Chori Ka Dhandha Chhod Nahi Shakata


चोरी का धंधा छोड़ नहीं सकता ।क्या मेरे लिए ध्यान नहीं है? : ओशो
मैं चोरी का धंधा छोड़ नहीं सकता। क्या मेरे लिए ध्यान नहीं है?

प्रश्न : आपने जार्ज गुरूजिएफ को उद्धृत करते हुए कहा कि तादात्‍म्‍य ही एक मात्र पाप है। लेकिन यहां अनेक विधियों में तादात्‍म्‍य का उपयोग किया गया है। उदाहरण के लिए, कहा गया है कि अपनी प्रेमिका के साथ एक हो जाओ, गुलाब के फूल के साथ एक हो जाओ, कि गुरु के साथ एक अनुभव करो। और फिर समानुभूति को ध्‍यानपूर्ण और आध्‍यात्‍मिक गुण माना जाता है। इसलिए गुरूजिएफ का यह कथन अंशत: ही सही हो सकता है,और वह भी थोड़ी सी विधियों के प्रसंग में ही।

नहीं, यह अंशत: नहीं समग्रत: सही है। लेकिन इसे समझने की जरूरत है। तादत्‍म्य अचेतन प्रक्रिया है। लेकिन जब तुम किसी ध्यान—विधि में तादात्म का उपयोग करते हो तो वह चेतन प्रक्रिया है।

उदाहरण के लिए, तुम्हारा नाम राम है। किसी ने राम को गाली दी तो तुम तुरंत अपमानित अनुभव करते हो, क्योंकि राम नाम के साथ तुम्हारा तादात्म है। लेकिन यह तादात्म चेतन नहीं, अचेतन है। तुम्हारा मन इस तरह कभी नहीं विचार करता है कि लोग मुझे राम कहते हैं, लेकिन मैं राम नहीं हूं; यह सिर्फ नाम है मेरा, वैसे हर कोई अनाम पैदा होता है; नाम दिया हुआ है, कामचलाऊ है; वह आदमी मेरे कामचलाऊ नाम को गाली दे रहा है; इसलिए विचारणीय है कि मैं क्रोध करूं या नहीं। तुम इस तरह कभी तर्क—वितर्क नहीं करते हो। और अगर करो तो तुम्हें कभी क्रोध नहीं होगा। लेकिन होता यह है कि राम को गाली दी जाती है और तुम अपमानित अनुभव करते हो, यद्यपि यह नाम कामचलाऊ और सांयोगिक है। यह तादात्म अचेतन है, चेतन नहीं।

लेकिन जब तुम गुलाब के साथ तादत्‍म्य कर रहे हो तो यह चेतन प्रयत्न है। गुलाब के साथ तुम्हारा पहले से कोई तादात्म नहीं है। तुम गुलाब के साथ तादात्म्य बनाने की चेष्टा करते हो और तुम अपने को भूलने की चेष्टा करते हो। तुम गुलाब के साथ एक होने के प्रयत्न में हो और तुम्हें इसका गहरा बोध है, पूरी प्रक्रिया के प्रति तुम जागरूक हो। यह तुम कर रहे हो। और यदि तादात्म भी सचेतन किया जाए तो वह ध्यान बन जाता है।
और यह भी स्मरण रहे कि अगर किसी ध्यान की विधि को बेहोशी में प्रयोग करो तो वह ध्यान नहीं है। तुम हर सुबह या हर रात प्रार्थना करते हो। यह बिलकुल अचेतन है,तुम्हारी दिनचर्या का हिस्सा है। यह यांत्रिक है। प्रार्थना करते हुए तुम्हें होश नहीं है कि तुम क्या कर रहे हो। प्रार्थना के जो शब्द कहते हो उनके प्रति भी तुम सजग नहीं हो। तुम तोते की तरह उन्हें दोहरा भर रहे हो। यह ध्यान नहीं है।

और अगर तुम स्नान भी होशपूर्वक करते हो तो वह ध्यान है। इस बात को खयाल में रख लो कि जो भी तुम सचेतन, सावधानी से और बोधपूर्वक करते हो वह ध्यान बन जाता है। अगर पूरे होश में बोधपूर्वक तुम किसी की हत्या भी कर दो तो वह ध्यान है।

इसीलिए कृष्ण अर्जुन को कह सके कि डरो मत, मारो—यह जानते हुए मारो कि न कोई मारता है और न कोई मरता है। अर्जुन आसानी से अपने शत्रुओं को बेहोशी में मार सकता है, वह क्रोध से पागल होकर हत्या कर सकता है। यह आसान है। लेकिन कृष्ण कहते हैं कि जागरूक रहो, पूरे होश में रहो और परमात्मा के निमित्त बन जाओ, और यह भी जानो कि कोई न मरता है न मारा जाता है। आत्मा अमर है, शाश्वत है। कृष्ण अर्जुन को कहते हैं कि सिर्फ शरीर मरता है, इसलिए शरीर को मारो।
और अगर अर्जुन इतना ध्यानपूर्ण हो सकता है, इतना जागरूक हो सकता है तो उसमें कोई हिंसा नहीं है। फिर न कोई मरता है और न कोई पाप होता है।

मैं तुम्हें नागार्जुन के जीवन से एक प्रसंग बताता हूं। भारत ने जो महान गुरु पैदा किए हैं, नागार्जुन उनमें से एक थे। वे बुद्ध, महावीर और कृष्ण की क्षमता रखते थे। और नागार्जुन एक दुर्लभ प्रतिभा थी। सच तो यह है कि बौद्धिक तल पर सारी दुनिया में वे अतुलनीय हैं। ऐसी तीक्ष्ण और प्रगाढ़ प्रतिभा कभी —कभी घटित होती है।

नागर्जुन एक नगर से गुजर रहे थे। वह राजधानी है। और नागार्जुन सदा नग्न रहते थे। उस राज्य की रानी को नागार्जुन के प्रति बहुत प्रेम था, बहुत श्रद्धा थी, बहुत भक्ति थी। नागार्जुन भोजन मांगने राजमहल आए। उनके हाथ में लकड़ी का भिक्षापात्र था। रानी ने उनसे कहा कि आप कृपा कर मुझे यह भिक्षापात्र दे दें। मैं इसे आपकी भेंट समझूंगी और इसकी जगह मैंने आपके लिए दूसरा भिक्षापात्र निर्मित कराया है।

नागार्जुन ने भेंट स्वीकार कर ली। दूसरा भिक्षापात्रसोने का बना था और उसमें बहुमूल्य रत्न जड़े हुए थे। वह बहुत कीमती था। लेकिन नागार्जुन ने कुछ नहीं कहा। सामान्यत: कोई संन्यासी उसे नहीं लेता, वह कहता कि मैं सोना नहीं छूता हूं। लेकिन नागार्जुन ने उसे ले लिया। अगर सच में सोना मिट्टी है तो भेद क्या करना? नागार्जुन ने उसे ले लिया।

रानी को यह बात अच्छी नहीं लगी। उसने सोचा कि इतने बड़े संत हैं, उन्हें इनकार करना चाहिए था। स्वयं नग्न रहते हैं, पास में कुछ संग्रह नहीं रखते, फिर उन्होंने इतना कीमती भिक्षापात्र कैसे स्वीकार किया! और अगर नागार्जुन इनकार करते तो रानी उन पर लेने के लिए जोर डालती और तब उसे अच्छा लगता। लेकिन नागार्जुन उसे लेकर चले गए।
एक चोर ने नगर से उन्हें गुजरते हुए देखा। उसने सोचा कि यह आदमी ऐसा बहुमूल्य भिक्षापात्र अपने पास नहीं रख सकेगा, कोई न कोई जरूर इसकी चोरी कर लेगा। एक नंगा आदमी कैसे उसकी रक्षा कर सकता है? और वह चोर नागार्जुन के पीछे हो लिया।

नागार्जुन नगर के बाहर एक मठ में रहते थे और अकेले रहते थे। वह मठ जीर्ण—शीर्ण था। नागार्जुन उसके भीतर गए। उन्होंने अपने पीछे आते हुए इस आदमी की पदचाप सुनी। वे समझ गए कि वह किस लिए पीछे—पीछे आ रहा है, वह मेरे लिए नहीं इस भिक्षापात्र के लिए आ रहा है। अन्यथा इस जरा—जीर्ण मठ में कौन आता! नागार्जुन मठ के अंदर गए और चोर बाहर दीवार के पीछे खड़ा हो गया।

यह देखकर कि चोर बाहर ताक में खड़ा है, नागार्जुन ने भिक्षापात्र को दरवाजे से बाहर फेंक दिया। चोर तो चकित रह गया, उसको कुछ समझ में नहीं आया। यह कैसा आदमी है! नंगा है, इसके पास इतना कीमती पात्र है और यह उसे बाहर फेंक देता है!
तो चोर ने नागार्जुन से कहा कि क्या मैं अंदर आ सकता हूं क्योंकि मुझे एक प्रश्न पूछना है। नागार्जुन ने कहा कि मैंने पात्र को इसीलिए बाहर फेंक दिया कि तुम अंदर आ सको। मैं अभी अपनी दोपहर की नींद लेने जा रहा हूं। तुमभिक्षापात्र लेने अंदर आते, लेकिन मुझसे तुम्हारी मुलाकात नहीं होती। तुम अंदर आ जाओ।

चोर अंदर गया। उसने पूछा कि ऐसी बहुमूल्य वस्तु को आपने फेंक कैसे दिया? मैं चोर हूं। लेकिन आप ऐसे संत हैं कि आपसे मैं झूठ नहीं बोल सकता। मैं चोर हूं। नागार्जुन ने कहा कि चिंता मत करो, हर कोई चोर है। तुम अपनी बात निस्संकोच कहो। फिजूल की बातों में वक्त मत खराब करो।

चोर ने कहा कि कभी—कभी आप जैसे व्यक्ति को देखकर मेरे मन में भी कामना उठती कि काश, इस स्थिति को मैं भी उपलब्ध होता! लेकिन चोर हूं और यह स्थिति मेरे लिए असंभव है। लेकिन मेरी आशा और प्रार्थना रहेगी कि किसी दिन मैं भी ऐसी कीमती चीज फेंक सकूं। बड़ी कृपा होगी यदि आप मुझे उपदेश करें। मैं अनेक संतों के पास गया हूं। वे मुझे जानते हैं, क्योंकि मैं एक नामी चोर हूं। वे सब यही कहते हैं कि तुम पहले अपने धंधे को छोड़ो, तभी तुम्हें ध्‍यान में गति मिल सकती है। लेकिन यह मेरे लिए असाध्‍य मालूत होता है। मैं चोरी का धंधा छोड़ नहीं सकता। क्या मेरे लिए ध्यान नहीं है?

नागार्जुन ने उत्तर में कहा कि अगर कोई कहता है कि पहले चोरी छोड़ो और तब ध्यान करो, तो उसे ध्यान के बारे में कुछ भी पता नहीं है। ध्यान और चोरी के बीच संबंध क्या है?कोई संबंध नहीं है। तुम जो भी करते हो किए जाओ। और मैं तुम्हें विधि देता हूं तुम उसका प्रयोग करो। तो चोर ने कहा कि ऐसा लगता है कि आपके साथ मेरा तालमेल बैठ सकता है। क्या सच ही मैं अपना धंधा जारी रख सकता हूं? कृपया जल्दी अपनी विधि बताएं।

नागार्जुन ने कहा, तुम सिर्फ होश रखो, बोध बढ़ाओ। जब चोरी करने जाओ तो उसके प्रति भी सजग रहो, होशपूर्ण रहो। जब सेंध लगाओ तब जानते रहो कि मैं सेंध लगा रहा हूं पूरे होश में रहो। जब खजाने से कुछ निकालो तब भी जागरूक रहो, होश के साथ निकालो। तुम क्या करते हो इससे मुझे लेना—देना नहीं है, लेकिन जो भी करो बोधपूर्वक करो। और पंद्रह दिन बाद मेरे पास आना। लेकिन यदि इस विधि का अभ्यास न कर सको तो मत आना। पंद्रह दिन निरंतर अभ्यास करो। जो भी जी में आए करो, लेकिन पूरे सजग होकर करो।

चोर तीसरे ही दिन वापिस आया और उसने नागार्जुन से कहा, पंद्रह दिन का समय बहुत है, मैं आज ही आ गया। आप बड़े चालाक आदमी मालूम होते हैं। आपने ऐसी विधि बताई कि मेरा धंधा चलना मुश्किल है। पूरा होश रखकर मैं चोरी नहीं कर सकता हूं। पिछली तीन रातों से मैं राजमहल जा रहा हूं। मैं खजाने तक गया, उसे खोल भी लिया। मेरे सामने बहुमूल्य हीरे—जवाहरात थे, लेकिन मैं तभी पूरी तरह सजग हो गया। और सजग होते ही मैं बुद्ध की मूर्ति की तरह हो गया,मैं कुछ भी नहीं कर सका। मेरे हाथों ने हिलने से इनकार कर दिया और सारा खजाना व्यर्थ मालूम पड़ने लगा। तीन रातों से मैं लौट—लौटकर राजमहल जाता हूं। समझ में नहीं आता कि मैं क्या करूं! आपने तो कहा था कि इस विधि में धंधा छोड़ने की शर्त नहीं है, लेकिन ऐसा लगता है कि विधि में ही कोई छिपी प्रक्रिया है।

नागार्जुन ने कहा, दुबारा मेरे पास मत आना। अब चुनाव तुम्हें करना है। अगर चोरी जारी रखना चाहते हो तो ध्यान को भूल जाओ। और अगर ध्यान चाहते हो तो चोरी को भूल जाओ। चुनाव तुम्हें करना है।

चोर ने कहा, आपने तो मुझे बड़े धर्मसंकट में डाल दिया। इन तीन दिनों में मैंने जाना कि मेरे भी आत्मा है, और जब मैं राजमहल में कुछ चोरी किए बिना वापिस आया तो पहली दफा मुझे लगा कि मैं सम्राट हूं चोर नहीं। ये तीन दिन इतने आनंदपूर्ण रहे हैं कि मैं अब ध्यान नहीं छोड़ सकता। आपने मेरे साथ चालाकी की। अब आप मुझे दीक्षा दें और अपना शिष्य बना लें। और अधिक प्रयोग की जरूरत नहीं है,तीन दिन काफी हैं।

कुछ भी विषय हो, यदि तुम सजग रहो तो सब कुछ ध्यान बन जाता है। तादात्म्य को जागरूक होकर प्रयोग में लाओ, तब वह ध्यान बन जाएगा। बेहोशी में किया गया तादात्म्य पाप है।  

तुम सब अनेक चीजों से तादात्म्य किए बैठे हो। यह मेरा है, वह मेरा है—यह तादात्म्य है। यह मेरा देश है, यह मेरा राष्ट्रीय झंडा है—ऐसा भाव तादात्म्य है। अगर किसी ने तुम्‍हारे राष्‍ट्रीय झंड़े को फेंक दिया तो तुम्‍हें क्रोध से भभक उठते हो। लेकिन वह कर क्‍या रहा है? तुम्हारा कोई राष्ट्र नहीं है और सभी राष्ट्रीय झंडे कल्पित हैं, झूठे हैं। बच्चों की तरह उनके साथ खेलना अच्छा है, वे खिलौने ही हैं। लेकिन तुम उनके लिए मरने—मारने पर उतारू हो। एक राष्ट्रीय झंडे के अपमान के लिए देश बनते हैं और नष्ट किए जाते हैं। और यह सब केवल एक कपड़े के टुकड़े के लिए! यह क्या है?
यह सब तुम्हारा तादात्म है। यह तादात्म्य मूर्च्छा में है। और मूर्च्छा पाप।
ओशो 
विज्ञान भैरव तंत्र 
तंत्र - सूत्र, भाग 1,प्रवचन - 16

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