🙏 चलें शून्य की नाँव ॥ ⛵️
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“जैनों की दीवाली ज्यादा सार्थक”
शरीर मरेगा। तुम चाहे स्वीकार करो या न करो। तुम्हारे चित्त में यह तीर छुपा ही है, चुभा ही है कि शरीर मरेगा। आत्मा अमृत है। तुमने जानी हो, न जानी हो; उसका अमृत स्वर तुम्हारे भीतर प्रतिध्वनित हो रहा है। तुम पहचानो, न पहचानो;सुनो, न सुनो। वह स्वर वहां गूंज ही रहा है। जो अमृत है उसे भूलना आसान है। जो मरणधर्मा है उसे भूलना कठिन है। जो मरणधर्मा है उसे जल्दी भोग लो।
गणित सीधा और साफ है। आत्मा अमृत है, शाश्वत है। वह संपदा खोनेवाली नहीं है। वहां कभी कोई बीमारी प्रविष्ट नहीं होती। इन सब कारणों के कारण दीये तले अंधेरा है। बुद्ध कितना ही कहें, 'जल्दी करो' तो भी जल्दी नहीं होती। कृष्ण कितना ही समझायें, तुम समझ लेते हो फिर जा कर अपने संसार में लग जाते हो। यह बात इतने लोग समझाते हैं, फिर भी समझ में नहीं आती।
शरीर के संबंध में कोई भी नहीं समझा रहा है, फिर भी समझ में आता है कि भोग लो। यह धारा सदा न रहेगी। ये सारे कारण अगर ठीक से देख लोगे, तुम्हें समझ में आयेगा कि क्यों चेतना की धारा बाहर की तरफ बह रही है और भीतर की तरफ नहीं।
क्यों तुम बाहर की तरफ देख रहे हो और भीतर नहीं। क्यों तुम धन खोज रहे हो, पद खोज रहे हो, संसार खोज रहे हो; आत्मा, परमात्मा, मोक्ष नहीं। यह बिलकुल स्वाभाविक घटा है। यह दीया तले अंधेरा बिलकुल स्वाभाविक है। यह वैसे ही है, जैसे साधारण मिट्टी के दीये के नीचे अंधेरा होता है। ऐसे ही तुम्हारे नीचे अंधेरा है।
यह अंधेरा कब तक रहेगा? जब तक तुमने स्वयं को शरीर माना है, यह अंधेरा रहेगा। जब तक दीया है, तब तक अंधेरा रहेगा। ज्योति अकेली हो, फिर उसके नीचे कोई अंधेरा नहीं रहेगा। ज्योति सहारे से है। थोड़ी देर को सोचो, ज्योति मुक्त हो गई अकेली आकाश में, उसके चारों तरफ प्रकाश होगा। लेकिन ज्योति दीये के सहारे है। दीया तो ज्योति नहीं है। जितनी जगह दीया घेरेगा, उतनी तो अंधेरे में रहेगी। इसलिए बड़ी विरोधाभासी घटना घटती है।
दीया सबको प्रकाशित कर देता है और खुद अंधेरे में डूबा रह जाता है। तुम सब को देख लेते हो, बस खुद ही का दर्शन नहीं हो पाता। तुम सबको समझ लेते हो, बस एक ही अनसमझा रह जाता है--वह तुम स्वयं हो। तुम सबकी सहायता कर देते हो, बस एक ही असहाय रह जाता है--वह भीतर। तुम चारों तरफ संपत्ति के ढेर लगा लेते हो, बस भीतर एक खालीपन, एक निर्धनता रह जाती है।
जब तक ज्योति शरीर के सहारे है, जब तक तुमने समझा है कि मैं शरीर हूं, जब तक ज्योति को यह भ्रांति है कि वह दीया, मिट्टी का दीया है; जब तक ज्योति ने साफ-साफ नहीं पहचान लिया कि दीया मिट्टी है और मैं मिट्टी नहीं, आत्मा अग्निधर्मा है, शरीर मिट्टी है...। तुमने देखा, कि अग्नि का एक स्वभाव है वह सदा ऊपर की तरफ जाती है, ऊपर...ऊपर। तुम दीये को उल्टा भी कर दो,तो भी ज्योति ऊपर की तरफ जायेगी। तुम ज्योति को उल्टा न कर पाओगे। अग्नि का स्वभाव है ऊर्ध्वगमन।
इसलिए सारे ज्ञान को उपलब्ध व्यक्तियों ने आत्मा को अग्निधर्मा कहा है। इसलिए जरथुस्त्र को माननेवाले चौबीस घंटे दीये को जलाये रखते हैं मंदिर में। वह सिर्फ इस बात की खबर है कि अग्नि तुम्हारा स्वभाव है। इसलिए सारी दुनिया में अग्नि की पूजा पैदा हुई। हिंदू सूर्य को नमस्कार करते हैं। वह नमस्कार सिर्फ अग्नि के ऊर्ध्वगामी स्वभाव को है।
जिस दिन महावीर को निर्वाण उपलब्ध हुआ उस दिन जैन दीपावली मनाते हैं। महा-निर्वाण हुआ उस दिन वे, उनकी ज्योति दीये से मुक्त हुई, उस दिन करोड़ों-करोड़ों दीये जलाते हैं। हिंदुओं की बजाय जैनों की दीवाली ज्यादा सार्थक है। हिंदू तो लक्ष्मी की पूजा के लिये दीवाली मनाते हैं। बड़ी उल्टी है। तुम अग्नि को भी लक्ष्मी की पूजा में लगाते हो? जो ऊर्ध्वगामी है, उसको भी अधोगामी की तरफ लगाते हो? तुम दीये भी जलाते हो तो भी संसार को प्रकाशित करने के लिये।
जैनों की दीवाली ज्यादा अर्थपूर्ण है। वे इसलिए मनाते हैं दीवाली, कि उस रात महावीर महावीर महानिर्वाण को उपलब्ध हुए। अमावस की रात महावीर ने ठीक रात चुनी। बुद्ध ने पूर्णिमा की रात ज्ञान उपलब्ध किया, पर महावीर ने ज्यादा ठीक रात चुनी। अमावस की अंधेरी रात! सब तरफ अंधकार है और महावीर प्रकाश हो गये। उस अंधकार में वह प्रकाश, ठीक विरोध के कारण प्रगाढ़ होकर दिखाई पड़ा। एक दीया जलाओ, तो जब पूर्णिमा की रात हो, उसका कुछ पता भी न चलेगा। अंधेरी अमावस में एक दीया जलाओ, उसकी रोशनी बड़ी प्रगाढ़ होगी।
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