विज्ञान भैरव तंत्र
गुरू - कृपा भी एक विधि है -
गुरु—कृपा तब मिलती है जब तुम समर्पण करते हो। और समर्पण एक विधि है।
अंतिम प्रश्न :
विज्ञान भैरव तंत्र की अनेक ध्यान— विधियों के संबंध में सुनकर मैं यह महसूस करने लगा हूं कि आंतरिक द्वार असल में विधियों से नहीं खुलता है; असल में तो वह दीक्षा, गुरु— कृपा जैसी चीजों पर निर्भर करता है। क्या यह सही की नही है? और कब कोई दीक्षा का पात्र बनता है?
सच तो यह है कि गुरु—कृपा भी एक विधि है। सिर्फ शब्दों को बदलने से कुछ नहीं
बदलता है गुरु—कृपा का अर्थ है समर्पण। गुरु—कृपा तब मिलती है जब तुम समर्पण करते हो। और समर्पण एक विधि है। अगर तुम समर्पण करना नहीं आता कृपा नहीं प्राप्त होगी।
असल में कृपा दी नहीं जाती, ली जाती है। कोई उसे दे नहीं सकता; लेकिन उसे लिया जा सकता है। बुद्धपुरुष से कृपा बहती है। कृपा उसका स्वभाव है। जैसे दीया जलता है तो उससे प्रकाश झरता है, वैसे ही बुद्धपुरुष से कृपा झरती है। उसे प्रयत्न नहीं करना पड़ता है; कृपा उससे अनायास बहती है। वह है। अगर उसे पा सको तो पा लो। और अगर नहीं पा सको तो बात खतम।
यह बात विरोधाभासी मालूम पड़ती है, लेकिन यह सच है। गुरु—कृपा देता नहीं है, लेकिन शिष्य उसे पा लेता है। लेकिन शिष्य कैसे हुआ जाए? यह भी फिर एक विधि है। समर्पण कैसे किया जाए? ग्राहक कैसे हुआ जाए?
समर्पण करना सर्वाधिक कठिन है। जब तुम अपना क्रोध समर्पित नहीं कर सकते, दुख समर्पित नहीं कर सकते, तो अपने अस्तित्व को कैसे समर्पित करोगे? जब व्यर्थ की चीजें नहीं समर्पित कर सकते, जब रोग जैसी चीज नहीं दे सकते, तो अपने को कैसे समर्पित करोगे?
समर्पण का अर्थ है समग्र समर्पण। तुम अपने को समग्रत: अपने गुरु के हाथ में छोड़ देते हो। तुम कहते हो: 'अब मैं नहीं हूं अब आप ही हैं; आप जो चाहें करें।’ और यह कहकर जब तुम प्रतीक्षा करते हो, जब तुम फिर उसके पास यह पूछने को नहीं जाते कि अब आप क्या करेंगे, तब तुमने सच में समर्पण किया। तुम तो समाप्त हो गए; अब पूछने को कुछ भी नहीं रहा। जब ठीक क्षण आएगा तो बात हो जाएगी। लेकिन यह कैसे हो?
इसके लिए भी बहुत सजगता की जरूरत पड़ेगी। सामान्यत: कई लोग सोचते हैं कि समर्पण बहुत आसान है। ऐसा सोचना मूढ़ता है। वे सोचते हैं कि तुम गए और गुरु के पैर छू आए और समर्पण हो गया।
समर्पण में पैर छूना हो सकता है, लेकिन सिर्फ पैर छू लेने से समर्पण हो गया ऐसा मत सोचना। समर्पण एक आंतरिक भाव—दशा है। इसमें अपने को मिटाना है, अपने को पूरी तरह पोंछ देना है। केवल गुरु होता है, तुम नहीं होते। बस गुरु होता है।
इसके लिए भी बहुत होश की जरूरत है, बड़ी सजगता की। और यह सजगता क्या है? वह सजगता तब आती है जब तुम विधियों का प्रयोग करते हो और सतत यह अनुभव करते हो कि मैं असहाय हूं। लेकिन प्रयोग करने के पहले ही अपने असहाय होने का निर्णय मत लो। वह गलत निर्णय होगा। पहले विधियों का प्रयोग करो, और प्रामाणिकता से प्रयोग करो। यदि विधियों से ही काम चल गया तो समर्पण की जरूरत नहीं होगी; तब तुम रूपांतरित हो जाओगे।
अगर तुम प्रामाणिक रूप से प्रयोग करते हो, सच में और समग्रत:, अगर तुम अपने को धोखा नहीं देते हो और इसके बावजूद कुछ नहीं होता है, तब तुम्हें असहाय होने का अनुभव होगा, तब तुम अनुभव करोगे कि मैं कुछ भी नहीं कर सकता हूं। अगर यह भाव गहरा चला जाए, असहायता का यह भाव, तभी तुम समर्पण के योग्य होगे। उसके पहले नहीं।
क्या तुम असहाय अनुभव करते हो? कोई असहाय नहीं अनुभव करता है। कोई नहीं समझता है कि मैं असहाय हूं। हरेक आदमी मानता है कि मैं यह कर सकता हूं यदि मैं चाहूं तो कर सकता हूं। हरेक आदमी सोचता है कि क्योंकि मैं नहीं चाहता हूं इसलिए नहीं करता हूं यदि चाहूं तो जरूर कर लूंगा, जिस क्षण चाहूंगा उसी क्षण कर लूंगा। न करने का इतना ही कारण है कि मैं अभी नहीं करना चाहता हूं। लेकिन कोई व्यक्ति असहाय नहीं अनुभव करता हे।
लेकिन अगर कोई कहे कि गुरु—कृपा से घटना घट सकती है तो तुम सोचोगे कि मैं इसी क्षण उसके लिए तैयार हूं। जब कुछ करने का सवाल उठता है तो तुम कहते हो कि जब मैं चाहूंगा तब कर लूंगा। और जब कृपा से मिलने का सवाल उठता है तब तुम कहते हो कि अगर दूसरे की कृपा से मिलता हो तो मैं इसी क्षण लेने को तैयार हूं।
तुम असहाय नहीं हो; तुम महज आलसी हो। और दोनों बातों में बहुत फर्क है। आलस्य में कृपा नहीं मिलती है; केवल असहायावस्था में मिलती है। असहायावस्था आलस्य नहीं है। असहायावस्था केवल उन्हें प्राप्त होती है जो पहुंचने के लिए सब प्रयत्न पहले कर चुकते हैं, सब प्रयास कर चुकते हैं। तब तुम असहाय अनुभव करते हो। और तभी तुम किसी के प्रति समर्पित हो सकते हो। और तब तुम्हारा समर्पण एक विधि बन जाएगा।
समर्पण अंतिम विधि है; लेकिन लोग उसका प्रयोग पहले करते हैं। यह अंतिम है, आत्यंतिक है। जब करने से कुछ नहीं होता है, जब असहायावस्था के अतिरिक्त कुछ भी नहीं दिखाई पड़ता है, जब तुम्हारी सारी आशा मिट जाती है और तुम्हारा अहंकार धूल— धूसरित हो जाता है, तब तुम जानते हो कि मुझसे अकेले कुछ नहीं होगा। तब तुम्हारे हाथ गुरु के चरणों की ओर बढ़ते हैं। यह बढ़ना और ढंग का है। तब तुम असहाय होकर, बेसहारा होकर गुरु को खोजते हो। तब तुम पूरे प्राणों से गुरु के चरणों में बैठते हो। तब तुम कृपा पाने के लिए गर्भ बन जाते हो। तब प्रसाद उपलब्ध होता है।
प्रसाद तो सदा उपलब्ध रहा है; वह सदा उपलब्ध है। सभी युग में, सभी काल में बुद्धपुरुष हुए हैं, होते रहे हैं। लेकिन जब तक तुम अपने को खोने को राजी नहीं होगे तब तक उनके संपर्क में न आ सकोगे। हो सकता है, तुम उनके ठीक पीछे या बगल में बैठे होओ, लेकिन संपर्क नहीं होगा।
दूरियां तीन किस्म की होती हैं। एक तो स्थान की दूरी है। तुम वहा बैठे हो और मैं यहां बैठा हूं और इन दो बिंदुओं के बीच दूरी है। यह स्थान की दूरी है। तुम नजदीक सरक आओ तो दूरी कम हो जाएगी। और यदि तुम मुझे छू लो तो दूरी समाप्त हो गई—लेकिन केवल स्थान की दूरी समाप्त हुई।
दूसरी दूरी समय की दूरी है। तुम्हारा प्रेमी मर गया है,तुम्हारा मित्र चल बसा है। स्थान में एक बिंदु पूरी तरह लापता हो गया है। लेकिन तुम अनुभव करोगे कि समय में तुम मित्र के निकट ही हो। आंखें बंद करो और मित्र को पास पाओगे। और हो सकता है कि कोई व्यक्ति तुम्हारे बिलकुल बगल में बैठा हो और वह समय में तुमसे, तुम्हारे दिवंगत प्रेमी से दूर पड़ता हो।
तीसरी दूरी है, वह प्रेम की दूरी है। प्रेमी मर गया है; धीरे— धीरे उससे भी समय की दूरी पैदा हो जाएगी। लोग कहते हैं कि समय सब भुला देता है। लोग कहते हैं कि समय से सब घाव भर जाते हैं। जब समय की भी दूरी लंबी हो जाती है तो स्मृति धुंधली होती—होती मिट जाती है। लेकिन प्रेम की दूरी समय के भी पार है। वह तीसरा आयाम है। अगर तुम किसी को प्रेम करते हो और वह अन्य किसी ग्रह पर रहता है तो भी प्रेम में वह तुम्हारे पास ही होगा। हो सकता है, वह मर गया हो और तुम दोनों के बीच सदियों की दूरी पैदा हो गई हो; लेकिन प्रेम में कोई दूरी नहीं है।
तो बुद्ध के पास कोई अभी हो सकता है। पच्चीस सौ वर्षों का कोई अर्थ नहीं है; क्योंकि दूरी प्रेम की है। स्थान में बुद्ध नहीं हैं; शरीर जा चुका। समय में पच्चीस सौ वर्षों की दूरी है। लेकिन प्रेम में कोई दूरी नहीं है। अगर कोई बुद्ध के प्रेम में है तो समय और स्थान की दूरियां मिट जाएंगी। तब बुद्ध यहां और अभी हैं। और तुम्हें उनका प्रसाद मिल सकता है।
और तुम बुद्ध के बगल में ही बैठे हो सकते हो। जहां तक स्थान का संबंध है, कोई अंतराल नहीं है। समय में भी कोई अंतराल नहीं है। लेकिन अगर प्रेम नहीं है तो दूरी अनंत है। इसलिए हो सकता है कि कोई बुद्ध के समय में उनके साथ रहकर भी उनके संपर्क में न रहा हो, और कोई यहां और अभी उनके संपर्क में हो सकता है।
प्रसाद प्रेम के आयाम में घटता है। प्रेम में सब कुछ सदा शाश्वत रूप से मौजूद है। इसलिए यदि तुम प्रेम में हो तो प्रसाद घट सकता है। लेकिन प्रेम समर्पण है। प्रेम का अर्थ है कि दूसरा तुम से ज्यादा महत्वपूर्ण हो गया। अब तुम दूसरे के जीवन के लिए अपना जीवन दे सकते हो। दूसरा जीए इसके लिए तुम अपने को निछावर कर सकते हो। दूसरा तुम्हारा केंद्र बन गया है। तुम महज परिधि हो। धीरे— धीरे तुम पूरी तरह विलीन हो जाते हो, और दूसरा ही रहता है। उस सम्यक क्षण में प्रसाद उपलब्ध होता है।
तो यह मत सोचो कि कोई गुरु तुम्हें प्रसाद दे सकता है। बस एक असहाय शिष्य बनने की सोचो, जो प्रेम में पूरी तरह समर्पित हो। गुरु तुम्हारे पास आएगा। जब शिष्य तैयार है तो गुरु सदा आता है। यह शारीरिक उपस्थिति का सवाल नहीं है। जब तुम तैयार हो तो प्रेम के किसी अशांत आयाम से प्रसाद उतरता है।
लेकिन प्रसाद को पलायन के रूप में मत सोचो। चूंकि मैं अनेक विधियों पर बोलता हूं इसलिए दो संभावनाएं हैं। तुम उनमें से कुछ पर प्रयोग कर सकते हो, या तुम उलझन में पड़ सकते हो, भ्रांत हो सकते हो। दूसरी बात ज्यादा संभव है। एक के बाद एक, सतत एक सौ बारह विधियों को सुनते —सुनते तुम उलझन में पड़ जाओगे। तुम सोचोगे कि यह मेरे बस की बात नहीं है। इतनी सारी विधियां—क्या करूं क्या न करूं!
तब तुम्हारे मन में यह विचार आ सकता है कि विधियों के जंगल में भटकने की बजाय गुरु—कृपा पाना ज्यादा बेहतर है। तुम सोच सकते हो कि विधियां जटिल हैं और गुरु—कृपा सरल है। लेकिन ऐसा सोचने से ही गुरु—कृपा नहीं मिलती है। इन विधियों को प्रयोग में लाओ। और ईमानदारी से प्रयोग करो। यदि तुम असफल हुए तो वही असफलता तुम्हारा समर्पण बन जाएगी।
समर्पण आत्यंतिक विधि है।
ओशो
तंत्र - सूत्र 3 भाग - 2,प्रवचन - 18
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