Bhagwan Shrikrushna

भगवान श्री कृष्ण 
कृष्ण का सारा-का-सारा आधार उपासना का है और उपासना का सारा आधार स्मरण का है। लेकिन भूल गए उपासक स्मरण को। उसकी जगह उन्होंने सुमिरन शुरु कर दिया। स्मरण को भूल गए, अब वह सुमिरन कर रहे हैं। बैठे हैं और राम-राम जप रहे हैं। राम-राम जपने से याद न आएगा कि मैं राम हूँ। स्मरण शब्द धीरे-धीरे सुमिरन बन गया। स्मृति शब्द धीरे-धीरे सुरति बन गया। और उस शब्द के दूसरे ही ‘कनोटेशन’ और दूसरे ही अर्थ हो गए। एक आदमी बैठकर अगर यह भी दोहराता रहे कि मैं परमात्मा हूँ, मैं परमात्मा हूँ, तो भी कोई हल न होगा। यह दोहराने से हल न होगा। इसके दोहराने से ‘रिपिटीशन’ से कोई वास्ता नहीं है। इससे भ्रम भी पैदा हो सकता है कि वह आदमी नीचे तो उतर ही न पाए और चेतन मन में ही समझने लगे कि मैं परमात्मा हूँ और भीतर के तलों का उसे कोई बोध ही न हो।
Osho

इसलिए स्मरण की क्या होगी प्रक्रिया ? क्या होगा मार्ग ? क्या होगा द्वार ? मेरे देखे अगर आप शांत और शून्य सिर्फ़ बैठ जाएँ, कुछ न करें-आपका कुछ भी करना बाधा बनेगा। असल में करने से हम वह पा सकते हैं, जो हम नहीं है। करने से वह मिल सकता है। जो हमारे पास नहीं है। इसलिए स्मरण का बहुत गहरा अर्थ तो ‘टोटल इनएक्टिविटी’ है, अकर्म है। इसलिए कृष्ण बहुत ज़ोर देते हैं अकर्म पर। वह निरंतर कहे जाते हैं, अकर्म। गहरे में अकर्म, ‘नो एक्टिविटी’। जैसा मैंने आपसे कहा कि छोटी-सी चीज़ भी भूल जाते हैं, तो जब तक आप ‘एक्टिवली’ उसको याद करने की कोशिश करते हैं, नहीं कर पाते हैं। 
लेकिन जब आप उस हिस्से को छोड़ देते हैं और उस हिस्से में ‘इनएक्टिव’ हो जाते हैं, अकर्म में हो जाते हैं, तब वह स्मरण आ जाता है। अगर हम ‘टोटल इनएक्टिविटी’ में हो जाएँ तो वह जो ‘कॉज़्मिक अनकांशॅस’ में है, वह जो ब्रह्माण्ड-अचेतन में पड़ा है, वह एक़दम तीर की तरह उठता है। जैसे बीज फूटता है अंकुर उठकर हमारे चेतन मन के प्रकाश तक आ जाता है, और हम जानते हैं कि हम कौन हैं। अकर्म है सूत्र। साधना में सदा क्रिया है मार्ग। उपासना में सदा अक्रिया है द्वार, अकर्म है मार्ग।

कृष्ण के इस अकर्म को थोड़ा ठीक से समझ लेना अच्छा होगा। क्योंकि मैं मानता हूँ कि इसे ठीक से नहीं समझा जा सका। इसे समझना बहुत मुश्किल था। क्योंकि जिन लोगों ने कृष्ण पर टीकाएँ लिखी हैं और जिन लोगों ने कृष्ण की व्याख्या की है, उनकी किसी भी पकड़ में अकर्म नहीं बैठ सका। या तो अकर्म का मतलब उन्होंने समझा कि संसार छोड़कर भाग जाओ; लेकिन छोड़कर भागना एक कर्म है। छोड़ना एक कर्म है, एक कृत्य है। अकर्म का निरंतर यही मतलब समझा गया है कि तुम कुछ भी मत करो। दुकान मत करो, काम मत करो, गृहस्थी मत करो, प्रेम मत करो, भाग जाओ सब छोड़कर। 
सिर्फ़ भागना करो। सिर्फ़ त्यागना करो। लेकिन त्याग उतना ही कर्म है, जितना भोग कर्म है। तो कृष्ण को नहीं समझा जा सका। अकर्म का मतलब छोड़ना, भागना, त्यागना हो गया। हिंदुस्तान की लंबी परम्परा त्याग की रही है, छोड़ रही है, भाग रही है। और कोई गौर से नहीं देखता कि कृष्ण बिल्कुल भागे हुए नहीं हैं। कभी-कभी हैरानी होती है कि एक लंबी परंपरा भी अंधी हो सकती है। कोई यह नहीं देख रहा है कि जो आदमी अकर्म की बात कर रहा है, वह गहन कर्म में खड़ा हुआ है। इसलिए भागना उसका अर्थ हो नहीं सकता।

कृष्ण तीन शब्दों का प्रयोग करते हैं-अकर्म, कर्म और विकर्म। कर्म वे उसे कहते हैं, सिर्फ़ करने को ही कर्म नहीं कहते। अगर करने को ही कर्म कहें, तब तो अकर्म में कोई जा ही नहीं सकता। फिर तो अकर्म हो ही नहीं सकता। करने को कृष्ण ऐसा कर्म करते हैं जिसमें कर्ता का भाव है। जिसमें करने वाले को यह ख़याल है कि मैं कर रहा हूँ। मैं कर्ता हूँ। ‘इगोसेंट्रिक’ कर्म को वे कर्म कहते हैं। ऐसे कर्म को, जिसमें कर्त्ता मौजूद है। जिसमें कर्त्ता यह ख़याल करके ही कर रहा है कि करनेवाला मैं हूँ, जब तक मैं करनेवाला हूँ तब तक हम जो भी करेंगे, वह कर्म है। अगर मैं संन्यास ले रहा हूँ, तो संन्यास एक कर्म हो गया। अगर मैं त्याग कर रहा हूँ, तो त्याग एक कर्म हो गया।
अकर्म का मतलब ठीक उलटा है। अकर्म का मतलब है ऐसा कर्म जिसमें कर्ता नहीं है। अकर्म का अर्थ, ऐसा कर्म, जिसमें कर्त्ता नहीं है।  जिसमें मैं कर रहा हूँ, ऐसा कोई बिंदु नहीं है। ऐसा कोई केंद्र नहीं है, जहाँ से यह भाव उठता है कि मैं कर रहा हूँ। अगर मैं कर रहा हूँ, यह खो जाए, तो सभी कर्म अकर्म है। कर्त्ता खो जाए तो सभी कर्म अकर्म है। इसलिए कृष्ण का कोई कर्म कर्म नहीं है, सभी कर्म अकर्म हैं।
कर्म और अकर्म के बीच में विकर्म की जगह है। विकर्म का अर्थ है, विशेष कर्म। अकर्म तो कर्म ही नहीं है, कर्म कर्म है, विकर्म का अर्थ है, विशेष कर्म। इस शब्द को भी ठीक से समझ लेना चाहिए, दोनों के बीच में खड़ा है।
विशेष कर्म किसे कहते हैं कृष्ण ? जहाँ न कर्त्ता है और न कर्म है। फिर भी चीज़ें तो होंगी। आदमी श्वास तो लेगा ही। न कर्म है, न कर्त्ता है। श्वास तो लेगा ही। श्वास कर्म तो है ही। खून तो गति करेगा ही शरीर में। भोजन तो पचेगा ही। यह कहाँ पड़ेंगे ? यह विकर्म है। यह मध्य में हैं। यहाँ न कर्त्ता, न कर्म है। साधारण मनुष्य कर्म में है, संन्यासी अकर्म में है, परमात्मा विकर्म में है। वहाँ न कोई कर्त्ता है, न कोई कर्म है। वहाँ चीज़ें ऐसी ही हो रही हैं, जैसे श्वास चलती है। वहाँ चीज़ें बस हो रही हैं। ‘जस्ट हैपनिंग।’
आदमी के जीवन में भी ऐसा थोड़ा-कुछ है। वह सब विकर्म है। लेकिन वह परमात्मा के द्वारा ही किया जा रहा है। आप श्वास ले रहे हैं ? आप श्वास लेते होंगे, फिर कभी मर न सकेंगे। मौत खड़ी हो जाएगी और आप श्वास लिए चले जाएँगे ! या जरा श्वास को रोककर देखें तो पता चलेगा कि नहीं रुकती है। होकर रहेगी। जरा श्वास को बाहर ठहरा दें तो पता चलेगा नहीं मानती है, भीतर जाकर रहेगी। न हम कर रहे हैं, न हम कर्त्ता हैं, श्वास के मामले में। जीवन की बहुत क्रियाएँ ऐसी ही हैं। अकर्म में वह आदमी प्रवेश कर जाता है, जो विकर्म के इस रहस्य को समझ लेता है। फिर वह कहता है, फिर नाहक मैं क्यों कर्त्ता बनूँ ! जब जीवन का सभी महत्वपूर्ण हो रहा है, तो मैं क्यों बोझ लूँ ? वह बड़ा होशियार आदमी है, वह ‘वाइज़ मैन’ है।
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- ओशो

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