प्रवचन - १९ - मनुष्य के आमूल रूपांतरण की प्रक्रिया - शिक्षा में क्रान्ति - ओशो
मनुष्य निरंतर ही यह सोचता रहा है, कैसे आमूल जीवन परिवर्तित हो। सोचने के कारण भी हैं। जैसा जीवन है, उसमें सिवाय दुख, पीड़ा, अशांति, संघर्ष और कलह के कुछ भी नहीं है। जीवन के इस दुखद रूप ने ही जीवन को रूपांतरित करने की प्रेरणा भी पैदा की है। शायद ही ऐसा कोई क्षण हो जब मनुष्य आनंद को उपलब्ध हो पाता है। आनंद की आशा रहती है, कल मिलेगा और आज उसी आशा में हम दुख में व्यतीत करते हैं।
और कल जब आता है तब वह इतना ही दुखी सिद्ध होता है जितना आज था। आशा फिर आगे सरक जाती है। ऐसे जीवन भर आदमी सुख की आशा में जीता है और पाता निरंतर दुख है। इस आशा के कारण दुख को झेल भी लेता है। लेकिन आनंद इस तथाकथित जीवन में दिखाई नहीं पड़ता। या तो यह हो सकता है कि जीवन में आनंद है ही नहीं, आनंद की खोज ही गलत है। या यह हो सकता है कि जैसा जीवन है, इस जीवन में आनंद नहीं है इसलिए जीवन को परिवर्तित करने की, ट्रांसफार्म करने की खोज सार्थक है।
फिर जीवन को परिवर्तित करने के भी दो विकल्प हैं। या तो हम जीवन को बदलें तो आनंद हो जाए; जीवन–जो हमसे बाहर है। या यह भी हो सकता है कि बाहर का सारा जीवन बदल जाए तो भी आनंद न हो, क्योंकि हम जैसे थे वैसे ही रह जाएं।
तो दूसरा विकल्प यह है कि हम जैसे हैं उस होने को बदलें, तो जहां दुख दिखाई पड़ता है, शायद वहां आनंद हो जाए। इन सब दिशाओं से आदमी ने कोशिश की है, इन सब दिशाओं से आदमी ने प्रयास किया है। जो ऐसा मान लेते हैं कि आनंद है ही नहीं, वे अत्यंत निराशावादी मालूम पड़ते हैं। जीवन के तथ्य उनकी बात का समर्थन करते हैं। लेकिन कुछ व्यक्तियों के जीवन में आनंद घटित हुआ है–होता है। कुछ गवाह हैं जीवन के बड़े तथ्यों के खिलाफ। और वे गवाहियां इतने सच्चे आदमियों से आई हैं कि उन्हें झुठलाया नहीं जा सकता। अगर हम जीवन, सामान्य जीवन की तरफ देखें तो निराशावादी, वह जो पैसिमिस्ट है, वही ठीक मालूम पड़ता है। जीवन में दुख है! शायद दुख ही दिखाई पड़ता है। अगर जीवन के आंकड़े ही हम बटोरें तो निराशावादी सही सिद्ध मालूम होता है।
लेकिन कभी-कभी कोई एक व्यक्ति पैदा होता है–कोई एक कृष्ण, कोई एक बुद्ध, और जिसके जीवन में आनंद के फूल खिले हुए दिखाई पड़ते हैं; और जो गवाही बन जाता है, विटनेस बन जाता है। असाधारण हैं ये घटनाएं। कभी-कभी घटती हैं, सामान्य नहीं हैं, अपवाद ही मालूम पड़ते हैं अभी, लेकिन इनसे आशा बंधती है और निराशा का कारण नहीं रह जाता है। क्योंकि यदि एक मनुष्य के जीवन में आनंद घटित हो सकता है, तो फिर सबके जीवन में घटित क्यों नहीं हो सकता है? फिर ऐसा मालूम पड़ता है कि हम सबके होने में कहीं कोई भूल है, जिससे, जिससे आनंद के द्वार नहीं खुल पाते हैं। अगर जगत में एक मनुष्य प्रकाश में खड़ा हो सका, तो फिर हमारा जो अंधेरा है वह कुछ हमारे ही ओढ़े हुए होने के कारण है। शायद हम अपना द्वार बंद किए हुए बैठे हैं अंधेरे में। सूरज बाहर निकला हो। अगर एक मनुष्य के जीवन में संगीत घट सका है तो संभावना यही है कि शायद हम बहरे बने बैठे हैं, कान बंद किए बैठे हैं। क्योंकि संगीत है, यह एक मनुष्य के जीवन में घटने से भी सिद्ध हो जाता है। यह सबके जीवन में घटे तभी सिद्ध होगा, ऐसा नहीं है। अगर एक मनुष्य के जीवन में भी आनंद के स्वर उठते हैं, तो वे उठ सकते हैं इसकी पाॅसिबिलिटी, इसकी संभावना खुल जाती है।
इसलिए मैं निराशावादी से तो सहमत नहीं हूं, क्योंकि निराशावाद का गहरे से गहरा अर्थ आत्मघात के अतिरिक्त और कुछ भी नहीं हो सकता है। अगर जीवन दुख ही है और ट्रांसफर्मेशन के, रूपांतरण के कोई उपाय नहीं हैं तो फिर जीवन जीने जैसा नहीं है। फिर इस अर्थहीन, एब्सर्ड, व्यर्थ के जीवन को छोड़ देना ही उचित है। फिर सिर्फ कायर जीएंगे, बहादुर छोड़ देंगे। फिर जो मरने की हिम्मत नहीं जुटा पाते वे ही सरकेंगे कीड़ों की तरह। जो मरने का साहस रखते हैं वे तत्काल इस जीवन के बाहर हो जाएंगे।
लेकिन मैं राजी नहीं हूं। अपने अनुभव के कारण भी राजी नहीं हूं। मैं खुद भी देख पाता हूं कि आनंद के अनंत द्वार हैं और प्रकाश की अनंत संभावनाएं हैं। और जीवन एक ऐसा आनंद हो सकता है जहां दुख की कोई लहर भी कभी नहीं पहुंच सकती। मैं खुद भी एक गवाही, एक विटनेस हूं। बुद्ध ही गवाही होते तो शायद इतनी हिम्मत से मैं नहीं कह पाता, लेकिन निराशावादी आमूल गलत है, यद्यपि जीवन के सारे तथ्य उसके समर्थन में हैं, लेकिन तथ्यों के समर्थन से भी कुछ भी नहीं होता। तथ्य सत्य नहीं हैं, फेक्ट ट्रूथ नहीं हैं। यह हो सकता है कि तथ्य तो दुख के ही दिखाई पड़ रहे हैं, लेकिन सत्य आनंद का हो और हम सत्य को खोज नहीं पा रहे हैं। और कई बार ऐसा होता है कि तथ्यों की भीड़ में भटक जाने से सत्य का खोजना ही मुश्किल हो जाता है। मैं निराशावादी से सहमत नहीं हूं, क्योंकि उससे सहमत होने का मतलब है, रूपांतरण का कोई मार्ग नहीं है, कोई उपाय नहीं है।
दूसरे वे लोग हैं; जो कहते हैं जीवन में दुख है, क्योंकि जीवन जैसा है वह ठीक नहीं है–उनकी पहुंच ऑब्जेक्टिव है। उनकी पकड़ वस्तुओं को बदलने की, व्यवस्था को बदलने की, शरीर को बदलने की, स्वास्थ्य को बदलने की, बीमारी हटाने की, अच्छा मकान बनाने की, अच्छे कपड़े देने की–इस बात में थोड़ी सचाई है। अगर जीवन की सारी व्यवस्था दुखदाई हो जाए तो अत्यंत कठिन हो जाता है आनंद को अनुभव करना। इसलिए मैं मानता हूं कि इस बात में थोड़ी सचाई है कि जीवन की बाहर की व्यवस्था ऐसी होनी चाहिए कि भीतर आनंद घटित होने में सहयोगी बने, विरोधी नहीं। लेकिन फिर भी मैं यह नहीं मानता हूं कि बाहर की व्यवस्था ही आनंद बन जाएगी। वह सिर्फ अवसर बन सकती है, ऑपरच्युनिटी बन सकती है।
एक बीज को हम बोते हैं, अंकुर बीज से निकलता है, लेकिन पास में पड़ी बूंद, गिरा हुआ पानी, सूरज की किरणें मौका बनती हैं। वे सिर्फ मौका बनती हैं कि अंकुर निकल सके। अंकुर उनसे नहीं निकलता, अंकुर तो बीज से ही निकलता है। और बीज की जगह अगर कंकड़ डाला हो तो अच्छे से अच्छी जमीन, अच्छे से अच्छा पानी, अच्छे से अच्छी सूरज की किरणें और कुशल से कुशल माली भी अंकुर नहीं ला सकेगा। दूसरी बात भी सच है–श्रेष्ठतम बीज हो और अच्छी भूमि न मिले, पत्थर पर डाल दिया हो, पानी न मिले और सूरज की किरणें न मिलें, माली के कुशल हाथ न मिले तो अच्छे से अच्छा बीज पत्थर पर पड़ा हुआ, अंधेरे में पानी बिना, सूरज बिना, माली बिना मर जाएगा–अंकुर नहीं निकलेगा।
असल में मेरी दृष्टि में ऑब्जेक्टिव और सब्जेक्टिव एक ही बड़े हिस्से को दो रूप हैं। दोनों जुड़े हैं। इसलिए जिन लोगों का यह जोर है कि बाहर की व्यवस्था ही ठीक कर देने से आदमी आनंदित हो जाएगा, वे मुझे भ्रांति में मालूम पड़ते हैं; उतनी ही भ्रांति में जैसे वे लोग, जो सोचते हैं कि भीतर का आदमी ही बदल जाए, बाहर से कोई प्रयोजन नहीं है–वे भी इतने ही भ्रांत हैं। क्योंकि उन दोनों ने आधे-आधे को स्वीकार किया है; पूरे जीवन को नहीं। वे दोनों ही गलत हैं अपने अधूरेपन में। और वे दोनों ही सही हैं अपनी उस अधूरी सचाई में, जिससे पूरा जीवन सुखद हो सकता है।
इसलिए एक तरफ जिन्होंने बाहर के जीवन पर ही जोर दिया है, उन्होंने विज्ञान को विकसित करने की कोशिश की है। विज्ञान मूलतः बाहर के जीवन को बदलने की व्यवस्था है। उन्होंने एक तरह का भौतिकवादी, हेडोनिस्ट, सुखवादी दृष्टिकोण विकसित किया है। सुखवाद, भौतिकवाद, बाहर को बदलने का धर्म है।
मेरी दृष्टि में भौतिकवाद का कोई भी विरोध नहीं है। विरोध वहां शुरू होता है जहां भौतिकवाद अपने से ऊपर सब चीजों को इनकार करता है। भौतिकवाद अपने में बिलकुल सच है। जहां तक जाता है वहां तक बिलकुल सच है, लेकिन जहां वह बिलकुल नहीं जा सकता वहां इनकार करता है–वहीं गलत हो जाता है। भौतिकवाद, विज्ञान बाहर के जीवन में उस अवसर की तलाश है, जिस अवसर के बीच भीतर का अंकुर आनंद का खिल सके।
धर्म, योग, भीतर के उस अंकुर को जगाने, उठाने की खोज हैं। लेकिन इन धार्मिकों से मैं सहमत नहीं हूं जो मानते हैं कि धर्म पर्याप्त है; जो मानते हैं, बस, भीतर कुछ हो जाना काफी है; जो बाहर के निषेध में खड़े हैं। मैं मानता हूं कि वे भौतिकवादियों जैसे ही लोग हैं, सिर्फ उलटे खड़े हैं। उनकी पकड़ भी अधूरी है। और ध्यान रहे, अधूरा सत्य असत्य से भी ज्यादा खतरनाक हो सकता है। क्योंकि वह सत्य मालूम पड़ता है, और सत्य होता नहीं। इसलिए अर्धसत्य मनुष्य को जितना भटका देता है उतना असत्य भी कभी नहीं भटकाता। असत्य भटका ही नहीं सकता है, क्योंकि असत्य का भ्रम बहुत जल्दी टूट जाता है। उसमें सत्य का मुलम्मा भी नहीं होता, उसमें सत्य की रूप-रेखा भी नहीं होती, उसमें खोजने पर सत्य कहीं मिलता ही नहीं। तो इसलिए असत्य को पकड़े रखना कठिन है, लेकिन अर्धसत्य को पकड़े रखना बहुत आसान है। क्योंकि जो सत्य का हिस्सा है उसमें, वह पकड़ बन जाता है। और जो असत्य का हिस्सा है, उसे हम आंख से ओझल कर देने में समर्थ हो जाते हैं।
और मजे की बात यह है कि जैसे एक रुपये को मैं अपने हाथ में पकडूं, तो पूरे रुपये को तो मैं कभी देख ही नहीं पाता हूं। जब देख पाता हूं, आधे को ही देख पाता हूं। अगर रुपये का ऊपर का सिक्का मुझे दिखाई पड़ता है, तस्वीर मुझे दिखाई पड़ती है तो नीचे का हिस्सा लोप हो जाता है। नीचे का हिस्सा दिखाई ही नहीं पड़ता। और अगर नीचे का उलटा सिक्का मैं देखने लगता हूं तो ऊपर का सिक्का लोप हो जाता है, वह मुझे दिखाई नहीं पड़ता। पूरे सिक्के को देखना बहुत मुश्किल है। आधा ही सिक्का दिखाई पड़ता है, और इसीलिए पूरे सत्य को देखना भी बहुत मुश्किल है, आर्डुअस है; आधा सत्य ही दिखाई पड़ता है। और आधे सत्य के दिखाई पड़ने से आधा पकड़ लिया जाता है। और शेष आधा जो उसके पीछे ही छिपा है, जिसके बिना यह आधा भी नहीं हो सकेगा वह ओझल हो जाता है; न केवल ओझल बल्कि इनकार हो जाता है।
भौतिकवाद आधा सत्य है, विज्ञान आधा सत्य है, आधा सिक्का! धर्म, योग आधा सत्य है, आधा सिक्का! लेकिन जो अपने आधे हिस्से को देख रहे हैं वे दूसरे हिस्से को स्वीकार भी करने को राजी नहीं हैं क्योंकि उनकी आंखों में वह है ही नहीं। लेकिन जिस आधे को वे इनकार कर रहे हैं वह आधा, जिस आधे को वे स्वीकार कर रहे हैं उसका आधार है। और उसके इनकार करने से यह आधा भी मिट जाएगा–बन नहीं सकता।
मैं पूर्ण सत्य के पक्ष में हूं। और पूर्ण सत्य सब विरोधों को आत्मसात कर लेता है। सब तरह के कंट्राडिक्शंस को अपने भीतर ले लेता है। पूर्ण सत्य में कुछ भी निषेध नहीं होता, कुछ नेगेट नहीं होता। पूर्ण सत्य में जो दो बिलकुल विरोधी बातें दिखाई पड़ती थीं–धर्म और विज्ञान, आत्मा और शरीर, बाहर और भीतर, पदार्थ और परमात्मा, जीवन और मृत्यु, सब समाहित हो जाते हैं। पूर्ण सत्य में सब विरोध मिल जाते हैं। असल में पूर्ण सत्य विरोधों के बीच पैदा हुई हार्मनी का ही अनुभव है।
सब विरोधों के बीच जो संगीत पैदा होता है उसके ही अनुभव को पूर्ण सत्य कहेंगे। धर्म भी आधा है, विज्ञान भी आधा है। दोनों के अधूरेपन से मैं इनकार करता हूं। विज्ञान ने बड़ी कोशिश की है। उसकी कोशिश सराहनीय है, उसने आदमी के सुख की बहुत व्यवस्था जुटा दी है, लेकिन सिर्फ व्यवस्था! बीज उसके पास नहीं है जिसमें अंकुर आए। जिसमें अंकुर आ सके वह बीज उसके पास नहीं है। तो व्यवस्था उसने जुटा दी है, भूमि जुटा दी है, सीड जुटा दिया है, माली ला दिया है और प्रतीक्षा हो रही है; लेकिन अंकुर नहीं निकलता। पश्चिम सारा अवसर जुटा कर बैठा है बिना अंकुर के।
भौतिकवादी सारा इंतजाम करके बैठा है बिना बीज के और अब तकलीफ में पड़ गया है कि बीज कहां है? मान कर चला था कि व्यवस्था पूरी हो जाएगी तो सब ठीक हो जाएगा। व्यवस्था पूरी होने के करीब आ गई है। और इसलिए इतना फ्रस्ट्रेशन है पश्चिम में–चाहे अमरीका में, चाहे रूस में, चाहे इंग्लैंड में–इतना विषाद है! विषाद इस बात का है कि निरंतर इस आशा में सारा श्रम किया था कि व्यवस्था पूरी हो जाएगी, सब ठीक हो जाएगा। व्यवस्था पूरी हो गई और पाया गया है कि कुछ खो रहा है, जो पूरा नहीं होता। कोई मिसिंग लिंक है, जिससे जोड़ नहीं बैठता। इसको ही वह गहरा करते चले गए हैं व्यवस्था को। धीरे-धीरे, धीरे-धीरे निकट आती गई है व्यवस्था। सारी व्यवस्था पूरी हो गई है।
वह जो आपने कहा, कपड़े ठीक हो गए हैं, मकान ठीक हो गए हैं, सड़कें ठीक हो गई हैं, सब तरह के साधन विकसित हो गए हैं जिससे मनुष्य की सब इंद्रियां करोड़ गुना गतिमान हो गई हैं। आखिर पैर ही है जो स्पुतनिक में गतिमान हो गया है। और हाथ ही हैं जो तारों तक पहुंच गए हैं। और कान ही हैं, जो रेडियो बन गया है। और वाणी ही है, जो आज सारे जगत में सुनी जा सकती है। सारी व्यवस्था कर ली है आदमी के सुख की। लेकिन आदमी कहीं खोया हुआ मालूम पड़ता है, जिसके सुख का इंतजाम किया है उसका पता नहीं चल रहा है कि वह कहां है! इंतजाम पूरा हो गया है और इंतजाम में हम इतने व्यस्त थे कि हम भूल ही गए थे कि जिसके लिए इंतजाम किया है, जिस मेहमान के लिए घर सजाया है, सोफे लगाए हैं, चित्र लटकाएं हैं, संगीत बजाया है, फूल लगाए हैं, सुगंध छिड़की है, हमेशा आयोजन में इतने व्यस्त थे कि हम भूल ही गए हैं कि वह मेहमान कहां है। अब जब आयोजन पूरा हो गया है तो खोज शुरू हुई है कि वह मेहमान कहां है, वह अतिथि कहां है? उसका कोई पता नहीं चलता। सब आयोजन व्यर्थ हुआ जा रहा है। विज्ञान ने बड़ी मेहनत की है। लेकिन मेहनत एक जगह जाकर, जिसको कहें खड़ी हो गई है जिसके आगे कोई मार्ग नहीं है।
यह होना था। देर-अबेर यह घटना घटनी थी क्योंकि अधूरे सत्य निश्चित एक जगह ले जाते हैं–कल-डि-सैक पर–एक ऐसी जगह, जहां रास्ता खत्म हो जाता है। धर्म भी ऐसे ही अधूरे सत्यों पर खड़े होकर टूट चुका है। धर्म ने भी बड़ी मेहनत की; विज्ञान से कम नहीं, ज्यादा ही। योग ने भी बड़ा श्रम उठाया; कम नहीं, ज्यादा ही। करोड़-करोड़ लोगों ने श्रम किया और उसकी खोज की कि वह कौन है जो आनंदित हो सके? उसकी खोज भी हो गई। इसका भी पता चल गया कि मनुष्य के भीतर वह कौन सा तत्व है, कौन सी आत्मा है, वह कौन सा बीज है जो आनंदित हो सकता है? उसकी खोज भी हो गई, लेकिन बाहर उसके आनंद के लिए कोई अवसर नहीं था, बाहर अवसर ही नहीं था। उसकी खोज में हम इतने भूल गए हैं, मेहमान के पकड़ने में हम इतना भूल गए हैं कि हम यह भूल ही गए हैं कि मेहमान के लिए एक घर भी बनाना है; सोफे भी लगाने हैं, फूल भी लगाने हैं, धूप भी जलानी है, खाना भी बनाना है, संगीत भी सुनाना है। यह सब व्यवस्था करनी है। मेहमान को खोजने में सब भूल गए हैं। मेहमान को ही पकड़ लिया है, लेकिन न घर है, न फूल हैं, न आरती सजी है, कुछ भी नहीं है। मेहमान सामने खड़ा है और व्यवस्था कोई भी, कोई भी नहीं है! वह भूल भी हो चुकी और अब मुझे दिखाई पड़ता है, धर्म ने अतिथि की खोज कर ली, लेकिन अतिथि के लिए व्यवस्था नहीं कर पाया।
ऐसे ये दोनों अधूरे प्रयोग हो चुके और दोनों हार चुके हैं। पूरब ने धर्म हारा, पश्चिम ने विज्ञान हारा। और इस बात का खतरा है अब…हार में अक्सर यह खतरा होता है, दूसरी अति पर चले जाने का। इस बात का अब खतरा है कि पूरब धर्म से हार गया तो विज्ञान को पकड़ ले और पश्चिम विज्ञान से हार गया तो धर्म को पकड़ ले, और फिर वही नासमझी शुरू हो जाए।
इस खतरे से मनुष्य को बचाने की बड़ी जरूरत है। यह खतरा बिलकुल खड़ा हो गया है। पूरब विज्ञान को पकड़ना शुरू कर दिया है। पूरब का विचारशील आदमी भौतिकवादी हुआ जाता है, नास्तिक हुआ जाता है, वैज्ञानिक हुआ जाता है। पश्चिम का विचारशील आदमी उपनिषद, गीता, कुरान, सूफी, झेन, बुद्ध, महावीर की खोज में निकल पड़ा है। पश्चिम का विचारशील आदमी धार्मिक हुआ जाता है, पूरब का विचारशील आदमी भौतिक हुआ जाता है। वही दुर्घटनाएं फिर घटी जाती हैं। जिस चक्कर से मनुष्यता अभी तक गुजरी, वह चक्कर फिर जारी रहेगा।
ऐसा हुआ जा रहा है जैसा एक गांव में मैंने सुना है कि दो आदमी थे, एक आस्तिक था, एक नास्तिक था। दोनों बड़े पंडित थे और गांव बहुत परेशान था। और गांव मुश्किल में था कि कौन ठीक है। फिर गांव ने कहा कि तुम दोनों एक दिन विवाद कर लो और तय कर लो कि कौन ठीक है। हम फिजूल चक्कर में नहीं पड़ना चाहते। हम बहुत कंफ्यूज्ड हो गए हैं। तुम जो कहते हो वह भी ठीक लगता है, विरोधी जो कहता है वह भी ठीक लगता है।
एक पूर्णिमा की रात दोनों का विवाद हुआ। सारा गांव बाजार में इकट्ठा हुआ। आस्तिक ने परमात्मा के लिए दलीलें दीं, नास्तिक ने विरोध में दलीलें दी। दोनों ने एक दूसरे का खंडन किया, दोनों ने अपना समर्थन किया। दोनों बड़े प्रबल थे। दोनों बड़े तर्कनिष्ठ थे। रात पूरी-पूरी होते ऐसा हुआ जिसकी कि गांव ने कभी कल्पना भी न की थी–आस्तिक नास्तिक हो गया, नास्तिक आस्तिक हो गया। दोनों एक दूसरे से राजी हो गए। और दोनों की मुसीबत फिर वहीं की वहीं रही, क्योंकि गांव में फिर एक नास्तिक रहा, फिर एक आस्तिक रहा। सिर्फ आस्तिक अब बदल कर नास्तिक हो गया, नास्तिक बदल कर आस्तिक हो गया। गांव की झंझट वही की वही रही। गांव को कोई फर्क न पड़ा। गांव की मुसीबत पुरानी की पुरानी रही।
ठीक यही दुनिया में हुआ जा रहा है। मनुष्यता फिर मुसीबत में पड़ जाएगी। मेरी दृष्टि में, जीवन की समग्रता, टोटेलिटी स्वीकृत हो तो ट्रांसफार्मेशन हो सकता है। यानी यह रूपांतरण के लिए, जीवन क्रांति के लिए पहला सूत्र है–समग्र जीवन का स्वीकार, पूर्ण जीवन का स्वीकार। स्थूलतम से लेकर सूक्ष्मतम का स्वीकार, निम्नतम से श्रेष्ठतम का स्वीकार!
मेरी एक बात समझ लें कि जो कंट्री में कोई भी आदमी रहते हैं तो आज यहां का जो समाज यदि अध्यात्मवादी है, जिनको चांस नहीं मिला, उनकी (प्रवृत्ति 24ः27) ही उनको भौतिक की तरफ ले जाती है और जो मैटीरियलिस्ट वह दूसरी कंट्रीज में हैं और उनको जब चांस नहीं मिलता है। तो न चांस वाले ही दूसरे कल्ट को खड़ा कर दिया है। इसके बारे में क्या कहते हैं?
यह भी थोड़ी दूर तक ठीक है, यह भी थोड़ी दूर तक ठीक है! असल में, जिस व्यवस्था में हम रहते हैं उस व्यवस्था से असंतोष हो तो ही हम दूसरी व्यवस्था को स्वीकार करते हैं। वही मैं कह रहा हूं। यानी यह एक-दो व्यक्तियों का सवाल नहीं है। अब तो पूरा का पूरा समाज पूरब का समाज धर्म से हार गया, कोशिश कर करके हार गया। और आनंद उपलब्ध नहीं हो सका। कभी एकाध-दो व्यक्तियों को हुआ, लेकिन समाज को नहीं हो सका। पश्चिम का समाज हार गया व्यवस्था कर-करके। कभी एक-दो लोगों को, वहां भी, इस व्यवस्था से भी आनंद उपलब्ध हुआ, लेकिन समाज को नहीं हो सका।
यह जो एक-दो लोगों को पूरब में, एक-दो लोगों को पश्चिम में आनंद उपलब्ध हुआ इसका कारण यही था! इसका कारण यही था कि उनके भीतर दोनों चीजें किसी रूप से पूरी हो गईं। किसी रूप से पूरी हो गईं! जैसे, बुद्ध को उपलब्ध हो सका आनंद क्योंकि बाहर की जरूरतें बुद्ध की पूरी हो चुकी थीं। बाहर की दुनिया तृप्त हो चुकी थी। भीतर के अतिथि की उन्होंने खोज कर ली और बाहर का सामान और इंतजाम पहले पूरा हो चुका। पश्चिम में भी ऐसे ही हुआ, जैसे एपीकुरस को–एपीकुरस को भीतर का मेहमान मिल चुका था पहले, और तब उसने बाहर की सारी व्यवस्था कर ली। तो उस बाहर की व्यवस्था में भी उसको आनंद मिल सका।
मैं मानता हूं कि एपीकुरस हैं भौतिकवादी और बुद्ध हैं अध्यात्मवादी, लेकिन दोनों उसी आनंद को उपलब्ध हो गए हैं। एपीकुरस और बुद्ध की ऊंचाइयों में, गहराइयों में कोई भी फर्क नहीं है। समझना मुश्किल है इस बात को। क्योंकि बुद्ध को बाहर की व्यवस्था पहले मिल चुकी है और मेहमान बाद में खोज लिया है। भीतर के अतिथि को पीछे खोज लिया, आत्मा पीछे खोज ली। एपीकुरस को आत्मा मिल चुकी है, बाहर की व्यवस्था खोज ली है।
इसलिए एपीकुरस कहता है कि बाहर की व्यवस्था पूरी हो गई तो सब पूरा हो गया। यह जो वह कह पा रहा है, उसे भी पता नहीं कि यह दूसरे के लिए यह कारगर नहीं होगा। अगर भीतर का अभी विकास नहीं हुआ तो बाहर की व्यवस्था उसे कुछ भी नहीं दे पाएगी। बुद्ध कह रहे हैं कि अगर भीतर के मेहमान को पा लिया तो सब पा लिया, बाहर कुछ भी नहीं है। बुद्ध को यह पता नहीं कि जिसको बाहर अभी कुछ भी नहीं मिला उस पर यह बात लागू नहीं होगी।
ये घटनाएं अचेतन हैं। न बुद्ध को साफ पता है, न एपीकुरस को साफ पता है। पीछे लौट कर अब हम देख सकते हैं और चीजें ज्यादा साफ हो सकती हैं। तो अपवाद पश्चिम में घटे, अपवाद पूरब में घटे। लेकिन पूरब भी हार गया अपनी कोशिश में। समाज आनंदित नहीं हुआ, मनुष्यता आनंदित न हुई। पश्चिम भी हार गया अपनी कोशिश में।
हारी हुई संस्कृति तत्काल विपरीत संस्कृति पर लौट जाती है। इसलिए आज पश्चिम पूरब खोजने आता है। पूरब के विद्यार्थी पश्चिम खोजने जा रहे हैं। पूरब का सोचने वाला आदमी पश्चिम की तरफ नजर लगाए हुए है। पश्चिम का सोचने वाला आदमी तिब्बत आता है, भारत आता है, हिमालय आता है। और इससे बड़ी भ्रांति पैदा होती है। इससे बड़ी भ्रांति पैदा होती है! इससे भारतीयों को लगता है कि शायद हम गलत कर रहे हैं, गलती कर रहे हैं धर्म को छोड़ कर–कि देखो, पश्चिम के लोग यहां चले आ रहे हैं। लेकिन उन्हें पता नहीं कि पश्चिम के लोगों के आने का कारण दूसरा है। पश्चिम के लोगों को हैरानी होती है कि शायद हम विज्ञान की निंदा करके गलती कर रहे हैं। ये पूरब के लड़के तो पश्चिम चले आते हैं खोजने। पर उन्हें पता नहीं कि इनके आने का कारण बिलकुल दूसरा है।
मेरी दृष्टि में रूपांतरण का, पूर्ण मनुष्य को बदलने का पहला सूत्र हैः पूर्ण मनुष्य की स्वीकृति–अनकंडेम्ड, बिना किसी निंदा के। मनुष्य के जीवन में जो भी है, बाहर से बाहर की परिधि और भीतर से भीतर का बिंदु, ये दोनों स्वीकृत हैं।
दूसरी बात हैः इस स्वीकृति में, इस पूर्ण स्वीकृति में फिर क्या करना है? इस पूर्ण स्वीकृति में परिपूर्ण रूप से जागना है, अवेयरनेस लानी है। उसे ही मैं ध्यान कहता हूं। वही रूपांतरण का गहरा बिंदु है–पूर्ण स्वीकार! समग्र का, बाहर का, भीतर का, और फिर बाहर-भीतर के इस स्वीकार में जागरण!
इस बाहर के स्वीकार में भी मूच्र्छा हो सकती है कि ठीक है, सब स्वीकृत है–और आदमी मूच्र्छित जीए, खाना भी मूच्र्छित खाले, और पूजा भी मूच्र्छित कर ले, कपड़े भी मूच्र्छित पहन ले और ध्यान भी मूच्र्छित कर ले। स्वीकार में भी मूच्र्छा हो तो कोई परिणाम नहीं होगा। स्वीकार में अगर मूच्र्छा हो तो ज्यादा से ज्यादा इतना होगा कि दुख का जो दंश है वह कम हो जाएगा। आनंद उपलब्ध नहीं होगा। यह भी हो सकता है कि दुख बिलकुल क्षीण हो जाए तो भी आनंद उपलब्ध नहीं होगा। क्योंकि आनंद का मतलब सिर्फ दुख का मिट जाना नहीं है। आनंद एक विधायक, पाजिटिव उपलब्धि है। वह सिर्फ दुख का निषेध नहीं है। वह इतना ही नहीं है कि अब मैं दुखी नहीं हूं। अब मैं दुखी नहीं हूं, यह भी हो सकता है और हो सकता है कि वह आदमी आनंदित न हो। यह बीज की तटस्थ स्थिति हो सकती है।
तो जो व्यक्ति सब स्वीकार कर लेगा वह दुखी तो नहीं रह जाएगा। क्योंकि वह दुख को भी स्वीकार कर लेता है, इसलिए वह पीड़ा भी चली गई। लेकिन अगर वह मूच्र्छित है तो सिर्फ दुख का निषेध होगा, आनंद नहीं उपलब्ध होगा। हां, आनंद तो उपलब्ध होगा, अगर वह जागे।
इसलिए मैंने पहला सूत्र कहा, सर्व-स्वीकार–टोटल एक्सेप्टिबिलिटी। यह पहला है, जिससे दुख विसर्जित होगा और समता आएगी। दुख-सुख सब समान हो जाएंगे क्योंकि सब स्वीकार है।
दूसरा सूत्र हैः जागरूकता, अमूच्र्छा, होश, कांशसनेस। यह बड़े आश्चर्य की बात है कि साधारणतः जब हम दुख में होते हैं तभी हम थोड़ा जागते हैं और जब हम सुख में होते हैं तब हम बिलकुल सोए होते हैं। पैर में अगर कांटा गड़े तो ही हमें पैर का पता चलता है। कांटा न गड़े तो पैर का पता ही नहीं चलता, पैर के प्रति हम बिलकुल बेहोश होते हैं। सिर में दर्द हो तो सिर का पता चलता है। दर्द न हो तो सिर का कोई पता नहीं चलता। असल में जब हम दुख में होते हैं, तभी थोड़ा हमें जागना पड़ता है, मजबूरी में। वह जागना मजबूरी का है। और इसलिए है कि बिना जागे दुख के साथ हम कुछ भी नहीं कर सकते हैं।
इसलिए प्राकृतिक व्यवस्था है कि जब दुख आए तो आदमी को जागना पड़े। दुख आए तब आदमी को जागना पड़े ताकि वह दुख को मिटाने के लिए कुछ कर सके–कुछ भी कर सके। तो प्रकृति तो सिर्फ हमें दुख में जगाती है, वह नाॅन-वायलेंटरी है। वह जो जागरण है, हमारी इच्छा का, स्वेच्छा का नहीं, हमारे संकल्प का नहीं है। वह भी हमारी मजबूरी का हिस्सा है। दुख जाएगा, हम फिर सो जाएंगे।
मैं जिस जागरण की बात कर रहा हूं, वालेंटरी अवेयरनेस। इस फर्क को समझ लेना जरूरी है। दुख में हम जागते हैं, वह स्वेच्छा से नहीं, स्वयं से नहीं–जागना पड़ता है! वह एक मजबूरी है, एक कंपल्शन है। साधना में जिस जागने की मैं बात कर रहा हूं वह मजबूरी नहीं है। वह हमारा स्वेच्छा से वरण किया हुआ उपाय है। वह हम जाग रहे हैं। और यह इतना बुनियादी फर्क है दोनों बातों में, क्योंकि जब हम स्वेच्छा से जागते हैं तो हमारे भीतर जागरण की क्षमता विकसित होती है। और जब हम मजबूरी में जागते हैं तब जैसे ही अवसर गया, निद्रा फिर पकड़ लेती है। यानी वह जागना क्षण भर का जागना होता है।
जैसे किसी आदमी की छाती पर हमने छुरा रख दिया तो वह एक सेकेंड को जाग जाएगा। शायद ऐसा वह जिंदगी में कभी नहीं जागा होगा। एक क्षण को उसकी सारी मूच्र्छा टूट जाएगी। एक क्षण को वह उस क्षण में पहुंच जाएगा जिसमें ध्यानी को पहुंचना चाहिए। वह एक क्षण में परिपूर्ण जागरूक होगा। सब विचार मिट जाएंगे, सब चिंताएं खो जाएंगी। अभी यह सोच रहा था कि मुकदमे में क्या करूं, मुकदमा विलीन हो जाएगा। अभी भाग रहा था, पत्नी बीमार है, उसकी दवा लानी है; दवा, पत्नी सब विलीन हो जाएंगे। अभी मंदिर चला जा रहा था कि प्रार्थना-पूजा करूं; न मंदिर रहेगा, न पूजा, न प्रार्थना रहेगी। अभी मन में हजार-हजार विकल्प चलते थे, सब खो जाएंगे। छुरे की धार एक मोमेंट को फाड़ देगी उसके भीतर, एक दरार पैदा कर देगी और उस दरार में वह पूरा खड़ा रह जाएगा, जिस वक्त न कोई विचार होगा, न कोई चिंता होगी, न कोई अशांति होगी। एक क्षण को यह स्थिति उसे जागने के लिए मजबूर कर देगी, लेकिन बस एक क्षण!
खतरे में आदमी जागता है। दुख में आदमी जागता है। जीवन संकट में होता है, क्राइसिस में होता है तो आदमी जागता है। लेकिन यह जागना प्राकृतिक है, स्वाभाविक है। यह जागता इसलिए है कि ताकि वह इस स्थिति के साथ ठीक से सामना कर सके, बस। स्थिति गई, वह आदमी वापस अपनी दुनिया में लौट आएगा–उसी निद्रा में, उसी सपने में, उसी विचारों में, उसी चिंता में। फिर वापस अपनी जगह खड़ा हो जाएगा। एक क्षण को तीर की तरह जागरण उसके भीतर गया, फिर वापस लौट गया। एक क्षण को वह जागेगा, फिर सो जाएगा।
ऐसा जागरण स्वेच्छा से चाहिए, बिना किसी दबाव के, सहज। भोजन कर रहा हो तो भी वह ऐसा जागा हो जैसे किसी ने छाती पर छुरा रख दिया है। और कपड़े पहन रहा हो तो भी ऐसा जागा हो जैसे कि हजार-हजार कांटे सब तरफ से छिदे हुए हैं। और जब सुख में जी रहा हो, तब भी वह ऐसा जागा हो जैसे कि चारों तरफ दुख घेरे हुए है। तब वह स्वेच्छा से जागा; तब यह सेल्फ रिमेंबरिंग बन जाएगी। तब यह आत्म-स्मृति बनेगी। और इस भांति अगर कोई व्यक्ति चैबीस घंटे जाग कर जी रहा है, चैबीस घंटे जाग कर जी रहा है, ऐसा कोई भी क्षण नहीं जब हम उसे सोया हुआ कह सकें–क्रोध में भी होता है तब भी भीतर जागा होता है और प्रेम में होता है तब भी भीतर जागा हुआ होता है–ऐसे जागरण की जितनी गहराई बढ़ती चली जाएगी उतना ही रूपांतरण, ट्रांसफार्मेशन होता चला जाएगा। उतना ही नया व्यक्ति पैदा होने लगेगा, जो वह व्यक्ति कभी भी नहीं था।
सोया हुआ व्यक्ति कभी भी वह नहीं है, जो जागा हुआ व्यक्ति होगा। क्योंकि सोया हुआ जो करता है, जागा हुआ कभी नहीं कर सकता है। सोया हुआ जो झेलता है, जागा हुआ कभी नहीं झेलता। फेंको पत्थर, गालियां बको, नग्न हो जाओ तो वह आदमी कहे, पागल हैं? ऐसा मैं कैसे कर सकता हूं, मैं कोई पागल हूं! यही आदमी कल सांझ यही सब करता था। यही आदमी सुबह कहता है, मैं यह कैसे कर सकता हूं? सुबह शायद यह इनकार ही करे कि मैंने यह किया ही नहीं। यह मैं कर ही नहीं सकता हूं। और अगर किया भी होगा तो नशे में किया होगा। मैंने नहीं किया। जैसे शराब पीए हुए आदमी का व्यवहार एक होगा, उसी आदमी का शराब उतर जाने पर व्यवहार बिलकुल भिन्न होगा, उलटा ही होगा। ऐसे ही मूच्र्छित आदमी का व्यवहार एक है, जागे हुए आदमी का व्यवहार बिलकुल दूसरा होगा। मूच्र्छित आदमी अपने अनजाने ही चाहता तो आनंद है, लेकिन जो भी करता है, उससे दुख पैदा होता है।
मूच्र्छित आदमी चाहता तो आनंद ही है, लेकिन जो भी करता है, उससे दुख ही पैदा होता है। वह जो आदमी शराब पीकर सड़क पर खड़े होकर पत्थर फेंक रहा है वह भी यही सोच रहा है कि आनंद के लिए ही शराब पी ली है उसने। और वह वही सोच रहा है कि शायद बड़े आनंद का कृत्य कर रहा है। लेकिन वह दुख ही पैदा कर रहा है। हो सकता है, पिटे-कुटे–हो सकता है, थाने भेजा जाए–हो सकता है, पागलखाने में बंद किया जाए। मूच्र्छित आदमी वह मांगता तो है आनंद; लेकिन जो करता है, उससे आता है दुख!
मूच्र्छा दुख को आकर्षित करती है। मेरी दृष्टि में मूच्र्छा दुख के लिए रिसेप्टिविटी है। जितना सोया हुआ आदमी है, उतना उसके चारों तरफ दुख घिर जाता है। जैसे हम अंधेरा कर दें–दरवाजा बंद कर दें, द्वार बंद कर दें, कमरे को बंद कर दें। तो बंद कमरे के भीतर धीरे-धीरे सांझ बदबू पैदा होनी शुरू हो जाती है। क्योंकि न सूरज की किरणें आती हैं, जो सड़न से बचातीं। न ताजी हवाएं आतीं है, जो बदबू से बचातीं। बंद अंधेरे कमरे के भीतर धीरे-धीरे ऐसे जीव-जंतु सरकने ही लगते हैं जो अंधेरे में ही सरक सकते हैं। जो उजाले में भाग जाते हैं; जिनके लिए अंधेरा जरूरी है। वहां कीड़े-मकोड़े पलेंगे, वहां जाले फैलेंगे, वहां सांप-बिच्छू इकट्ठे होंगे। वह अंधेरा घर धीरे-धीरे बहुत तरह की अंधेरी चीजों का निवास बन जाएगा। वहां भूत-प्रेत भी इकट्ठे हो जाएंगे, वे जो अंधेरे में ही रह सकते हैं, वह घर धीरे-धीरे अंधेरे की दुनिया हो जाएगी। अंधेरा किन्हीं चीजों को आकर्षित करता है। वे वहां इकट्ठी हो जाएंगी। उस अंधेरे कमरे में फूल नहीं खिल सकते। उस अंधेरे कमरे में बीज अंकुरित नहीं हो सकते। उस अंधेरे कमरे में वही आकर्षित हो सकता है, जो अंधेरे में पलता और बड़ा होता है। उस कमरे के हम द्वार दरवाजे खोल दें, ताजी हवाएं बहें, सूरज की रोशनी उतरे, चांद झांके, उस कमरे की शक्ल बदलनी शुरू हो जाएगी। वे जो अंधेरे में जीते थे, छोड़ देंगे उस कमरे को, भाग जाएंगे। और वे जो प्रकाश में ही आते हैं, उनका आगमन शुरू हो जाएगा।
ठीक ऐसे ही मूच्र्छा मनुष्य के भीतर एक तरह की रिसेप्टिविटी है–एक खास तरह की ग्राहकता। उस ग्राहकता में वही सब आता है–क्रोध है, घृणा है, वैमनस्य है, शत्रुता है, ईष्र्या है, महत्वाकांक्षा है, अहंकार है, लोभ है, मोह है, काम है, वह सब उस मूच्र्छा में आकर्षित होता है। और वह आदमी सोचता है कि यह मैं कर रहा हूं। वह करता-वरता नहीं है, वह सिर्फ अंधेरे में ही जी रहा है, इसीलिए यह सब होता है। जिस दिन वह जागेगा, उजाले से भरेगा, उस दिन वह पाएगा, यह तो मैंने कभी किया ही नहीं। यह सब होगा और हो सका इसलिए कि मेरा स्टेट ऑफ माइंड, मेरे होने की स्थिति ऐसी थी कि यही हो सकता था। यही आकर्षित होता था।
फिर एक जाग्रत चेतना है, जिसमें सब नई तरह की चीजें आकर्षित होती हैं, क्योंकि वह एक नये तरह की रिसेप्टिविटी है; वह एक और ही तल पर ट्यूनिंग है। अंधेरे की एक ट्यूनिंग थी, वहां अंधेरा कुछ बुलाता था। फिर उजाले की एक ट्यूनिंग है, वहां कोई और आता है–जिसको हम जीवन में गुण कहते हैं, सदगुण कहते हैं, वच्र्यू कहते हैं।
मेरी दृष्टि में, एक ही पाप है–सोया हुआ होना। और एक ही पुण्य है–जागा हुआ होना। क्योंकि सोए हुए होने में फिर सब पाप आमंत्रित हो जाते हैं, वह निमंत्रण है और पापों के लिए। और जागे हुए होने पर सब पुण्य भागे चले आते हैं क्योंकि वह निमंत्रण है सूरज का। वह निमंत्रण है, जहां फूल खिलते हैं, जहां बंद कलियां पंखुड़ियां खोल देती हैं, जहां बंद सुगंध भीतर की बाहर बिखर जाती है, जहां पक्षी गीत गाते हैं। जहां आकाश में उड़ने वाले पक्षी भी डेरा बसेरा करते हैं। वह एक नई दुनिया है बिलकुल।
तो इसलिए मैं कहता हूं, ट्रांसफार्मेशन का, क्रांति का, परिवर्तन का, रूपांतरण का, व्यक्तित्व को आमूल बदलने का एक मात्र गहरा सूत्र है, और वह है, निरंतर जागे हुए जीना; एक-एक पल जागे हुए जीना। हम जो भी कर रहे हैं, उसमें जागे हुए जीना। ऐसा कुछ भी न हो हमसे जब हम सोए हुए थे, इसका ध्यान रखना, इसका निरंतर स्मरण रखना। इसके लिए, इसके प्रति निरंतर सजग होना कि एक कदम भी मेरा ऐसा न पड़े, हाथ भी मेरा न उठे, आंख भी मेरी न झपके। न मैं कुछ ऐसा देखूं जो मैंने सोए हुए देखा हो। न मैं कुछ ऐसा सुनूं जो मैंने सोया हुआ सुना हो। मेरा एक गेस्चर भी सोया हुआ न हो, इशारा भी सोया हुआ न हो, सब जागा हुआ हो। ऐसी जो चेष्टा, ऐसा जो श्रम, ऐसी जो निरंतर साधना है, वह साधना व्यक्ति को मूच्र्छा से जागरण की दुनिया में ले जाती है और अनकांशस से कांशस में ले जाती है।
जितना व्यक्ति जागता है उतना अनकांशस मिटने लगता है, अचेतन मिटने लगता है, अचेतन समाप्त होने लगता है। और जितना व्यक्ति सोता है उतना अचेतन में डूबने लगता है। हमारे भीतर काफी गहरा अचेतन है। अगर दस हिस्से करें मन के, तो नौ हिस्सा अचेतन है, अनकांशस है, एक हिस्सा चेतन है। जब हम शराब पी लेते हैं तो वह भी अचेतन हो जाता है। जब हम रात सो जाते हैं तो वह भी अचेतन हो जाता है। जब हम सेक्स में, काम में पीड़ित होकर पागल हो जाते हैं तब वह फिर चेतन सो जाता है। वह चेतन सो जाता है और अब हम ‘पूरा का पूरा ब्लाक’ अचेतन के ही हो जाते हैं। जब हम जागते हैं तो चेतन बढ़ता है। और जब हम चैबीस घंटे जाग कर जीते हैं तो चेतन गहरा होने लगता है।
जिस दिन पूरा मन, पूरा मानस चेतन हो जाता है, एक कोना भी नहीं रह जाता जो अनकांशस है, अचेतन है; मेरे भीतर एक भी चीज नहीं रह जाती जिसे मैं नहीं जानता हूं, जो मेरे होश में नहीं है; मैं एक भी काम ऐसा नहीं करता हूं जिससे मुझे कहना पड़े कि मैंने अनजाने कुछ कर दिया, मुझे पता नहीं था; एक शब्द नहीं बोलता हूं, जो मैंने नहीं बोला है–तब फिर जीवन में एक क्रांति होनी शुरू हो जाती है। एक नया ही व्यक्ति जन्म ले लेता है। और ऐसा व्यक्ति आनंद को आकर्षित करता है। ऐसा व्यक्ति आनंद को बुलाता है। वह जो भी करता है आनंद ही आता है। वह जो भी करता है, उससे प्रेम ही बहता है। वह जो भी करता है उससे सदभावना ही उठती है। वह जो भी करता है, सुगंध ही बहती है। और ध्यान रहे, जो हम से बहता है, वही हम में आता है।
वह प्रभु को कैसे स्वीकार करे, दुखी चित्त माने ही कैसे कि प्रभु भी हो सकता है, परमात्मा भी हो सकता है? दुख तो इनकार ही करेगा। दुख तो कहेगा, कुछ भी नहीं है। दुख तो कहेगा, शुभ असंभव है। दुख तो कहेगा, सत्य हो नहीं सकता; क्योंकि दुख इतना बड़ा है कि इस दुख से तालमेल कैसा है ईश्वर का? मूच्र्छा इनकार करेगी परमात्मा से। और जैसे ही व्यक्ति जागा, परमात्मा ही रह जाएगा। और कण-कण में वही दिखाई पड़ने लगेगा। क्योंकि जिसे, सब तरफ से आनंद मिल रहा हो, जो सब तरफ से आनंद में जी रहा हो, जिसका कण-कण आनंद में नाच रहा हो, जिसकी श्वास-श्वास नृत्य कर रही हो, वह कैसे माने यह कि यह जगत सिर्फ पदार्थ है, कि सिर्फ मिट्टी-पत्थर से बना है, हवा-पानी से बना है? नहीं मान सकता। यह आनंद की पुलक उसे कह रही है कि इस जगत के बहुत गहरे में आनंद का ही स्रोत होना चाहिए।
जो व्यक्ति मूच्र्छित है, वह कैसे माने कि जगत में चेतना है, कांशसनेस है? कोई चेतन शक्ति है जीवन को सब तरफ से आवेष्ठित किए हुए है–कोई ब्रह्म, कैसे माने? जो खुद मूच्र्छित है, वह कैसे माने? वह यही मान सकता है कि सब पदार्थ है, सब मैटर है। असल में मूच्र्छा मान ही नहीं सकती कि चेतना कहीं है। वह मूच्र्छा कहेगी कि सब पदार्थ है, सब मैटर है। लेकिन जब कोई जागता है तब वह पाता है कि पदार्थ तो कहीं भी नहीं है।
जिसे हम पदार्थ कहते हैं वह भी बहुत गहरे में चेतन है। यहां कुछ भी अचेतन नहीं है, मैटर है ही नहीं। पदार्थ असत्य है, चेतना ही सत्य है। कहीं सोई है बहुत, तो पदार्थ मालूम पड़ रही है। कहीं जाग गई है तो मनुष्य मालूम पड़ रही है। कहीं पूर्ण जाग गई है तो परमात्मा मालूम पड़ रही है। ये सब चेतना के ही सोने और जागने के क्रम हैं। पत्थर गहरे में सोया है। वह सोई हुई आत्मा है। आदमी थोड़ा सा जागा है। वह थोड़ी सी जागी हुई आत्मा है। परमात्मा पूरा जागा है। वह पूरी जागी हुई आत्मा है। बस जो भेद हैं जगत में वह सोने और जागने के हैं, और इसलिए कोई भी ट्रांसफार्मेशन, कोई भी रूपांतरण, मूच्र्छा से जागने में जाने का द्वार है; जागने में जाने की विधि है। रूपांतरण का एक ही अर्थ है कि कैसे हम जागे हुए जीएं, कैसे हम सोए हुए न रह जाएं। और अगर, कोई दिन में जाग सके तो धीरे-धीरे रात में भी जाग जाता है। वह कृष्ण ठीक कहते हैं गीता में कि जब सब सोते हैं तब भी योगी जागता है। जब सबके लिए निद्रा आ गई तब भी उसे दिवस है! वह ठीक कहते हैं, उस ठीक का मतलब यह है। सच ही जो दिन भर जाग कर जीआ है, धीरे-धीरे रात में भी जागा हुआ ही सोता है।
हम सोए हुए ही जागते हैं। हम जागे हुए मालूम पड़ रहे हैं लेकिन भीतर सब सोया हुआ है। चले जा रहे हैं रास्ते पर, दफ्तर में काम कर रहे हैं, सब हो रहा है, भीतर सोए हुए हैं। जो जाग गया है, वह रात सोएगा भी, बिस्तर पर भी जाएगा, आंख भी बंद करेगा, सो भी गया है, लेकिन भीतर जागा ही रहेगा। वह यह भी जानता रहेगा कि मैं सो रहा हूं। ऐसा जागा हुआ व्यक्ति स्वप्न नहीं देखेगा। स्वप्न विलीन हो जाएगा।
ऐसा जागा हुआ व्यक्ति निरंतर विचार की तरंगों से नहीं घिरा होगा, वह विलीन हो जाएगा। विचार उसके लिए अभिव्यक्ति भर रह जाएगा। जब उसे किसी से कहना है, कम्युनिकेट करना है, तब वह विचार का उपयोग करेगा। विचार उसके लिए सिर्फ साधन है संवाद का, सोचने का नहीं–सोचेगा नहीं, विचारेगा नहीं। जब नहीं संवाद कर रहा है तब वह चुप होगा, मौन होगा। विचार खो जाएंगे, स्वप्न खो जाएंगे।
और जब भीतर से विचार और स्वप्न सब खो जाते हैं तो मन ही खो जाता है। तब एक नो-माइंड की–जागा हुआ आदमी एक स्थिति में पहुंचता है, जिसे स्टेट ऑफ नो-माइंड कहें, अ-मन की स्थिति–मन नहीं है तब! और जब मन नहीं होता तभी हमें पता चलता है आत्मा का। तभी हम उसे जानते हैं जो हमारे गहरे से गहरे में बैठा हुआ है। वहां न कभी दुख पहुंचा, वहां न कभी कोई तरंग पहुंची, वहां न कभी कोई लहर पहुंची, वहां न कभी कोई मृत्यु पहुंची–वहां शाश्वत, अनंत जीवन वहां है। उसको हम एक बार जान लें तो फिर सब तरफ वही जीवन है, एक दफा रिकग्नाइज कर लें, पहचान लें कि क्या है अनंत जीवन, क्या है आत्मा, तो फिर वह हमें सब जगह दिखाई पड़ने लग जाएगी। क्योंकि हम उसे पहचानते नहीं, इसलिए वह कहीं दिखाई नहीं पड़ती। फिर मृत्यु से बड़ा झूठ कुछ भी नहीं है। पदार्थ और मृत्यु दो बड़े असत्य हैं। परमात्मा और अमृत्यु दो बड़े सत्य हैं। लेकिन सोए हुए जीवन में पदार्थ और मृत्यु सबसे बड़े सत्य हैं और जागे हुए जीवन में परमात्मा और अमृत्यु सबसे बड़े सत्य हो जाते हैं।
और ध्यान रहे, ये ही छोटा सा मार्ग, जो हमें नींद से जागने में ले जाता है, मौलिक अर्थों में धर्म है–यही छोटा सा मार्ग! न तो मंदिरों से प्रयोजन है, न क्रिया-कांडों से, यज्ञ-हवनों से। इन सबसे कोई मतलब नहीं है। ये सब सोए हुए आदमी की ही तरकीबें हैं। ये सब सोए हुए आदमी के ही रिचुअल हैं। वह मंदिर में प्रार्थना कर रहा है, हवन-कीर्तन कर रहा है, मंत्र पढ़ रहा है, राम-राम जप रहा है, ये सब सोए हुए आदमी के ही उद्गम हैं।
यानी सोया हुआ आदमी भी एक तरह का धर्म निर्मित करता है। सोया हुआ आदमी भी धर्म निर्मित करता है। और सोया हुआ आदमी जब धर्म निर्मित करता है तो धर्म झगड़ों का कारण बन जाता है–हिंदू, मुसलमान, ईसाई। ये सब रिचुअल के फर्क हैं, धर्म के नहीं। क्योंकि एक सोया हुआ आदमी एक तरह का मंदिर बनाता है; क्योंकि मंदिर क्या है, यह तो उसे पता ही नहीं। वह खुद ही मंदिर बना रहा है। दूसरे सोए हुए दस आदमी मिल कर एक मस्जिद बनाते हैं, तीसरे दस आदमी एक चर्च बनाते हैं, फिर वे तीनों लड़ते हैं कि हमारा मंदिर सही है। हमारा मंदिर असली मंदिर है। जो इस मंदिर में नहीं आएगा वह नर्क जाएगा।
ये सोए हुए आदमी सिद्धांत भी रचते हैं, सिस्टम्स भी बनाते हैं। यह सोया हुआ आदमी भी, एक्सप्लेन करने की, व्याख्या करने की कोशिश में लगा हुआ है। और सोए हुए आदमी के न व्याख्याओं का कोई मतलब है, न उसके धर्मों का कोई मतलब है, न उसके शास्त्रों का कोई मतलब है, न उसके मंदिरों का कोई मतलब है, क्योंकि सोए हुए आदमी के किसी कृत्य का कोई मतलब नहीं है।
सवाल यह है कि एक सोया आदमी है! और वह कुछ भी करता है, नहीं करता है तो बराबर वही है, करता है तो भी बराबर वही है। सोया हुआ आदमी सोया हुआ आदमी है। वह चाहे प्रार्थना करे, और चाहे न करे, दोनों में कोई फर्क नहीं पड़ता है! असली सवाल यह नहीं है कि सोया हुआ आदमी क्या करे और क्या न करे! असली सवाल यह है कि सोया हुआ आदमी सोया हुआ न रह जाए। इस बात को ठीक से समझ लेना चाहिए। नहीं तो ट्रांसफार्मेशन के नाम से हजार तरह का पागलपन चलता है। मूर्तियां खड़ी हैं, आदमी हाथ-पैर जोड़े खड़े हैं, प्रार्थनाएं कर रहे हैं, घी और गेहूं फेंक कर आग जला रहे हैं। आग के मंदिर बनाए हुए हैं जहां आग कभी नहीं बुझने दे रहे हैं। चल रहा है, हजार-हजार तरह का उपाय चल रहा है। लेकिन सोया हुआ आदमी कुछ भी नहीं कर सकता। सोया हुआ आदमी जो भी करेगा वह उसकी नींद का ही कृत्य होने वाला है। और नींद का कोई कृत्य, जागने में रूपांतरित नहीं हो सकता है।
नहीं, हमें तो नींद ही तोड़नी पड़ेगी। सीधी नींद तोड़नी पड़ेगी। सोए हुए कुछ करने का अर्थ नहीं है, सोना ही छोड़ना पड़ेगा। और इसके लिए एक ही रास्ता है कि हम जो भी करें, वह हम दो तरह से कर सकते हैं। रास्ते पर हम चल रहे हैं, हम इस भांति चल सकते हैं कि हमें चलने का पता ही न हो और हम इस भांति भी चल सकते हैं कि चलने का हमें एक-एक कदम का पता हो, बोध हो, होश हो। खाना खा रहे हैं तो ऐसे खा सकते हैं जैसे मशीन खा रही हो। ऐसे ही हम खाते हैं। हाथ की आदत है, वह कौर बना लेता है। मुंह की आदत है, वह नीचे सरका देता है। और यह सब काम हम कर लेते हैं। स्नान कर रहे हैं और पानी डाल लेते हैं मशीन की भांति, मैकेनिकल।
एक-एक कृत्य को जो भी हम कर रहे हैं–छोटे से छोटे और बड़े से बड़ा, वह हम कैसे होशपूर्वक करें, बस इतना ही महत्वपूर्ण है। और अगर हम इसे होशपूर्वक करने लगें तो धीरे-धीरे, धीरे-धीरे नींद टूटती है और जागरण आता है। और एक दिन ऐसी घटना घटती है कि हम पूरे जागे हुए हो जाते हैं। इस जागरण की ही वजह से ही सिद्धार्थ गौतम को बुद्ध का नाम दिया। बुद्ध का मतलब है, द अवेकंड; वह जो जाग गया–वह आदमी, जो जाग गया!
तो जैसे ही कोई व्यक्ति जाग जाएगा वैसे ही वह एक नये जगत में प्रवेश कर गया। वह जगत शांति का, आनंद का, प्रेम का, ब्लेस का, सत्य का, आलोक का जगत है। उस पूरे जगत का नाम कोई कुछ भी दे–मोक्ष कहे, निर्वाण कहे, परमात्मा कहे, ब्रह्म कहे, जो चाहे कोई कुछ कहे। उस जगत का कोई भी नाम नहीं है इसलिए कोई भी नाम काम कर देगा। लेकिन सोए आदमियों की दुनिया भी नामों पर लड़ रही है, रिचुअल्स पर लड़ रही है, क्रियाकांड पर लड़ रही है।
मेरी दृष्टि में एक ही धर्म है, और वह धर्म है–जागने का धर्म। रूपांतरण की प्रक्रिया जागे हुए जीने में है। इसे ही मैं साधना कहता हूं–इसे ही योग!
‘शिक्षाः साध्य और साधन’ विषय पर प्रश्नोत्तर-शृंखला-8
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