Jo Sahaj Hai Wahi Bhakti Hai - Osho

जो सहज है,वही भक्ति है  - ओशो 
Jo Sahaj hai Wahi Bhakti hai Osho

पहला प्रश्न :
कल आप ने कहा कि जो सहज है वही भक्त है, वही भक्ति है। पर हमारे जीवन मे तो सोना—खाना, काम—क्रोध, लोभ —मोह,मनोरंजन आदि ही सहज है। कृपा करके कहिए कि ये सब किस भांति भक्ति कहे जा सकते हैं?
बीज भी सहज है, फूल भी सहज है। बीज की यात्रा फूल तक, वहभी सहज है। लेकिन बीज अगर बीज होने पर ही रुक जाए, तो वह रुक जाना सहज नहीं है। जंहा अवरोध है, जंहा रुकावट है,जहां यात्रा टूट गई,जंहा मार्ग मंजिल से नहीं जुड़ता, वहीं असहज हो गया कुछ। बीज बढ़ता रहे। बीज में कुछ बुराई नहीं है। बीज में ही छिपा है फूल। बीज में ही छुपी है सुगंध। बीज में ही छुपा है सौदर्य। लेकिन छुपा ही न रह जाए, प्रकट हो, अभिव्यक्ति हो,नाचे।

मनुष्य जिन चीजों को साधारणत: जीता है, वे सब सहज है—खाना,पीना, काम—क्रोध, लोभ—मोह—मगर बीज की भांति। वहीं रुक गए तो अड़चन हो जाएगी। वहीं रुक गए तो भक्ति खो गई। भक्ति है भगवान तक यात्रा। वहां से चले; उसे पड़ाव समझो, मंजिल मत बनाओ। थोड़ी देर रुकना भी पड़े तो रुक जाओ, मगर सदा के लिए न रुक जाओ। बढ़ते रहो, आगे बढ़ते रहो।
और तुम चकित होओगे जानकर कि अगर रुक गए, तो आदमी जीने लगता है खाने—पीने के लिए। और अगर बढ़ते रहे, तो आदमी खाता—पीता है जीने के लिए। और दोनो में जमीन—आसमान का फर्क हो गया। अगर रुक गए तो काम काम ही रह जाता है। अगर बढ़ते रहे, तो काम से ही राम का जन्म होता है। काम बीज है राम का। अगर रुक गए तो क्रोध क्रोध रह गया, और तुम्हें सड़ा डालेगा। बीज रुकेगा तो सडेगा। बीज रुकेगा तो बीज भी नहीं रह सकेगा। आज नहीं कल राख रह जाएगी। बीज बढ़े तो ही बच सकता है। बीज बड़ा हो, फैले, विराट बने;फूल आएं, फल आएं, एक बीज में हजार बीज आएं, तो बीज बचेगा।
क्रोध बीज है। अगर रुक जाए, तो सड़ जाओगे, नर्क बन जाएगा। अगर आगे बढ़ जाए तो क्रोध से ही करुणा का जन्म है। क्रोध तुम्हारी ऊर्जा है। राह नहीं पाती तो भटक जाती है। तुम्हारे भीतर ही भीतर घूमती है। द्वार नहीं पाती तो तुम्हें तोड़ डालती है। द्वार मिल जाए, सम्यक मार्ग मिल जाए, तो क्रोध ही करुणा बन जाएगी।
जीवन जंहा है अभी, निश्चित ही सहज है। मैं तुमसे यह अधिकारपूर्वक कहना चाहता हूं कि खाना—पीना सहज है, सोना उठना—बैठना सहज है, काम —क्रोध सहज है, मनोरंजन सहज है, बस यहा रुक मत जाना। मनोरंजन पर रुक गए तो खिलौनों से ही खेलते रहे, असली बात शुरू ही न हुई।
मनोरंजन में क्या रस है? यही न कि थोड़ी देर को मन भूल जाता है। किस बात को मनोरंजन कहते हो? फिल्म देखी, कि नाच देखा,कि गीत सुना, कि थोड़ी देर को उलझ गए, तल्लीन हो गए, थोड़ी देर को मन विस्मृत हो गया, इसी को मनोरंजन कहते हो। यही आगे बढ़े तो एक दिन तुम ऐसी जगह पहुंच जाओगे जहां मन सदा के लिए विस्मृत हो जाता है। मनोभंजन हो जाता है। उस दिन परम आनंद है। उसी मनातीत अवस्था का नाम भक्ति है;या ध्यान है; या समाधि है।
मनोरंजन पर रुकना मत, मनोरंजन को समझो, पहचानो, सार—सूत्र गहो। उसमें से निचोड़ लो कि बात क्या है? मनोरंजन में मैं क्यूं इतना डूब जाता हूं? किसलिए यह आकांक्षा ? किसलिए बार—बार चाहता हूं कुछ हो जिसमें तल्लीन हो जाऊं? अपने से ऊब गए हो,इसलिए कहीं डूबना चाहते हो। मगर जंहा डूबते हो, चुल्लू भर पानी में, वहा डूब पाओगे? फिल्म कितनी देर डुबायेगी ? और नाच कितनी देर भुलायेगा ? और शराब कितनी देर मस्ती रखेगी?
जल्दी ही मस्ती टूट जाएगी। जल्दी ही सिनेमागृह के बाहर निकल आओगे। ज्यादा देर संगीत भरमायेगा नहीं। फिर अपनी जगह वापस, पहले से भी बदतर हालत में। क्योंकि यह थोड़ी देर को जो मन भूल गया था, इसने सुख की एक झलक भी दे दी, अब दुख और बड़ा होकर दिखेगा, तुलना मे और कठिन होकर दिखेगा। देखा नहीं कभी राह से गुजरते हो रात, अंधेरी रात और एक तेज कार पास से गुजर जाती है पूरे प्रकाश को आंखों में डालते हुए, फिर उसके बाद रास्ता और अंधेरा हो जाता है। पहले कुछ सूझता भी था, अब कुछ भी नहीं सूझता। थोड़ी देर को तो तुम बिलकुल अंधे हो जाते हो।
जीवन में दुख है, शराब पी ली, थोड़ी देर के लिए दुख विस्मृत हुआ, लेकिन कब तक डूबोगे? थोड़ी देर बाद वापस लौटना ही होगा। शराब शाश्वत हो जाए तो परमात्मा मिल गया। शाश्वत शराब का नाम ही परमात्मा है, कि जिसमें डूबे तो डूबे, फिर लौटे नहीं। चुल्लूभर पानी में न डूब सकोगे। कुल्हड़ों में नहीं डूब सकोगे, सागर चाहिए।
समझदार व्यक्ति अपने जीवन की सामान्यता में से खोज करता है,जांच करता है, परख करता है, सूत्र पकड़ता है कि मनोरंजन में राज क्या है? फिर मनोरंजन का राज समझ में आ गया तो वह सोचता है कि अब मैं कैसे उस दशा को खोजूं जंहा मन सदा के लिए खो जाए।
एक बारभी छुटकारा हो इससे, फिर लौटकर मिलन न हो। लेकिन अभी तुम जैसे जीते हो वह एक अंधी आदत है। उसमें होश नहीं है, उसमें विचार नहीं है, उसमें विवेक नहीं है, उसमें बोध नहीं है।
सांस लेना भी कैसी आदत है ।
जीए जाना भी क्या रवायत है ।
कोई आहट नहीं बदन में कहीं,
कोई साया नहीं है आंखों में,
पांव बेहिस हैं, चलते जाते हैं ।
इक सफर है जो बहता रहता है ।
कितने वर्षो से कितनी सदियों से,
जिए जाते हैं जिए जाते हैं ।
आदतें भी अजीब होती हैं ।
आदत से ऊपर उठना धर्म है। यांत्रिकता से ऊपर उठना विकास है। खाओ—पीओ जरूर, बस खाने—पीने में समाप्त मत हो जाना। नाचो और गाओ भी जरूर, मगर उस परम नृत्य को मत भूल जाना।उसे याद रखना। और यह हर नाच उसी परम नृत्य की याद दिलाता रहे, तो फिर कोई अड़चन नहीं है। संगीत सुनो, संगीत से मेरा विरोध नहीं है, लेकिन यह तुम्हारे भीतर तीर बनकर बैठ जाए और परम संगीत की खोज शुरू हो। प्रेम करो, जरूर करो; रूप से, रंग से लगाव बनाओ, लेकिन यह लगाव तुम्हें अरूप की याद दिलाए, यह लगाव छुद्र पर समाप्त न हो, यह तुम्हें अंकुश बन जाए, यह तुम्हें परमात्मा की तरफ ले चलने लगे।
~ॐ अथातो भक्ति जिज्ञासा - ओशो 

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