम एक धर्म के हैं और चूंकि हम समान धर्म को मानते हैं, हम भाई-बहन हैं। हम अपने धर्म के लिए जिएंगे और अपने धर्म के लिए मर जाएंगे।"
सभी संगठन शिष्यों के बीच के संबंधों से निर्मित हुए हैं। असल में, दो शिष्य एक दूसरे से बिल्कुल भी जुड़े हुए नहीं हैं। हर शिष्य अपने सद्गुरु से अपनी निजी क्षमता से जुड़ा है। एक सद्गुरु लाखों शिष्यों से जुड़ा हो सकता है, पर वह सम्बन्ध निजी है संगठित नहीं।
शिष्यों के कोई सम्बन्ध नहीं होते। हां, उनके बीच एक तरह की मैत्री होती है, एक तरह का प्रेम। मैं 'संबन्ध' शब्द का प्रयोग नहीं कर रहा क्योंकि वह बांध देता है। मैं इसे मित्रता कह कर भी नहीं बुलाऊंगा। मैं इसे मैत्री कहूंगा क्योंकि ये सब सह-यात्री हैं, एक ही पथ पर चलते हुए, एक ही सद्गुरु के प्रेम में, पर सद्गुरु के द्वारा ही एक दुसरे से जुड़े हुए है, उनका एक दुसरे से सीधा सम्बन्ध नहीं है।
और यही बात अतीत में सबसे अधिक दुर्भाग्यपूर्ण रही है: कि शिष्य संगठित हो गए, आपस में सम्बंधित हो गए और वे सभी अज्ञानी थे। और पूरी दुनिया में अज्ञानी लोग ही सबसे ज्यादा परेशानी खड़ी करते हैं किसी भी चीज से ज्यादा।। सभी धर्मों ने ठीक यही किया है।
मेरे लोग व्यक्तिगत रूप से मुझसे जुड़े हैं। और क्योंकि वे एक ही राह पर हैं, निश्चित रूप से वे एक दूसरे से परिचित हो जाते हैं। एक मैत्री बन जाती है, एक प्रेमपूर्ण वातावरण, परंतु मैं उसे किसी प्रकार का रिश्ता कह कर नहीं बुलाना चाहता। शिष्यो के सीधे संबंधों के कारण हम पहले भी बहुत भुगत चुके हैं, उन्होंने धर्म खड़े किए, संप्रदाय खड़े किए, पंथ खड़े किए, और फिर आपस में लड़ाइयां की। वे कुछ और नहीं कर सकते।
मेरे साथ कम से कम, यह याद रखें : तुम एक दुसरे से सम्बंधित नहीं हो, बिल्कुल भी किसी भी तरह से। बस एक तरल मैत्री, न कि एक गहरी मित्रता, पर्याप्त है--और कहीं अधिक सुंदर, और भविष्य में मानवता को नुकसान पहुंचाने की किसी भी संभावना के बिना।
Osho, Beyond Enlightenment, Talk #2
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