Mitti-ke-diye-katha-1


मिट्टी के दीये-(कथा-01)
                          *बोधकथा-एक*

*एक कथा मैंने सुनी थी। हजारों वर्ष पूर्व परमात्मा के मंदिरों का एक नगर सागर में डूब गया था। उस सागर में डूबे उन मंदिरों की घंटियां आज भी बजती रहती हैं। शायद पानी के धक्के उन्हें बजा देते होंगे, या यहां-वहां भागती मछलियों से टकरा कर वे बजती रहती होंगी। जो भी हो, घंटियां आज भी बजती हैं। और आज भी उनके मधुर संगीत को उस सागर के तट पर जाकर सुना जा सकता है।*
*मैं भी उस संगीत को सुनना चाहता था। मैं उस सागर की खोज में गया। बहुत वर्षों की भटकन के बाद अंततः उस सागर-तट पर पहुंच ही गया। किंतु यह क्या, वहां तो सागर का तुमुलनाद गूंज रहा था--लहरों* *के थपेडे चट्टानों से टकरा कर उस एकांत में अनंत गुना हो प्रतिध्वनित हो रहे थे। न तो वहां कोई संगीत था, न किन्हीं मंदिरों की बजती कोई घंटियां थीं। मैं तट पर कान लगा कर सुनता था, लेकिन वहां तो तट पर टूटती लहरों की ध्वनि के अतिरिक्त और कुछ भी न था।*

*फिर भी मैं रुका रहा। वस्तुतः लौटने का मार्ग ही मैं भूल गया था। अब तो वह अपरिचित निर्जन सागर-तट ही मेरी समाधि बनने को था।*
*फिर धीरे-धीरे सागर में डूबे मंदिरों की घंटियां सुनने का ख्याल भी मुझे भूल गया। मैं उस सागर के किनारे ही बस गया था।*
*फिर एक रात्रि अचानक मैंने पाया कि डूबे मंदिरों की घंटियां बज रही हैं और उनका मधुर संगीत मेरे प्राणों को आंदोलित कर रहा है।*
*मैं उस संगीत को सुनकर जाग गया और फिर तब से सो नहीं सका। अब तो भीतर कोई निरंतर ही जागा हुआ है। निद्रा सदा को ही चली गई है।*
*और जीवन आलोक से भर गया है, क्योंकि जहां निद्रा नहीं है, वहां अंधकार नहीं है।*
*और मैं आनंद में हूं...नहीं, नहीं...मैं आनंद ही हो गया हूं, क्योंकि जहां परमात्मा के मंदिर का संगीत है, वहां दुख कहां?*
*क्या तुम भी उस सागर के किनारे चलना चाहते हो? क्या तुम्हें भी परमात्मा के डूबे मंदिर का संगीत सुनना है?*
*तो चलो। स्वयं के भीतर चलो। स्वयं का हृदय ही वह सागर है और उसकी गहराइयों में ही परमात्मा के डूबे हुए मंदिरों का नगर है।*
*लेकिन उसके मंदिरों का संगीत सुनने में केवल वे ही समर्थ होते हैं, जो सब भांति शांत और शून्य हों।*
*विचार और वासना का कोलाहल जहां है, वहां उसका संगीत कैसे सुन पडेगा? उसे पाने की वासना तक भी उसे पाने में बाधा बन जाती है।*

*🍁ओशो🍁👏👏👏👏👏*

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