बुद्ध बोलते हैं -ओशो
इसलिए कि तुम्हारे भीतर पड़ी कोई सोयी याद जग जाए। अभी तो दूर से ही देखोगे। जैसे आकाश मेघाच्छादित न हो और कोई सैकड़ों मील दूर से हिमालय के उत्तुंग को देखे। उन जमी हुई बर्फ को देखे। देखना भी तो उन्हें दूर से देखा करना।
शाम हो या कि सहर याद उन्हीं की रखनी ।
दिन हो या रात हमें जिक्र उन्हीं का करना ।
देखना भी तो उन्हें दूर से देखा करना देखना भी तो ।
बुद्धों के बोलने का प्रयोजन यह नहीं है कि तुमने सुन लिये शब्द और तुम्हें ज्ञान हो जाएगा। इतना ही है कि शायद शब्द तुम्हारे भीतर किसी भूली-बिसरी प्यास को जगा दें। शायद बुद्धों की मौजूदगी तुम्हारे भीतर कुतूहल बने, जिज्ञासा बने, मुमुक्षा बने। वे बोलते हैं इसलिए कि शायद उनके वचनों की चोट तुम्हारे हृदय की वीणा को छेड़ दे। नहीं कि तुम सत्य को जान लोगे, लेकिन सत्य को जानना है, इतना स्मरण आ जाए तो बहुत। बस, इतना ही स्मरण आ सकता है। जागे हुए व्यक्तियों ने सिर्फ इसीलिए बात की है गैर-जागे हुए व्यक्तियों से कि देखो, हम जाग गये; देखो, हमारे देख मिट गये; देखो, हमारा संताप झड़ गया; देखो,हमारे जीवन में फूल खिल गये; देखो ये सुगंध, यह तुम्हारी भी सुगंध है! यह तुम्हारे भी भीतर छिपा हुआ खजाना है। यह तुम्हारी भी संपदा है। जरा खोदो और पा लोगे।
लेकिन जो मूढ़ हैं, वे केवल शब्दों को पकड़कर बैठ जाता हैं। जैसे तोते राम-राम दोहराते रहते हैं, ऐसे ही वे भी वेदों को दोहराते हैं,उपनिषदों को दोहराते हैं। जब यह बड़े मजे की बात है, मुंडकोपनिषद में यह शह श्लोक है, और मैं ऐसे लोगों को जानता हूं जो जीवन भर से मुंडकोपनिषद पढ़ रहे हैं, जिनको उसका शब्द-शब्द याद है और जिनको जरा भी बेचैनी नहीं होती इस श्लोक को उद्धरण करने में और जिन्होंने जाना नहीं और जिनकी आंखें खुली नहीं।
नायं आत्मा प्रवचने लभ्यो।
थोड़े-से शब्दों में कितनी बात कह दी। बूंद में जैसे सागर को समा दिया। नहीं, प्रवचन से यह उपलब्ध नहीं है। सुनना जरूर उनको जो जानते हैं, लेकिन उनके शब्दों को मत पकड़ लेना।
बुद्ध ने कहा है: मैं जो कहता हूं, उस पर ज्यादा ध्यान मत दो, मैं जो हूं, उस पर ध्यान दो। मैं जो कहता हूं, वह उतना महत्वपूर्ण नहीं, मैं जहां से कहता हूं, वह स्रोत महत्वपूर्ण है। और, मैं कहूं, इसलिए मत मानना। मैं कहूं, इसलिए तो केवल प्रयोग करना जानने का। हां, जिस दिन जान लो, उस दिन मानना।
➡️दीपक बार नाम का-(प्रश्नोत्तर)-प्रवचन-02
🌹ओशो
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