Osho Geeta Darshan Bhag 4

 ओशो - गीता दर्शन - भाग – 4

एक झेन फकीर हुआ लिंची। अपने गुरु के पास जब वह गया था, तो उसके गुरु ने कहा, किसलिए आया है? तो लिंची ने कहा कि मैं संन्यासी होना चाहता हूं। उसके गुरु ने कहा, होना चाहता है या अभी होने को तैयार है? उसके गुरु ने कहा, संन्यास का भविष्य से कोई भी संबंध नहीं है; संसार का भविष्य से संबंध है।

कोई आदमी कहे, एक दुकान चलाना चाहता हूं, तो भविष्य की जरूरत पड़ेगी। दुकान एक फैलाव है, समय में। कोई आदमी कहे, धन कमाना चाहता हूं, तो आज इसी क्षण नहीं कमा सकता है। धन के लिए आयोजना करनी पड़ेगी, पंचवर्षीय, पचास वर्षीय योजनाएं बनानी पड़ेंगी। प्लानिंग करनी पड़ेगी। फिर भी मिलेगा, नहीं मिलेगा, नहीं कहा जा सकता। क्योंकि धन पर मेरा वश नहीं है। और बहुतों का वश भी है। और मैं अकेला ही धन कमाने नहीं चल पड़ा हूं। यह सारी पृथ्वी धन कमाने चल पड़ी है। भारी प्रतिस्पर्धा है। सिर्फ धर्म को छोड़कर सभी चीजों में भारी प्रतिस्पर्धा है। धन कमाना हो, यश कमाना हो, पदों की सीढ़ियां चढ़नी हों, तो भविष्य के बिना कोई उपाय नहीं। टाइम विल बी नीडेड। भविष्य चाहिए, नहीं तो कुछ भी न हो सकेगा।

लेकिन यदि संन्यास लेना हो, तो भविष्य की कोई भी जरूरत नहीं है। इसी क्षण घट सकता है, क्योंकि संन्यास निपट निजी है। उसका इस जगत में किसी से कोई संबंध नहीं है। और अगर धन मैं कमाना चाहूं, तो मेरे पास जितना धन बढ़ेगा, किसी के पास कम होगा। या किसी के पास ज्यादा हो सकता था, तो मैं छीनूंगा। कहीं न कहीं, कोई न कोई वंचित होगा। लेकिन अगर मैं संन्यास लेता हूं, दुनिया में कहीं भी कोई वंचित नहीं होता। शायद मेरे संन्यास लेने से दुनिया में बहुत कुछ समृद्धि भला आ जाए, लेकिन कहीं कोई वंचित नहीं होता है। क्योंकि संन्यास कोई कमोडिटी नहीं है, कोई वस्तु नहीं है कि कम हो जाएगी। फिर संन्यास कोई संसार का हिस्सा नहीं है कि मैं उसकी योजना करूं और कल और परसों, और वर्ष और दो वर्ष, और प्रतीक्षा करूं।

संन्यास एक घटना है, जो उस काल-क्षण में घटती है, जो अभी और यहीं है।

ठीक से समझें, तो संन्यास का अर्थ है, जो समय के बाहर घटित होता है। संसार का अर्थ है, जो समय के भीतर घटित होता है। संसार का अर्थ है, विदिन दि टाइम प्रोसेस। और संन्यास का अर्थ है, जंपिंग आउट आफ दि टाइम प्रोसेस।

इसलिए जब कोई आदमी कहता है कि कल सोचकर मैं संन्यास लूंगा, तो मैं जानता हूं कि उसे पता ही नहीं कि संन्यास का अर्थ क्या है। सोचकर जो लिया जा सकता है, वह संसार होगा। क्योंकि सोचेंगे क्या? सोचने का अर्थ है, अतीत के अनुभव से पूछूंगा, स्मृति से पूछूंगा। सोचने का क्या अर्थ है। भविष्य का हिसाब लगाऊंगा कि फायदा होगा कि नुकसान होगा। सोचने का अर्थ है, अतीत और भविष्य से पूछूंगा। और तो सोचने का कोई भी अर्थ नहीं होता। लोग क्या कहेंगे, यह भविष्य है। और अतीत में मैं कैसा आदमी रहा हूं, उसके साथ तालमेल खाएगा संन्यास, नहीं खाएगा, यह अतीत है। मुर्दों से पूछ रहे हैं, अतीत से; भविष्य से पूछने का अर्थ है, अनजन्मे से पूछ रहे हैं।

लेकिन संन्यास का सोचने से कोई संबंध नहीं। धर्म का ही सोचने से कोई संबंध नहीं है। इसी क्षण उस संधि-रेखा में, जहां अतीत नहीं और भविष्य नहीं, जो घटना घट जाती है, बिना विचारे जो छलांग है, कूद जाना है अपने से बाहर, वह संन्यास है।

उसके गुरु ने कहा, तू लेना चाहता है, या तैयार है अभी? उस युवक ने, लिंची ने आंखें बंद कर लीं, सोचने लगा। उसके गुरु ने उसे हिलाया और कहा, जरा-सा विचार, और तू चूक जाएगा। जरा-सा सोचा, कि तू गया, खोया। युवक ने कहा, मुझे सोच तो लेने दें। थोड़ा-सा तो सोच लेने दें! इतनी भी जल्दी क्या है? उसके गुरु ने कहा, काश, तुझे पता होता कि मौत किसी भी क्षण घटित हो सकती है, तो तू इस तरह की बात न कहता कि इतनी भी जल्दी क्या है! और तू सोचेगा क्या? तू ही सोचेगा न! अगर तू सोच सकता होता, तो बहुत पहले कभी का संन्यासी हो चुका होता।

मुल्ला नसरुद्दीन की पत्नी उससे कह रही है एक दिन कि जो बुद्धिमान लोग हैं, वे शादी करके भी सुखी रह सकते हैं। मुल्ला नसरुद्दीन ने कहा, जो बुद्धिमान हैं, वे बिना शादी किए ही सुखी रह सकते हैं।

उसके गुरु ने, लिंची के गुरु ने कहा कि तू सोच रहा है। अगर तू सोच ही सकता, तो संन्यास कभी का फलित हो गया होता। सोचकर, अगर सच में तू सोच सकता, तो कोई संसार में रह सकता है? और अगर अब तक तू नहीं सोच पाया, तो उसी मन को लेकर तू आगे भी कैसे सोचेगा? तू सोच मत।

लिंची ने अपने गुरु की तरफ देखा और कहा कि मैं संन्यासी हो गया। क्योंकि अब यह भी कहना कि हो जाऊंगा, फिर भविष्य होगा। मैं हो गया। आज्ञा दें संन्यासी को अब, अब उस आदमी को भूल जाएं, जो आया था।

कहते हैं कि उसके गुरु ने अपनी पगड़ी उसके सिर पर रख दी और कहा कि मैं उस आदमी की तलाश में था, जो उस काल-क्षण में छलांग लगा ले, जिसका नाम वर्तमान है, क्योंकि मेरी मृत्यु करीब है। अब मैं विदा लेता हूं। अब मेरा काम तू सम्हाल लेना।

उस लिंची ने कहा कि लेकिन मैं अभी-अभी संन्यासी हुआ, अभी मुझे कुछ भी पता नहीं है! उसके गुरु ने कहा, सब तुझे पता हो जाएगा। जिसे वर्तमान के क्षण में खड़े होने की जरा-सी भी क्षमता है, उसे सब ज्ञान के, रहस्य के द्वार खुल जाते हैं। अब तुझे कुछ कहने की मुझे जरूरत नहीं है।

और गुरु ऐसा बिना उपदेश दिए–ऐसी घटना बहुत कम घटती है–बिना उपदेश दिए गुरु तिरोहित हो गया। और लिंची ने दूसरे दिन सुबह से गुरु के मंच पर बैठकर बोलना शुरू कर दिया। जितने ज्ञानी उसके गुरु के द्वारा पैदा हुए थे, उससे हजारों गुना ज्ञानी लिंची के द्वारा पैदा हुए। लिंची के गुरु का नाम भी पता नहीं है, क्योंकि लिंची पूछ ही नहीं पाया और वह डिसएपियर हो गया। और जब भी कोई लिंची से पूछता था कि तुझे यह ज्ञान कैसे मिला? तो वह कहता था, गुरु ने तो मुझे कोई ज्ञान नहीं दिया, सिर्फ एक धक्का दिया था। लेकिन जिस दिन से मुझे यह राज मिल गया, अभी और यहीं होने का, उस दिन से कोई अज्ञान न रहा। अज्ञान के सब बादल छंट गए।

जीवन में जो वर्तमान के क्षण को पकड़ने की कला आ जाए, तो कृष्ण जिस मृत्यु-क्षण की बात कर रहे हैं, जिस काल-क्षण की, वह घटित हो सकता है।

जिस काल में शरीर त्यागकर गए हुए योगीजन, पीछे न आने वाली गति को और पीछे आने वाली गति को भी प्राप्त होते हैं।

क्योंकि योगीजन भी दो प्रकार के हैं। इसमें कठिनाई होगी वाक्य को सुनकर। क्योंकि दोनों के लिए कृष्ण योगीजन का प्रयोग करते हैं। योगीजन दो प्रकार के हैं; योग भी दो प्रकार का है।

एक तो, जिसे हम परम योग कहें, दि सुप्रीम योग। वह परम योग अभ्यास, क्रिया, साधना, इसमें भरोसा नहीं करता। उस परम योग का ही पुराना नाम सांख्य है। सांख्य, जैसी यह लिंची को घटना घटी, इस तरह की घटना में भरोसा करता है, सडेन एनलाइटेनमेंट। अगर कोई आदमी राजी है अभी और यहीं, वर्तमान के क्षण में खड़े होने को, तो बिना किसी योगाभ्यास के, बिना किसी ध्यान के वह घटना घट जाएगी, जिसमें परम से मिलन हो जाता है। क्योंकि उससे हम कभी छूटे नहीं हैं, इसलिए पाने के लिए कोई भी रास्ता तय करने की जरूरत नहीं है। जिससे हम कभी अलग नहीं हुए, उस तक पहुंचने के लिए किसी भी विधि और विधान की आवश्यकता नहीं है। जिसमें हम खड़े ही हैं, अभी और सदा से, क्या उसे पाने को भी कोई यात्रा करनी पड़ेगी?

लेकिन यह बात समझ में आती नहीं। और समझ में भी आ जाए, तो कोई परिणाम नहीं होता।

ओशो – गीता-दर्शन – भाग 4, अध्याय—8
(प्रवचन—नौवां) — जीवन ऊर्जा का ऊर्ध्वगमन–उत्तरायण पथपोस्ट - 956/2456 - ओशो - गीता दर्शन - भाग – 4

एक झेन फकीर हुआ लिंची। अपने गुरु के पास जब वह गया था, तो उसके गुरु ने कहा, किसलिए आया है? तो लिंची ने कहा कि मैं संन्यासी होना चाहता हूं। उसके गुरु ने कहा, होना चाहता है या अभी होने को तैयार है? उसके गुरु ने कहा, संन्यास का भविष्य से कोई भी संबंध नहीं है; संसार का भविष्य से संबंध है।

कोई आदमी कहे, एक दुकान चलाना चाहता हूं, तो भविष्य की जरूरत पड़ेगी। दुकान एक फैलाव है, समय में। कोई आदमी कहे, धन कमाना चाहता हूं, तो आज इसी क्षण नहीं कमा सकता है। धन के लिए आयोजना करनी पड़ेगी, पंचवर्षीय, पचास वर्षीय योजनाएं बनानी पड़ेंगी। प्लानिंग करनी पड़ेगी। फिर भी मिलेगा, नहीं मिलेगा, नहीं कहा जा सकता। क्योंकि धन पर मेरा वश नहीं है। और बहुतों का वश भी है। और मैं अकेला ही धन कमाने नहीं चल पड़ा हूं। यह सारी पृथ्वी धन कमाने चल पड़ी है। भारी प्रतिस्पर्धा है। सिर्फ धर्म को छोड़कर सभी चीजों में भारी प्रतिस्पर्धा है। धन कमाना हो, यश कमाना हो, पदों की सीढ़ियां चढ़नी हों, तो भविष्य के बिना कोई उपाय नहीं। टाइम विल बी नीडेड। भविष्य चाहिए, नहीं तो कुछ भी न हो सकेगा।

लेकिन यदि संन्यास लेना हो, तो भविष्य की कोई भी जरूरत नहीं है। इसी क्षण घट सकता है, क्योंकि संन्यास निपट निजी है। उसका इस जगत में किसी से कोई संबंध नहीं है। और अगर धन मैं कमाना चाहूं, तो मेरे पास जितना धन बढ़ेगा, किसी के पास कम होगा। या किसी के पास ज्यादा हो सकता था, तो मैं छीनूंगा। कहीं न कहीं, कोई न कोई वंचित होगा। लेकिन अगर मैं संन्यास लेता हूं, दुनिया में कहीं भी कोई वंचित नहीं होता। शायद मेरे संन्यास लेने से दुनिया में बहुत कुछ समृद्धि भला आ जाए, लेकिन कहीं कोई वंचित नहीं होता है। क्योंकि संन्यास कोई कमोडिटी नहीं है, कोई वस्तु नहीं है कि कम हो जाएगी। फिर संन्यास कोई संसार का हिस्सा नहीं है कि मैं उसकी योजना करूं और कल और परसों, और वर्ष और दो वर्ष, और प्रतीक्षा करूं।

संन्यास एक घटना है, जो उस काल-क्षण में घटती है, जो अभी और यहीं है।

ठीक से समझें, तो संन्यास का अर्थ है, जो समय के बाहर घटित होता है। संसार का अर्थ है, जो समय के भीतर घटित होता है। संसार का अर्थ है, विदिन दि टाइम प्रोसेस। और संन्यास का अर्थ है, जंपिंग आउट आफ दि टाइम प्रोसेस।

इसलिए जब कोई आदमी कहता है कि कल सोचकर मैं संन्यास लूंगा, तो मैं जानता हूं कि उसे पता ही नहीं कि संन्यास का अर्थ क्या है। सोचकर जो लिया जा सकता है, वह संसार होगा। क्योंकि सोचेंगे क्या? सोचने का अर्थ है, अतीत के अनुभव से पूछूंगा, स्मृति से पूछूंगा। सोचने का क्या अर्थ है। भविष्य का हिसाब लगाऊंगा कि फायदा होगा कि नुकसान होगा। सोचने का अर्थ है, अतीत और भविष्य से पूछूंगा। और तो सोचने का कोई भी अर्थ नहीं होता। लोग क्या कहेंगे, यह भविष्य है। और अतीत में मैं कैसा आदमी रहा हूं, उसके साथ तालमेल खाएगा संन्यास, नहीं खाएगा, यह अतीत है। मुर्दों से पूछ रहे हैं, अतीत से; भविष्य से पूछने का अर्थ है, अनजन्मे से पूछ रहे हैं।

लेकिन संन्यास का सोचने से कोई संबंध नहीं। धर्म का ही सोचने से कोई संबंध नहीं है। इसी क्षण उस संधि-रेखा में, जहां अतीत नहीं और भविष्य नहीं, जो घटना घट जाती है, बिना विचारे जो छलांग है, कूद जाना है अपने से बाहर, वह संन्यास है।

उसके गुरु ने कहा, तू लेना चाहता है, या तैयार है अभी? उस युवक ने, लिंची ने आंखें बंद कर लीं, सोचने लगा। उसके गुरु ने उसे हिलाया और कहा, जरा-सा विचार, और तू चूक जाएगा। जरा-सा सोचा, कि तू गया, खोया। युवक ने कहा, मुझे सोच तो लेने दें। थोड़ा-सा तो सोच लेने दें! इतनी भी जल्दी क्या है? उसके गुरु ने कहा, काश, तुझे पता होता कि मौत किसी भी क्षण घटित हो सकती है, तो तू इस तरह की बात न कहता कि इतनी भी जल्दी क्या है! और तू सोचेगा क्या? तू ही सोचेगा न! अगर तू सोच सकता होता, तो बहुत पहले कभी का संन्यासी हो चुका होता।

मुल्ला नसरुद्दीन की पत्नी उससे कह रही है एक दिन कि जो बुद्धिमान लोग हैं, वे शादी करके भी सुखी रह सकते हैं। मुल्ला नसरुद्दीन ने कहा, जो बुद्धिमान हैं, वे बिना शादी किए ही सुखी रह सकते हैं।

उसके गुरु ने, लिंची के गुरु ने कहा कि तू सोच रहा है। अगर तू सोच ही सकता, तो संन्यास कभी का फलित हो गया होता। सोचकर, अगर सच में तू सोच सकता, तो कोई संसार में रह सकता है? और अगर अब तक तू नहीं सोच पाया, तो उसी मन को लेकर तू आगे भी कैसे सोचेगा? तू सोच मत।

लिंची ने अपने गुरु की तरफ देखा और कहा कि मैं संन्यासी हो गया। क्योंकि अब यह भी कहना कि हो जाऊंगा, फिर भविष्य होगा। मैं हो गया। आज्ञा दें संन्यासी को अब, अब उस आदमी को भूल जाएं, जो आया था।

कहते हैं कि उसके गुरु ने अपनी पगड़ी उसके सिर पर रख दी और कहा कि मैं उस आदमी की तलाश में था, जो उस काल-क्षण में छलांग लगा ले, जिसका नाम वर्तमान है, क्योंकि मेरी मृत्यु करीब है। अब मैं विदा लेता हूं। अब मेरा काम तू सम्हाल लेना।

उस लिंची ने कहा कि लेकिन मैं अभी-अभी संन्यासी हुआ, अभी मुझे कुछ भी पता नहीं है! उसके गुरु ने कहा, सब तुझे पता हो जाएगा। जिसे वर्तमान के क्षण में खड़े होने की जरा-सी भी क्षमता है, उसे सब ज्ञान के, रहस्य के द्वार खुल जाते हैं। अब तुझे कुछ कहने की मुझे जरूरत नहीं है।

और गुरु ऐसा बिना उपदेश दिए–ऐसी घटना बहुत कम घटती है–बिना उपदेश दिए गुरु तिरोहित हो गया। और लिंची ने दूसरे दिन सुबह से गुरु के मंच पर बैठकर बोलना शुरू कर दिया। जितने ज्ञानी उसके गुरु के द्वारा पैदा हुए थे, उससे हजारों गुना ज्ञानी लिंची के द्वारा पैदा हुए। लिंची के गुरु का नाम भी पता नहीं है, क्योंकि लिंची पूछ ही नहीं पाया और वह डिसएपियर हो गया। और जब भी कोई लिंची से पूछता था कि तुझे यह ज्ञान कैसे मिला? तो वह कहता था, गुरु ने तो मुझे कोई ज्ञान नहीं दिया, सिर्फ एक धक्का दिया था। लेकिन जिस दिन से मुझे यह राज मिल गया, अभी और यहीं होने का, उस दिन से कोई अज्ञान न रहा। अज्ञान के सब बादल छंट गए।

जीवन में जो वर्तमान के क्षण को पकड़ने की कला आ जाए, तो कृष्ण जिस मृत्यु-क्षण की बात कर रहे हैं, जिस काल-क्षण की, वह घटित हो सकता है।

जिस काल में शरीर त्यागकर गए हुए योगीजन, पीछे न आने वाली गति को और पीछे आने वाली गति को भी प्राप्त होते हैं।

क्योंकि योगीजन भी दो प्रकार के हैं। इसमें कठिनाई होगी वाक्य को सुनकर। क्योंकि दोनों के लिए कृष्ण योगीजन का प्रयोग करते हैं। योगीजन दो प्रकार के हैं; योग भी दो प्रकार का है।

एक तो, जिसे हम परम योग कहें, दि सुप्रीम योग। वह परम योग अभ्यास, क्रिया, साधना, इसमें भरोसा नहीं करता। उस परम योग का ही पुराना नाम सांख्य है। सांख्य, जैसी यह लिंची को घटना घटी, इस तरह की घटना में भरोसा करता है, सडेन एनलाइटेनमेंट। अगर कोई आदमी राजी है अभी और यहीं, वर्तमान के क्षण में खड़े होने को, तो बिना किसी योगाभ्यास के, बिना किसी ध्यान के वह घटना घट जाएगी, जिसमें परम से मिलन हो जाता है। क्योंकि उससे हम कभी छूटे नहीं हैं, इसलिए पाने के लिए कोई भी रास्ता तय करने की जरूरत नहीं है। जिससे हम कभी अलग नहीं हुए, उस तक पहुंचने के लिए किसी भी विधि और विधान की आवश्यकता नहीं है। जिसमें हम खड़े ही हैं, अभी और सदा से, क्या उसे पाने को भी कोई यात्रा करनी पड़ेगी?

लेकिन यह बात समझ में आती नहीं। और समझ में भी आ जाए, तो कोई परिणाम नहीं होता।

ओशो – गीता-दर्शन – भाग 4, अध्याय—8
(प्रवचन—नौवां) — जीवन ऊर्जा का ऊर्ध्वगमन–उत्तरायण पथ

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