Man ko Aekagra Kaise Kare..?

चित्त को एकाग्र कैसे करें? -ओशो

चित्त को एकाग्र कैसे करें? श्वास - प्रश्वास को कैसे देखें और आप देखने को क्यों कहते हैं? तथा आप ध्यान को अक्रिया क्यों कहते हैं?

प्र:
विचार— शून्यता के लिए क्या हम चित्त को एकाग्र करें?
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मैं चित्त को एकाग्र, कनसनट्रेट करने के लिए नहीं कह रहा हूं। वह एक तरह की जबरदस्ती और तनाव, टेंशन है। किसी विचार, किसी रूप, किसी प्रतिमा, किसी शब्द पर यदि एकाग्रता की जाए, तो उसके परिणाम में विचार—शून्यता तो नहीं, चैतन्य का जागरण तो नहीं, वरन मूर्च्छा और आत्म—सम्मोहन की एक जड़ अवस्था उत्पन्न होती है।

एकाग्रता के हठाग्रह से बेहोशी आ जाती है। इस बेहोशी को समाधि समझना भूल है। समाधि का अर्थ जड़ता या मूर्च्छा नहीं है। समाधि का अर्थ है परिपूर्ण चैतन्य का अनुभव।

समाधि है: विचार—शून्यता, थॉटलेसनेस +पूर्ण चैतन्य, कांशसनेस।

प्रश्न:
ध्यान में श्वास—प्रश्वास को हम किस भांति देखें?

रीढ़ को सीधी रखें। रीढ़ झुकी हुई न हो। रीढ़ की सीधी स्थिति में शरीर सहज साम्यावस्था में होता है। पृथ्वी का गुरुत्वाकर्षण, ग्रेविटेशन उस पर सम प्रभाव डालता है और उसके भार से मुक्त होने में आसानी होती है। गुरुत्वाकर्षण का भार कम से कम हो तो शरीर शून्य होने में बाधा नहीं देता है।

रीढ़ को सीधी रखें पर शरीर पर कोई तनाव याअकड़ाव नहीं। शरीर सहज शिथिल हो, जैसे किसी खूंटी पर कोई वस्त्र टंगा हो, ऐसा ही वह भी रीढ़ परटंगा हो। शरीर को ढीला छोड़ दें। फिर गहरी और धीमी श्वास लें। श्वास का आना नाभि—केंद्र को ऊपर नीचेआंदोलिन करेगा। उस आंदोलन को देखते रहें। उस पर एकाग्रता नहीं करनी है। उसे केवल देखते रहना है। उसका मात्र साक्षी होना है। स्मरण रखें, मैं एकाग्रता को नहीं कह रहा हूं। मैं केवल होश, वॉचफुलनेस, सजगता के लिए कह रहा हूं।
श्वास भी ऐसे लें, जैसे छोटे बच्चे लेते हैं। उनका वक्षस्थल तो नहीं कंपता, पर पेट कंपता है। यही विधि नैसर्गिक श्वास—प्रश्वास की है। इसके परिणाम में शांति अपने आप सघन होती जाती है। चित्त—अशांति और तनावों के कारण हम श्वास पूरी लेना धीरे— धीरे भूल ही जाते हैं। युवा होते—होते कृत्रिम श्वास—प्रश्वास हमें पकड़ लेता है। यह तो आपने अनुभव किया ही होगा कि आपका मन जितना अशांत होता है, उतनी ही श्वास—प्रक्रिया अपनी सहजता और गतिबद्धता को खो देती है।

श्वास को नैसर्गिक रूप से लें— लयबद्ध और सहज। उसके संगीत से चित्त—अशांति विलीन होने में सहायता मिलती है।

प्रश्न :
आप श्वास—प्रश्वास के दर्शन को क्यों कहते हैं?

इसलिए कहता हूं कि श्वास—प्रश्वास, प्राण ही शरीर और आत्मा के बीच सेतु है। उसी माध्यम से आत्मा शरीर में है। उसके प्रति जागने से, श्वास—प्रश्वास के प्रत्यक्ष से धीरे— धीरे यह अनुभव होगा कि मैं शरीर नहीं हूं— शरीर में हूं पर शरीर ही नहीं हूं। वह मेरा आवास है, मेरा आधार नहीं। श्वास—प्रश्वास का प्रत्यक्ष जैसे— जैसे गहराएगा, वैसे—वैसे ही उसकी निकटता अनुभव होगी जो कि देह नहीं है। एक क्षण स्पष्ट दर्शन होगा—शरीर का और स्वयं की पृथकता का। तब तीन पर्तें व्यक्तित्व की जात होंगी— शरीर की,प्राण की व आत्मा की। शरीर आवरण है, प्राण जोड़ है,आत्मा आधार है।

साधना में प्राण सर्वाधिक महत्वपूर्ण है,क्योंकि वह मध्य—बिंदु है। उसके इस पार शरीर है,उस पार आत्मा है। शरीर पर तो हम हैं ही। आत्मा में होना है। पर उसके पूर्व प्राण पर होना जरूरी है। इसी में संक्रमण हो सकता है।

प्राण पर जाग्रत होकर दोनों ओर देखा जा सकता है। रास्ता वहां पहुंच कर दोनों ओर का स्पष्ट हो जाता है। एक ही मार्ग है, पर दोनों दिशाएं स्पष्ट हो जाती हैं। फिर प्राण के पीछे जाना सुगम हो जाता है। मैं समझता हूं कि आप समझें होंगे कि मैं श्वास—प्रश्वास पर जोर क्यों देता हूं?
प्रश्न:
आप ध्यान को अक्रिया क्यों कहते हैं? क्या वह भी एक क्रिया ही नहीं है?

देखें। यह मैं मुट्ठी बांधे हुए हूं। बांधने में मुझे कुछ करना पड़ रहा है। बांधना क्रिया है। लेकिन, यदि मैं मुट्ठी खोलना चाहूं तो मुझे क्या करना होगा? खोलने के लिए मुझे कुछ भी नहीं करना होगा। केवल, बांधने के लिए जो प्रयास कर रहा हूं वह न करूं तो मुट्ठी अपने आप खुल जाएगी। वह अपनी स्वरूप स्थिति में पहुंच जाएगी। इसलिए मैं मुट्ठी खोलने को क्रिया नहीं कहूंगा। वह अक्रिया है या कि चाहे तो कहें कि नकारात्मक क्रिया, निगेटिव एक्‍शन है पर उससे भेद नहीं पड़ता है। वह एक ही बात है।

शब्दों से मुझे आग्रह नहीं है। मेरी बात— मेरा भाव भर समझ लें। ध्यान को अक्रिया कहने का मेरा अर्थ है कि उसे आप काम न समझें—उसे व्यस्तता न समझें। वह अव्यस्तता है। वह सहजता है और आपको उसे कोई मानसिक तनाव नहीं बनाना है। वह भी एक मानसिक तनाव हो, वह भी एक क्रिया हो तो वह शांति में और स्वभाव में नहीं ले जाती है। तनाव तो स्वयं अशांति है। और शांति में जाने के लिए प्रथम ही शांत होना आवश्यक है। शांति यदि प्रथम चरण में नहीं है,तो वह अंत में भी नहीं होगी। अंतिम प्रथम का ही विकास है।

मैं लोगों को मंदिर जाते देखता हूं मैं उनको पूजा—आराधना करते देखता हूं मैं उन्हें ध्यान में बैठे देखता हूं— पर यह सब उनके लिए क्रिया है— एक तनाव है— एक अशांति है, और फिर वे इस अशांति में शांति के फूल लगने की आशा करते हैं, तो भूल में हैं।

शांति चाहते हैं, शांत होना चाहते हैं।

तो इसी क्षण शांति से प्रारंभ करना आवश्यक है।
ओशो
साधना पथ, प्रवचन - 3

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