जीवन वैसा ही दिखाई पड़ता है जो हमारे भीतर है। लोग मुझसे आकर पूछते हैं, ईश्वर है? ईश्वर कहां है? मैं उनसे कहता हूं,ईश्वर नहीं है, ईश्वर नहीं हो सकता, क्योंकि तुम्हारे भीतर आनंद का भाव नहीं है। वह तो आनंद के भाव में देखी गयी सत्ता है। यही जीवन, यह पौधे, यही पशु, यही पक्षी, यही मनुष्य, यही सब कुछ जिस दिन आनंद के भाव से देखा जाता है तो परमात्मा हो जाता है। संसार और परमात्मा दो नहीं हैं, एक ही अस्तित्व को दो ढंग से देख जाने पर--दुख के ढंग से देखे जाने पर संसार है, आनंद के ढंग से देखे जाने पर परमात्मा है।
तो जिन लोगों ने हमें यह सिखा दिया है जीवन दुख है, बुरा है, असार है, छोड़ो भागो, जीवन से हटो, जीवन की सारी धाराएं तोड़ दो, सब खंडित कर दो, जीवन के सेतु अपने बीच सब तोड़ दो, सेतु दो। जिन लोगों ने यह सिखाया वे लोग सोचते रहे होगे कि मनुष्य जाति को परमात्मा की ओर ले रहे हैं, लेकिन वे ही लोग मनुष्य जाति को परमात्मा से वंचित करने का कारण बन गए हैं। उन्होंने किस भांति सिद्ध कर दिया है कि जीवन दुख है?किसी भी चीज को व्यर्थ सिद्ध करने का सीक्रेट है, एक राज है, एक रास्ता है। और एक ही रास्ता है किसी भी चीज को व्यर्थ सिद्ध कर देन का। और जिस आदमी को वह तरकीब हाथ में आ जाए वह किसी भी चीज को व्यर्थ सिद्ध कर सकता है। वह तरकीब है: विश्लेषण, वह तरकीब है एनेलिसिस।
मैं एक गांव में गया। एक बहुत सुंदर जल प्रपात था वहां। पहाड़ से एक बहुत खूबसूरत नदी गिरती है। चांदनी रात में जिन मित्र के घर मैं मेहमान था, वे अपनी कार में मुझे लेकर उस पहाड़ी पर गए। रास्ता। थोड़ी दूर ही पहले खत्म हो जाता; फिर थोड़ी दूर पैदल जाना पड़ता था। पूर्णिमा की रात थी और उस नदी का पहाड़ से गिरना और उसका गर्जन दूर तक सुनायी पड़ता था। हवाएं ठंडी हो गई थी और उस चांदनी रात में वह नदी एक अदभुत आकर्षण तरह हमें खींच लिए जाती थी। हम गाड़ी से नीचे उतरे। गाड़ी को जो ड्राइवर साथ लाया था वह गाड़ी के भीतर ही बैठा रहा। मैंने अपने मित्र को कहा, आप अपने ड्राइवर को भी बुला लें। मैंने उस ड्राइवर को आवाज दी कि दोस्त तुम भी आ जाओ। उसने कहा, क्या खाक रखा है वहां? कुछ पत्थर पड़े हैं, और पानी गिरता है, और वहां कुछ भी नहीं है। और वह ड्राइवर कहने लगा, मैं तो हमेशा हैरान होता हूं कि लोग क्या देखने आते हैं। वहां कुछ भी नहीं है साहब, थोड़े से पत्थर पड़े हैं और पानी गिरता है।
यह ड्राइवर धर्म गुरु हो सकता था। उसने जल प्रपात को पूर्णिमा की रात को सौंदर्य को तोड़कर एनालिसिस करके दो टुकड़ों मग रख दिया कि वहां पत्थर पड़े हैं और कुछ पानी गिरता है। वहां कुछ भी नहीं है। एक कवि देखता है फूल में न मालूम किस सौंदर्य की प्रतिमा को। एक कवि देखता है फूल में न मालूम किस अनुभूति को, न मालूम कौन से द्वार खुल जाते हैं, न मालूम किस अज्ञात लोक में वह प्रविष्ट हो जाता है। और जाकर पूछें किसी वनस्पति शास्त्री को, वह कहेगा, क्या रखा है उस फूल में?कुछ थोड़े से केमिकल्स, कुछ थोड़े से रसायन, कुछ थोड़ा-सा खनिज। और कुछ भी नहीं हैं उस फूल में क्यों पागल हुए जाते हो?किसकी कविता लिखते हो एक छोटे से केमिस्ट्री के फार्मूले में सब जाहिर हो जाता कि फूल में क्या है। फूल में कुछ भी नहीं है। उसने एनासिलिस कर दी, उसने तोड़कर बता दिया कि फूल में इतने-इतने रसायन हैं, इतना-इतना खनिज है, इतनी-इतनी चीजें गीली हैं, और फूल में कुछ भी नहीं है।
मैं किसी को प्रेम करूं और पहुंच जाऊं किसी शरीरशास्त्री के पास। वह कहेगा, क्या रखा है इस शरीर में? इसमें कुछ भी नहीं है,कुछ हड्डियां हैं, कुछ मांस है कुछ मज्जा है, कुछ खून है, और कुछ भी नहीं है पहुंच जाऊं किसी रासायनिक के पास तो वह कहेगा, एक आदमी के शरीर में मुश्किल से चार रुपए बाहर आने का सामान होता है, इससे ज्यादा का नहीं। कुछ लोहा होता है,कुछ केल्शियम होता है, कुछ फलां होता है, कुछ ढिकां होता है। अगर बाजार में खरीदने जाएं तो चार-चार रुपए में सब मिल जाता है। क्या परेशान हो रहे हैं इसको प्रेम करने के लिए? शरीर में कुछ भी नहीं है। यह चार-पांच रुपए का सामान है, बाजार से खरीद लें, एक पेटी में रख लें। खूब प्रेम करें। वह बात बिलकुल ठीक कह रहा है। उसने आदमी के शरीर का विश्लेषण करके बता दिया कि इतना लोहा है, इतना फलां है, इतना यह है। इसमें ज्यादा कुछ है नहीं। क्यों परेशान हुए जाते हैं? इसमें प्रेम करने की बात कहां है। उसने एनालिसिस कर दी, उसने चीजों को तोड़ कर रख दिया।
एक बड़ी प्यारी कविता है उसे सुनते हैं तो प्राणों के तार झनझना जाते हैं। उसे सुनते हैं तो प्राणों की वीणा बज उठती है। लेकिन पहुंच जाएं किसी व्याकरण जानने वाले के पास, किसी ग्रेमेरियन के पास। वह कहेगा क्या रखा है इसमें! कुछ शब्दों का जोड़ है। एक-एक शब्द तोड़कर रख देगा। मार्क टर्वेन एक अपने मित्र उपदेशक का भाषण सुनने गया था। वह उपदेशक बहुत अदभुत था। उसकी वाणी में कुछ जादू था, कोई बात थी। सुनने वालों के प्राण किसी दूसरे स्तर पर उठ जाते थे। एक डेढ़ घंटे तक मार्क टर्वेन उसे सुनता रहा। लोग मंत्र-मुग्ध थे, फिर मार्क टर्वेन बाहर निकला। उसके मित्र उपदेश ने पूछा कि कैसा लगा? मैंने जो कहा, वह कैसा लगा? मार्क टर्वेन ने कहा कुछ भी नहीं। सब गड़बड़ था और सब उधार था। एक किताब मेरे पास है, उसमें यह सब लिखा हुआ है जो सब तुमने बोले। एक-एक शब्द लिखा हुआ है उसमें। बड़े बेईमान आदमी मालूम होते हो, इसमें तुमने कुछ भी नहीं बोला। मेरे पास एक किताब है, उसमें सब लिखा है। वह बहुत हैरान हो गया। उसने कहा, कौन-सी किताब, जिसमें यह लिखा हुआ है एक-एक शब्द? मैं तुमसे शर्त बदलता हूं क्योंकि मैं तो आज तक कोई किताब पढ़ी नहीं। मैंने जो कहा है, वह मैंने कहा है। मार्क टर्वेन ने उससे एक-एक हजार रुपए की शर्त बद ली। वह उपदेशक बहुत हैरान था कि यह कैसे हो सकता है। दूसरे दिन मार्क टर्वेन ने एक डिक्शनरी उसके पास भेज दी कि इसमें सब शब्द लिखे हुए हैं। जो भी तुम बोले इसमें सब लिखा हुआ है। एक-एक शब्द लिखा हुआ है। पढ़ लो और एक हजार रुपए मुझे भेज दो।
उसने विश्लेषण कर दिया। मार्के टर्वेन ठीक कहता है। डिक्शनरी में लिखा हुआ है। सभी शब्द लिए हुए हैं। जो भी दुनिया में कोई बोल सकता है, सब लिखे हुए हैं। लेकिन बोलना शब्दों का जोड़ नहीं है और न आदमी हड्डियों और मांस मज्जा का जोड़ है न फूल रसायन और खनिज का जोड़ है और न कविता व्याकरण के नियमों का जोड़ है। जिंदगी चीजों का जोड़ नहीं है, जोड़ से कुछ ज्यादा है और वह ज्यादा उसको दिखाई पड़ता है जो चीजों को तोड़ना नहीं जोड़ता है। उस ज्यादा को देख लेना ही धार्मिक मनुष्य का अनुभव है।
[15/09 08:12] +91 97640 68937: तीर्थंकर और पैगंबर और महापुरुष, अगर आप उन्हें गुरु बना लेते हैं तो नुकसान हो जाता है अगर वे सब आपके भीतर सोयी हुई प्यास को जगाने वाले स्रोत होजाएं तो बहुत अदभुत बात है। अगर उनको देखकर आपको आत्मग्लानि पैदा हो जाए...।
लेकिन हम बड़े होशियार लोग हैं। अगर महावीर यहां आपके बीच आ जाए या बुद्ध या जीसस क्राइस्ट, तो होना यह चाहिए कि उनको देखकर आपके भीतर आत्मग्लानि पैदा हो जाए। यह खयाल आ जाए कि मैं भी एक आदमी हूं और यह भी एक आदमी है। यह किस आनंद को, किस आलोक को उपलब्ध हो गया है मैं किस अंधेरे में भटक रहा हूं। नहीं, लेकिन आपको आत्मग्लानि बिलकुल न आएगी। आपको गुरुपूजा पैदा होगी। अदभुत अवतार आगया, चलो इसकी पूजा करें। आत्मग्लानि तो पैदा नहीं होगी,दूसरे को पूजा शुरू करेंगे। यह तो खयाल पैदा नहीं होगा कि मैं कैसा मनुष्य हूं कि मैं भटक रहा हूं अंधेरे में! एक दूसरा मनुष्य प्रकाश को उपलब्ध हो गया है। आपको यह खयाल होगा कि मैं तो मनुष्य हूं, यह आदमी मनुष्य से ऊपर है, महामानव है, सुपर मैन है, तीर्थंकर है अवतार है। यह मनुष्य नहीं है, यह दूर का है, यह भगवान का पुत्र है, यह भगवान का भेजा हुआ संदेशवाहक है, इसके पैर पड़ो, इसकी पूजा करो। आत्मग्लानि से बचने का उपाय है पूजा। जो लोग किसी की पूजा करते हैं वे बहुत बेईमान हैं, सेल्फ डिसेप्सन में पड़े हुए है। वे अपने को धोखा दे रहे हैं। वे होशियार हैं बहुत, बनिंग है, बहुत चालाक हैं। वे यह कोशिश कर रहे हैं, आत्मग्लानि से बचने की तरकीब है पूजा दूसरे की पूजा करने लगो, खुद की ग्लानि मिट जाती है। भूल ही जाती हैं कि हम भी कहीं हैं। दूसरे की महानता की चर्चा शुरू हो जाती है और खुद की क्षुद्रता भूल जाती है। होना उल्टा चाहिए था कि खुद की क्षुद्रता दिखायी पड़नी चाहिए थी। खुद की क्षुद्रता दिखायी पड़ती तो एक दूसरी दिशा में आपकी गति होती। और दूसरे की महानता दिखायी पड़ेगी सिर्फ और पूजा होगी तो आपकी दिशा दूसरी होगी।
धर्म पूजा बन गया, साधना नहीं बन सका। इसीलिए साधना पैदा होती है--आत्मचिंतन और आत्मचिार से। और तथाकथित उपासना के धर्म पैदा होते हैं पूजा और वर्शिप से। तो अब तक हमने दुनिया में जो भी ज्योतियां प्रकट हुई उन ज्योतियों के आसपास घुटने टेककर आखें बंद कर ली और जयजयकार करने लगे, बिना इस बात की फिकर किए कि ज्योति जिनमें प्रकट हुई थी, वे ठीक हमारे जैसे मनुष्य हैं। कोई ईश्वर का पुत्र नहीं है, कोई अवतार नहीं है, कोई तीर्थंकर नहीं है, सभी हमारे जैसे मनुष्य हैं। लेकिन अगर हम यह समझ लें कि वे हमारे जैसे मनुष्य हैं तो हमको बड़ी कठिाई हो जाएगी, बड़ी पीड़ा हो जाएगी। फिर हमारे सवाल होगा कि हम क्यों पीछे पड़े हैं? हम क्यों अंधेरे में भटक रहे हैं? फिर हमको भी ऊपर उठना चाहिए। इससे बचनेके लिए हमने कहा कि वह मनुष्य की नहीं है। हम तो मनुष्य हैं, वे महामानव हैं। वे जो कर सकतेहैं, हम कैसे कर सकते हैं?हमारा बीज ही अलग है, उनकी बीज ही अलग है। वह अद्वितीय है, वह भिन्न ही है। तोहमने उस सबके चारों तरफ अद्वितीयता की महिमा को मंडित कर दिया। उनके शब्दों के आसपास सर्वज्ञता जोड़ दी कि वे बातें जो हैं, सर्वज्ञों की कहीं हुई हैं, कभी भूल भरी नहीं हो सकती हैं। हमने उनके आसपास प्रामाणिक जोड़ दी। आप्तता जोड़ दी। और इस आप्तता को जोड़कर हमने बचनों को शास्त्र बना दिया और जाग्रत पुरुषों को हमने अपौरुषेय बना दिया। उनको हमने महामहिमा बना दिया और परमात्मा के अवतार बना दिया। हमारे और उनके बीच हमने एक दूरी पैदा कर ली। दूरी के कारण हम निश्चित हो गए ,हमारी आत्मग्लानि समाप्त हो गयी। मनुष्य जाति इस कारण भटकी है और आज भी हमारे इरादे यही हैं कि हम इन्हीं बातों को जारी रखें और आगे भी भटकने की ही तैयारी कर रहे हैं।
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