दीक्षा के अर्थ और उपक्रम - ओशो
दीक्षा के अर्थ और उपक्रम को समझाने की कृपा करें?
पहले तो यह समझने की कोशिश करो कि दीक्षा क्या है। यह गुरु और शिष्य के बीच गहन संवाद है, यह गुरु से शिष्य को ऊर्जा का गहन हस्तांतरण है। ऊर्जा सदा ऊपर से नीचे की ओर बहती है। जैसे पानी नीचे की तरफ बहता है, वैसे ही ऊर्जा भी नीचे की तरफ बहती है। गुरु वह है, जिसने पा लिया है, जिसने जाना है, जो हो गया है; वह ऊर्जा का उच्चतम शिखर है, शुद्धतम ऊर्जा का गौरीशंकर है। यह ऊर्जा नीचे खड़े उस व्यक्ति की तरफ बह सकती है जो ग्राहक है, जो झुका हुआ है, जो समर्पित है। उस ऊर्जा को पाने के लिए यह समर्पण का भाव, यह ग्राहकता, यह विनम्रता जरूरी है। अन्यथा तुम अगर खुद शिखर हो, घाटी नहीं हो, तो यह ऊर्जा तुम्हारी तरफ नहीं बहेगी।
तुम भी शिखर हों—दूसरे ही ढंग के शिखर। तुम अहंकार के शिखर हो—ऊर्जा के नहीं, आनंद के नहीं, चेतना के नहीं। तुम अहंकार की सघनता हो—मै—पन की सघनता। तुम शिखर हो और इस शिखर के रहते दीक्षा संभव नहीं। अहंकार ही बाधा है; क्योंकि अहंकार तुम्हें बंद कर देता है और तुम समर्पण नहीं कर सकते।
शिष्य होने के लिए, दीक्षित होने के लिए समग्र समर्पण की जरूरत है। और समर्पण आधा— अधूरा नहीं होता है। समर्पण का अर्थ ही है, समग्र समर्पण। तुम यह नहीं कह सकते कि मैं आशिक समर्पण करता हूं। उसका कोई भी अर्थ नहीं है। तब तुम्हारा अहंकार ज्यों का त्यों तुम्हारे साथ खड़ा है। अहंकार को ही समर्पित करना है। और जब तुम अहंकार को समर्पित कर देते हो तो तुम ग्राहक हो जाते हो, खुल जाते हो। तब तुम घाटी बन जाते हो। और तब शिखर तुम्हारी ओर प्रवाहित होगा। यह बात मैं प्रतीक के रूप में नहीं कह रहा हूं; यही वास्तविक स्थिति है।
क्या तुमने कभी प्रेम किया है? तब तुम समझ सकते हो कि दो शरीरों के बीच प्रेम सच में बहता है। यह एक वास्तविक बहाव है। इसमें ऊर्जा का संप्रेषण हो रहा है, हस्तातरण हो रहा है, लेन—देन हो रहा है। लेकिन प्रेम समान तल पर है। तुम दोनों अहंकार के शिखर रह सकते हो, फिर भी प्रेम हो सकता है।
लेकिन गुरु के साथ तुम समान तल पर नहीं रह सकते। अगर तुम समान तल पर रहने की चेष्टा करोगे तो दीक्षा असंभव हो जाएगी। समान तल पर प्रेम संभव है, लेकिन दीक्षा असंभव हो जाती है। दीक्षा तो तभी संभव है जब तुम नीचे तल पर हो—झुके हुए, विनम्र, समर्पित, ग्राहक। शिष्य स्त्रैण होता है—गर्भ की भांति, ग्रहण करने को तत्पर। दीक्षा में गुरु की भूमिका पुरुष की है।
दीक्षा का रहस्य अब बिलकुल खो गया है। जितने ही हम शिक्षित, सभ्य और सुसंस्कृत होते जाते हैं, उतने ही अहंकारी भी होते जाते हैं। अब समर्पण करना असंभव हो गया है। कठिन तो वह सदा से रहा है, अब असंभव हो रहा है।
दीक्षा आंतरिक ऊर्जा का, वास्तविक ऊर्जा का हस्तांतरण है। और गुरु तभी तुममें प्रवेश कर सकता है, तभी तुम्हें रूपांतरित कर सकता है, जब तुम तैयार हो, ग्राहक हो। उसके लिए प्रगाढ़ श्रद्धा की जरूरत है। प्रेम में जितनी श्रद्धा की जरूरत है, उससे भी ज्यादा जरूरत दीक्षा में है। क्योंकि तुम्हें नहीं मालूम कि क्या होने वाला है; तुम बिलकुल अंधेरे में हो। केवल गुरु को पता है कि क्या होने वाला है और वह क्या कर रहा है। वह जानता है; तुम नहीं जान सकते। और ऐसी चीजें हैं जिनमें यह नहीं बताया जा सकता कि क्या होने वाला है, क्योंकि मनुष्य के मन की बहुत सी उलझनें हैं। एक उलझन यह है कि अगर कोई चीज होने के पहले बता दी जाए तो वह घटना को बदल देगी। वह नहीं बतायी जा सकती। अनेक चीजें हैं जिन्हें गुरु तुम्हें नहीं बता सकता। वह उन्हें तुमसे करा सकता है, लेकिन बता नहीं सकता। वह कराना ही दीक्षा है। गुरु सच में तुम्हारे शरीर में, तुम्हारे चित्त में प्रवेश करता है। वह तुम्हें निर्मल करता है, तुम्हें बदलता है। और इसमें एक ही चीज जरूरी है, तुम्हारी समग्र श्रद्धा। क्योंकि श्रद्धा के बिना द्वार नहीं है; श्रद्धा के बिना वह तुममें प्रवेश नहीं कर सकता।
तुम्हारे द्वार—दरवाजे बंद हैं। तुम सदा अपना बचाव करने में लगे हो। जीवन संघर्ष है—जीवित रहने के लिए संघर्ष। इस संघर्ष के कारण तुम बंद हो जाते हो। तुम बंद हो, भयभीत हो। तुम खुले रहने से भयभीत हो, तुम्हें डर है कि कोई तुममें प्रवेश न कर जाए, कोई तुम्हारे साथ कुछ कर न दे। इस भय से तुम सिकुड़ गए हो, अपने में छिप गए हो, बंद हो गए म् हो, और तुम अपना बचाव कर रहे हो।
दीक्षा में तुम्हें यह सुरक्षा गिरा देनी होगी, सुरक्षा—कवच को उतार फेंकना होगा। तब तुम खुलते हो, द्वार देते हो; और तब गुरु तुममें प्रवेश करता है। यह गहरे प्रेम—कृत्य जैसा ही है। तुम किसी स्त्री पर बलात्कार कर सकते हो, लेकिन शिष्य पर बलात्कार नहीं किया जा सकता। तुम स्त्री पर बलात्कार कर सकते हो; क्योंकि वह शारीरिक कृत्य है। बिना किसी की मर्जी के भी उसके शरीर के साथ जबरदस्ती की जा सकती है, उसमें प्रवेश किया जा सकता है। स्त्री की इच्छा के विरुद्ध भी तुम उस पर बलात्कार कर सकते हो, यह जबरदस्ती होगी। शरीर पदार्थ है और पदार्थ के साथ जबरदस्ती की जा सकती है।
गहन प्रेम जैसा ही दीक्षा में होता है। गुरु तुम्हारी आत्मा में प्रवेश करता है, शरीर में नहीं। इसलिए जब तक तुम तैयार नहीं हो, ग्रहणशील नहीं हो, तब तक प्रवेश संभव नहीं है। शिष्य के साथ बलात्कार नहीं किया जा सकता; क्योंकि यह शारीरिक बात नहीं है। यह बात आत्मा की है और आत्मा में बलात प्रवेश नहीं किया जा सकता। उसके साथ हिंसा करना संभव नहीं है। इसलिए जब शिष्य तैयार होता है, खुला होता है, जब वह प्रेमपूर्ण स्त्री की भांति निमत्रणपूर्ण और ग्राहक होता है, जब वह निरस्त्र होकर समर्पित होता है, तभी गुरु उसमें प्रवेश कर सकता है, काम कर सकता है। और सदियों का काम क्षणों में किया जा सकता है। जो काम तुम अनेक जन्मों में नहीं कर सकते, वह क्षण में हो सकता है। लेकिन तब तुम्हें वलनरेबल होना होगा, समग्रत: आस्थावान होना होगा। तुम्हें पता नहीं है कि क्या होने वाला है और गुरु तुम्हारे भीतर क्या करने वाला है।
एक स्त्री भयभीत होती है, क्योंकि संभोग उसके लिए अज्ञात की यात्रा है। जब तक वह पुरुष को प्रेम नहीं करेगी, जब तक वह पीडा को झेलने को, बच्चे का बोझ ढोने को, नौ महीनों तक बच्चे को गर्भ में रखने को तैयार नहीं होगी, जब तक वह जीवनभर के लिए प्रतिबद्ध न हो लेगी, तब तक वह पुरुष को अपने शरीर में प्रवेश नहीं करने देगी। यह सिर्फ उसके शरीर का सवाल नहीं है, यह उसकी पूरी जिंदगी का सवाल है। जब वह प्रगाढ़ प्रेम में होती है, तभी वह पीड़ा झेलने को राजी होती है। और प्रेम में त्याग और दुख भी आनंदपूर्ण होता है।
शिष्य के साथ यह समस्या और भी बड़ी और गहरी है। यह सिर्फ शारीरिक जन्म की और एक नए बच्चे के जन्म की बात नहीं है; यह उसके स्वयं के पुनर्जन्म की बात है। स्वयं उसका पुनर्जन्म होने वाला है। एक अर्थ में उसकी मृत्यु होगी और किसी दूसरे अर्थ में उसका पुनर्जन्म होगा। और यह तभी संभव होगा जब गुरु उसमें प्रवेश पाएगा। और गुरु इस संबंध में जबरदस्ती नहीं कर सकता है। जबरदस्ती संभव नहीं है। शिष्य इसके लिए आमंत्रण दे सकता है।
आध्यात्मिक शिष्यता के जगत में यह एक बड़ी समस्या है; क्योंकि शिष्य सदा अपना बचाव करता है, अपने चारों ओर कवच पर कवच निर्मित किए जाता है। वह गुरु के साथ भी वैसे ही व्यवहार करता है जैसे वह संसार में दूसरों के साथ करता है, एक ही सुरक्षा—यंत्र काम करता रहता है। और तब उसमें व्यर्थ समय नष्ट होता है, ऊर्जा नष्ट होती है और वह बात टल जाती है जो अभी घटित हो सकती थी। लेकिन यह स्वाभाविक है। और कभी—कभी तो महान गुरुओं के संग रहकर भी शिष्य चूक गए हैं।
आनंद बुद्ध का प्रधान शिष्य था और उनके बहुत निकट था। लेकिन वह बुद्ध के जीते जी बुद्धत्व को नहीं उपलब्ध हो सका। बुद्ध आनंद के साथ चालीस वर्ष रहे; लेकिन आनंद ज्ञान छ उपलब्ध हुआ। आनंद के बाद आने बाले अनेक लोग बुद्धत्व को उपलब्ध गए; और फिर तो यह समस्या बन गई। और आनंद बुद्ध के सर्वाधिक करीब था। वह निरंतर चालीस वर्षों तक बुद्ध के साथ ही सोया था; बुद्ध के साथ ही चला था। वह बुद्ध की छाया की भांति था। वह बुद्ध के संबंध में इतना जानता था जितना बुद्ध भी नहीं जानते थे। लेकिन वह उपलब्ध नहीं हुआ, वह वैसा का वैसा रहा।
एक बहुत छोटी सी बात बाधा बन गई। वह बुद्ध का चचेरा भाई था और उनसे उम्र में बड़ा था। वही अहंकार बन गया।
बुद्ध की मृत्यु हुई। बुद्ध के वचनों का संग्रह करने के निमित्त महासंघ की बैठक हुई। बुद्ध ने जो कुछ कहा था उसे लिपिबद्ध करना था। जो लोग बुद्ध के साथ रहे थे वे थोड़े ही दिनों में नहीं रहेंगे, इसलिए सब कुछ को रिकार्ड कर लेना था, लिख लेना था। लेकिन महासंघ में आनंद को प्रवेश नहीं मिला, यद्यपि आनंद को ही बुद्ध के जीवन, बुद्ध के वचन, बुद्ध के अनुभव के संबंध में सर्वाधिक पता था। आनंद को सब मालूम था; उतना किसी को भी नहीं मालूम था।
लेकिन महासंघ ने तय किया कि चूंकि आनंद को अभी बुद्धत्व नहीं प्राप्त हुआ है, इसलिए उसे प्रवेश नहीं दिया जा सकता। वह बुद्ध के वचन रिकार्ड नहीं करा सकता, क्योंकि अज्ञानी का भरोसा नहीं किया जा सकता है। वह धोखा नहीं देगा; लेकिन अज्ञानी व्यक्ति का क्या भरोसा? वह सोच सकता है कि यही घटित हुआ और वह उसे प्रामाणिक समझकर रिकार्ड करा सकता है। लेकिन वह अभी जाग्रत नहीं है और उसने नींद में जो देखा और सुना है उस पर भरोसा नहीं किया जा सकता। महासंघ ने तय किया कि जो जाग्रत हो गए हैं, वे ही लिखवा सकते हैं।
आनंद द्वार के पास बैठा रो रहा था। महासंघ का द्वार बंद हो गया और आनंद वहां बैठा चौबीस घंटे रोता रहा, आंसू बहाता रहा। लेकिन उन्होंने उसे प्रवेश नहीं दिया। चौबीस घंटों तक आनंद रोता रहा, रोता रहा। और फिर अचानक उसे बोध हुआ कि कारण क्या था कि मैं बुद्ध के जीते जी बुद्धत्व को नहीं उपलब्ध हुआ? बाधा क्या थी?
उसने अपनी स्मृतियों में लौटकर देखा—बुद्ध के साथ चालीस वर्षों का लंबा जीवन! उसे स्मरण आया वह पहला दिन जब वह बुद्ध के पास दीक्षा लेने आया था। लेकिन उसकी एक शर्त थी, जिसके कारण वह पूरी दीक्षा ही चूक बैठा। उस शर्त के कारण सही अर्थों में वह दीक्षित ही नहीं हुआ। वह दीक्षित नहीं हुआ, क्योंकि उसने एक शर्त लगा रखी थी।
वह बुद्ध के पास आया और उसने कहा : मैं आपका शिष्य बनने आया हूं। जब मैं आपका शिष्य बन जाऊंगा तो आप मेरे गुरु होंगे और मैं आपका शिष्य होऊंगा और तब आप जो कहेंगे वह मुझे करना होगा। मुझे आपकी आज्ञा का पालन करना होगा। लेकिन अभी मैं आपका बड़ा भाई हूं अभी मैं आपको आज्ञा दे सकता हूं और आपको उसका पालन करना होगा। अभी आप गुरु नहीं हैं और मैं शिष्य नहीं हूं। एक बार मैं दीक्षित हो जाऊंगा तो आप मेरे गुरु होंगे और मैं आपका शिष्य, तब मैं कुछ नहीं कह सकूंगा। इसलिए शिष्य बनने के पहले मेरी तीन शर्तें हैं जिन्हें आप स्वीकार कर लें और तब दीक्षा दें।
शर्तें बहुत बड़ी नहीं थीं, लेकिन शर्त शर्त है। और शर्त के साथ तुम्हारा समर्पण समग्र नहीं होता है। शर्तें तो बहुत छोटी थीं और बहुत प्रेमपूर्ण थीं। उसने कहा कि पहली शर्त यह है कि मैं सदा आपके साथ रहूंगा, आप मुझे कहीं और जाने को नहीं कह सकेंगे। जब तक जीऊंगा, मैं आपकी छाया बनकर रहूंगा; आप मुझे अपने पास से हटा नहीं सकेंगे। अभी ही वचन दे दें, क्योंकि बाद में जब मैं आपका शिष्य हो जाऊंगा तो आप जो भी कहेंगे वह मुझे करना होगा। आनंद ने कहा कि अभी बड़े भाई के नाते मैं यह वचन ले रहा हूं कि मैं सदा आपके साथ रहूंगा; आप मुझे अपने से दूर नहीं कर सकेंगे। मैं आपकी छाया बनकर रहूंगा; उसी कमरे में सोऊंगा जहां आप सोएंगे।
दूसरी शर्त कि मैं जिस आदमी को भी आपसे मिलाने लाऊंगा, आप उससे जरूर मिलेंगे; न मिलने के जो भी कारण हों, आपको उस आदमी से मिलना होगा। अगर मैं किसी आदमी को आपके दर्शन के लिए लाऊंगा तो उसे दर्शन देना होगा। और तीसरी शर्त कि मैं जिस व्यक्ति को दीक्षा देने के लिए आपसे कहूंगा, आप उसे इनकार नहीं करेंगे। ये तीन वचन मुझे दे दें और तब मुझे दीक्षित करें। इसके बाद मैं कोई मांग नहीं करूंगा, क्योंकि तब मैं आपका शिष्य हो जाऊंगा।
महासंघ के द्वार पर बैठकर रोते हुए, अपनी पुरानी स्मृतियों के पन्ने उलटते हुए जब आनंद को यह स्मरण आया तो उसे अचानक बोध हुआ कि मेरी दीक्षा तो हुई नहीं; क्योंकि मैं ग्राहक नहीं था। बुद्ध ने उसकी शर्तों को मान लिया था, और उन्होंने जीवनभर उनका पालन किया। लेकिन आनंद चूक गया। जो निकटतम था, वही चूक गया।
और इस बोध के साथ ही आनंद बुद्धत्व को उपलब्ध हो गया। जो बात बुद्ध के जीते जी न हुई, वह उनके जाने के बाद हो गई। आनंद ने समर्पण किया। और यदि समर्पण हो तो गैर—मौजूद गुरु भी तुम्हारी सहायता कर सकता है। यदि समर्पण न हो तो जीवित गुरु भी कुछ नहीं कर सकता। तो दीक्षा में, किसी भी दीक्षा में, समर्पण अनिवार्य है।
तंत्र - सूत्र, भाग - 3, प्रवचन - 28
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