Anubhav Karo Main Hoon

अनुभव करो-मैं हूं ।

शिव ने कहाः हे कमल नयनी, मधुर स्पर्शी! गाते हुए, देखते हुए, स्वाद लेते हुए यह बोध बनाए रहो कि मैं हूं, और शाश्वत जीवन को खोज लो...
Osho

यह विधि कहती है कि कुछ भी करते हुए-गाते हुए, देखते हुए, स्वाद लेते हुए-सजग रहो कि 'तुम हो' और शाश्वत जीवन का आविष्कार कर लोः और अपने भीतर ही प्रवाह को, उर्जा को, शाश्वत जीवन को आविष्कृत कर लो। लेकिन हमें अपना ही बोध नहीं है। 
पश्चिम में गुरजिएफ ने आत्म-स्मरण का प्रयोग एक बुनियादी विधि के रूप में किया। वह आत्म-स्मरण इसी सूत्र से निकलता है। और गुरजिएफ की पूरी व्यवस्था इसी एक सूत्र पर आधारित हैः 'तुम कुछ भी करते हुए अपने को स्मरण रखो।' यह बहुत कठिन है। यह सरल मालूम होता है लेकिन तुम भूलते रहोगे। तीन या चार सैंकेड के लिए भी तुम अपना स्मरण नहीं रख सकते। तुम्हें लगेगा कि तुम स्मरण कर रहे हो और अचानक तुम किसी अन्य विचार में गति कर चुकोगे। अगर यह विचार भी उठा कि "ठीक, मैं तो अपना स्मरण कर रहा हूं," तो तुम चूक गए, क्योंकि यह विचार आत्म-स्मरण नहीं है।

आत्म-स्मरण में कोई विचार नहीं होगा; तुम बिल्कुल रिक्त होओगे। और आत्म-स्मरण कोई मानसिक प्रक्रिया नहीं है। ऐसा नहीं कि तुम कहो, "हां, मैं हूं"। "हां, मैं हूं" कहने से तुम चूक गए। "मैं हूं" कहने से तुम चूक गए। "मैं हूं" यह एक बौद्धिक बात हो गई, एक मानसिक हो गई।
यह अनुभव करो कि "मैं हूं"। "मैं हूं" इन शब्दों को नहीं अनुभव करना है। उसे श्शब्द मत दो। बस अनुभव करो कि तुम हो। सोचो मत। अनुभव करो! प्रयोग करो। यह कठिन है, लेकिन तुम कृतसंकल्प होकर इस पर लगे ही रहो तो यह घटित होता है। टहलते हुए, स्मरण रखो कि तुम हो, और अपने होने को ही महसूस करो, किसी विचार या प्रत्यय को नहीं। बस अनुभव करो। मैं तुम्हारे हाथ को छुऊं, या अपना हाथ तुम्हारे सिर पर रखूः उसे शब्द मत दो। बस स्पर्श को अनुभव करो, और उस अनुभव करने में स्पर्श को ही नहीं, उसको भी अनुभव करो जिसे स्पर्श किया गया है। फिर तुम्हारी चेतना के दो फलक हो जाएंगे।

तुम वृक्षों के नीचे टहल रहे होः वृक्ष हैं, हवा है, सूरज उग रहा है। यह तुम्हारे चारों ओर का संसार है; तुम उसके प्रति सजग हो। एक क्षण को खड़े रहो, और फिर अचानक स्मरण करो कि 'तुम हो' लेकिन उसको शब्द मत दो। बस अनुभव करो कि तुम हो। यह निशब्द अनुभूति, एक क्षण के लिए ही सही, तुम्हें एक झलक दे जाएगी-एक झलक जो कोई एल एस डी तुम्हें नहीं दे सकती, एक झलक जो वास्तविक की है। एक क्षण के लिए तुम अपनी अंतस-सत्ता के केंद्र पर फेंक दिए जाते हो। तब तुम दर्पण के पीछे हो, तुम प्रतिबिंबो के जगत के पार चले गए; तुम अस्तित्वगत हो गये। और यह तुम किसी भी समय कर सकते हो। इसके लिए किसी विशेष स्थान और विशेष समय की जरूरत नहीं है। और तुम यह नहीं कह सकते कि, "मेरे पास समय नहीं है।" इसे तुम खाते समय कर सकते हो, नहाते समय कर सकते हो, चलते हुए या बैठे हुए कर सकते हो-किसी भी समय। इससे कोई फर्क नहीं पड़ता कि तुम क्या कर रहे हो, तुम अचानक अपना स्मरण कर सकते हो, और फिर अपनी अंतस-सत्ता की उस झलक को जारी रखने की चेष्टा करो।
यह कठिन होगा। एक क्षण को तुम्हें लगेगा कि स्मरण आया और अगले ही क्षण तुम भटक जाओगे। कोई विचार प्रवेश कर जाएगा, कोई प्रतिबिंब तुम पर झलक जाएगा, और तुम प्रतिबिंब में उलझ जाओगे। लेकिन न दुखी होओ और न ही हताश होओ। ऐसा इसलिए होता है क्योंकि जन्मों से हम प्रतिबिंबों में उलझ रहे हैं। यह एक यंत्रवत प्रक्रिया बन गई है। तत्क्षण, स्वतः ही हम प्रतिबिंबों की ओर वापस लौटा दिये जाते हैं। लेकिन एक क्षण को भी तुम्हें झलक मिल जाए, तो शुरु करने के लिए पर्याप्त है। और वह पर्याप्त क्यों है? क्योंकि तुम्हें कभी भी दो क्षण एक साथ नहीं मिलेंगे। तुम्हारे साथ तो हमेशा केवल एक क्षण ही होता है। और यदि तुम्हें एक क्षण के लिए भी झलक मिल सके, तो तुम उसमें रह सकते हो। केवल प्रयास ही आवश्यकता है। एक सत्त प्रयास की आवश्यकता है।

-ओशो
ध्यान योगः प्रथम और अंतिम मुक्ति से संकलित

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