प्रेम पहले, फिर विवाह - ओशो
ओशो, आप विवाह का इतना मजाक क्यों उडाते हैं ?
ओशो:
नारायण, मालूम होता है तुम अनुभवी नहीं। पक्का है कि तुम विवाहित नहीं।
विवाहित होते तो ऐसा प्रश्न न पूछते। और लगता है कहीं विवाहित होने की आकांक्षा है अभी।
तुम्हारी मर्जी। समझदार दूसरों को देख कर समझ जाते हैं, नासमझ हजार बार गढ़हों में गिरते हैं, फिर भी नहीं समझते।
चंदूलाल और डब्बू जी एक ही साथ मरे, क्योंकि एक ही साइकिल पर सवार थे। और बस से टकरा गई साइकिल और गिर गई नाले में। चंदूलाल आगे बैठे थे, साइकिल चला रहे थे और डब्बू जी पीछे। सो चंदूलाल एक—दो मिनट पहले पहुंचे स्वर्ग के दरवाजे पर, डब्बू जी भी भागते हुए एक—दो मिनट पीछे। डब्बू जी ने सुन लिया जो हुआ। दरवाजा खुला और द्वारपाल ने पूछा चंदूलाल से, विवाहित या अविवाहित ? चंदूलाल ने कहा विवाहित।
द्वारपाल ने कहा : भीतर आ जाओ, नरक तुम भोग चुके। अब तुम्हें स्वर्ग मिलेगा।
डब्बू जी ने सुन लिया सब, चले आ रहे थे भागे पीछे—पीछे। फिर द्वार खुला जब डब्बू जी ने दस्तक दी। द्वारपाल ने फिर पूछा विवाहित या अविवाहित ? डब्बू जी ने कहा, चार बार विवाहित ! इस आशा में कि चंदूलाल को हराऊं।
लेकिन द्वारपाल ने दरवाजा बंद कर लिया और उसने कहा कि दुखी लोगों के लिए तो यहां जगह है, पागलों के लिए नहीं। एक बार माफ किया जा सकता है कि भाई चलो, जानते नहीं थे, तो भूल हो गई। मगर चार बार !
नारायण, विवाह मजाक ही हो गया है।
सदियों—सदियों में ऐसा विकृत हुआ है…।
सबसे सड़ी—गली संस्था अगर हमारे पास कोई है तो विवाह है। मगर हम ढोए चले जाते हैं। क्योंकि हममें साहस भी नहीं है कि हम कुछ नये प्रयोग कर सकें। हममें साहस भी नहीं है कि पुराने ढर्रे और रवैए से मुक्त हो सकें या विवाह को कोई नया रूप, कोई नया रंग दे सकें। हममें नया करने की क्षमता खो गई है। नये के लिए साहस चाहिए।
और विवाह निश्चित ही मजाक हो गया है।
क्योंकि आशाएं बड़ी और परिणाम बिलकुल विपरीत। विवाह से हम बड़ी आशाएं बंधाते हैं लोगों को और जितनी आशाएं बंधाते हैं उतना ही विषाद हाथ लगता है। हमने जिंदगी को एक लंबा धोखा बनाया है। बच्चों को कहते हैं कि पहले पढ़—लिख जाओ, फिर सुख मिलेगा। फिर वे पढ़—लिख गए, फिर उनसे कहते हैं, अब विवाहित हो जाओ तब सुख मिलेगा। फिर जब वे विवाहित हो गए तो उनसे कहते हैं, अब धंधा करो, नौकरी करो, कमाओ, तब सुख मिलेगा। जब तक वे धंधा करते हैं, नौकरी करते हैं, कमाते हैं, तब तक जिंदगी हाथ से गुजर जाती है।
बस यह सिलसिला जारी है।
और फिर एक घड़ी आ जाती है कि तुम्हें अपने बच्चों को जवाब देना पड़ता है। अब बच्चों के सामने यह कहना कि हमने जिंदगी यूं ही गवाई, हम कोरे के कोरे रहे, खाली आए खाली जा रहे है—तो अहंकार के विपरीत पड़ता है। तो बच्चों के सामने तो अकड़ बतानी पड़ती है कि अरे मैंने इतना पाया ! जो बच गए हैं, बेटा तू दिखलाना ! ऐसा यश—नाम मैंने कमाया ! छोड़े जा रहा हूं याददाश्त। दुनिया से उठ जाऊंगा, सदियों तक जगह खाली रहेगी! हालांकि दो दिन कोई याद करता नहीं ।
विवाह तो अत्यंत सड़ी—गली संस्था हो गया है। उसका कारण भी है, क्योंकि हमने विवाह को झुठला दिया है। हम कहते हैं, विवाह पहले, फिर प्रेम। यह विवाह को झुठलाने का उपाय है। प्रेम पहले फिर विवाह— तो सम्यक होता। हालांकि मैं यह नहीं कहता हूं कि उससे सुख मिल जाता है, लेकिन सम्यक होता, इससे ज्यादा सम्यक होता !
सुख बाहर की किसी चीज से मिलता नहीं। सुख तो आंतरिक दशा है।
जीवन को व्यवस्थित किया जा सकता है— बस इतना ही कि उसमें चोट कम से कम लगे, कि व्यर्थ चोटें न लगें ।
विवाह से सुख तो नहीं मिल सकता, लेकिन कम से कम दुख मिले, ऐसा किया जा सकता है। मेरी बात को खयाल में रखना, सुख तो नहीं मिल सकता। सुख तो उनको मिलता है जो भीतर ध्यान में जाते हैं, विवाह का क्या लेना—देना उससे ! विवाहित को भी मिल सकता है, अविवाहित को भी मिल सकता है— भीतर जाने से।
मगर जैसी हमने व्यवस्था दी है, वह व्यवस्था कम, अव्यवस्था ज्यादा है। चौबीस घंटे मुठभेड़ है। पति—पत्नी— जैसे जानी दुश्मन ! जैसे एक—दूसरे के पीछे पड़े हैं ! एक मल्लयुद्ध चल रहा है !
एक युवक ने अपनी मां को आकर कहा कि मुझे एक युवती से प्रेम हो गया है, मैं विवाह करना चाहता हू। लेकिन वह युवती नास्तिक है। नरक में भी नहीं मानती !
उस युवक की मां ने कहा बेटा, तू घबड़ा मत। पहले विवाह कर। और मेरे—तेरे बीच में उसको हम ऐसा पाठ चखाके कि नरक में तो उसे भरोसा करना ही पड़ेगा। मेरे—तेरे रहते और तेरी पत्नी नरक में भरोसा न करे, यह नहीं हो सकता !
नारायण, थोड़ी सावधानी से चलना। विवाह भी करना तो सचेत कि यह सब होगा। तैयारी से करना। अपने कवच वगैरह सब लगा लेना।
विवाह पुरानी संस्था है, काफी पुरानी संस्था है। और जितनी पुरानी है उतनी ही सड़ गई है। विवाह भविष्य में बच नहीं सकता; इसके दिन लद गए। इसकी जगह हमें कुछ नये विकल्प खोजने पड़ेंगे। विकल्पों की तलाश भी शुरू हो गई है। लेकिन अभी जो भी विकल्पों की तलाश हो रही है, उसमें एक भ्रांति है। वह भ्रांति यह है कि वे सब सोचते हैं कि विवाह में दुख था और इस विकल्प में दुख नहीं होगा। वह भ्रांति है। हां विकल्पों में कम—ज्यादा दुख हो सकता है, मगर दुख तो होगा ही— जब तक कि तुम अपने में थिर न हो जाओ।
【असल में विवाह की जरूरत ही इसलिए उठती है कि तुम सोचते हो दूसरे से सुख मिल सकता है— और वहीं मूल जड़ है सारे अज्ञान की। दूसरे से सुख नहीं मिल सकता। और जो चाहता है, और सोचता है कि दूसरे से सुख मिल सकता है, वह दुख पाएगा। वह जगह—जगह विफल होगा, हारेगा, टूटेगा, विक्षिप्त होगा।
दूसरे से सुख नहीं मिलता; सुख स्वयं में छिपा है, वहां खोजना है】
और तुम्हारे पास सुख हो तो तुम दूसरों को भी बांट सकते हो। अगर मेरा वश चले तो मैं किन्हीं भी व्यक्तियों को विवाह करने के पहले ध्यान को अनिवार्य बना दूं; और कोई शर्त पूरी हो या न हो, जन्म—कुंडली मिले कि न मिले, क्योंकि जिससे तुम जन्म—कुंडली मिलवाने जाते हो, कभी छिप कर उसकी और उसकी पत्नी की हालत तो देखो। और इस देश में तो कम से कम सभी की जन्म—कुंडलियां मिली हुई हैं। जन्म—कुंडलियां तो मिल जाती हैं। वह तो रुपये, दो रुपये में कोई भी पंडित मिला देता है।
विवाह के पूर्व वर्ष, दो वर्ष गहन ध्यान की प्रक्रिया से गुजरना जरूरी है। फिर इसके बाद विवाह भी एक अपूर्व अवसर बन जाएगा विकास का।
ध्यान से प्रेम की संभावना प्रकट होती है। ध्यान का दीया जलता है तो प्रेम का प्रकाश फैलता है। और दो व्यक्तियों के भीतर ध्यान का दीया जला हो तो विवाह में एक आनंद है। वह आनंद भी ध्यान से आ रहा है, विवाह से नहीं आ रहा है— यह खयाल रखना। और जब तक ऐसा न हो तब तक विवाह एक मजाक है— और बडा कठोर मजाक।
- मन ही पूजा, मन ही धूप
- ओशो
0 Comments