Vichar Kaise Chhode...?


*"विचार कैसे छोड़ें?"*

*एक मित्र ने पूछा है कि विचार छोड़ दे, कैसे छोड़े दे? और विचार छूटेगा कैसे? सुबह आपने कहा कि विचार छोड़ दो और निर्विचार हो जाओ; लेकिन विचार कैसे छोड़ दें?*

इसे थोड़ा समझना उपयोगी है। मैं यह मुट्ठी बांधे हुए हूं और आपसे आकर मैं पूछूं कि यह मुट्ठी मुझे खोलनी है, कैसे खोलूं? तो आप क्या कहेंगे? आप कहेंगे--बांधो मत--मुट्ठी खुल जाएगी। बांधो मत, खोलने के लिए कुछ भी नहीं करना पड़ता है। बांधने के लिए कुछ करना पड़ता है। बांधने के लिए मुझे श्रम करना पड़ रहा है। अगर मैं न बांधूं तो मुट्ठी खुल जाएगी। खुला होना मुट्ठी का स्वभाव है। इसमें दो बातें समझ लेना जरूरी है। एक, विचार हम कर रहे हैं, पकड़े हुए हैं इसलिए चल रहा है। तो मत पूछें कि हम विचार को कैसे छोड़े? यह पूछें कि हम विचार को कैसे पकड़े हुए हैं। और पकड़ने की तरकीब खयाल में आ जाए तो छूटना अपने आप हो जाएगा। हम पकड़े कैसे हुए हैं? पकड़ने की तरकीब है। तादात्म्य--आइडेंटिटी। हम प्रत्येक विचार के साथ अपना तादात्म्य कर लेते हैं। क्रोध आया और आप कहते हैं मुझे क्रोध आ गया। आप फैसला कर पाते कि मैं अलग हूं और क्रोध अलग है। एक विचार भीतर चल रहा है और आप उस विचार के साथ एक हो जाते हैं, और लगता है, यही मैं हूं। कभी आपने खयाल किया, आप सादा पृथक हैं। आपके विचार अलग चल रहे हैं। आकाश में एक नीला बादल उड़ा चला जा रहा है। आप देख रहे हैं, आप यह कहते हैं कि मैं नीला बादल हूं? आप कहते हैं वह नीला बादल रहा--देखने वाला मैं हूं।

मन के आकाश पर एक विचार चल रहा है। आप फौरन कहते हैं, मैं यह हूं। झंझट में पड़ गए। मन के आकाश पर विचार उतनी दूरी पर चल रहा है। आपसे, जितना उस आकाश पर एक बदली का टुकड़ा चल रहा है। आप फिर भी अलग हैं। आप दूर खड़े साक्षी से ज्यादा नहीं हैं। यह हमें स्मरण करना होगा , निरंतर कि विचार से मैं पृथक हूं। अलग हूं। और कोई विचार में मैं जुड़ा हुआ नहीं हूं। लेकिन हम? हम विचर से अपने को जोड़ने की आदत के इतने आदी हो गए कि हमें खयाल हर पहीं आता। जब क्रोध आता है, तो बजाय इसके कि आप कहें कि मेरे सामने क्रोध आ गया है, आप कहते हैं, मैं क्रोधी हो गया हूं। आप गलत कहते हैं। जब आपके सामने सुख आ जाए तो बजाय यह कहने के कि मेरे सामने सुख आ गया, आप कहते हैं, मैं सुखी हो गया हूं। अगर आप सुखी हो गए हैं तो अब कभी दुखी न हो सकेंगे? लेकिन हम जानते हैं कि सुख चला जाएगा, दुख आ जाएगा।

एक कमरे में मैं सुबह बैठ जाऊं। सूरज निकले, किरणें भर जाएं, तो मैं यह नहीं कहता कि मैं प्रकाश हो गया हूं। मैं कहता हूं कमरे में प्रकाश भर गया है, मैं प्रकाश को देखता हूं। फिर सांझ आती है, अंधेरा भर जाता है। मैं कहता हूं कि मैं अंधेरा हो गया हूं? मैं कहता हूं, अब अंधेरा भर गया, अब मैं अंधेरे को देख रहा हूं। मन में विचार आते-जाते हैं। सुख-दुख आते-जाते हैं। क्रोध, प्रेम, घृणा आते-जाते हैं। भाव आते हैं, जाते हैं और वह जो बैठा हुआ है भीतर, वह हरेक के साथ कहने लगता है कि मैं हो गया हूं। तब पकड़ शुरू हो जाती है। क्लिबिंग शुरू हो जाती है। फिर मुक्त होना बहुत मुश्किल हो जाता है। इसलिए मैंने सुबह कहा--ध्यान का अर्थ है--साक्षी-भाव। मैं देखूं, जो आ रहा है।

एक सम्राट ने अपने वजीरों को कहा कि मैं तुमसे एक ऐसा सूत्र चाहता हूं जो तो काम हर स्थिति में काम दे सके। सुख आए तो काम दे, दुख आए तो काम दे। मुझे एक सूत्र इस ताबीज पर लिख दो जो हर स्थिति में काम दे। वजीर बड़ी मुश्किल में पड़ गए। क्या लिखें? ऐसा कौन सा सूत्र है जो हर जगह काम दे। फिर उन्होंने एक फकीर को पूछा। फकीर ने एक ताबीज दे दिया और उसने एक कागज की पुड़िया लिखकर रख दी। और कहा कि जब सुख-दुख आए, इसे खोलकर पढ़ लेना। राजा पर सुख आया, उसने ताबीज खोला। दुख आया, ताबीज खोला। उसमें सिर्फ एक छोटा सा वाक्य लिखा था--लिखा था--दिस टू विल पास। यह भी चला जाएगा। इतना ही लिखा था उस कागज पर, दिस टू विल पास। सुख आया, राजा ने पढ़ा, यह भी चला जाएगा। और राजा पृथक हो गया। क्योंकि चला जाएगा वह मैं नहीं हो सकता हूं। मैं तो बच रहूंगा। दुख आया और राजा ने पढ़ा, यह भी चला जाएगा, और राजा अलग हो गया। क्योंकि जो चला जाएगा वह तो मैं नहीं हूं। मुझ पर चीजें आती हैं--जाती हैं। मैं तो अलग हूं। इस पृथकता का खोजना ही साक्षी भाव है। तो यह मत पूछे कि हम विचार को कैसे रोकें। रोकने की कोई जरूरत नहीं है। विचारों को आने दें, आने दें। आप पृथक हो जाए। आप भिन्न हो जाएं। आप जान सकें कि मैं अलग हूं, तो विचार धीरे-धीरे आप विसर्जित हो जाते है। उन पर पकड़ छूट जाती है। फिर वही रह जाता है जो है, और जो अकेला है। उस अकेले में जो अनुभव होते हैं, निर्विचार के वे ध्यान के अनुभव है।

लेकिन हम क्या करते हैं--विचार से लड़ते हैं। लड़कर तो आप कभी विचार को अलग नहीं कर सकते। ध्यान रहे--लड़ना तो बुलाने का उपाय है। अगर किसी विचार से आप लड़े और आपने कहा, इससे में अलग करके रहूंगा। तब फिर आप मुश्किल में पड़ जाएंगे। फिर उस विचार से कभी आप मुक्त न हो सकेंगे। आप जितना लड़ेंगे उतना ही आएगा। क्योंकि जितना आप लड़ेंगे उतना ही आप मान रहे हैं कि मैं उससे एक हूं। नहीं तो लड़ेंगे क्यों, लड़ने की क्या जरूरत है? वह अलग है। मैं अलग हूं। वह आया है--चला जाएगा। मुझे क्या प्रयोजन है? लेकिन हम लड़ते हैं।

मैंने सुना है, तिब्बत में एक फकीर था। उसके पास एक आदमी आया। और उसने कहा, मुझे एक मंत्र दे दें। मैं कोई सिद्धि करना चाहता हूं। फकीर ने कहा। मेरे पास कोई मंत्र नहीं। लेकिन नहीं माना वह व्यक्ति पैर पकड़ लिए, हाथ जोड़ने लगा। दे ही दें। फकीर ने एक कागज पर मंत्र दे दिया और कहा, उसे पांच बार पढ़ लेना। फिर तो वह आदमी भागा। उसने लौटकर धन्यवाद भी न दिया। वह मंदिर की सीढ़ियां उतरता था, तब फकीर चिल्लाया कि ठहरो, एक बात भूल गया, एक शर्त बताना भूल गया। ध्यान रहे, बंदर का स्मरण न आए जब तुम यह मंत्र पढ़ो। अगर बंदर का स्मरण आया, मंत्र बेकार हो जाएगा। बंदर दुश्मन है इस मंत्र का। उस आदमी ने कहा, मुझे कभी बंदर का स्मरण जिंदगी हो गयी नहीं आया। इसकी फिकर मत करो। लेकिन भूल हो गयी। पूरी सीढ़ियां उतरना भी मुश्किल हो गया। बंदर का स्मरण शुरू हो गया। रास्ते पर घर की तरह चला और बंदर चारों तरफ मन में घूमने लगे। वह आंख बंद करता है और बंदरों को भगाता है। लेकिन बंदर जोर से आते है। घर पहुंचा। स्नान करता है--लेकिन बंदर तो घिरते चले जाते हैं। रात हो गई। मंत्र लेकर बैठता है--लेकिन भीतर बंदर है। वह घबड़ा गया। उसने कहा, इन बंदरों से कोई संबंध कभी नहीं रहा। आज क्या हो गया है? क्या ये बंदर पांच मिनिट के लिए भी न रुकेंगे? रात भर मुश्किल हो गयी। लेकिन पांच मिनिट के लिए बंदर से छुटकारा नहीं। सुबह तो पागल हो गया। जाकर मंत्र वापस लौटा दिया उस फकीर को। कहा--क्षमा करो--अगले जन्म में हो सकती है अब यह सिद्धि। फकीर ने कहा--क्यों, क्या बात है? उसने कहा, वह बंदर जान लिए ले रहे हैं। अब उनसे छुटकारा इस जन्म में नहीं हो सकता। और तुम्हें अगर मालूम था कि बंदर की याद आए, तो एक दिन रुक जाते। बात में बता देते। तो यह सिद्ध हो जाता मंत्र। अब यह नहीं हो सकेगी। उस फकीर ने कहा, मैं क्या कर सकता हूं, यही शर्त है। यह शर्त पूरी करनी जरूरी है।

क्या हो गया उस आदमी को, बंदर से छुटकारा नहीं होता। जिस विचार से हम लड़ते हैं, उस विचार पर हम केंद्रित हो जाते हैं। जिस विचार से हम लड़ते हैं उस विचार से हम हिप्नोटाइज्ड हो जाते हैं। जिस विचार से हम हटना चाहते हैं, सारा चित्त उसी पर केंद्रित हो जाता है। किसी को भुलाने की कोशिश करो, फिर मुश्किल हो जाएगी। वह नहीं भूलेगा। प्रेमियों से पूछो, प्रमिकाओं को भुलाने की कोशिश बहुत मुश्किल हो जाती है। जिनको नहीं भुलाना, वे भूल जाते हैं। जिनको भुलाना है, वे कभी नहीं भूलते। चित्त की आदत है। जिससे लड़ोगे, चित्त वहीं केंद्रित हो जाएगा। एक नया-नया आदमी साइकिल सीखता है। रास्ते पर एक पत्थर पड़ा है। इतना बड़ा रास्ता है, सात फीट चौड़ा, लेकिन वह पत्थरों से, दिखा, कि वह डरता है। कहीं पत्थरों से न टकरा जाऊं। अब कोई निशानेबाज भी सात फीट रास्ते पर पत्थर से टकराना चाहे तो चूकने की संभावना ज्यादा है। लेकिन ये सज्जन टकराएंगे। ये नहीं बच सकते। सात फीट रास्ता अब इनको दिखायी न पड़ेगा। अब इनको वह पत्थर ही दिखायी पड़ेगा। अब इनका चाक घूमा, इनके प्राण घबड़ाए और ये हिप्नोटाइज्ड हुए उस पत्थर से। अब इनकी साइकिल चली उस तरह। ये उससे टकराएंगे।

आदमी जिससे बचना चाहता है उसी से टकरा जाता है। आदमी जिससे भागता है उसी से घिर जाता है। पूछो ब्रह्मचारियों से--सिवाय स्त्रियों के और किसी का दर्शन नहीं होता। हो ही नहीं सकता। अगर भगवान भी प्रकट होंगे तो स्त्री की ही शक्ल में प्रकट होंगे। और किसी शक्ल में वे प्रकट नहीं हो सकते। ब्रह्मचारी का कपट है बेचारे का, वह सेक्स से लड़ रहा है इसलिए सेक्स घिर गया है। इसीलिए तो ऋषि-मुनि स्त्रियों के लिए इतनी नाराजगी जाहिर करते हैं। यह नाराजगी किसके लिए है? वह स्त्रियां उनको घेर लेती हैं, उनके लिए है। असली स्त्रियों के लिए नहीं। असली स्त्रियों से क्या मतलब है? ऋषि-मुनि कहते हैं। स्त्रियां नर्क का द्वार है। स्त्री से बचो। यह किससे बचने के लिए कह रहे हो? वह जो भीतर स्त्री उनको घेरती हैं। घेरती क्यों है? स्त्री से भागते हैं इसलिए स्त्री घेरती है। जिससे भागोगे, वह घेर लेगा। जिससे बचोगे, वह पकड़ लेगा। जिसको हटाओगे, वह आ जाएगा। जिसको कहोगे मत आओ। वह समझ जाएगा कि डर गए हो। आना जरूरी है। वह आ जाएगा। चित्त से लड़ना, चित्त के विचार से लड़ना आत्मघातक है। फिर वही उलझन हो जाएगी। इससे बचना जरूरी है। बचेंगे कैसे? बचने के लिए आवश्यक है कि विचार से लड़ो ही मत। सेक्स से मुक्त होना हो, तो सेक्स से लड़ो मत। साक्षी बनो। क्रोध से मुक्त होना हो, लड़ो मत, साक्षी बनो। जिससे मुक्त होना हो, उसे देखो और जानो कि मैं पृथक हूं--वह पृथक है। दूरी है। फासला है। दोनों के बीच अनंत फासला है। मैं अलग हूं, वह अलग है। और सचाई यही है। और जितनी यह स्पष्ट गहरी होगी कि मैं अलग हूं, उन्हें हंसी आएगी कि मैं किससे लडूं। जिससे कोई झगड़ा ही हनीं, जिससे कोई संबंध नहीं, उससे लड़ने की जरूरत क्या है? और तब जिससे लड़ना बंद हो जाता है--जैसा मैंने कहा--लड़ने से आती है कोई चीज--न लड़ने से जाने लगती है। ब्रह्मचर्य सेक्स से लड़ने से नहीं आता। सेक्स के प्रति जागने से सेक्स चला जाता है। जो शेष रह जाता है, उसका नाम ब्रह्मचर्य है। ब्रह्मचर्य सेक्स से उल्टा है। ब्रह्मचर्य सेक्स के विदा हो जाने का अभाव है। वह जो शेष रह जाता है सेक्स के चले जाने पर। लेकिन सेक्स से लड़कर कोई ब्रह्मचारी नहीं हो सकता। मुझे साधु-संन्यासी मिलते हैं। जब वे सबके सामने होते है तब वे आत्मा-परमात्मा की बात कहते हैं। फिर वह कहते हैं--अकेले में मिलना है। असली सवाल तो वही है। सबके सामने तो पूछ भी नहीं। सकते। क्योंकि सब को तो वे सांझ से सुबह तक यही बातें सिखा रहे हैं जो उनको भी नहीं हो सकती है। और होगी भी नहीं। क्योंकि विधि हो गलत है। मैथड ही गलत है। अज्ञानपूर्ण है। अमनोवैज्ञानिक है। खतरनाक है। असंगत है। उसकी कोई संगति नहीं है जीवन के परिवर्तन से और रूपांतरण से। लड़ने की संगति है, झगड़े की संगति है।

 लेकिन हमारा तथाकथित ब्रह्मचर्य इसी तरह एस्केपिस्ट है। भागने वाला है। वह कहता है। भाग जाओ। देखो मत। वह डराने वाला है। फियर है वहां। और जहां भय है--जहां भागना है--जहां पलायन है--जहां आंख बंद करना है। ध्यान रहे--जिससे आंख बंद होगी वही आंख के भीतर खड़ा हो जाता है। फिर उससे छुटकारा बहुत मुश्किल है। इसलिए मैं कहता हूं, चित्त के किसी भी विकारों से, चित्त की किसी भी विवृति से, चित्त के किसी भी विचार से, चित्त की किसी भी प्रवृत्ति से कभी मत लड़ना। भूलकर मत पड़ना। लड़े कि हारे। हारना हो तो लड़ना। जो लड़ेगा वह हारेगा। उसकी हार सुनिश्चित है। आपने चित्त से लड़कर कोई कभी जीत नहीं सकता। हां, अगर जीतना हो तो लड़ना मत। देखना--जानना--साक्षी बनना। और जैसे ही साक्षी बनोगे, पाओगे कि मैं तो बाहर हूं। मैं तो बियांड हूं। मैं तो जो दिखाई पड़ रहा है उससे अलग और दूर हूं। वह जो चारों तरफ घिरा है धुआं। वह अलग है, मैं अलग हूं। 

यह प्रत्येक के भीतर जो साक्षी है। जो चेतना है--क्रांसेसनेस है, उसे सजग करने से--जागने, साक्षी बनने से विचार विसर्जित होते हैं। वृत्तियां विसर्जित होती हैं। सन विसर्जित होता है। और धीरे-धीरे वह जगह आती है, जहां चित्त का आकाश खाली हो जाता है। और सिर्फ चेतना रह जाती है। वह साक्षी भाव के लिए सुबह मैंने कहा है। यह मत पूछे कि कैसे लड़ें, यह मत पूछें कि कैसे विचारों को निकालें--यह मत पूछें कि कैसे विचारों को बंद करें? यह पूछें ही मत। यह पूछना ही गलत है। यह पूछें कि कैसे जागे, कैसे देखें, कैसे पहचाने, कैसे साक्षी बनें?
✍ *सद्गुरु ओशो*
(प्रभु मंदिर के द्वार)
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